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बात-चीत

सुप्रसिद्ध साहित्यकार हरिराम मीणा से बातचीत

अमित कुमार विश्वास


प्रश्न. ऐसी समाजशास्‍त्रीय मान्‍यता है कि भारत में तकरीबन अस्‍सी प्रतिशत लोग किसी न किसी तरह के हाशिएकरण के शिकार हैं, क्‍या यह सभ्‍यता का संकट है?

उत्तर. किसी भी राष्‍ट्र-समाज का अधिसंख्‍य जन यदि विकास की यात्रा में हाशिए की तरफ चला जाता है या मजबूर कर दिया जाता है हाशिये की तरफ जाने के लिए, तो निश्चित रूप से वो राष्‍ट्र-समाज के जो मुख्‍य वर्ग हैं उनके बीच दूरियाँ बढ़ जाती हैं और उन दूरियों की वजह से जिस संश्लिष्‍ठ समाज निर्माण की हम बात करते हैं उस समाज के निर्माण में एक प्रकार का संकट पैदा करता है तथा ये सं‍कट कई तरह के समस्‍याओं को जन्‍म देता है और सबसे बड़ी बात है कि हाशिए पर पड़ा हुआ जन उसके व्‍यक्तित्‍व के निर्माण, राष्‍ट्र के विकास में उसके मानव संसाधन के योगदान सामाजिक समरसता को बनाए रखने में या मजबूत करने में बाधाएँ पैदा होती है और ये सारी जो बाधाएँ हैं, समस्‍याएँ हैं, संकट हैं वह निश्चित रूप से सभ्‍यता की जो यात्रा है, जिस रूप में विकसित होना चाहिए उस विकास में आगे नहीं आ पा रहा है। स्‍त्री, दलित, आदिवासी, अति पिछड़ा वर्ग, ये 85 प्रतिशत समाज हाशिये पर हैं, इसी पर प्रजातांत्रिक प्रणाली टिकी हुई है। दिन-रात मेहनत करने पर भी इन चार वर्गों को मूलभूत सुविधाएँ नहीं मिल पा रही हैं। समाज की वर्चस्‍ववादी शक्तियाँ इनके व्‍यक्तित्‍व विकास में रोड़े अटकाती हैं।

प्रश्न. इस हाशियाकरण में धार्मिक व सांस्‍कृतिक तत्‍व कितने जिम्‍मेदार हैं?

उत्तर. किसी भी समाज का कोई भी तबका हाशिए पर जाता है तो उसके लिए बहुआयामी ऐतिहासिक परिस्थितियाँ जिम्‍मेदार होती हैं। भारत के संदर्भ में राज, धर्म और धन इन तीनों की सत्‍ताओं पर जो वर्चस्‍वकारी प्रभु वर्ग काबिज रहा है उसने सत्‍ताओं का उपयोग अपने हित में किया। वर्चस्‍वकारी तबका नहीं चाहता है कि हाशिये के लोग मुख्‍यधारा में शामिल हों।

जब आप भारतीय समाज के परंपरा का अध्‍ययन करेंगे तो धर्म और संस्‍कृति एक बहुत ही प्रभावकारी व निर्णयकारी ताकत के रूप में हमारे सामने आती है। इस ताकत ने समाज को प्रभावित किया है। उसका जो सकारात्‍मकता पक्ष है वह अपने आप में महत्‍वपूर्ण है। लेकिन धर्म और संस्‍कृति पर एक वर्ग-विशेष का वर्चस्‍व हावी हो जाता है तो जीवन के जो सुंदर पक्ष हैं, उनका दुरूपयोग समाज के शेष वर्गों के दबाने के लिए किया जाता है। भारतीय परिप्रेक्ष्‍य में जब धर्म और संस्‍कृति की साथ-साथ चर्चा व्‍यापक अर्थ में करते हैं तो धर्म भी संस्‍कृति का एक हिस्‍सा बन जाता है, जैसे भाषा है, परंपरा है, मानसिकता है, इन सब चीजों के साथ संस्‍कृति समेट कर चलती है, जिसका बौद्धिक या मानसिक स्‍तर पर एक विचार या दर्शन संस्‍कृति का तत्‍व बन जाता है और व्‍यावहारिक रूप में उसका अभिव्‍यक्‍त जो रूप है वो हमें सांस्‍कृतिक कार्यक्रमों, उपाँगों, गतिविधियों के रूप में आता है। इसलिए संस्‍कृति को व्‍यापक अर्थ में शामिल करते हैं तो इस सांस्‍कृतिक परंपरा में धर्म एक प्रभावकारी शक्ति के रूप में उभर कर सामने आता है। जब धर्म का किसी सामाजिक व्‍यवस्‍था को निर्मित करने में इस्‍तेमाल किया जाता है तो उसका सकारात्‍मक पक्ष सर्जनात्‍मक भूमिका निभाता है और मनुष्‍य की यात्रा को आगे बढ़ाता है। धर्म एक सामाजिक प्रणाली के रूप में जो बाद में राजनीतिक व आर्थिक प्रणाली है, को जोड़ता है। नकारात्‍मक रूप में धर्म का इस्‍तेमाल वर्चस्‍वकारी शक्तियों द्वारा दूसरे वर्ग खासकर हाशिए के लोगों को दबाने के लिए किया जाता है। धर्म के माध्‍यम से हाशिये को दबाने वाली बातों से स्‍पष्‍ट है कि जब हम वर्ण व्‍यवस्‍था की बात करेंगे तो यह बात बहुत खुलकर सामने आती है कि आप अपने द्वारा बनायी हुई, जो समाज व्‍यवस्‍था है उसे धर्म का आवरण पहनाकर कुछ धर्मसम्‍मत सिद्धांत गढ़ लेते हैं। इस प्रकार परिकल्पित धर्म सिद्धांत के तहत वर्ण व्‍यवस्‍था का परिणाम जो सामने आया, वह अच्‍छा नहीं हैं। क्‍योंकि कर्म के आधार पर वर्णों का तय होना एक मुलंबेदार सिद्धांत है कि किसी भी वस्‍तु को आप ठीक से पैकिंग करके और लोगों के सामने रखेंगे, जो जैसा कर्म करेगा वैसा ही वर्ण में शुमार होगा। ऐसी ही 'ओपेन' व्‍यवस्‍था है, जो बहुत उदार है। चूँकि जिस सिद्धांत का आधार कर्म है न कि जन्‍म या कुल परंपरा। भारतीय परंपरा में वैदिक दर्शन के आधार पर चार वर्णों की कल्‍पना करने के बाद उसका एक सिद्धांत के रूप में प्रस्‍तुत करना और फिर उस सिद्धांत को धर्म से जोड़कर ईश्‍वर रूपी विराट पुरूष शरीर के हिस्‍सों में पैदा करने की बात को प्रतिपादित करना जो सर्ववि‍दित है कि उस विराट पुरूष के उपर से नीचे के हिस्‍सों को क्रमशः मुख, वक्ष, पेट और पाँव इस क्रम से चार वर्ण पैदा हुए। ये वर्णव्‍यवस्‍था भारतीय समाज के लिए धर्म और सांस्‍कृतिक स्‍तर पर एक वर्ग विशेष से बनाकर संपूर्ण समाज को थोप दी। कोई कहता रहे कि वर्ण व्‍यवस्‍था तो एक आदर्श समाज व्‍यवस्‍था का आधार थी लेकिन यथार्थ में यही वर्ण व्‍यवस्‍था जाति केंद्रित भारतीय समाज का आधार बनी जिसका जो विकृत स्‍वरूप है वह हम आज देख रहे हैं। आजादी के 64 वर्ष बाद भी प्रजातांत्रिक यात्रा में शिक्षा, वैज्ञानिक समझ, तकनीकी एवं विकास के अन्‍य आयामों के बावजूद समाज को घातक जाति व्‍यवस्‍था से निजात नहीं मिली है। उल्‍टे इस जाति व्‍यवस्‍था ने लोकतांत्रिक ढाँचा को भी प्रदूषित किया है। जाति का एक नकारात्‍मक दबाव समूह के रूप में उपयोग हो रहा है। जीवन में प्रेम एक उदात्‍त पक्ष है, उसका भी हनन जाति के माध्‍यम से हो रहा है। उत्‍तर भारत में विशेष रूप से हरियाणा जैसे प्रांत में खाप पंचायतों का विकराल रूप या उसके आपराधिक गतिविधियाँ, उनके द्वारा खतरनाक फैसले करना इत्‍यादि हमारे सामने हैं। ये सबकुछ धर्म और संस्‍कृति के तत्‍वों के दुरूपयोग का नतीजा है। सिद्धांत के स्‍तर पर किसी भी धर्म संस्‍कृति को मनुष्‍य विरोधी नहीं होना चाहिए लेकिन ऐसे धर्म व संस्‍कृति के तत्‍व अंततः मनुष्‍य विरोधी सामाजिक संरचना में महत्‍वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। यह निश्चित रूप से संकट पैदा करता है, जिस पर हमें गंभीरता से विचार करना चाहिए।

प्रश्न. हाशिएकरण में आर्थिक-सामाजिक चक्र कितना कारगर है?

उत्तर. किसी भी समाज व्‍यवस्‍था के स्‍तर पर भौतिक विकास की बात की जाएगी तो अर्थप्रणाली की अहम भूमिका सामने आती है। सामाजिक संरचना के स्‍तर पर जब आर्थिक कारणों की चर्चा होगी तो यह मानना होगा कि किसी भी मानव समाज का भौतिक विकास आर्थिक गतिविधियों पर निर्भर करता है। अर्थ की शक्ति पर या राज्‍य सत्‍ता पर जो वर्ग शासक के रूप में उभरकर सामने आता है वो आर्थिक गतिविधियों को नियंत्रित करता है। बाहर से दबाव समूह के रूप में जो प्रभावशाली लोग या उनका जो समूह बनता है, अर्थव्‍यवस्‍था को प्रभावित करते हैं। इसलिए अर्थव्‍यवस्‍था पर जिन वर्गों का नियंत्रण होगा निश्चित रूप से आर्थिक सत्‍ता को अपने हित में इस्‍तेमाल करेंगे। ऐसी अर्थव्‍यवस्‍था वर्ग आधारित अर्थव्‍यवस्‍था कही जाएगी। इस अर्थव्‍यवस्‍था में जिन लोगों का हस्‍तक्षेप नहीं होगा वह धीरे-धीरे इस व्‍यवस्‍था से वंचित होते चले जाएँगें। भारतीय समाज के संदर्भ में उत्‍पादन के साधनों पर जिस वर्ग का आधिपत्‍य रहा, वह वर्ग समृद्ध होता गया। शेष वर्ग चा‍हे बहुसंख्‍यक है, जो दिनरात मेहनत करता है, उसे जीवन के लिए आवश्‍यक भौतिक सुवि‍धाएँ भी नहीं मिल पाती हैं। जिस हाशिए के समाज की बात करते हैं वह भी ऐसे ही वर्ग नियंत्रित अर्थव्‍यवस्‍था में शोषण का शिकार रहा है।

प्रश्न. क्‍या विषमतामूलक सभ्‍यता के लिए हाशिएकरण जिम्‍मेदार नहीं है ?

उत्तर. देखिए, जब विषमता मूलक समाज की बात करेंगे तो इसके साथ ही समता मूलक संश्लिष्‍ट समाज की अवधारणा मस्तिष्‍क के नेपथ्‍य में रहेगी। विषमतामूलक समाज समानता के सिद्धांत और अधिकार को नकारता है। अगर किसी समग्र व्‍यवस्‍था में समाज का कोई भी वर्ग यदि हाशिएकरण का शिकार बनता है तो विषमता सामने आती है, जिसमें समाज के वर्गों में कोई वर्ग सुविधाजनक स्थिति में व दूसरा वर्ग अभावों की निम्‍न दशा में दिखाई पड़ता है। मुख्‍यतः और अंततः दो वर्ग हमारे सामने आते हैं-एक वर्चस्‍वकारी, जो राष्‍ट्र-समाज के सभी तरह के संसाधनों को अपने नियंत्रण में रखने वाला है और दूसरा हाशिए पर रहने वाला। इसलिए जैसे ही हाशिएकरण की बात की जाएगी तो स्‍पष्‍ट है कि समाज के मंच पर या मुख्‍य स्‍थान पर कोई और लोग होंगे और अन्‍य लोग हाशिए पर। भारतीय संदर्भ में इसे प्रभुवर्ग और श्रमसाध्‍य लोगों के रूप में पहचाना जा सकता है। ऐसे विषमतामूलक समाज में जो जन हाशिए पर हैं, उनके विकास की संभावनाएँ कम होगी। शिक्षा, स्‍वास्‍थ्‍य, संचार एवं अन्‍य भौतिक आवश्‍यकताओं की पूर्ति पर्याप्‍त मात्रा में नहीं होगी। समग्र राष्‍ट्रीय मानव संसाधन के उपयोग की बात की जाएगी तो हाशिए की आबादी की भूमिका राष्‍ट्र निर्माण में अपेक्षित नहीं रहेगी। हाशिए पर जो लोग हैं उनके व्‍यक्तित्‍व निर्माण की प्रक्रिया धीमी रहेगी। हाशिए के लोगों के सामने अनेकानेक तरह के अभाव तथा संकट उत्‍पन्‍न होंगे, जो एक असंतोष को जन्‍म देते हुए संपूर्ण राष्‍ट्र व समाज के लिए प्रतिरोध पैदा करने की संभावना सामने लाएगें। हाशिए के लोग चाहें कितने भी बिखरे हुए हों लेकिन उनकी समस्‍याओं की जड़ में कहीं न कहीं कोई समानता दिखाई देती है और वही समानता उनकी समस्‍याओं के निवारण के लिए प्रेरित करेगी। तब यह सवाल सामने आएगा कि उनके समस्‍याओं के लिए कौन उत्तरदाई है दोषी की खोज के क्रम में चेतना के उत्‍थान के साथ-साथ वह प्रतिरोधमूलक मूलभूत भौतिक सुविधाओं और अधिकारों की भी माँग करेगा। भारतीय परिप्रेक्ष्‍य में यह प्रक्रिया चल रही है। हाशिएकरण के कारण बने विषमतामूलक समाज को समतामूलक समाज की ओर तब्‍दील करने के लिए हाशिए पर रहने वाले सामाजिक घटकों की आवाज बुलंद हो रही है चाहे वे दलित जन हो, आदिवासी हो, अल्‍पसंख्‍यक वर्ग हों अति पिछड़े वर्ग के लोग हों या स्‍त्री वर्ग।

प्रश्न. अभी जो पिरामिडीय व्‍यवस्‍था कायम है, क्‍या उसमें कभी हाशियाकरण की प्रक्रिया खत्‍म हो सकती है ?

उत्तर. हम जिस पिरामिडनुमा व्‍यवस्‍था की बात कर रहे हैं उसमें एक वर्ग सुविधाजनक अवस्‍था में है और दूसरा वर्ग अपनी रोजी-रोटी के लिए जूझ रहा है। लोकतांत्रिक व्‍यवस्‍था में जनचेतना के प्रखर होने की प्रक्रिया में हाशियाकृत समाज भी आगे आ रहा है। भारतीय संविधान के विभिन्‍न प्रावधानों, जनसाधारण के लिए बनाई गई कल्‍याण योजनाओं, जन सुविधाओं का विस्‍तार, लोकतांत्रिक प्रणाली पर जनसमूहों का दबाव, चेतनागामी जन प्रतिनिधित्‍व, मानवाधिकार की लड़ाई, मीडिया की सकारात्‍मक भूमिका, गैर-सरकारी संगठनों की अगुवाई इत्‍यादि, इन प्रयासों को देखते हुए भारत के नागरिक, जिसका अधिसंख्‍यक हिस्‍सा हाशिए पर रहता आया है, उसके विकास की संभावनाएँ गति ले रही हैं। लोकतंत्र में कोई भी हाशिये का व्‍यक्ति अपनी बात रख सकता है। ये सारी बातें उस सकारात्‍मक संभावनाओं की ओर संकेत करती हैं जहाँ वर्चस्‍व केंद्रित पिरामिड के स्‍वरूप में बदलाव होगा। जो लोग पिरामिड पर काबिज हैं, निश्चित रूप से उनके आधिपत्‍य या वर्चस्‍व को खत्‍म करने के लिए आम आदमी को संघर्ष करना होगा तथा अपनी चेतना को विस्‍तारित करनी होगी।

प्रश्न. भूमंडलीकरण के दौर में क्‍या यह आशा की जा सकती है कि हाशिये का कुछ भला हो सकता है ?

उत्तर. वैश्‍वीकरण की प्रक्रिया में देशी-विदेशी पूँजी और उच्‍च तकनीकें, ये महत्‍वपूर्ण शक्तियों के रूप में उभरकर सामने आ रही हैं। पूँजी और तकनीक से उत्‍पादन के साधनों पर वर्चस्‍व कायम किया जा सकता है। निश्चित रूप से यह प्रक्रिया जारी है जिसमें बेहतरीन शिक्षा प्राप्‍त और पूँजी का अपने हित में उपयोग करने वाला वर्ग वैश्‍वीकरण का लाभ अर्जित कर रहा है। शेष समाज को मोबाइल फोन जैसी कुछ सुविधाएँ तो मुहैया करायी जा सक‍ती हैं लेकिन पूँजी, तकनीक, बाजार आदि की गतिविधियों से वह अभी दूर है। पूँजी के खेल में वह निश्चित रूप से शामिल नहीं हो सकता है। वैश्विक ग्राम की परिकल्‍पना उन लोगों के लिए सुखद हो सकती है जो पूँजी और बाजार के खेल में शातिर है। जो इस खेल को नहीं जानते, उनके लिए वैश्‍वीकरण क्‍या कुछ दे पाएगा, यह गंभीर सवाल है? जिसपर बुद्धिजीवियों को सोचना होगा।

प्रश्न. क्‍या कारण है कि साहित्‍य में भी उत्‍तर आधुनिकता का फैशन बढ़ रहा है ?

उत्तर. साहित्‍य में उत्‍तर आधुनिकता पर बात करने के साथ ही उत्‍तर आधुनिकता की प्रवृतियों को पहचानना होगा। वैश्‍वीकरण की प्रवृतियों के साथ फूकोयामा व हंटिगटन जैसे स्‍पांसर्ड सिद्धांतकारों पर मनन करना होगा, जो यह मानते हैं कि दो सभ्‍यताओं का संघर्ष होगा, जिसमें एक ही सभ्‍यता बचेगी, वह है ईसाई सभ्‍यता। यह सभ्‍यता एकल ध्रुवीय विश्‍व व्‍यवस्‍था की पक्षधर होंगी। इसमें पूँजी का नियंत्रण होगा और उस मुहीम का अगुआ अमेरिका होगा। वह जो कहेगा वही मूल्‍य व मान्‍य सिद्धांत होंगे। अमेरिका यदि ईराक, अफगानिस्‍तान या लादेन को पकड़ने के लिए वायु क्षेत्र का अतिक्रमण करता है तो कोई बात नहीं। यही कोई और राष्‍ट्र कर दे तो वही अमेरिका इसे भयावह मुद्दा बना देगा। भौतिक और सांस्‍कृतिक स्‍तर पर जो परिवर्तन हमारे सामने आ रहे हैं, उनकी अभिव्‍यक्ति साहित्‍य में हो रही है लेकिन जिस सत्तर पर उत्‍तर आधुनिकता के क्रूर यथार्थ की अभिव्‍यक्ति होनी चाहिए वह अपेक्षित स्‍तर की नहीं लगती लेकिन जैसे-जैसे उत्‍तर आधुनिकता की सकारात्‍मकताएँ व नकारात्‍मकताएँ उभरकर सामने आ रही हैं, वे सब साहित्‍य सृजन की विषय वस्‍तु बनती जा रही हैं।

प्रश्न. क्‍या आपको लगता है कि आदिवासी मुद्दों पर अब भी साहित्‍यकार नहीं जुड पाए हैं ?

उत्तर. मैंने छोटी सी साहित्यिक यात्रा में यह महसूस किया कि हाशिए पर जो जन समाज है उनके विभिन्‍न घटकों से संबंधित मुद्दों यथा : स्‍त्री विमर्श व दलित चेतना पर साहित्‍य के माध्‍यम से काफी कुछ लिखा जा रहा है लेकिन आदिवासियों को लेकर बहुत कम रचनाएँ हुई। आदिवासी साहित्‍य का संकलन, अनुवाद और आदिवासी मुद्दों की अभिव्‍यक्ति समाज के विकास के लिए एक बहुत ही महत्‍वपूर्ण काम है, खासकर जब आदिवासी समाज चौतरफा दबाव झेल रहा है। उनके उत्‍थान के लिए काफी योजनाएँ चल रही हैं, के बावजूद भी वे अति पिछड़ी अवस्‍था में है। उन्‍हें साहित्‍य में अभिव्‍यक्ति करना जरूरी काम है। इन दिनों मेरा ध्‍यान अन्‍य चीजों के साथ-साथ आदिवासी मुद्दों पर अधिक जा रहा है। क्‍या कुछ कर पायेंगे, यह भविष्‍य बताएगा।


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