साहित्यिक पत्रिका 'हंस' के कार्यकारी संपादक के रूप में ख्यातिलब्ध कथाकार संजीव ने समाज के झंझावातों से जूझने के लिए कलम को हथियार बनाया। करीब तेरह कथा संग्रह, ग्यारह उपन्यास और चार संपादित पुस्तकों के रचनाकार संजीव ने तकरीबन डेढ़ सौ कहानियाँ लिखीं। उनकी कृतियों पर जी टी वी ने 'काला हीरा' टेली फिल्म तथा दूरदर्शन ने 'अपराध' फिल्म का निर्माण किया है। इतना ही नहीं श्याम बेनेगल निर्देशित फिल्म 'वेलडन अब्बा' भी उनकी कहानी 'फुलवा का पुल' पर अंशतः आधारित है। इन पर अबतक 55 शोध हो चुके हैं। 'कथाक्रम सम्मान', 'इंदु शर्मा स्मृति अंतरराष्ट्रीय सम्मान', 'भिखारी ठाकुर लोक सम्मान', 'पहल सम्मान', 'सुधा स्मृति सम्मान' आदि से सम्मानित संजीव मौजूदा दौर के उन कथाकारों में हैं जिन्होंने आज के समय को अपनी कहानियों में गहरी संवेदनात्मकता के साथ उजागर किया है। उनकी कहानियों के चरित्र हमें आज के यथार्थ की दुनिया के वास्तविक स्वरूप को सामने लाते हैं। उनकी भाषा में ऐंद्रिकता और भाव प्रवणता है। वरिष्ठ साहित्यकार संजीव हाल ही में महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में 'राइटर-इन-रेजीडेंस' के पद पर नियुक्त हुए हैं। विश्वविद्यालय की पत्रिका 'बहुवचन' के सहायक संपादक अमित विश्वास ने 'भूमंडलीकरण और साहित्य' विषय पर बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश -
संजीव जी आप समकालीन हिंदी कथा साहित्य के प्रथम पांक्तेय रचनाकार हैं कृपया हमें अपने लेखन यात्रा के संबंध में बताएँ, हमारी जिज्ञासा यह भी है कि वि ज्ञान का विद्यार्थी होते हुए भी रचनात्मक सजगता आपके सृजन कर्म में साहित्यिक रूझान के प्रति उद्रेक कैसे हुआ?
मेरी लेखन यात्रा मेरे बीहड़ जीवन यात्रा की तरह ही बीहड़ है। सन् 1955 में छठवीं कक्षा से लेखन में रूझान पनपी और यह मेरे जीवन का अभिन्न हिस्सा बनती गई। टुकड़े-टुकड़े समुच्चय करके देखें तो घर का पौराणिक, धार्मिक और किस्से कहानियों से भरा हुआ माहौल, स्कूल व कॉलेज की साहित्यिक गतिविधियाँ, बड़े भैया रामजीवन प्रसाद का खुद कहानीकार होना तथा प्रारंभिक प्रोत्साहन जो प्रतियोगिताओं से लेकर शिक्षकों व संस्थानों तक में फैले हुए हैं, का गहरा योगदान है। भाषा की पहचान से पहले ही भाषा के प्रति सम्मोहन, मानवदर्दी रचनाएँ, ये मेरे लेखन की जमीन थी। पंत मेरे प्रिय कवि थे। प्रेमचंद और सुदर्शन मेरे प्रिय कथाकार। यात्राएँ मेरी संबल थीं और यायावरी प्रकृति, जिसमें बाद में चलकर राहुल सांस्कृत्यायन और बाबा नागार्जुन के अनुसरण और अनुगमन का विशेष योगदान है। यद्यपि मैं इच्छा के विरूद्ध विज्ञान का विद्यार्थी बना दिया गया फिर भी रचनात्मक आधार और रूझान जो पहले से मौजूद थीं वह दिनोंदिन खिलती गईं और विज्ञान ने उसमें जिज्ञासु वृत्ति पैदा कर, विचित्र चमक और गमक भर दी।
साहित्यिक पत्रिका 'हंस' के संपादकीय अनुभव के बारे में बताएँ?
साहित्यिक पत्रिका 'हंस' में कार्यकारी संपादक के रूप में तकरीबन पाँच वर्षों तक राजेंद्र यादव जी के साथ में संपादन किया। वहां सीमित सुविधाओं में काम करता था, कमरा ऊसट था। 'हंस' में रचनाएँ प्रकाशित करवाने के लिए अपने लेखकीय मित्रों, वरिष्ठ मित्रों का दबाव रहता था। दमघोटू परिवेश और दबाव नाको दम रचनाएँ... लेकिन निर्णय स्व विवेक से लेता था। राजेंद्र यादव जी का हस्तक्षेप भारी पड़ता था और अक्सर मैं उन्हें मना नहीं कर पाता था। सामान्य स्थितियों में हमलोग मिल-जुलकर निर्णय लेते थे।
वर्तमान समय में विमर्शों के दबाव में साहित्य को दलित, स्त्री, सांप्रदायिकता और समलैंगिकता जैसे आधुनिक विमर्शों पर केंद्रित किया जा रहा है, एक साहित्यकार के नाते इससे आप कितने सहमत हैं?
साहित्य में कुछ भी वर्जित नहीं है फिर वंचितों के प्रति सहानुभूति तो स्वाभाविक चीज है इसीलिए दलित, स्त्री, सांप्रदायिकता और मालवाद (फंडामेंटलिज्म) साहित्य का उपजीव्य रहेगा ही। इसमें कौन-सी नई बात है। साथ ही समलैंगिकता और बाजारवाद, भोगवाद के द्वारा सेक्स की यौन कुंठा समेत अन्यान्य कुंठाओं और आग्रहों का अवक्षेपण एक स्वाभाविक सी प्रक्रिया है। इसके कंपलशन्स को दरकिनार नहीं कर सकते पर सवाल एक ही बचता है कि कोई भी रचना आपको ले कहाँ जाती है, किस मुकाम पर-ध्वंस के कगार पर या सृजन के पड़ाव पर?
स्त्री, दलित लेखन के विवादित और विभाजित दौर में स्वानुभूति बनाम सहानुभूति मुद्दे पर आपकी व्यक्तिगत राय क्या है?
साहित्य का जन्म ही सहानुभूति, स्वानुभूति, परकाया प्रवेश और उदात्तता से हुआ है। मेरी राय में स्वयं प्रकाश ने 'जन्म' कहानी में नारी के प्रसव का जैसा चित्रण किया है या मोहम्मद आरीफ ने 'लू' और प्रेमचंद ने 'गोदान' में दलित लेखन का जो मानक पेश किया है किसी नारी लेखिका और किसी दलित लेखक ने उससे बड़ी लकीर नहीं खींची तो मैं कैसे मान लूँ कि किसी दलित को ही दलित लेखन और स्त्री को ही स्त्री लेखन करने का अधिकार है? फिर भी स्वअनुभूति की सच्चाइयों को महज सहानुभूति से नहीं जाना जा सकता- इस बात से भी इत्तेफ़ाक रखता हूँ।
क्या आप मानते हैं कि भारतीय साहित्य पाश्चात्य साहित्य से प्रभावित है तथा हिंदी साहित्य में भी गुटबाजी व खेमेबाजी की बू आने लगी है। साथ ही यह बाजारवाद का हिस्सा बन रहा है?
बिल्कुल! आधुनिक काल के हमारे बहुत सारे साहित्यिक आंदोलन पाश्चात्य साहित्य से प्रभावित रहे हैं, यह प्रभाव दिनोंदिन बढ़ता रहा और अज्ञेय, निर्मल वर्मा समेत नई कहानी, अकहानी और तमाम विमर्शों व दर्शनों में फलता-फूलता रहा। रही बात हिंदी में गुटबाजी व खेमेबाजी की तो हमें यह कहने में गुरेज नहीं है कि हिंदी साहित्य में निश्चित रूप से गुटबाजी है। मुंडे-मुंडे मति भिन्ना। आईडेंडिटी क्राइसिस, ईर्ष्या अंधानुकरण और 'मैं ही महान हूँ' के स्वार्थपरक भाव में इसे बल दिया। फलतः किसी पर विचार करते समय अगर उसकी जाति, कुनबा, खेमा पूछा जाने लगे तो इसमें किसी को आश्चर्य होने की कोई बात नहीं है।
ऐसा माना जा रहा है कि वैश्वीकरण के दौर में भारतीय भाषाओं पर खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में आप हिंदी भाषा को लेकर कितने आश्वस्त हैं?
भाषाएँ तो परिवर्तित, परिवर्द्धित होती रहती हैं लेकिन वही भाषा जिंदा रहती है जो उपयोगिता के मानक पर खरी उतरती है। जैसे हिंदी पर अभी हिंग्लिश की काली छाया पसर रही है। हिंदी या भारतीय भाषाएँ अगर रोजी-रोटी की भाषा नहीं बन पाती तो इनके पराभव या मृत्यु को कोई नहीं रोक सकता। संस्कृत तक थोड़ी बहुत बची है तो इसीलिए कि ब्राह्मणों का दाना-पानी का स्रोत है। हमें भाषा के प्रश्न पर भावुकता से हटकर यथार्थपरक रूख अपनाना होगा।
आप एक स्थापित कथाकार हैं, लेकिन आपकी शुरूआत कविता से हुई। आज के दौर के किन-किन कवियों को आप महत्वपूर्ण मानते हैं?
हर लेखक की शुरूआत कविता से होती है- वही भाषा का मोह, संश्लिष्ट रचनाशीलता जिसका इशारा मैंने पहले किया है। आज की कविताएँ मुझे पसंद हैं लेकिन वे कैक्टसी, विदूषी कविताएँ नहीं, वे कविताएँ जो मेरी अपनी लगती हैं - सखी, बहन, बेटी, भाभी और माँ की तरह। अपने पसंद के कवियों में स्मृतिध्वंस के कारण सारे नाम तो नहीं ले पाऊँगा लेकिन कुछ उल्लेखनीय नाम इस प्रकार हो सकते हैं - मदन कश्यप, अनामिका, सुरेश सेन 'निशांत', दिनेश कुशवाहा, जीतेंद्र श्रीवास्तव, देवेंद्र आर्य, हरीशचंद्र पांडेय, हरप्रीत कौर इसके पूर्व अपने पंसद के कवियों की एक लंबी फेहरिस्त है। धूमिल, केदारनाथ सिंह, अदम गोंडवी, नरेश सक्सेना, मंगलेश डबराल बेशुमार नाम हैं। किन-किन का नाम लूं।
वर्तमान में हिंदी साहित्य में; खासकर जो युवा लेखक हैं; उनमें आप कितनी संभावनाएँ देखते हैं?
युवा लेखन में भाषा और शिल्प के विशेष आग्रह है साथ ही युवा लेखक संभावनाओं से भरे हैं। काश सरोकारों से वे विमुख न होते। युवा कथाकारों को पहली बार मैंने ही 2004 में कालिया जी के संपादन में निकल रही पत्रिका 'वागर्थ' में चयनित कर टिप्पणी की थी, बाद में हंस में मुबारक पहला कदम के तहत... कुछ नाम इस प्रकार हैं - विवेक मिश्र, मिथिलेश प्रियदर्शी, विमल चंद्र पांडेय, प्रत्यक्षा, अंजली राय, तरूण भटनागर, दीपक श्रीवास्तव, उमाशंकर चौधरी, किरण सिंह, मनीषा कुलश्रेष्ठ, कुणाल सिंह, चंदन पाण्डेय, मनोज पाण्डेय, राकेश मिश्र में काफी संभावनाएँ हैं।
एक साहित्यकार के रूप में फिल्म के क्षेत्र में आपका क्या योगदान है?
फिल्में मेरे जीवन का महत्वपूर्ण अंग रही हैं। कहानियाँ और उपन्यास लिखते समय भी मैं उन्हें विजुअलाइज करता रहता हूँ। श्याम बेनेगल की फिल्म 'वेलडन अब्बा' यद्यपि मेरी कहानी 'फुलवा का पुल' पर अंशतः आधारित है (जिलानी बानो की 'कुएँ की चोरी' तथा एक अन्य मराठी कथा के साथ)। मगर मैं अभी भी यह महसूस करता हूँ कि पटकथा मैं लिखता तो उस कहानी के व्यंग्य को और भी बेहतर ढ़ंग से प्रस्तुत कर सकता। पिछले दिनों अपने एक फिल्मकार मित्र के अनुरोध पर 'तीसरी कसम' के रीमेक के लिए मैंने जो स्क्रिप्ट लिखी वह कइयों की नजर में पुरानी तीसरी कसम से बेहतर है। ऐसा संभवतः इसलिए हुआ कि मैं कथा 'तीसरी कसम', इसकी प्रेरक उपकथा 'महुआ घटवारिन' और उस अंचल को बासु भट्टाचार्य की टीम से अधिक जानता था। 'डोमकच' या 'रतजगा' पर एक फिल्मकार मित्र के लिए मैंने कहानी दी है - 'झूठी है तेतरी दादी' विषय बिल्कुल नया है।
वर्धा स्थित हिंदी विश्वविद्यालय के संदर्भ में आप क्या कहना चाहेंगे?
हिंदी साहित्य के साथ ज्ञान के नए अनुशासनों में पठन-पाठन को आधुनिक और व्यवहारिक रूप प्रदान करने के इस प्रयास का मैं कायल हूँ और मैं इसके लिए कुलपति विभूति नारायण राय तथा इनकी पूरी टीम को साधुवाद देता हूँ।
आजकल आप क्या कुछ लिख-पढ़ रहे हैं?
यहाँ लिखने-पढ़ने की हर तरह की सुविधा और साधन संपन्नता है साथ ही उच्च मान का पुस्तकालय भी। इसके चलते यहाँ आकर मुझे एक आदर्श लेखकीय परिवेश मिला। मैंने एक कहानी पूरी की जो 'बहुवचन' में आ रही है और दो कहानियाँ लगभग तैयार है। इसके अतिरिक्त कई छिटपुट काम इस दौर में होते रहे हैं।