''कसे न माँद कि दीगरब तेग़े नाज कुशी,
मगर कि जिंदाम कुनी ख़ल्क राव बाज कुशी।
(तेरे प्रेम की तलवार ने अब किसी को जिंदाव न छोड़ा, अब तो तेरे लिए इसके सिवा
और कोई उपाय नहीं कि तू मुर्दों को फिर से जिला दे और फिर उन्हें मारना शुरू
कर दे)
नादिरशाह की बर्बरता से आहत उनके वजीर ने जान हथेली पर रखकर यह शेर सुनाया था।
इस शेर ने नादिरशाह के हृदय को छू लिया और कत्ले आम बंद हो गया। शेर
सुनानेवालों की कमी तो आज भी नहीं है, परंतु बाजार के मसीहाओं के पास हृदय
नहीं है। कत्लेलआम ने बेबसी के आलम में आत्महत्या की शक्ल अख्ति़यार कर ली है।
साँप भी मर रहा है और लाठी भी नहीं टूट रही है।''1 दरअसल जब मानवीय
संवेदनाएँ भी बाजार की वस्तु् के रूप में इस्तेमाल की जाने लगे तो, वहाँ आम
आदमी के दर्द व अन्याय पर बोलने वाला कोई नहीं है। एक समय था जब साहित्यिकार
सरीखे समाज के बुद्धिजीवी आम इंसान के दर्द को न सिर्फ बयाँ करते थे अपितु
समाज को जागरूक करना अपना फर्ज समझते थे। यह तो सच ही प्रतीत होता है कि समाज
का अधिसंख्य तबका अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को पाने के लिए जद्दोजहद कर रहा हो
वहीं नव धनकुबेर उन्हें लील लेने को तत्पर हैं तो अन्नअ उत्पादक वर्ग भी गरीबी
और बेकारी की बेवसी से उबकर आत्महत्या करने को प्रवृत्त हो रहे हैं। ऐसे में
लगता है कि आज से तकरीबन सौ वर्ष पूर्व प्रेमचंद ने किसानों की बदहाली पर कलम
चलाते हुए 'गोदान' की रचना की। सौ साल बाद भी किसानों की स्थिति में खासा
बदलाव नहीं आया है। जब भी गाँव, किसान की बात की जाती है तो प्रेमचंद के
साहित्य में वर्णित किसान की याद आती है और यह सोचने को विवश हो जाता हूँ कि
क्या गाँव व किसानों के विकास के बारे में कुछ सोचा जा रहा है या सिर्फ
ढिंढोरा ही पीटा जाता है।
प्रेमचंद का कथा साहित्य सच्चे अर्थों में तत्कालीन समाज का अमूल्य दस्तावेज
है और आज भी अधिकांशतः उसी रूप में सार्थक व प्रासंगिक बना हुआ है, क्योंकि
बहुत सीमा तक समाज भी वहीं का वहीं है। समाज की जो चिंताएँ उस समय थीं आज और
भी वीभत्स रूप में हमारे समक्ष प्रस्तुत हैं। हालाँकि समाज पिछले दो दशकों से
वहीं का वहीं नहीं है, तीव्रता से बदल रहा है, नए युग का नया अर्थशास्त्र
आमूल-चूल बदल गया है। यह अर्थशास्त्र हमारे जीवन को नियंत्रित, संचालित व
रूपायित भी करता है। बदलाव की गति की तीव्रता भी अपने आप में ऐसी मजबूत शक्ति
के रूप में उभरी है, जहाँ मानवता व संवेदना को एक सिरे से खारिज करती है, यही
कारण है कि सांप्रदायिकता, संकीर्णतावाद और साम्राज्यवाद तीनों भयावह रूप ले
रहे हैं।
प्रेमचंद के गोदान में वर्णित गाय की लालसा या ईदगाह में हमीद द्वारा सीमित
पैसों से चिमटा खरीद कर लाना उपयोगितावाद की संकल्पना को साकार करती है जबकि
आज उपभोक्तावादी दौर में भोग, लिप्सा, हिंसा जैसे अमानवीयता के दर्शन प्रमुखता
से देखे जा रहे हैं। जिस प्रकार होरी को दुश्मन नहीं दिखता उसी प्रकार आज
साम्राज्यवादी युग में दुश्मन नहीं दिख रहा है। छिपी ताकतें हमें नए तरीके से
गुलामी की बेड़ियों में बाँध रही हैं। विकास के नाम पर ग्लोबल गाँव की अवधारणा
पर जिस भूमंडलीकरण, निजीकरण, सेज आदि की बात की जा रही है, बहुराष्ट्रीय
कंपनियों को न्यौता देकर उत्पादक वर्ग को नकारा जा रहा है। भूमंडलीकरण से उपजे
'तथाकथित विकास' के किरण की छाप आम जनता पर नहीं अपितु समाज के चंद हिस्सों पर
पड़ रही है। इससे मात्र 20 फीसदी लोग ही प्रत्यक्ष रूप से लाभांवित हो रहे हैं
बाकी 80 प्रतिशत जनता पर इसका कोई असर नहीं पड़ रहा है। यही कारण है कि अमीरी
और गरीबी के असमानता की खाई बहुत चौड़ी होती जा रही है। हम उम्मीद लगाए बैठे
हैं कि कोई तो हमारे दुख-दर्द को समझेगा और विकास की यात्रा में सहचर बनाएगा,
पर यहाँ बहुत ही साफ है कि उम्मीद आखिर किससे करें\ सरकार, पत्रकार या
पूँजीपति तबके (मल, हनेशनल्स) से। पूँजीपति बाजार के सिद्धांतों पर लाभ-मुनाफे
के गणित को तरजीह देता है। जिस सरकार से आप उम्मीद कर रहे हैं, वे अपना खोखा
भरने में व्यस्त हैं, उन्हें कहाँ चिंता है - आम जन के विकास की। अगर उन्हें
चिंता होती तो हजारों करोड़ का घोटाला आम बात नहीं होती। एक दैनिक समाचार पत्र
के अनुसार ''भारत के पूर्व संचार मंत्री डी. राजा ने भ्रष्टाचार के मामले में
दुनिया के बड़े-बड़े तानाशाहों को पीछे छोड़ दिया है। 'टाइम' मैगजीन ने
घोटालों और सत्ताच के गलत इस्तेमाल के मामले में राजा को दूसरे नंबर पर रखा
है। राजा ने तो गद्दाफी को भी पीछे पछाड़ दिया है। 'टाइम' के मुताबिक सत्ता का
गलत इस्तेमाल करने वाले शीर्ष 10 लोगों में राजा दूसरे नंबर पर हैं। दुनिया के
घोटालों में अमरीका के पूर्व राष्ट्रपति निक्सन पहले नंबर पर, गद्दाफी इस
बदनाम लिस्ट में चौथे नंबर पर हैं। पाँचवें नंबर पर इजराइल के पूर्व
राष्ट्रापति मोशे कात्सव को कुकर्म का दोषी पाए जाने पर 7 साल कैद की सजा
सुनाई गई।''2 भारत में ऐसे घोटालेबाजों के लिए सजा देने का क्या
कोई कानून है\ कानूनी प्रक्रिया इतनी पेचीदी है कि बीस-बीस वर्ष तक फैसला आने
में लगता है, तबतक वह व्यक्ति आलिशान जिंदगी काटकर स्वर्ग सिधार जाता है। आज
के रावण के सामने पूर्व का रावण बौना दिख रहा है।
राजनीति कर्मियों का झुकाव समाज के विकास की बजाय अपना विकास करने की ओर रहता
है। चुनाव के समय झूठे वायदे कर वोट माँगने वाले राजनीतिक पार्टियाँ मल्टी
नेशनल्स के आगे नतमस्तक हैं। क्या यह सत्य नहीं है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों
को न्यौता देकर उत्पादक वर्ग को नकारा जा रहा है। नेतागण पूँजीपतियों के साथ
साँठ-गाँठ में लगे हैं, यही कारण है कि गाँव व किसान आत्मनिर्भर होने के
बुनियादी सच को हाशियाकृत कर दिया गया और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के आवरण को
लोग स्वीकारने लगे हैं। बहुराष्ट्रीय कंपनियों का झुकाव आधुनिक प्रौद्योगिकी व
संचार प्रणाली के माध्यम से बाजार पर कब्जा करने का है। वह मनुष्य को महज
खरीददार या उपभोक्ता और देश को महज बाजार बनाना चाहते हैं। इसलिए तो प्रेमचंद
पूँजीपतियों द्वारा बाजार के माध्यम से कैसे मानवीय मूल्यों को भी बाजारीय
प्रक्रिया के हवाले किया जा रहा है, पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहते
हैं कि ''हमें केवल धन कमाना है और हम बाजा़र में ऐसी चीज रखना चाहते हैं जो
ज्यादा से ज्यादा बिक सके।''3 यही कारण है कि माल बेचने की जुगत ने
समूची मानव जाति को खरीददार बना दिया है। आज हर विज्ञापन के पीछे स्त्री को
उत्तेजक रूप में प्रस्तुत किया जाता है। प्रगतिशीलता व नारी मुक्ति का तमगा
लगाए स्त्रियाँ यह कहेंगी कि आखिर देह हमारी है, स्वच्छंदता तो हमारी होनी ही
चाहिए कि हम जैसा चाहें, रहें। लेकिन यह सहज व स्वाभाविक प्रतीत नहीं होता है।
हमें यह जानना होगा कि आखिर उनके स्वच्छंदता को भुना कौन रहा है और वह किसके
लिए इस्तेमाल हो रही है/ क्या वे विज्ञापनों में कामुकता का प्रदर्शन करके
बाजारीय ताकतों को तवज्जो नहीं दे रही हैं\ प्रेमचंद बाजार के इस नंगे सच को
पहचानते हैं और आहत होते हैं। वे तो कहते हैं कि ''लक्ष्मी देवी नहीं डायन
हैं।'' लक्ष्मी को देवी के पद से स्ख लित करके 'डायन' कहना प्रेमचंद के ही
बूते की बात थी। प्रेमचंद हर कुपरंपरा को तोड़ने के लिए बेखौफ खड़े हैं। वे
लिखते हैं कि 'दुकानों पर रूपवती युवतियाँ बैठाई जाती हैं ताकि ग्राहकों की
कामुकता को उत्तेजित करके एक पैसे की चीज को दो पैसे में वसूल की जाए।'' 4 हमें यह कहने में गुरेज नहीं कि सबकुछ बाजार के एजेंडे पर हो रहा
है। हमें सोचना होगा कि क्या होरी की मृत्यु सहज या स्वाभाविक है या इस मृत्यु
की जिम्मेदार कुछ शक्तियाँ हैं\ 'ग्लोबल गाँव' का नारा देते भूमंडलीकरण की
शक्तियों के बीच ही हजारों भारतीय किसानों की आत्महत्या का जिम्मेदार कौन है\
हमें मृत्यु, हत्या और आत्महत्या के कारकों की पहचान करना तथा उसे मिटाने के
लिए संकल्प लेना आवश्यक है या नहीं\ किसानों की ऋणग्रस्तता और उसे चुका न
पाने के कारण क्या हैं\ इसमें क्या बैंकों की बैंक पूँजी की, सरकारी नीतियों
की भूमिका नहीं है\ संचार क्रांति की चकमक लहर में किसान आभासी व विलासी
जिंदगी जीने को लालायित होता है। जीवन स्तंर में परिवर्तन लाने की ललक में
किसान बैकों से लिए गए ऋण को पूरी तरह से खेती-बाड़ी के विकास में व्यय करने
के बजाय चमक-दमक की जिंदगी जीने में स्वाहा कर देते हैं। इसके चलते न वह ठीक
समय से ऋण की अदायगी कर पाते हैं न अपने रेहन की जमीन, मकान आदि बचा पाते हैं।
विदर्भ के किसान तकरीबन 20 वर्ष पूर्व तक खाद्य फसल लगाते रहे, वे भूख से नहीं
मरते थे। भूमंडलीकरण की चमक-दमक ने उन्हें जल्दी ही अमीर बनने की ललक पैदा की,
वे नगदी फसल कपास उगाने पर जोर देने लगे। क्योंकि यहाँ के कपास की माँग पश्चिम
के देशों में बहुत होती है। अधिक पैदावार करने की लालसा में किसानों ने
बहुराष्ट्रीय कंपनियों से बीटी कॉटन के कपास बीज लगाए। कपास की फसल ने धोखा
दिया, कपास की खेती करने वाले किसानों के पास आत्मसहत्या के सिवाय कुछ बचा ही
नहीं। यह भी देखने में आया कि जो भी किसान आत्महत्या कर रहे हैं - वे
खाते-पीते घर के हैं, उनके पास अपनी जमीन है, निम्न वर्ग के किसान आत्महत्या
नहीं कर रहे हैं। अधिक पैदावार होने की आस में वे कर्ज लेकर खेती करते हैं।
ब्याज, चक्रवृद्धि की दर से बढ़ता चला जाता है, जो बाद में इतना भारी भरकम हो
जाता है कि उसे भुगतान न कर पाने की असमर्थता में वह आत्माहत्या करने को विवश
हो जाता है। यहाँ यह कहना समीचीन प्रतीत होता है कि चाहे यह बातें पूरी सच न
भी हो पर इसकी आंशिक सच्चाई से तो इंकार नहीं किया जा सकता। जो भी हो ऋण पर
ब्याज बढ़ते चले जाने से उसकी अदायगी तो कठिन ही नहीं बल्कि असंभव हो उठती है।
यहाँ प्रेमचंद द्वारा किसानों के उस महाजनी रूपी ऋण, जिससे कि जमीन, मकान
गिरवी रखकर महाजनों द्वारा कर्ज दिए जाने की बात याद आ जाती हैं, गोदान के
गोबर की तरह दातादीन से कहते हैं कि - ''यहाँ कोई किसी का चाकर नहीं, सभी
बराबर हैं; किसी को सौ रुपये उधार दे दिए और उसके सूद से जिंदगी भर काम लेते
रहे। मूल ज्यो का त्यों। यह महाजनी नहीं, खून चूसना है।''5 वहाँ पर
किसान कर्ज लेते समय अपनी जमीन, मकान गिरवी, रेहन पर रखने से मुक्तय नहीं था
और यहाँ भी सरकारी बैंकों से ऋण उठाते वक्त अपनी जमीन रेहन रखने से मुक्ती
नहीं हैं, भले ही महाजनी ऋण की अदेयता यहाँ ऋण पर ब्याज की दर कम हो मगर उसे
इस बात की छूट तो यहाँ भी नहीं है कि सरकारी बैंकों के ऋण की अदायगी में
प्राकृतिक आपदा से फसल मारी जाने की स्थिति में न करना पड़े। प्रेमचंद इस देश
की अधिकांश स्थितियों का सौ बरस पहले जिस तरहा चित्रण कर गए, उनका रूप आज
सुरसा के मुख की तरह बढ़ता ही चला गया है। विदेशी सत्ता में आम आदमी और
किसानों की जो प्रगति-दुर्गति थी, अब कितना गुणा बढ़ चुका है इसका लेखा-जोखा
करना यहाँ कठिन है। किसानों के सिलसिले में ही देख लीजिए ऋण की अदायगी न भरने
की स्थिति में किसानों की जमीन और मकान तब भी कुर्क होते थे आज बैंकों के आतंक
से वे आत्महत्या कर रहे होते हैं।
यहाँ हमें यह सोचने को विवश होना पड़ता है कि होरी खेतिहर किसान से मजदूर बनने
को कैसे विवश हुआ और बदले में होरी जैसे किसानों की जमीन हड़पकर दातादीन सरीखे
पुरोहित, महाजन कैसे बन गए\ प्रेमचंद के जमाने में महाजनी सभ्यता समाज के
किसानों का रक्त चूषक थी आज पश्चिमी सभ्यता खासकर पूँजीपति तबका (बहुराष्ट्रीय
कंपनियाँ अपने उत्पादों के साथ) शोषक की तरह हमारे बेडरूम तक में पहुँच चुका
है। बेशुमार उत्पादन और शुद्ध मुनाफा कमाने की होड़ में वे हमें अपने उसूलों
से तोड़ रहे हैं। आज महाजनी सभ्यता ने अपने मुखौटे बदल लिए हैं। ''इस महाजनी
सभ्यता में सारे कामों की गरज महज पैसा होती है। किसी देश पर राज्य किया जाता
है तो इसलिए कि महाजनों-पूँजीपतियों को ज्यादा से ज्यादा नफा हो। मनुष्य -
समाज दो भागों में बँट गया है। बड़ा हिस्सा तो मरने-खपने वालों का है और बहुत
छोटा हिस्सा उन लोगों का है जो अपनी शक्ति और प्रभाव से बड़े समुदाय को वश में
किए हैं (महाजनी सभ्यता, प्रेमचंद, सितंबर 1936, हंस)। महाजनी सभ्यता अर्थात
पूँजीवाद और पूँजीवाद के शब्दकोश में दया, करुणा और सहानुभूति जैसे शब्द होते
ही नहीं हैं। लाभ प्राप्त के उद्देश्य में यह ऐसी किसी भावना को आड़े नहीं आने
देता है। गरीबों का दोहन लगातार होता है। एक सीधी-सादी जिंदगी बसर करने वाला
देहाती अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बाजार का बहुत बड़ा आसामी है। इस मनोवृति को
प्रेमचंद बखूबी समझते हैं। 'देहाती किसानों की ज्यादातर जरूरतें कर्ज लेकर ही
पूरी होती हैं। अगर आज आप किसी किसान को पचास रुपये उधार दे दीजिए तो वह बिना
सोचे कि मुझमें इस चीज को खरीदने की योग्यता है या नहीं, फौरन मोल ले लेता है।
विलायतियों ने देहातियों के इस स्वभाव को बखूबी समझ लिया है', (देशी चीजों का
प्रचार कैसे बढ़ सकता है, सन 1905 जमाना) सौ साल बाद भी यह लगता है, बात आज की
और टटके संदर्भों को लेकर की गई है।''6
वैश्वीकरण और भारतीय अर्थव्यवस्था में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रवेश भारत
के लघु उद्योगों के लिए विनाशकारी सिद्ध हो रहा है। प्रेमचंद तो आधुनिक मशीनों
को दानव कहते हैं। ''इस दबाव के प्रभुत्व और व्यापार नाम की दो लाल आँखें हैं।
कोई इसके घेरे में आ जाए यह उसे देखते-देखते निगल जाएगी, उसे पीस डालेगी।
आधुनिक राष्ट्र ने संसार में एक रक्ताक्तघ जीवन-संघर्ष छेड़ दिया है।'' 7 आजादी के मायने क्या\ यह कोई किसान क्या जाने\ वे तो आज भी
दाने-दाने को मोहताज हैं। खलिहान में फसल आने के बाद भी खुशी नहीं है क्यों कि
सब तो महाजनों का है। प्रेमचंद ने किसानों की दुर्दशा को उजागर करते हुए लिखा
है कि ''जेठ के दिन हैं अभी तक खलिहानों में अनाज मौजूद हैं, मगर किसी के
चेहरे पर खुशी नहीं है। बहुत कुछ तो खलिहान में ही तुल कर महाजनों और कारिंदों
की भेंट हो चुका है और जो कुछ बचा है वह भी दूसरों का है, भविष्य अंधकार की
भाँति उनके सामने है। उन्हें कोई रास्ता नहीं सूझता। उनकी सारी चेतनाएँ शिथिल
हो गई हैं। ...सामने जो कुछ मोटा झोटा आ जाता है वह खा लेते हैं, उसी तरह जैसे
इंजन कोयला खा लेता है। उनके बैल चूनी चोकर के बगैर नाँद में मुँह नहीं डालते;
मगर उन्हें केवल पेट में कुछ डालने को चाहिए, स्वाद से उन्हें कोई प्रयोजन
नहीं। उनकी रसना मर चुकी है। उनके जीवन में स्वाद का लोप हो गया है। उनके
धेले-धेले के लिए बेईमानी करवा लो मुट्ठी भर अनाज के लिए लाठियाँ चलवा लो। पतन
की यह इंतहा है; जब आदमी शर्म और इज्जत को भूल जाता है।''8
आजादी के 63 वर्षों के बाद भी हम किसानों की स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं
ला सके। सरकार कहती है कि देश खाद्यान्न' में आत्मनिर्भर है, हमारे पास अनाज
रखने को गोदाम कम पड़ रहे हैं। फोर्ब्स पत्रिका में शामिल 200 अमीरों में 44
भारतीय हैं हालाँकि यह अलग बात है कि 77 प्रतिशत भारतीय 20 रुपये में ही
गुजारा करने को विवश हैं। भारत की भूखमरी ऐसी है कि जो मजदूर कठिन परिश्रम
करते हैं उनको मात्र 1600 कैलोरी ही मिल पाता है, कम कैलोरी मिलने से वे रोग
से ग्रसित होते हैं, सरकार कहती है कि ये मौतें बीमारी की वजह से हुई हैं,
यहाँ यह कहना समीचीन होगा कि हर 28 मिनट पर देश में एक किसान आत्महत्या कर
लेता है, इस प्रकार की मौतें खबर नहीं बन पाती हैं, आखिर क्यों। दरअसल मीडिया
पर धनकुबेरों का कब्जा हैं वे अपने हितार्थ में खबर परोसते हैं। जाने-माने
पत्रकार पी. साईनाथ ने एक बार राजेंद्र माथुर स्मृति व्याख्यान देते हुए
दिल्ली में बताया था कि ''जब मुंबई में (वर्ष 2007) लेक्मे. फैशन वीक में कपास
से बने सूती कपड़ों का प्रदर्शन किया जा रहा था लगभग उसी दौरान विदर्भ में
किसान कपास की वजह से आत्महत्या कर रहे थे। इन दोनों घटनाओं की सबसे बड़ी
विडंबना यह है कि 'फैशन वीक' को कवर करने के लिए जहाँ कोई 512 मान्याता
प्राप्त पत्रकार पूरे हफ्ते मुंबई में डटे रहे और कोई 100 पत्रकार रोजाना
प्रवेश-पत्र लेकर आते-जाते रहे वहीं विदर्भ के किसानों की आत्महत्या को कवर
करने के लिए, बमुश्किल 6 पत्रकार ही पूरे देश से पहुँच पाए।''9
मीडिया पर नियंत्रणकारी तबका तो बहुराष्ट्रीय निगमों के मालिकान हैं। उन्हें
क्या मतलब है, किसी गरीब के दुख-दर्द को बयाँ करने की (वे तो येन-केन-प्रकारेण
मुनाफा ही देखेंगे। गाँवों की स्थिति को देखते हुए कहा जा सकता है कि ''गाँव
आज भी रूढ़ि-जर्जर और बदहाल है। समाज में गैर-बराबरी बढ़ी है। आधी से ज्यादा
जनता गरीबी की रेखा के नीचे जी रही है और समाज के चंद तबके भौतिक सुख भोग कर
जीवन का आनंद ले रहे हैं। एक खा रहा है, करोड़ों उसे खाते हुए महज देख रहे
हैं। राजनेता जनता का प्रतिनिधि अपने को कहने वाले जनता से वोट माँगने वाले
करोड़पति हैं, जनता दरिद्र, जीवन की बुनियादी जरूरतों से भी वंचित। जातिवाद का
कोढ़ सारे समाज में फैला है। अज्ञान और अशिक्षा से जकड़ा साधारण जन हताश और
कुंठित है। युवा शक्ति आदर्श विहीन अनिश्चित भविष्यल के जबड़े में फँसी है।
भ्रष्टाधचार का दानव समूचे देश को लील लेने को तत्पयर है, अपराधियों का तंत्र
एक छोर से दूसरे छोर तक फैला है। देश, विदेशी ऋण के जाल में फँसा है।
अपसंस्कृति का सैलाब सबको समेटने के लिए तत्पर है। प्रेमचंद आजादी की लड़ाई
में आर्थिक-सामाजिक सवालों को जोड़ना चाहते थे, सामंती मानसिकता से अलग देश और
जनता को आधुनिक संस्कार देना चाहते थे। शासक वर्ग ने आजादी मिलने के बाद भी
आर्थिक-सामाजिक सवालों को हाशिए पर रखा क्योंकि पिछड़ी हुई अज्ञ, गरीब और
जाहिल जनता के चलते ही वे अपनी कुर्सी को बरकरार रख सकते थे। वही उन्होंने
किया। सांप्रदायिक दंगे व रक्तपात आज के जीवन की वास्तविकताएँ हैं।'' 10
यह तो सच है कि हम उपभोक्तावादी सभ्यता के कदमताल में विदेशी पूँजी के आगे
झुकते हैं, सब अमेरिकी छाता के नीचे नतमस्तक हैं, आखिर क्यों\ आज किसान को
मजदूर बनने और उन्हें निगल जाने के लिए कई अदृश्य ताकतें संगठित व एकजुट हैं।
भारतीय किसान प्राकृतिक विपत्तियों व सामाजिक आततायी शक्तियों को सदैव झेलता
रहता है। गोदान में कहीं प्राकृतिक विपत्ति नहीं है, यहाँ सामाजिक शक्तियाँ सब
कुछ नष्ट कर रही हैं। किसानों को मारने का सिलसिला केवल बढ़ा ही नहीं है अपितु
स्थिति इतनी भयावह हो चुकी है कि वे सपरिवार आत्माहत्या करने को विवश हो रहे
हैं। यहाँ गौर करने की बात यह है कि क्या आत्महत्या करने वाले किसानों वाले
राज्य में गरीबी है\ अन्य राज्यों में गरीबी नहीं है। कहा जाता है कि सरकार
किसानों के विकास के लिए कई योजनाएँ बनाकर उनके विकास के बारे में सोच रही है
पर यहाँ यह कहना समीचीन होगा कि सरकार किसानों के लिए योजना तो बनाती है पर
इसका लाभ खेतिहर उठा रहे हैं। प्रेमचंद भी खेतिहर शब्द का जिक्र करते हैं। उस
समय खेती करने वाले किसान के संदर्भ में वे खेतिहर शब्द का इस्तेमाल करते हैं,
आज खेतिहर से तात्पर्य है - बाजार के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए उत्पादन
करना। ''अर्थशास्त्र में दो शब्द हैं - 'किसान' (पेजेंट) और 'खेतिहर'
(फॉर्मर)। यद्यपि आम बोलचाल में उनमें फर्क नहीं किया जाता फिर भी वे एक-दूसरे
के उसी तरह पर्यावाची नहीं हैं जैसे 'मूल्य' और 'कीमत'। किसी भी गंभीर और
वैज्ञानिक विमर्श में इनमें अंतर करना बेहद जरूरी है। किसान मानव सभ्यता के
साथ तब से जुड़ा है जबकि खेतिहर का आगमन पूँजीवादी उत्पादन अर्थात बाजार में
उत्पाद बेचकर मुनाफा कमाने की प्रवृति के हावी होने के साथ हुआ।'' 11 साधारणतः किसान का अपनी जोत पर अधिकार होता है और वह अपने
परिवार के सदस्यों या रिश्तेदारों के श्रम के आधार पर कृषि कार्य संपन्न करता
है। उसके उत्पादन का उद्देश्य अपने परिवार की उपभोग-संबंधी आवश्यकताओं को पूरा
करने के साथ मवेशियों का पालन व अगली बुवाई के लिए बीज का प्रबंध करना होता है
जबकि उन्नीसवीं सदी के अंतिम दशकों में पैसेवालों ने कृषि भूमि खरीदकर भाड़े
के मजदूरों के आधार पर बाजार के लिए उत्पादन करना शुरू किया। भ्रष्टाचारी
ब्यू-रोक्रेट्स, नौकरीपेशा व अन्य लोगों ने अचल संपत्ति के रूप में जमीन
खरीदकर जमींदार के रूप में समाज के समक्ष उभरे। ''आजादी के बाद भूमि सुधार
कानूनों में छोड़े गए चोर-दरवाजों का इस्तेमाल कर अनेक पूर्व जमींदारों,
ताल्लुकेदारों और जागीरदारों ने अपने को बड़े खेतिहरों में बदल दिया। छोटे,
विशेषकर सीमांत किसानों ने खेती से गुजारा न होने की स्थिति में शहर का रुख
किया और उनकी जमीन ले दूसरे खेतिहर बन गए। इन सब परिवर्तनों के फलस्वरूप किसान
तेजी से लुप्त होने लगे और उनकी जगह खेतिहर आने लगे।''12 क्या यह
सही नहीं है कि किसान खेती छोड़ शहर की ओर रुख कर रहे हैं। ''प्रख्यात
इतिहासकार एरिक हॉब्सबॉम ने अपनी पुस्त क 'ग्लोबलाइजेशन, डेमोक्रेसी एंड
टेररिज्म' में किसान के लुप्त होने और उसकी जगह खेतिहर के आने की परिघटना का
विश्लेषण प्रस्तुत किया है। उन्होंने बतलाया है कि इंडोनेशिया में किसानों का
अनुपात 67 प्रतिशत से 44, पाकिस्तान में 50 प्रतिशत से कम, तुर्की में 75
प्रतिशत से घटकर 33, फिलीपींस में 53 प्रतिशत से घटकर 37, थाईलैंड में 82
प्रतिशत से 46 और मलेशिया में 51 प्रतिशत से 18 प्रतिशत रह गया है। चीन की कुल
आबादी में किसान 1950 में 86 प्रतिशत थे, जो 2006 में 50 प्रतिशत हो गए।
बांग्लातदेश, म्यांमार आदि में 60 प्रतिशत जनसंख्या किसानों की है। भारत में
यह संख्या काफी घट गई है जो कभी 80 प्रतिशत से अधिक थी।''13
किसानगिरी की प्रतिशतता में कमी क्या शोचनीय प्रश्न नहीं है। यह हवाला दिया
जाता रहा है कि हरित क्रांति के बाद किसानों ने फसलों की पैदावार कर खाद्यान्न
में देश को आत्मनिर्भर बनाया है। ''हरित क्रांति ने हरियाणा, पश्चिमी उत्तर
प्रदेश, पंजाब, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्रप्रदेश और कर्नाटक में किसानों को
अपदस्थ, कर खेतिहरों को बिठा दिया।
पिछले कुछ वर्षों से 'कांट्रेक्ट फार्मिंग' या ठेके पर खेती का धंधा शुरू हुआ
है। जिसके तहत बड़ी कंपनियाँ कृषि क्षेत्र में आ गई हैं जो उत्पादन कर अपना
प्रोसेसिंग का कारोबार कर अधिकांशतया डिब्बाबंद उत्पाद बाजार में लाते हैं।
उत्ततर प्रदेश व बिहार के गन्ना उत्पादक और विदर्भ के कपास उगाने वाले किसान
नहीं खेतिहर हैं।''14 यह तो सच है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के
मालिकान खेतिहरों को पूँजी व उपकरण मुहैया कराकर उत्पादन पर भी कब्जा' करने
में जुट गए हैं। वे उत्पाद माल पर अपना रैपर डाल कर बाजार में उतारती है और
मोटे दामों में बेचती है। ''वाल स्ट्रीट जर्नल (10 जून 2009) में छपी एक
रिपोर्ट के अनुसार, बहुराष्ट्रीय निगमों ने अपने माल बेचने के लिए दूरदराज के
ऐसे गाँवों में घुसना शुरू किया है जहाँ सड़क खस्ता हाल है, बिजली नदारद है और
टेलीविजन एवं इंटरनेट की सुविधा का सवाल ही नहीं उठता। अखबार देर-सबेर आ जाता
है। इस स्थिति को देखते हुए उन्होंने पुराने तरीकों का सहारा लिया है। गायक और
कथावाचक युवकों को काम पर लगाया है जो गायन-वादन और किस्से-कहानियों के सहारे
भीड़ जमा करते हैं और आधुनिक उपभोक्ता उत्पादों के बारे में बतलाते हैं, उनके
गुणों का बखान करते और ग्रामवासियों को उनके फायदे बतला उन्हें खरीदने के लिए
प्रोत्साहित करते हैं। गाँवों के स्कूलों में जा वे छात्रों को नेस्ले के नूडल
खिलाने के लिए प्रेरित करते हैं। यूनिलीवर के साबुन और क्रीम के साथ ही
दंतमंजन और कंडोम का प्रचार करते और उनके नमूने मुफ्त बाँटते हैं। 'वालस्ट्री
ट जर्नल' के एरिक बैल्लऔमैन के शब्दोंत में 'भयंकर भूमंडलीय मंदी से अछूते
भारत के ग्रामीण उपभोक्ता अभूतपूर्व रूप से खर्च कर रहे हैं। अन्यत्र सिकुड़ते
हुए बाजार के कारण होने वाली क्षति से बचने के उपाय ढूँढ़ने की उत्सुक
अंतरराष्ट्रीय कंपनियाँ - विक्रेताओं की पूरी फौज भेज रही हैं।''15
उत्पाद कंपनियाँ अपने माल को बाजार में खपाना जानती हैं और उसे पता है कि कैसे
इनके पॉकेट से पैसा निकाला जा सकता है। इसे एक-दो उदाहरणों से समझा जा सकता
है। एक विदेशी कंपनी है - 'रीबॉक', जो अपने देश में भी कपड़े, जूते बेचती है।
आजकल वे अखबारों में रंगीन विज्ञापन देते हैं कि 'बैग इट टूडे' के द्वारा आप
अपने घर बैठे सामान प्राप्त करें। सिर्फ रु.2999* दीजिए और पाइए 12,047/- रु.
की स्पोंर्टी स्टाइल किट रीबॉक ट्रेकसूट, रीबॉक जूते, एमटीव्हीत एविएटर चश्मा
और रीबॉक बैग। उसमें अलग-अलग उत्पादों के मूल्य भी दर्ज होते हैं। मेरे दफ्तर
के अधिकारियों ने बुकिंग करवा ली। कोरियर से पार्सल आया तो पता चला कि दो
सामान कम भेजे हैं। उक्त अधिकारी ने शिकायत की तो दुबारा डिब्बे में दो सामान
की जगह एक ही सामान भेजा गया। शिकायतकर्ता जब टेलीफोन से शिकायत दर्ज कर रहे
थे उनका कहना स्पष्ट था कि 'मैंने ईमेल से शिकायत की तो वहाँ पता चला कि कम
सामान प्राप्त करने वाले उपभोक्ताओं के शिकायतों की एक लंबी फेहरिस्त है।'
हमारे कार्यालय में ही पहले भी कई अधिकारी इसके शिकार हो चुके थे, चर्चा के
दौरान उनका कहना स्पष्ट था कि कौन सामान के पीछे भागे, शिकायत करे, भेजता है
या नहीं, इस इंतजार में रहो। ...इसी प्रकार मोबाइल सेवा प्रदाता कंपनियाँ
अनइच्छित सेवा प्रदान करने के नाम पर आपके बैलेंस से रुपये काट लेती है। इस
प्रकार की घटना कई लोगों से सुनने को मिली। जब मैंने शिकायत किया तो कस्टमर
केयर तथाकथित सेवा देने वाले सज्ज्न तीन-पाँच कर निकलना चाह रहे थे, उन्हेंप
डांट-फटकार लगाई तो वरीय अधिकारी को टेलीफोन लाइन दे दिया। मुझे उनको ये कहना
पड़ा कि आपको बिना बताए मेरे बैंलेस से रुपये काटने का अधिकार किसने दिया, तो
उनका कहना था कि आपको अमुक सेवाएँ दी जा रही हैं, इसके एवज में पैसा काटा जा
रहा होगा तो मैंने कहा कि ये सेवा मैं लेता नहीं हूँ। फिर तो ये चार सौ बीसी
का मामला बनता है, मैं जर्नलिस्ट हूँ और मेरे सामने एक एडवोकेट बैठे हैं। मैं
आपके कंपनी पर मुकदमा दायर कर रहा हूँ। कृपया आप अपना नाम बता दीजिए। वो महाशय
हड़कंप में आ गए। आनन-फानन में मेरे पैसे वापस किए। मैंने जब सवाल किया कि ऐसे
तो आप करोड़ो उपभोक्ताओं का पैसे काटते हैं बमुश्किल से 5 प्रतिशत हम जैसे लोग
आपसे पैसे वापस करवा पाते हैं। तो आप दिन में आम जनता को कितने करोड़ का चूना
लगा देते हैं। मजेदार बात देखिये जनाब का उत्तेर था आपके प्रोब्लम को सोल्भकर
दिया न, दूसरों की बात को छोड़ दीजिए। तो ऐसे कारनामा कर ये बहुराष्ट्रीय
कंपनियाँ करोड़ों का चूना लगा देती हैं और हम चुप रहते हैं। वो तो हमें संगठित
भी नहीं होने देते। ऐसे में सिविल सोसायटी या बौद्धिक वर्गों को किसानों के
पतन के पीछे जिम्मेदार कारकों की पहचान कर उत्पादक वर्ग को आर्थिक रूप से
सुदृढ़ करने की पहल करने की जरूरत है। किसानों के हक के लिए कौन आगे आएँ, यह
एक बड़ा मुद्दा है, लेकिन बेजुबान किसानों का कोई दबाव समूह भी नहीं है।
प्रेमचंद ने 1919 ई. में 'जमाना' में एक लेख लिखा कि इस देश में 90 प्रतिशत
किसान हैं और किसान सभा नहीं है।
किसानों की समस्याओं पर विमर्श करते समय प्रेमचंद के समक्ष प्रस्तुत होना
पड़ेगा क्योंकि उनके किसान कागज पर उतारे गए काल्पनिक किसान नहीं हैं अपितु
भारत देश की धरती पर रोते-हँसते बोलते-बतियाते किसानों का चित्रण है। किसानों
की स्थिति पर चिंता जाहिर करते हुए वे लिखते हैं कि - ''वही जो राष्ट्रा के
अन्ना और वस्त्रदाता हैं भरपेट अन्न को तरसते हैं, जाड़े-पाले में ठिठुरते हैं
और मक्खियों की तरह मरते हैं। आप किसी गाँव में निकल जाइए आपको खोजने से भी
हष्ट-पुष्ट आदमी न मिलेगा। न किसी के देह पर मांस है न कपड़ा। मानो चलते-फिरते
कंकाल हों। उनकी जिंदगी में खुशहाली आए, यही बात प्रेमचंद के जेहन में थी,
जिसकी उपलाब्धि के लिए वे जीवन पर्यंत पूरे समर्पण भाव से साहित्य-सृजन करते
रहे। आज भी हिंदुस्तान के कोने-कोने से यह खबर आती रहती है कि किसानों की
स्थिति दयनीय है, कि वे कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं, कि वे अपने परिवार का
पेट भरने में असमर्थ हैं, कि अन्नि उगाने वाले ही आज अन्न के लिए मोहताज हैं
और दर-दर की ठोकरें खा रहा है। इस तरह की खबरों से अखबार के पृष्ठ भरे रहते
हैं कि अमुक राज्य के किसान भुखमरी से तंग आकर आत्महत्या। के लिए प्रेरित हो
रहे हैं।''16 उस समय जो स्थिति थी किसानों की, आज भी बहुत हद तक
वहीं का वहीं है। इसलिए यह कहा जा सक ता है कि ''प्रेमचंद आधुनिक हैं वे अपने
समय की समस्याओं के लिए समाधान ढूँढने न वेदों में जाते हैं, न पुराणों में, न
दर्शन में जाते हैं न इतिहास में। वे अपने समय की समस्याओं के समाधान अपने समय
के बीच से ही लाते और ढूँढते हैं। आने वाले समय को वे मजदूर-किसानों का समय
घोषित करते हैं, वे न राम-राज्य में पनाह लेते हैं न गीता में। वे अपने समय से
मुखातिब होते हैं उसी में जीते और संघर्ष करते हैं।''17 इसलिए तो
'होरी के जीवन की अनुभूतियों से प्रेमचंद ने अपनी अनुभूतियों को ऐसा एकाकार कर
लिया था कि उसके जीवन की अंतिम बेला स्वयं प्रेमचंद के जीवन की अंतिम बेला
में रूपांतरित हो गई थी। दूसरों के कष्टों को आत्मसात करने वाले मनीषी तो दिख
जाते हैं लेकिन अपने ही पात्र की मृत्यु की पीड़ा को अपने जीवन में उतारने
वाले और अपने ही पात्र की विधवा के दुर्भाग्य को अपनी पत्नी शिवरानी देवी के
हाथों में कमाने वाले प्रेमचंद अकेले हैं।
प्रेमचंद धन के लोभी नहीं थे, वे 1935 ई.में बंबई में पटकथा लिख रहे थे। अच्छी
कमाई हो रही थी, समाज में व्याप्त कुरीतियों को देखते हुए उन्होंने अच्छी खासी
कमाई छोड़कर गोदान पूरा करने के लिए लौटकर आ गए थे। आज के लेखकों में समाज के
प्रति यह तड़प कम ही देखने को मिलती है। आज समाज में व्याप्त चिंता को उजागर
करने की बजाय प्रशंसा के लिए लेखन कार्य किया जाने लगा है जो साहित्य के मर्म
को नहीं जानता है, साहित्यकार की श्रेणी में शामिल हैं। प्रेमचंद का कहना है
कि राजनीति व समाज के बिना साहित्य की कल्पना नहीं की जा सकती है। आज तो हिंदी
में साहित्यकार के लिए प्रवृत्ति मात्र अलम समझी जाती है और किसी प्रकार की
तैयारी उसके लिए आवश्य क नहीं। वह राजनीति, समाजशस्त्र या मनोविज्ञान से
सर्वथा अपीरिचित हो, फिर भी वह साहित्यकार है।
निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि जिन प्रदेशों में 'साइबर सिटी' का विकास हुआ,
वहीं किसानों की सर्वाधिक आत्महत्याएँ होती हैं, यथा महाराष्ट्र, कर्नाटक,
आंध्र-प्रदेश जहाँ कि प्रौद्योगिकी व संचार क्रांति की लहर से जीवनचर्या में
गुणात्माक ढंग से बदलाव आया। वर्ना बिहार, उड़ीसा, बंगाल के किसान यहाँ के
किसानों की बनस्पति अधिक गरीब हैं। लेकिन वे मेहनत करने से पीछे नहीं हटते।
होरी की केवल एक लालसा थी - गाय की लालसा, जो मन में ही रह गई। होरी को मारने
और भारतीय कृषक को तबाह करने वालों की लालसाएँ अनंत हैं। राजनीति की कुर्सी पर
काबिज लोगों और छिपी ताकतें एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं, नाभिनालबद्ध हैं। देश
से विदेश तक भारतीय किसानों के लिए सरकारी योजनाएँ बनने व क्रियान्वयन में
गरीब किसानों को कितना प्रतिशत लाभ मिलता है, यह बात किसी से छिपी नहीं है।
गोदान के कथ्य में निहित है कि होरी खेतिहर किसान से मजदूर बनने को कैसे विवश
हुआ और बदले में होरी जैसे किसानों की जमीन हड़प कर दातादीन सरीखे पुरोहित
कैसे बन गए? आज बाजारीय शक्ति कैसे गाँवों, किसानों को लील लेने को तत्पर है।
प्रेमचंद कहते हैं कि ''इस महाजनी सभ्यता ने दुनिया में जो नई
रीतियाँ-नीतियाँ चलाई हैं, उनमें सबसे अधिक रक्तत-पिपासु यह व्यवसाय वाला
सिद्धांत है। मियाँ-बीबी में बिजनेस, गुरू-शिष्य में बिजनेस, बाप-बेटे में
बिजनेस, सारे मानवीय, आध्यात्मिक और सामाजिक नेह-नाते समाप्त। आदमी-आदमी के
बीच बस कोई लगाव है तो बस बिजनेस का। लानत है इस बिजनेस पर, दिखावे की
अवश्यकता हर एक की गरदन पर सवार है, कोई हिल नहीं सकता।''18 होरी
की मृत्यु और किसानों की आत्महत्या समाज और राजनीति पर गंभीर चिंतन और विमर्श
के लिए हमें बाध्य करती है। हमें याद आती है एक कवि की यह पंक्ति -
दमन की चक्कीय पीस रहा है यह इंसान...
होरी पड़ा अचेत खेत में,
धनिया खाए पछाड़ रेत में, गोबर भूखा फिरे शहर में,
ऐसी हालत है घर-घर में, प्रेमचंद के बाद दूसरा कौन लिखे गोदान दमन की चक्की
पीस रहा है यह इंसान...
संदर्भ सूची
1. गुप्ता, डॉ. सुशीला, 'प्रेमचंद का रचना संसार' (पुनर्मूल्यांकन),
हिंदुस्तानी प्रचार सभा प्रकाशन, महात्मा गांधी मेमोरियल बिल्डिंग, 7 नेताजी
सुभाष रोड, मुंबई-400002, प्रथम संस्करण, पृ.176
2. दैनिक नवभारत, नागपुर संस्करण, 20 मई 2011
3. गुप्ता, डॉ.सुशीला, 'प्रेमचंद का रचना संसार' (पुनर्मूल्यांकन),
हिंदुस्तानी प्रचार सभा प्रकाशन, महात्मा गांधी मेमोरियल बिल्डिंग, 7 नेताजी
सुभाष रोड, मुंबई-400002, प्रथम संस्कंरण, पृ.180
4. वही, पृ. 181
5. वही, पृ. 79
6. वही, पृ. 178
7. वही, पृ. 179
8. तद्भव, सं.अखिलेश, अंक 11 (अगस्त2, 2004), 18/201, इंदिरानगर, लखनउ-226016
9. योजना, अंक मई 2009, 538, योजना भवन, संसद मार्ग, नई दिल्ली, पृ.13
10. गुप्ता, डॉ.सुशीला, 'प्रेमचंद का रचना संसार' (पुनर्मूल्यांकन),
हिंदुस्तानी प्रचार सभा प्रकाशन, महात्मा गांधी मेमोरियल बिल्डिंग, 7 नेताजी
सुभाष रोड, मुंबई-400002, प्रथम संस्करण, पृ.36
11. बहुवचन, संपादक ए.अरविंदाक्षन, अंक 26-27 (संयुक्तांक) महात्मा गांधी
अंतरराष्ट्री्य हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा-442001(महाराष्ट्र ), पृ.72
12. वही, पृ. 74
13. वही, पृ. 74
14. वही, पृ. 74
15. वही, पृ. 75
16. गुप्ता, डॉ.सुशीला, 'प्रेमचंद का रचना संसार' (पुनर्मूल्यांकन),
हिंदुस्तानी प्रचार सभा प्रकाशन, महात्मा गांधी मेमोरियल बिल्डिंग, 7 नेताजी
सुभाष रोड, मुंबई-400002, प्रथम संस्करण, पृ. प्रस्तावना।
17. वही, पृ. 37
18. वही, पृ. 179