'वैश्वीकरण के संदर्भ में मीडिया की नैतिकता' पर लंबी बातचीत। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश -
प्रश्न. वैश्वीकरण के दौर में क्या आज की पत्रकारिता कोई आदर्श स्थापित करने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर पा रही है?
उत्तर. देखिए, सर्वप्रथम आपने वैश्वीकरण की बात की, आज हमें वैश्वीकरण के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान मीडिया को देखना चाहिए। भारत में वैश्वीकरण की शुरूआत 1991 ई. में हुई। पहली बात तो आज वैश्वीकरण अपनी यात्रा के दूसरी चरण में है। दूसरी बात है कि आप ये याद रखिए कि मीडिया देश की सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक जो शक्तियां हैं उससे स्वतंत्र नहीं होता है। मैं हमेशा मीडिया को समकालीन जो व्यवस्था है उसका बाई प्रोडक्ट के रूप में देखता आया हूँ। वक्त था जब पत्रकारिता अपनी एक मिशनरी भूमिका निभाता था, इसमें प्रोफेशनिलिज्म आया है आजादी के बाद से। लेकिन जब से वैश्वीकरण का दौर शुरू हुआ तब से ये कर्मिशियलाइजेशन यानी धंधा के युग में प्रवेश कर चुका है। अब ये प्रश्न उठता है कि कमर्शिलाईजेशन या धंधाकरण कहें क्यों\ धंधाकरण में किसी भी प्रकार के आचार संहिता को लगभग हाशिए पर रखा जाता है और उसमें केवल एक ही लक्ष्य होता है - मुनाफा का। जब मुनाफाखोरी ही किसी भी व्यवसाय में आपका लक्ष्य बन जाएँ तब उसमें आदर्श, नैतिकता, आचार संहिता, मनुष्यता यहाँ तक कि देशप्रेम भी गौण हो जाते हैं और तमाम तरह की तकनीक या हथकंडे अपनाए जाते हैं जिससे कि आपका प्रोफिट अधिक से अधिक बढे। आज भारतीय मीडिया उसी चपेट में है यद्यपि मैं मीडिया की भूमिका को खारिज नहीं कर रहा हूँ लेकिन हमें ये स्वीकार करना ही पड़ेगा कि इसकी जो ऐतिहासिक यात्रा रही है उससे ये कहीं न कहीं विचलित हुआ है और ऐसे में जो खबर है, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जिस खबर को परोसता है, आप देखते हैं कि उसमें मनोरंजन या व्यापारीकरण के तत्व प्रमुख होते हैं। इसी तरह से अखबार को आप ले लें। आज से 20 वर्ष पहले अखबार और विज्ञापन का अनुपात 60:40 का होता था। 60 प्रतिशत विचार, खबर, फीचर, रिपोर्ताज, संपादकीय लेख आदि रहता था और उसमें 30-40 प्रतिशत विज्ञापन को स्थान मिलता था। आज ये बिलकुल उलट चुका है कई बार 60 या 70 प्रतिशत विज्ञापन होते हैं। मैंने ये भी देखा है कि आजकल जो विशेषांक निकाले जाते हैं उसमें 70-75 प्रतिशत विज्ञापन होते है। विज्ञापन का संबंध मुनाफा से है, मैं इस दृष्टि में देखता हूँ कि आज समाचार और विचार सबकुछ विज्ञापन के दास बन चुके हैं और इसकी वजह ये है कि आपने देखा होगा कि पिछले 20 वर्षों में संपादक नाम की संस्था (एडीटर्स इंस्टीच्यूशन) या तो मृत हो गया या कोमा में चला गया है। आज ब्रांड मैनेजर ही सबकुछ का निर्धारक हो गया। ब्रांड मैनेजर बतलाता है कि किस खबर को कितना स्थान मिलना चाहिए, कौन सी पेज पर जाना चाहिए। आपने देखा होगा कि फैशन, सेक्स, क्राइम ऐसी चीजें जो सनसनीखेज है जो मनुष्य की सतही इंद्रियाँ हैं उसको सहलाती हों, खुश करती हों, वैसी खबरों को प्राथमिकता दी जाती है।
प्रश्न. आज की पत्रकारिता के मूल्य क्या हैं, क्या यह ग्लोबल कैपीटल पावर की भूमिका को सराहता है, वैश्विक संदर्भ में हमारी स्थिति क्या है?
उत्तर. सन 1952-54 से ये बहस चल रही थी कि मीडिया में हम विदेशी पूँजी के प्रवेश को अनुमति दें या कि नहीं। पंडित नेहरू व उसके बाद जितने भी प्रधानमंत्री हुए लगभग सभी ने कहा कि हम प्रिंट मीडिया में विदेशी पूँजी को नहीं आने दें क्योंकि इससे जनमत प्रभावित हो सकता है। जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, नरसिंहाराव, राजीव गांधी, इंद्र कुमार गुजराल आदि सब ने मना कर दिया था लेकिन 1998 ई. में बाजपेयी जी की सरकार आई तो उसके बाद ये मुद्दा फिर सामने आई, अंततोगत्वा एनडीए सरकार ने इस मुद्दे पर हथियार डाल दिया और 26 प्रतिशत विदेशी पूँजी की अनुमति दे दी। आज जो वर्तमान सरकार है इसने तो स्थिति बिल्कुल ही बदल दी है, विदेशी पूँजी, विदेशी प्रबंधकों को काफी छूट मिल गई है। साफतौर पर वैश्वीकरण का दबाव हमारे भारतीय मीडिया पर है। आज विदेशी अखबार हमारे यहाँ प्रकाशित हो रहे हैं, खैर, होने भी चाहिए लेकिन हमें देखना होगा कि उसपर जो अंकुश है वह किस ढंग का है, किस प्रकार का है। जाहिर है कि बाहरी अखबार, वो जनमत को प्रभावित करने की कोशिश करेंगे क्योंकि उनके जो राष्ट्रीय हित हैं वे उनको सामने रखेंगे। आज का मीडिया, मोनोपोली हाउस, बहुराष्ट्रीय निगम आदि का पॉलीटिकल पावर, ब्यूरोक्रेट्स, के साथ गठबंधन हैं। मोनोपोलाईजेशन धीरे-धीरे हो रहा है, तो इसका असर भारतीय मीडिया पर निश्चित रूप से पड़ रहा है।
प्रश्न. पत्रकारिता के मूल्यों में गिरावट के लिए समाज की क्या भूमिका होनी चाहिए?
उत्तर. मैं तो ये नहीं मानता कि पत्रकारिता मूल्यहीन या मूल्यविहीन हो चुकी है। इसके मूल्य हैं हालाँकि लाभ केन्द्र में है, बावजूद इसके मैं निराशावादी नहीं हूँ। आपने देखा कि पिछले तीन-चार वर्षों में मीडिया ने कई जगह हस्तक्षेप किया है। कई खबरों को रखा है जिसके कारण न्यायालय को अपने निर्णय/दृष्टि को बदलना पड़ा है। जेसिका लाल मर्डर केस दब गया था। चंडीगढ की चौहानवाली घटना को दबाया जा रहा था, मीडिया ने उसको उठाया। मीडिया जनसमस्याओं को फिर से केंद्र में ला रहा है, ये अच्छी बात है। सरकार भी मजबूर हो रही है, समस्याओं के समाधान के लिए, चाहे वह स्थानीय हो या राष्ट्रीय। आज नई अवधारणा शुरू हुई है सिटीजन जर्नलिज्म का, इससे भी हम अपनी पत्रकारिता को पटरी पर ला सकते हैं। मूल्य तो है लेकिन एकाउंटेबिलिटी की बात करते हैं तो अब हमें ये देखना होगा कि मूल्य और एकांउटेबिलिटी का प्रतिशत कितना है। अगर मान लीजिए कि लाभ, आदर्श, मूल्य और एकांउटेबिलिटी के बीच संतुलन स्थापित हो तो मैं समझता हूँ कि कोई चिंता की बात नहीं होनी चाहिए। इस संतुलन को बनाने का काम सिविल सोसायटी का है, हम आप जैसे लोगों का है। हम दबाव बनाएँ मीडिया पर कि आपको मूल्यहीन नहीं होना है। मैं हमेशा बोलता हूँ कि मीडिया पर सोशल ऑडिटिंग, समाज की निगरानी रहेगी। मानलिया कि कोई अखबार गलत छाप रहा है, अगर एक मुहल्ला या शहर के लोग फैसला कर लें कि हम इस अखबार का बहिष्कार करेंगे, तो अखबार को मानना ही पड़ेगा। यही बात चैनलवाले पर लागू होती है कोई जनविरोधी खबरें दिखाई जा रही है तो आप तय कर लें कि इसका बहिष्कार कर रहे हैं, इससे दबाव बनेगा।
प्रश्न. आज मीडिया कथित तौर पर जनसमस्याओं को केंद्र में ला रहा है जबकि हिडेन एजेंडा कुछ और ही होता है, पेड न्यूज का चलन बढ़ रहा है, इस संदर्भ में आपकी टिप्पणी?
उत्तर. देखिए, ऐसा है कि हिडेन एजेंडा सबका ही होता है। हमें देखना है कि आज जो मीडिया जनसमस्याओं को सामने ला रहा है, इसका प्रतिशत कितना है अगर 100 में से 2 या 5 प्रतिशत है तो कुछ नहीं है, शुरूआत हुई है। किसी मीडिया ने उठाया कि कैश फॉर न्यूज़। पेड न्यूज के खिलाफ भी मीडिया ने ही आवाज उठाई है। स्व. प्रभाष जोशी इसके खिलाफ आपने अंतिम क्षण तक लडते रहे कि पेड न्यूज से लोकतंत्र खतरे में पड़ जाएगा। एडीर्ट्स गिल्ड ने भी मजबूर होकर प्रस्ताव पारित किए कि पेड न्यूज नहीं होना चाहिए, इसकी भर्त्सना की गई, तो यह एक सीमा तक शुभ संकेत है, सबकुछ निर्भर करता है कि समाज कितना सचेत है
प्रश्न. मीडिया ट्रायल के संबंध में आप क्या कहना चाहेंगे?
उत्तर. अगर मीडिया समाज में कुछ आवश्यक चीजों के बारे में हस्तक्षेप कर सही न्याय दिलवाता है तो इसमें बुरा क्या है। अगर मीडिया हस्तक्षेप नहीं करता है तो फिर भी मीडिया आलोचना का शिकार होता है चाहे वह आरूषि हत्याकांड हो या जेसिका लाल मर्डर केस, मीडिया ट्रायल शब्द की बात वहीं करते हैं जो शक्तिशाली वर्ग है, वह कमजोर को दबाता है। जेसिका लाल मर्डर केस में, मनु शर्मा सब शक्तिशाली लोग शामिल हैं। मीडिया इस बात को उठाता है, फॉलोअप करता है तो आप उसे मीडिया ट्रायल कह देते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि कहीं मीडिया केवल लाभ के लिए ही ऐसा नहीं कर रहा है। इसे टीआरपी बढाने के लिए एक ही स्टोरी को गन्ने की तरह रस निकाला जाता है, अंतिम क्षण तक उसे निचोड़ा जाता है। आज हमें इसे 'च्यूइंगम जर्नलिज्म' की संज्ञा दे सकते हैं। आज हमें च्यूइंगम पत्रकारिता से बचने की जरूरत है।
प्रश्न. क्या मीडिया के मूल्यों में गिरावट के लिए समकालीन सामाजिक व राजनीतिक परिस्थितियाँ जिम्मेदार है?
उत्तर. मीडिया एक बाईप्रोडक्ट होता है, जिम्मेदार तो है, मीडिया के लोगों से भी कहना चाहूँगा कि उन्हें लोगों कें ऐतिहासिक भूमिका को याद करनी चाहिए। राज्य का चौथा स्तंभ है, उसको याद रखना चाहिए। दबाव हर काल व देश में रहते हैं, इसी में से रास्ता निकालने की जरूरत है।
प्रश्न. क्या कारण है कि मीडिया सामाजिक नीति-नियमों की बजाय बाजारीय एजेंडे पर कार्य करती है?
उत्तर. इसमें कोई शक नहीं है कि जो नव धनिक वर्ग है, नव मध्यवर्ग का विस्फोट हुआ है, राज्य सत्ता इसके आकर्षण को राज्य की भांति मीडिया भी सामने रख रहा है। मीडिया में उपभोक्तावादी संस्कृति को बढ़ावा देने वाले विलासितापूर्ण विज्ञापन आ रहे हैं। नव धनिक वर्ग भाषा को भी प्रभावित करता है, चैनलों में हिंदी अंग्रेजी मिश्रित हो गई है। विज्ञापनदाता जानता है कि हमारा टारगेट ग्रुप फाइव, थ्री स्टार होटल में जाता है उनकी ईच्छा की पूर्ति कहाँ हो सकती है, इसी के मद्देनजर कार्यक्रम को प्रसारित किया जाता है क्योंकि वह जानता है कि हमारा ग्राहक झोपडपट्टी वाला नहीं है, आदिवासी नहीं है, हमारा ग्राहक तो अपार्टमेंट कल्चर में रहता है अतएव उनकी आवश्यकताओं को जाग्रत करने के लिए पार्टी का आयोजन कहाँ होते हैं, मसाज क्लब कहाँ हैं आदि के निहितार्थ कार्यक्रम की प्रस्तुति होती है।