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कविता

जन्मदिन की ड्रेस

स्कंद शुक्ल


हर साल मेरे जन्मदिन पर तोहफा देता है समय
एक पुरानी पड़ती देह के लिए
नई ड्रेस बिना प्राइस-टैग के
कि इसे पहनो, विचरो, दुनिया-भर में घूम आओ।
बिना जताये परिधान धरने का ढंग
और न बताता था गुर कि साल-भर ढके घूमने का ड्रेस-कोड क्या है।
दिनों के रेशों से बनीं-सिलीं महीनों की तहें
उन तहों से बने तमाम किस्म के वार्षिक डिजायन
अपनी-अपनी फितरत के अनुसार
जिस्म की अलग-अलग कमजोरियों को छिपाते समाज से।
हर वर्तमान जो मैंने जिया वस्त्र हो लिया
यादों-सबकों के ढेर को रखने लगा इतनी देर तक
कि दिन-दिन मेरे ही अतीत में घिर कर दम घुटने लगा और थमने लगीं साँसें।
समय को पुरानेपन के साथ पहनते जाना है
आलमारियों में नहीं धरना
इतने उपहार हर साल मिलते हैं कि उनका भंडार बेकार है
सबसे नए बासी साल वस्त्र बनते हैं फिर होते हैं घर
और फिर अगर उन्हें पहन-पहन कर नहीं फाड़ा-झाड़ा गया
तो हो जाते हैं कब्र
इसलिए मैंने अपनी नग्नता से सीखा गुजरे समय को तार-तार करने का हुनर
हर बीतते वर्ष के साथ स्वयं को देह के और करीब पाया है
सामने सड़क पर गुजरते उस नंगे आदमी को देखते हुए
जिसके पास सालों से अपना कोई अतीत नहीं है।


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