विशंभर दयाल जी को रिटॉयर होने में अभी पाँचेक साल बाकी हैं। उम्र होगी यही
कोई चौव्वन-पचपन साल। दोनों बच्चे, उच्च शिक्षा के बाबत महानगरों में प्रवास
करते हैं। चूँकि, सभी के कुछ-न-कुछ आदतें, शौक होते हैं, विशंभर दयाल जी को
पढ़ने-लिखने का शौक है।
विशंभर दयाल जी की पत्नी शायद ही खाली बैठी मिलेंगी। हालाँकि, उनकी पत्नी को
सिवाय घर के काम-काज, साफ-सफाई के, और कोई शौक नहीं है। यद्यपि, व्यस्त
रहेंगी। हाथ-पैरों में दर्द बढ़ने पर ही आराम करतीं हैं। अन्यथा तो पूजा-पाठ के
बाद घर के काम-काज में ही उनका मन लगा रहता है। इस तरह चार सदस्यों के परिवार
में, घर में अभी सिर्फ दो जन ही हैं।
विशंभर दयाल जी की दिनचर्या है, सुबह उठ कर गुनगुना पानी पीने के बाद, खुद ही
चाय बना कर पीना। प्रेशर बनने तक अखबार पढ़ना। अखबार में भी खासतौर, नाम और
जन्मतिथि, दोनों के अनुसार उत्सुकतापूर्वक अपना राशिफल पढ़ना। येथेष्ट समझने पर
उनका अनुपालन भी करना। कभी-कभी, पूरा अखबार सरसरी तौर उलटते-पलटते, चट कर जाने
के बाद भी यदि वाजिब प्रेशर नहीं बन पाता, तो एकाध चाय और भी पी लेते हैं।
फ्रेश होने के बाद, घर के पीछे बने पॉर्क में दो-तीन राउंड लगाने के उपरांत,
थोड़ी ही दूर पर मुख्य-मार्ग से सटकर गली में स्थित, गिरधारी लाल की बिसातखाने
की दुकान से दूध के पैकेट्स खरीदते, घर वापस आकर ऑफिस जाने की तैयारी में लग
जाते हैं। विशंभर दयाल जी की सुबह-सुबह की इस दिनचर्या में, छुट्टी हो या
कार्य-दिवस, शायद ही कोई बदलाव होता हो।
गिरधारी लाल की बिसातखाने की दुकान के अगल-बगल, गली में तीन-चार और भी दुकानें
हैं। जैसे, स्टेशनरी की एक दुकान। दूसरी मोबाइल एसेसरीज, टॉप-अप, रिचार्ज
बाउचर इत्यादि की दुकान। तीसरी फोटो-स्टूडियो, फोटो-स्टेट की दुकान और चौथी
'स्टॉयल हेयर कटिंग सैलून' नाम की बाल काटने की दुकान है।
मुख्य-मार्ग पर लगभग एक फलांग आगे चलकर, सड़क के दोनों तरफ दो बड़े-बड़े पब्लिक
स्कूल भी हैं। आस-पास, कोई ढंग की स्टेशनरी की दुकानें न होने के कारण
स्टेशनरी की ये दुकान खूब चलती है। दुकान में स्टेशनरी संबंधी सभी सामग्रियाँ,
सुरुचिपूर्ण तरीके, रैक में सजी-धजी मिलेंगी। विशंभर दयाल जी जिस कॉलोनी में
रहते हैं, वहाँ के लोग, स्कूल जाते बच्चे भी, छोटी-मोटी स्टेशनरी आदि इसी
दुकान से खरीदते हैं।
उच्च शिक्षा हेतु बच्चों के महानगरों में रहने, घर पर खास काम-काज न होने या
कह लीजिए, समय बिताने वास्ते, इधर कुछेक वर्षों से विशंभर दयाल जी का
लिखने-पढ़ने का शौक, कुछ ज्यादा ही बढ़ गया है। ऐसे में गाहे-बगाहे पेन-पेंसिल,
डॉयरी-नोट बुक्स इत्यादि की जरूरत पड़ना लाजिमी है। विशंभर दयाल जी लिखने-पढ़ने
वास्ते, स्टेशनरी सामग्री की ऐसी जरूरतों के लिए, स्टेशनरी की इसी दुकान पर
निर्भर रहते हैं। बीच-बीच में रुपये फुटकर कराने आदि प्रयोजन से भी विशंभर
दयाल जी स्टेशनरी की इसी दुकान से पेन-पेंसिल या डॉयरी वगैरह खरीदते रहते हैं,
जिस कारण उनके पास पेन-पेंसिल-डॉयरियों का जखीरा सा हो गया है।
विशंभर दयाल जी के पढ़ने-लिखने की इस आदत से ऊब कर बाजदफे उनकी पत्नी, ये कहते
रोकती-टोकती भी हैं कि "अब इस उम्र में देर रात तक पढ़ने से आँखों पर जोर पड़ता
है। अनिद्रा की समस्या हो सकती है। देर तक कंप्यूटर के सामने लिखते, बैठे रहने
से कमर, घुटनों और पीठ में भी दर्द बढ सकता है। तिस पर आपको कॉन्स्टिपेशन की
भी समस्या रहती है। अतः मसिजीवियों के से ये शौक छोड़िए, टहलने-घूमने के
साथ-साथ तनिक एक्सरसॉइज भी किया कीजिए। जरा देखिए तो, आपकी तोंद किस कदर बाहर
निकलती चली जा रही है?"
पर पत्नी द्वारा कोई बात, एक बार कहने पर ही विशंभर दयाल जी मान जाएँ, ये कहाँ
संभव था...? पत्नी की ये हिदायतें, वे एक कान से सुनते, तो दूसरे से निकाल
देते। थोड़ा ऊँचा सुनते हैं, पर यहाँ बहँटियाने का कारण ये नहीं, बल्कि उनका
बोहेमियनपना या अहमकपना हो सकता है?
विशंभर दयाल जी का तो मानना भी है कि लिखने-पढ़ने का शौक ही ऐसा है, इनसान
भूख-प्यास भुलाये, सनकपन की हद तक, बस्स अपनी धुन में मगन रहना चाहता है।
प्रकाशांतर से तो वे लिखना-पढ़ना सोद्देश्य भी मानते रहे हैं। पढ़ने-लिखने की
इसी आदत के कारण उन्होंने घर में किताबों की अच्छी-खासी लाइब्रेरी सी बना रखी
है।
लाइब्रेरी में दिनों-दिन, किताबों के बढ़ते जखीरे, और उन्हें घर में रखने की
जगह के अभाव के मद्देनजर पत्नी के रोकने-टोकने पर वे लाला लाजपत राय जी की कही
बात..." मैं पुस्तकों का नरक में भी स्वागत करूँगा। इनमें वह शक्ति है, जो नरक
को भी स्वर्ग बनाने की क्षमता रखती है।"...दुहरा कर उन्हें चुप करा देते हैं।
कहते हैं इससे मन में नकारात्मक विचार नहीं आने पाते, और पूर्व से यदि कोई
नकारात्मक विचार मन-मस्तिष्क में अंतर गुंफित हों, तो लिखने-पढ़ने से उनका
सार्थक समाधान भी निकल आता है।
अब ज्यादा देर भूमिका बाँधने के बजाय, इस बात का जिक्र करना नितांत आवश्यक है,
जिस वजह से इस कहानी की नींव पड़ी।
उस दिन इतवार था। चूँकि, शनिवार की छुट्टी होने की वजह से देर रात तक
लिखने-पढ़ने एवं देर से सोने के कारण विशंभर दयाल जी रविवार की सुबह तनिक देर
से जगे। नित्य-प्रक्रिया आदि से निबटने के बाद, उन्होंने अखबार में अपना
राशिफल ध्यान से पढ़ा। लिखा था... 'आज आपके मन में जो कोई भी विचार आए, अंजाम
की परवाह किए बिना, उन्हें कार्यरूप में परिणत कर डालिए। दिन अच्छा बीतेगा।'
इतवार के दिन का अपना ही आकर्षण होता है। राशिफल पढ़ ऊर्जा से लबरेज, विशंभर
दयाल जी टहलने निकल गए। छुट्टी का दिन होने के कारण वे तनिक लंबे राउंड पर
निकल गए थे, जिससे लौटने में देरी हो गई। सूरज सीधा आसमान पर आ गया था। अप्रैल
के महीने में, सुबह लगभग ग्यारह-बारह बजे के आस-पास जैसी गरमी होनी चाहिए थी,
पड़ रही थी।
टहलने के बाद, दूध के पैकेट्स लेकर लौटते वक्त, विशंभर दयाल जी जब उस स्टेशनरी
की दुकान के सामने से निकले तो उनकी उड़ती निगाह यूँ ही दुकान के अंदर चली गई।
दुकान के अंदर काउंटर पर बैठी दो महिलाएँ दिखीं। उनमें से एक महिला जो अखबार
पढ़ रही थी, ने गहरे लाल रंग का चटख सूट पहन रखा था। तिस पर सलमा-सितारों युक्त
दुपट्टे पर सुनहले गोटे की किनारी, उस पर खूब फब रही थी। एक पल के लिए विशंभर
दयाल जी ठिठक से गए, और अगले ही पल यंत्रवत... स्टेशनरी की उस दुकान के सामने
खड़े थे।
"मुझे जेल वाला कोई सस्ता सा पेन दे दीजिए।" उन्होंने काउंटर पर बैठी अखबार
पढ़ती महिला से मुखातिब हो कहा।
दुकान के सामने चूँकि कोई ग्राहक नहीं था, सो विशंभर दयाल जी के इस आग्रह पर
झट वो महिला, अखबार पढ़ना छोड़कर, काउंटर के बगल में ही रखे एक ही मूल्य के
तीन-चार जेल पेन निकालकर उनके सामने रख दिए। उन्होंने उसमें से दो पेन पसंद
किए, पर जब पेन के दाम चुकाने वास्ते जेब में हाथ डाला तो भकुआ से गए। विशंभर
दयाल जी की जेब में सिवाय तीन-चार रुपये के सिक्कों के, पर्याप्त पैसे नहीं
थे। वो तो रोज की तरह, सुबह-सुबह, मात्र दूध खरीदने भर के पैसे ही जेब में
रखकर निकले थे।
"कोई बात नहीं अंकल जी! आप तो अक्सर ही इधर से निकलते हैं। पैसे बाद में दे
दीजिएगा।" काउंटर पर बैठी दूसरी महिला ने हस्तक्षेप किया था।
विशंभर दयाल जी को अपनी जेबें टटोलते देख दूसरी महिला ने अंदाजा लगा लिया कि
उनके पास अभी पैसे नहीं हैं। सो, उनका नर्भसनेस मिटाने वास्ते ही उसने, बात की
दिशा दूसरी तरफ मोड़ी। महिला की इस बात पर विशंभर दयाल जी एक बार फिर से झेंप
गए।
"अंकल जी, दूध बहुत देर से ले जा रहे हैं?" इस बार गहरे लाल रंग का चटख सूट
पहने महिला ने उनसे ये अप्रत्याशित सा सवाल पूछा था।
"हाँ, आज थोड़ी देर हो गई है। 'ऑउट-ऑफ-स्टेशन' चला गया था। रात में देर से लौटा
हूँ। सोने में देर हो गई, तो उठा भी देर से।" विशंभर दयाल जी ने दोनों पेनें
अपने कमीज के ऊपर वाली जेब में खोंसते, पता नहीं क्यों? झूठ का सहारा लिया।
"अंकल जी, दूध के इन पैकेट्स को अभी ले जाकर फ्रिज में रख दीजिएगा, नहीं तो
दूध फट जाएगा।" गहरे लाल रंग का चटख सूट पहने वो महिला भी पता नहीं किस मूड
में थी, ने ऐसे हिदायत दिया मानो उसे दूध के फटने की कितनी चिंता हो? विशंभर
दयाल जी ने भी तनिक मुस्कियाते, कृतज्ञतावश या शायद सामाजिकतावश, अपनी गर्दन
दो बार ऊपर-नीचे हिलाया-डुलाया।
उस महिला की हिदायतें सुन उन्हें एकबारगी ऐसा लगा, जैसे... परिस्थितियाँ कैसी
भी हों, कुछ औरतें घर में हों या बाहर, अपने आस-पास के प्रति बेहद फिक्रमंद
रहती हैं। पर अगले ही पल जैसे उन्हें कुछ भान हुआ हो... 'अभी मेरी उम्र इतनी
भी नहीं हुई कि कोई मुझे 'अंकल जी' कहे?
खैर...।
वापस घर लौटते वक्त अपनी जेब में दोनों पेनों की उपस्थिति महसूस करते,
रास्ते-भर वो ये फिल्मी गीत... "ये लाल रंग कब मुझे छोड़ेगा" ...गुनगुनाते,
जिसके तात्कालिक शब्दार्थ-गूढ़ार्थ... शायद वही समझ सकते थे, घर वापस आ गए।
"इन दूध के पैकेट्स को फ्रिज में रख दो, नहीं तो दूध फट जाएगा।" दूध के
पैकेट्स डायनिंग-टेबल पर रखते, उन्होंने पत्नी को हिदायत दी।
"हाँ, जैसे मुझे पता ही नहीं था? आज ही तो इतनी महत्वपूर्ण जानकारी आपसे मिली
है?" पत्नी ने भी नहले पर दहला मारा था।
"अऽरे भई मैंने तो सिर्फ सामान्य सी जानकारी दी है। अच्छा, छोड़ो... क्या एक कप
गरमा-गरम कॉफी मिल जाएगी?"
"इतनी देर में दूध लेकर आएँगे, तो इसे फ्रिज में रखने की जरूरत ही क्या है?
दूध भगौने में निकालकर गैस पर चढ़ा दीजिए, और कॉफी भी खुद ही बना लीजिए। बड़ी
देर से घर में साफ-सफाई कर रही थी। बालों में धूल जमा हो गई है। दो दिन से
शैंपू भी नहीं किया है। मैं नहाने जा रही हूँ। बड़े आए काफी पीने वाले...
बतकुच्चन महाशय?"
"जैसी, मर्जी हुजूर।" विशंभर दयाल जी, जिन खामखयाली में ऊभ-चूभ से घर लौटे थे,
उनकी तंद्रा टूटी। उन्हें पत्नी से ऐसे रूखे जवाब की तनिक भी उम्मीद नहीं थी।
पत्नी का रुख भाँपते, उनके बॉथरूम की तरफ प्रस्थान करने के बाद ये कहते,
विशंभर दयाल जी ने एक आज्ञाकारी पति की भाँति, पहले दूध के पैकेट्स काट कर,
बड़े से भगौने में उड़ेला, फिर सॉसपैन में दो कप कॉफी बनाने भर का दूध-पानी और
चीनी मिलाकर गैस-बर्नर पर रख दिया, और शेविंग की तैयारी में लग गए।
कॉफी पीने के बाद जब विशंभर दयाल जी शेविंग के लिए आईने के सामने खड़े हुए तो
उन्होंने गौर किया, मूँछों के ज्यादातर बाल सफेदी की ओर अग्रसर हैं। चेहरे पर
जगह-जगह झुर्रियों ने भी खासी दस्तक दे रखी हैं। सिर के बाल भी खिचड़ी हो चले
हैं। ये सभी चीजें उन्हें, सामूहिक रूप से बढ़ती उम्र की चुगली करते नजर आए।
"क्या बात है...? आज आईने में बड़े ध्यान से अपनी सूरत देख रहे हैं...?" विशंभर
दयाल जी को आईने में तरह-तरह से अपनी शक्ल बिगाड़ते देख, बॉथरूम से निकलते
पत्नी ने टोका था।
"सोच रहा हूँ, मूँछों के ये दो-चार बाल जो सफेद हो रहे हैं, उन्हें निकाल ही
दूँ?" विशंभर दयाल जी ने चेहरे पर गंभीरता लाते जवाब दिया।
"दो-चार बाल...? मुझे तो आपकी मूँछों के दर्जनों बाल सफेद हुए दिखते हैं।"
पत्नी ने उन्हें व्यंग्यात्मक लहजे में टोका।
"अपने-अपने देखने का नजरिया है...?" विशंभर दयाल जी ने तनिक मायूसी से जवाब
दिया।
"आज, किसी ने टोक दिया क्या...?" इस बार पत्नी की मुख-मुद्रा आश्चर्य-मिश्रित
मुस्कान लिए हुए थी।
"नहीं, बस्स यूँ ही।" विशंभर दयाल जी ने संक्षिप्त उत्तर दिया था।
नेपथ्य में कहीं दूर से उन्हें ट्रांजिस्टर पर ये गाना... 'जब भी कोई कंगना
बोले, पायल झनक जाए' ...बजता सुनाई दे रहा था।