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कविता

आदमी-औरत

स्कंद शुक्ल


सिर झुकाये आदमी उदास नहीं होता हमेशा
वह परकार-सा अपने केंद्र में गड़ा
अपनी ही परिधि के निर्माण में लगा होता है
भीड़भरे जवान बस-अड्डे पर, सुनसान बुजुर्ग पार्क में
दिन में दफ्तर, रात में घर पर
जिंदगी में फैलने के लिए पहले कोशिश करता है
वह गड़ने की
क्योंकि बिना खुद में खूँटा लगाये कहीं जाया न जा सकेगा
और औरत? वह क्या?
वही तो एक है जो
बिना केंद्रों के कहीं भी वृत्त बना सकती है
जो त्रिज्याओं के तीरों पर वापसी के विश्वास के साथ
कहीं बिना जाए भी हर जगह जा सकती है!


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