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कविता

परकाया-प्रवेश

स्कंद शुक्ल


रात को तुम सोते रहे हो
तो कैसे दिखेगा तुम्हें अँधेरा?
अकेलापन और सन्नाटा तुम्हें क्यों तकलीफ देंगे?
पता पूछते रास्ता भटक जाने का भ्रम क्यों तुम्हें सताएगा?
रोशनी की किल्लत को लोग न जान सकें
दिन की दिलदारी में बने रहें मस्त
इसी लिए तो दुनिया की सारी कुंठाओं-वर्जनाओं से
बनाई गई हैं रातें
सजाई गई है तुम्हारी पलकों पर खुमारी
तुम्हें आलस्य के आनंद से नवाजा गया है
कि जब रात होने लगे कहीं भी
तो तुम सोने लगो ढीले बदन
और वे सारे काम जो दिनों-दिन
हो न सके हों दहाड़ों के बीच
वे किसी छछूँदर की चिचियाहट के संग घट जाएँ
बिना किसी पुरस्कार या प्रतिकार के।
दिन में जगे रहना मुश्किल नहीं होता
संसार उठा ही देता है सभी को
दुरूह है रात में रूह बनकर
भटकना दूसरों में, टटोलना दूसरों को
परकाया-प्रवेश रात्रि-जागरण वाले ही कर पाते हैं
दूसरा कुछ भी बनने के लिए अनात्म, सूरज की उँगली छोड़नी होती है।


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