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					इस कथा में मृत्यु 
				
					1 
				
					इस कथा में मृत्यु कहीं भी आ सकती है 
					यह इधर की कथा है। 
					जल की रगड़ से घिसता, हवा की थाप से रंग छोड़ता 
					हाथों के स्पर्श से पुराना पड़ता और फिर हौले से निकलता 
					ठाकुर-बाड़ी से ताम्रपात्र 
					- यह एक दुर्लभ दृश्य है इधर। 
					कहीं से फिंका आता है कोई कंकड़ 
					और फूट जाता है कुएँ पर रखा घड़ा। 
				
					गले में सफेद मफलर बाँधे क्यारियों के बीच मंद-मंद चलते वृद्ध 
					कितने सुंदर लगते हैं 
					मगर इधर के वृद्ध इतना खाँसते क्यों हैं 
					एक ही खेत के ढेले-सा सबका चेहरा 
					जितना भाप था चेहरे में सब सोख लिया सूखा ने 
					छप्पर से टपकते पानी में घुल गया देह का नमक 
					कागज जवानी की ही थी मगर बुढ़ापे ने लगा दिया अँगूठा 
					वक्त ने मल दिया बहुत ज्यादा परथन। 
				
					तलुवे के नीचे कुछ हिलता है 
					और जब तक खोल पाए पंख 
					लुढ़क जाता है शरीर। 
				
					उस बुढ़िया को ही देखिए जो दिनभर खखोरती रही चौर में घोंघे 
					सुबह उसके आँचल में पाँच के नोट बँधे थे 
					सरसों तेल की शीशी थी सिर के नीचे 
					बहुत दिनों बाद शायद पाँच रूपये का तेल लाती 
					भर इच्छा खाती मगर ठंड लग गई शायद 
					अब भी पूरा टोला पड़ोसन को गाली देता है 
					कि उसने राँधकर खा लिया 
					मरनी वाले घर का घोंघा । 
				
					वह बच्चा आधी रात उठा और चाँद की तरफ दूध-कटोरा के लिए बढ़ा 
					रास्ते में था कुआँ और वह उसी में रह गया, सुबह सब चुप थे 
					एक बुजुर्ग ने बस इतना कहा - गया टोले का इकलौता कुआँ। 
				
					वह निर्भूमि स्त्री खेतों में घूमती रहती थी बारहमासा गाती 
					एक दिन पीटकर मार डाली गई डायन बताकर। 
				
					उस दिन घर में सब्जी भी बनी थी फिर भी 
					बहू ने थोड़ा अचार ले लिया 
					सास ने पेटही कहकर नैहर की बात चला दी 
					बहू सुबह पाई गई विवाहवाली साड़ी में झूलती 
					तड़फड़ जला दी गई चीनी और किरासन डालकर 
					जो सस्ते में दिया राशनवाले ने 
					                - पुलिस आती तो दस हजार टानती ही 
					चार दिन बाद दिसावर से आया पति और अब 
					सारंगी लिए घूमता रहता है। 
				
					बम बनाते एक का हाथ उड़ गया था 
					      दूसरा भाई अब लग गया है उसकी जगह 
					परीछन की बेटी पार साल बह गई बाढ़ में 
					      छोटकी को भी बियाहा है उसी गाँव 
					      उधर कोसी किनारे लड़का सस्ता मिलता है। 
					मैं जहाँ रहता हूँ वह महामसान है 
					चौदह लड़कियाँ मारी गई पेट में फोटो खिंचवाकर 
					      और तीन महिलाएँ मरी गर्भाशय के घाव से। 
				
					  
				
					2 
				
					कौन यहाँ है और कौन नहीं है, वह क्यों है 
					और क्यों नहीं - यह बस रहस्य है। 
					हम में से बहुतों ने इसलिए लिया जन्म कि कोई मर जाए तो 
					उसकी जगह रहे दूसरा। 
					हम में से बहुतों को जीवन मृत सहोदरों की छाया-प्रति है। 
					हो सकता है मैं भी उन्हीं में से होऊँ। 
					कई को तो लोग किसी मृतक का नाम लेकर बुलाते हैं। 
					मृतक इतने हैं और इतने करीब कि लड़कियाँ साग खोंटने जाती हैं 
					तो मृत बहनें भी साग डालती जाती हैं उनके खोंइछे में। 
					कहते हैं फगुनिया का मरा भाई भी काटता है उसके साथ धान 
					वरना कैसे काट लेता है इतनी तेजी से। 
					वह बच्चा माँ की कब्र की मिट्टी से हर शाम पुतली बनाता है 
					रात को पुतली उसे दूध पिलाती है 
					और अब उसके पिता निश्चिंत हो गए हैं। 
				
					इधर सुना है कि वो स्त्री जो मर गई थी सौरी में 
					अब रात को फोटो खिंचवाकर बच्ची मारने वालों 
					को डराती है, इसको लेकर इलाके में बड़ी दहशत है 
					और पढ़े-लिखे लोगों से मदद ली जा रही है जो कह 
					रहे हैं कि यह सब बकवास है और वे भी सहमत हैं 
					जो अमूमन पढ़े-लिखों की बातों में ढ़ूँढ़ते हैं सियार का मल। 
				
					इस इलाके का सबसे बड़ा गुंडा मात्र मरे हुओं से डरता है। 
					एक बार उसके दारू के बोतल में जिन्न घुस गया था 
					फिर ऐसी चढ़ी कि नहीं उतरी पार्टी-मीटिंग में भी 
					मंत्री जी ले गए हवाई जहाज में बिठा ओझाई करवाने। 
				
					इधर कोई खैनी मलता है तो उसमें बिछुड़े हुओं का भी हिस्सा रखता है। 
					एक स्त्री देर रात फेंक आती है भुना चना घर के पिछवाड़े 
					पति गए पंजाब फिर लौटकर नहीं आए 
					भुना चना फाँकते बहुत अच्छा गाते थे चैतावर। 
				
					  
				
					3 
				
					संयोगों की लकड़ी पर इधर पालिश नहीं चढ़ी है 
					किसी भी खरका से उलझकर टूट सकता है सूता। 
					यह इधर की कथा है 
					इसमें मृत्यु के आगे पीछे कुछ भी तै नहीं है। 
				
					  
				
					बाबूजी दुखी हैं कि मरने वाले पैसा लेते हैं 
				
					पंडिज्जी ने कहा तो कहा मगर रहने दो इस खेत को 
					पूजापाठ की सुई निकाल नहीं पाती कलेजे का हर काँटा 
					बाढ़ में बह तो गया मगर यहीं तो था जोड़ा मंदिर 
					किसी तरह बचा लो मेरे माँ-बाप के प्रेम की आखिरी निशानी 
					जल रहे पुल का आखिरी पाया 
					कहते रहे पिताजी मगर बिक ही गया वो भी आखिर और 
					मोटर-साइकिल दी गई जीजाजी को जो ठीक-ठाक ही चल रही है 
					कुछ ज्यादा धुआँ फेंकती कभी-कभार। 
				
					उस टुकड़े में हल्दी ही लगने दो हर साल 
					नहीं पाओगे हल्दी के पत्तों का ये हरापन किसी और खेत में 
					शीशम तो कोई पेड़ ही नहीं कि जब बढ़ जाए तो 
					बाँहों में भरकर मापते हैं मोटाई कि कितने में बिकेंगे कटने पर 
					बार-बार समझाते रहे मगर ब्लॉक से लाकर रोप दी गईं खूँटियाँ 
					फिर वे कभी नहीं गए उधर और हमने भी डाला डेरा शहर में 
					अब विचारते रहते हैं कि जब और बुढ़ा जाएँगे बाबूजी तो खींच लाएँगे यहीं। 
				
					एक दिन हाँफते आये दूर से ही पानी माँगते 
					दो घूँट पानी पीते चार साँस बोलते जाते कि जब भी जाओ दिसावर 
					सत्तू ले जाओ गुड़ ले जाओ, न भी ले जाओ मगर जरूर लेके जाओ 
					घर लौटने की हिम्मत हालाँकि घरमुँहा रास्ते भी रंग बदलते रहते हैं। 
					सच कह रहे थे रहमानी मियाँ कि सामान कितने भी करने लगे हों जगर-मगर 
					आजादी दादी की नइहर से आई पितरिहा परात की तरह खाली ढ़न-ढ़न बजती है। 
					वो लड़का बड़ा अच्छा था बाप से भी बेहतर बजाता था बाँसुरी 
					ताड़ के पत्तों से बनाता था कठपुतली और हर भोज में वही जमाता था दही 
					पर ये कुछ भी न था काम का उस कोने में जहाँ उसने गाड़ा खंभा 
					एक त्योहार वाले दिन तोड़ लिया धरती से नाता कमर में बम बाँधकर। 
					जब से सुनी यह खबर छाती में घूम रहा साइकिल का चक्का 
					धुकधुकी थमती ही नहीं चार बार पढ़ चुका हनुमान चालीसा 
					तब से सोच रहा यही लगातार कि जिन्होंने छोड़े घर दुआर 
					जिन पर टिकी इतनी आँखें 
					उन्होंने जब किया अपनी ही नाव में छेद तो किनारे बचा क्या सिर्फ पैसा 
					तो क्या यही मोल आदमी का कि जिंदा रहे तो पैसा गिनते-भँजाते और मरे तो दो पैसे जोड़कर। 
				
					  
				
					बिन पैसे के दिन 
				
					एसे ही घूमते रहना काम माँगते धाम बदलते 
					पॉलीथीन के झोले की तरह नालियों में बहता 
					कभी किसी पत्थर से टकराता कभी मेढक से 
					इस कोलतार के ड्रम से निकल उस कोलतार के ड्रम में फँसता 
				
					कभी नवजात शिशु की मूत्र-ध्वनि सी बोलता 
					कि आवाज से सामने वाले की मूँछ के बाल न हिलें 
					कभी तीन दिन से भूखे कौए की तरह हाँक लगाता 
					कि कोई पेड़ दो चार पके बेर फेंक दे 
				
					पुजारी को तो यहाँ तक कहा कि आप थाल 
					में मच्छर भगाने की चकरी रखेंगे तो 
					उसे भी आरती मानूँगा और मनवाने की कोशिश करूँगा 
					बस एक बार मौका दे दें इस मर्कट को 
					कसाईवाड़ा गया कि मैं जानवरों की खाल गिन दूँगा 
					आप जैसे गिनवाएँगे वैसे गिनूँगा आठ के बाद सीधे दस 
					हुजूर! आप कहेंगे तो मैं अपने पाँच बच्चों को दो गिनूँगा 
				
					रोटी मेरे हाथ की रेखाओं पर हँसती है और 
					सब्जी मुझसे मेरी कीमत पूछती है 
					मैं क्या कर रहा हूँ! 
					काम माँग रहा हूँ या भीख 
					या उस देश में प्रवेश कर गया हूँ 
					जहाँ दूर देश से आई भीख का हिस्सा चुराकर कोई मुकुट पहन सकता है 
					और जिसके घर का छप्पर उड़ गया 
					वो अगर कुछ माँगे तो उसकी चप्पल छीन ली जाती है। 
				
					इतने लोगों से काम माँग चुका हूँ इतने तरीकों से 
					कि अब माँगने जाता हूँ तो ये लोग ताड़ के पेड़ पर बैठे 
					गिद्ध की तरह लगते हैं। 
					जैसे वेश्याओं को एक दिन सारे मर्द 
					ऊँट की टाँग की तरह दिखने लगते है। 
				
					  
				
					कल मरी बच्ची आज कैसे रोपूँ धान 
				
					हर जगह की मिट्टी जैसे कब्र की मिट्टी 
					पाँव के नीचे पड़ जाती जैसे उसी की गर्दन बार-बार 
					उखड़ ही नहीं पाता बिचड़ा, अँगुलियाँ हुईं मटर की छीमियाँ 
				
					       कुछ दिनों तक चाहिए भरी पोटली अन्न 
					       कुछ दिनों तक चाहिए हर रात नींद 
					       कुछ दिन तो हो दो बार नहान 
				
					उसको तो कह दिया कि सँभालकर रखना फोटो किसी संहतिया के बक्से में 
					गल गया मेरे पास का फोटो और ध्यान से चलाना रिक्शा 
					        माथे में घूमे उसका चेहरा तो भी आँख रखना सड़क की चाल पर 
					उसको कहूँ कैसे जो टहटह दुपहरिया में खोजता रहता था इमली और बेर 
					जब देह में थी यह असभगनी 
				
					पीपल के नीचे से हटाओ पत्थरों और पुजारियों को 
					        फूटी हुई शीशियों और जुआरियों को 
					नहीं नसीब कोई अपना कमरा 
					मगर पाऊँ तो बित्ता भर जगह जहाँ रोउँ तो गिरे आँसू 
					बस धरती पर 
					        किसी के पाँव पर नहीं । 
				
					  
				
					प्रारंभ 
				
					बार बार घड़े में अशर्फियों की आस 
					बार बार धरती पर उम्मीद की चोट 
					बार बार लगती पाँव में कुदाल 
					बार बार घड़े में बालू का घर 
				
					बार बार बैठता कलेजे पर गिद्ध 
					बार बार रोपता छाती पर ताड़ 
				
					बार बार माथे पर रात की राख 
					बार बार कंठ में नींद का झाग 
					बार बार भोर में ओस और सूर्य 
				
					बार बार खुरेठता आँगन को कुक्कुर 
					बार बार लीपना हरसिंगार की छाँह 
					बार बार सोचना क्या रहना ऐसी जगह 
					बार बार बदलना खिड़की का पर्दा 
				
					बार बार शोर कि नहीं बचेगी पृथ्वी 
					बार बार जल अड़हुल की जड़ में । 
				
					  
				
					स्वदेस 
				
					टूटी भंगी ईटें उकड़ूँ, ढहे स्कूल से लाई गई मुखिया के मुँहलगुवा से माँगकर 
					कुछ चुराकर भी, लुढ़का पिचका पितरिहा लोटा, पीठ ऊपर टिनही थालियों की, हंडी के 
					बचाव में पेंदी पर लेपी गई मिट्टी करियाई छुड़ाई नहीं गई आज शायद चढ़ना 
					नहीं था चूल्हे पर, एक जोड़ी कनटूटी प्यालियाँ, कुछ भी नहीं चुराने के काबिल 
					कुछ भी लाओ कहीं से तो ललकित घर ढूँढ़ता है थोड़ी सी ललाई 
					अभी तक खाली रही रात, सात आँगन टकटोहने के बाद भी नहीं दो रात की निश्चिंती। 
					       मुक्का मारूँ जोर से तो टूट जाएगी किवाड़ी 
					मगर भीतर भी तो वहीं आधा सेर चूड़ा, दो कौर गुड़, कुछ गुठलियाँ इमली की 
					सबको पता ही तो है कि किसकी चूल्हे में कितनी राख 
					एक की अँगुलियों में लगी दूसरे की भीत की नोनी 
					एक को खबर कि दूजे के घड़े में कितना पानी - उसको भी जो उखाड़ ले गया सरसों के पौधे, 
					उसको भी जो लाठी लिए दौड़ा पीछे। 
					जिसने भगाया मटर से साँड़, वही तो तोड़ ले गया टमाटर कच्चा 
					माटी के ढूह से उठते रंग बदल के सिर - कभी घरढुक्का, कभी घरैत 
					चार आँगन घूम आया लेकर सारंगी, दो जने नोत दिया हो गया भोजैत। 
					जो खींच लाता था उछलते पानियों से रोहू वो सूँघ रहा है बरातियों का जूठा पत्तल 
					एक किचड़ैल नाली लोटती चारों ओर कभी सिरहाने तो कभी पैताने पानी। 
					       फिर लौटना होगा खाली हाथ - इसी भीगी साड़ी से पोछ लूँ माथा 
					सँझबत्ती दिखाने घरनी नहाई है दोबारा 
					मुनिया की माई का भी था उपास, रखी होगी अमरूद की एक फाँक 
					या उसी का है घर जिसे डसा विषधर ने चूहे के बिल से धान खरियाते 
					नहीं ठीक नहीं ले जाना यह साड़ी किसी सेनुरिया की आखिरी पहिरन, पहली उतरन किसी मसोमात की। 
					       इतना गफ सनाटा - धाँय धाँय सिर पटकती छाती पर साँस 
					कोई हँसोथ ले गया रात का सारा गुड़, चीटियाँ भी नहीं सूँघने निकली कड़ाह का धोअन 
					कुत्ते भौंकते क्यों नहीं मुझे देखकर, कैसे सूख गया इनके जीभ का पानी 
					किसी मरघट में तो नहीं छुछुआ रहा 
					चारों ओर उठ गई बड़ी बड़ी अटारियाँ तो क्या यहीं अब प्रेतों का चरोखर 
					लौट जाता हूँ घर, लौट जाऊँ मगर किस रस्ते - ये पगडंडियाँ प्रेतों की छायाएँ तो नहीं। 
				
					  
				
					प्रतीक्षा 
				
					बसंत के मुँह से तू ही ने तो कहा था 
					                 हम साथ साथ पार करेंगे हर जंगल 
					मैं अब भी खड़ा हूँ वहीं पीपल के नीचे 
					                 जहाँ कोयल के कंठ में काँपता है पत्तों का पानी। 
				
					  
				
					किसी ठौर 
				
					मैं तुम्हारी सुराही की टूटी गर्दन लोट रहा चूर-चूर 
					सूर्य खोलता है इंद्रधनुष का रंग कोई निपट अकेला कभी कभार 
					कसता ही जाता है रेत का घेरा 
					कौन बादल ले गया वो चंद्रमा हमारी जो बुना करती थी रेत की छाँह में ओस के रूमाल 
					फिर भी कोई तो बचा के रखा होगा मेरे लिए खजूर के पत्ते भर पानी 
					कोई वजूखाना      कोई धोबी-घाट      कोई प्रेतघट। 
				
					  
				
					पुनर्जन्म के पार 
				
					कट कट जुड़ती रही नेहनाल 
					अकेला न होने दिया 
					       कभी बारिश तो कभी धूप 
					             धरती देती रही छाया उगने भर भूमि । 
				
					तुम्हारे पंख खोलने का स्वर बादलों में अब भी बजता है 
					धूप में अब भी दिपता है वसंत को दिया तुम्हारा कंगन। 
				
					कभी बादल हो रहा समुद्र हुआ 
					             तो कभी समुद्र हो रहा बादल 
					समय के काँपते हाथ में दिखते रहे सूख गई नदियों के शंख-पद्म। 
				
					पियरा रहे पत्ते के धीरज से भी हरा हमारा धीरज 
					        मगर कब तक ढ़ोते रहें पिछले जन्मों के मुकुट 
					                             आओ गल जाएँ इस हिमालय में। 
				
					  
				
					विनय पत्र 
				
					तुम भी तो भूल जाती प्रिये कभी किसी कथा की मुद्रिका कोई तो कभी किसी यात्रा में दिखा हिरण 
					सबके भूलने के अपनी-अपनी खड़ाऊँ अपने-अपने मुकुट। 
					वो पंछी जो आता इधर कभी-कभार टिकता थोड़ी देर तो तसवीर होती तेरे सेलफोन में 
					उड़ने का दुख तो मुझे भी कि सबके मन में पंछियों का बसेरा 
					कहीं कोई नीड़ तो पिंजड़ा कहीं कोई 
					साँस गहरी मैंने खींची थी जरूर बेखयाली में और इतने से उड़ तो सकता है कोई पंछी 
					मगर उसका जोड़ा भी तो आया था वहाँ गर्दन हिलाता कि उधर है कहीं थोड़ा अन्न। 
					मानता मेरी स्मृति भी पककर फटा लदबद दाड़िम छिटक गए होंगे दाने बहुत 
					तो आओ प्रिये लेकर आएँ तलघर में जल रहे रंगों के दिए 
					कोशिश करें पुनः कि हों पूर्ण चित्र अपने और इंद्रधनुष पर भी मलें कुछ रंग नवल निखोट। 
				
					  
				
					तासीर 
				
					मेरी खिड़की के पास केले के पेड़ थे 
					रात में धुलकर हुई भारी बूँदें बजती थीं टप-टप 
					तेरे आँगन में नीम के पेड़ थे 
					       मद्धम बोलते बारिश से 
				
					मुझे केले के पत्तों पर बारिश जुड़ाती थी 
					      और तुझे नीम के पत्तों पर 
					वो हमारे होने का बसंत था 
					      हमने माना कि हर जगह की बारिश होती है सुंदर 
				
					मेरा धूप माँजता था तेरी हरियाली 
					       तेरा धूप माँजता मेरी हरियाली को 
					हमारी जड़ों ने तज दी मिट्टी 
					हमारे तनाओं ने तजा पवन 
					हम ब्रह्मांड के सभी बलों से मुक्त थे 
					       नाचते साथ-साथ 
				
					अब मुझे मेरी मिट्टी बाँध रही है 
					मुझे मेरा पवन घेर रहा है 
					हर दिशा से है बलों का प्रहार 
					आओ, कहो कि कहीं भी हो अच्छी लगती है बारिश 
					कहो कि बारिश अच्छी केले पर भी नीम पर भी। 
				
					  
				
					अनुपस्थिति 
				
					तुम नहीं तो यहाँ अब मेरे हाथ नहीं हैं 
					                  एक जोड़े दस्ताने हैं 
					पैर भी नहीं 
					                  एक जोड़ी जूते की 
					देह भी नहीं 
					                  मात्र माँस का एक बिजूका जिसमें रक्त और हवाएँ घूम रही है। 
				
					  
				
					शिलालेख 
				
					बिन पैसे के दिनों और 
					बिना नींद की रातों की स्वरलीपियाँ 
					              खुदी हैं आत्मा पर। 
					बने हैं निशान 
					जैसे फोंफियाँ छोड़कर जाती हैं 
					           पपीते के पेड़ों के हवाले। 
					फोंफियों की बाँसुरियाँ 
					महकती हैं चंद सुरों तक 
					            और फिर चटख जाती हैं। 
					दूर-दूर के बटोही 
					      रोकते हैं कदम 
					                  सुरों की छाँह में 
					पोंछते हैं भीगी कोरें 
					        और बढ़ जाते हैं नून-तेल-लकड़ी की तरफ। 
				
					  
				
					नया फोटो 
				
					सबसे पुराना फोटो महज आठ साल पुराना है 
					उस साल बढ़ आई थी और पिता पंजाब गए थे 
					माँ खाना बनाकर उठी और बोल उठी 
					आज स्टूडियो जाना है पहली बार 
					क्या हुआ, कैसे हुआ, क्यों हुआ कुछ नहीं मालूम 
					बहुत सी स्त्रियाँ थीं और बहुत से हम बच्चे 
					वहीं एक फोटो है पास जिसके माथे पर पिता का भय है 
					और यात्रा की थकान 
					लगता है कि मैं गधा अभी ऊस का बोरा पटक डाला 
					घाट से पहले 
					और आता ही होगा मालिक लाठी लिए 
				
					प्रिये! तुम ही खींच सकतीं वो तस्वीर 
					जिसमें मैं पेड़ से अभी अभी गिरा ताजा पपीता 
					और डंठल से चू रहा अभी तक दूध। 
				
					  
				
					सेफ्टीरेजर का इश्तिहार 
				
					ताकतवर दिखता है इश्तिहार का मर्द महँगे 
					सेफ्टीरेजर से शेव करते हुए । 
					ताकतवर के सम्मान में और सौंपने ताकत को पूर्णता आवश्यक थी 
					इश्तिहार में एक लड़की जो खूबसूरत हो 
					       देह की माप-जोख के ग्लोबल पैमाने के मुताबिक। 
					फूस की छत और पुराने अधटूटे आइने वाले सैलून में लड़के ने 
					                                      चिपकाया है फोटो 
					बूढ़ा नाई आग हो रहा यह इश्तिहार देखकर 
					लड़का समझाता है - सेफ्टीरेजर नहीं लड़की देखिए उस्ताद। 
					इस इश्तिहार में यह लड़की बस एक लड़की नहीं है 
					बल्कि एक पतंग है जो खिंची चली आती है शक्ति-दीपों की तरफ 
					जैसे कि रेजर नहीं है सिर्फ दाढ़ी बनाने का औजार 
					       अपितु एक बिजूका है 
					       लोभ और शक्ति की कतरनों से निर्मित 
					       अगोरता घर-बाहर के धनसियारों के हितों की फसल। 
					घर, बाजार, समाज, यथार्थ, माया और सपनों के बीच सक्रिय 
					एक सूक्ष्म खेल ने ढकेला है इस इश्तिहार में लड़की को 
					जो इससे पूर्व यथार्थ से करती थी सरगोशियाँ 
					और सपनों को रखती थी सैंत-सैंतकर 
					जिनसे कभी-कभार आ टकराते थे राजकुमार के घोड़े। 
					लड़की विज्ञापन में रहती है या इस दुनिया में 
					या उस तहखाने में जो बना लेता है हर कोई 
					आत्मा की जरूरतों के अनुकूल। 
					लड़की से पूछना था जब स्नान हो किसी और के लिए तो कैसा लगता है 
					जल का स्पर्श 
					नदी में डुबकी लगाकर लौटती स्त्री ने बताया था कभी 
					- किसी के लिए भी हो नहान, उसमें रहता ही है अपना भी हिस्सा। 
					इसकी मुस्कान अब पूरे चेहरे से नहीं उठती। 
				
					किसी के आदेश से खुलती है और घुल जाती है 
					                        विज्ञापन की कथा में। 
				
					सुंदरता क्यों बन जाती है अखबार का टुकड़ा! 
				
					बनावटी सुंदरताओं की कॉरपोरेटी बुनावट 
					की एक क्षुद्र तंतु भर यह लड़की 
					जरूरी है कुछ पल के लिए झाग की तरह 
					फिर दूसरी लड़की आएगी और मुसकराते खिसक जाएगी यह लड़की 
					नई भूमिका निभाने जो तय की होगी जमाने की शक्तियों ने। 
				
					  
				
					डर 
				
					यह एक कथा है - यह मैं भूल जाता था, अन्य दर्शक भी भूल जाते थे। 
					इस दृश्य को बहुत अधिक खींच दिया गया था। 
					सब्जी खरीदने बाजार आई लड़की के पीछे चार-पाँच शोहदे लग गए थे। 
					ये एक बड़े गुंडे के लड़के थे। 
					लड़की भागती जा रही थी - शॉपिंग मॉल, पुराना चर्च, 
					नया चमकता मंदिर, मिठाई वाली गली - सब कुछ के पास से 
					गुजरती लड़की भागती जा रही थी। 
					बगल में नया जोड़ा बैठा था - युवती दुनिया की तरफ 
					थोड़ी कम खुली हुई निश्चिंत कि उसके जीवन में 
					नहीं होगा ऐसा कुछ - युवक के कंधे पर झुकी हुई थी। 
					फिर लड़की गिर पड़ी - एक वृद्धा ने ओह कहा और फिर 
					तीन चार वृद्धाएँ जो शायद बचपन की सहेलियाँ थीं 
					उस दृश्य को वहीं पर्दे पर छोड़ धीमे-धीमे कोई 
					लोकगीत गाने लगी। 
					फिर लड़कों से सीटियाँ बजानी शुरू की और ठहाके उठने लगे 
					सीटियाँ, ठहाके और ठहाके 
					उमस के रोएँ कड़े हो गए, अँधेरे का पानी सूख गया 
					और लगा बल्व जला दे कोई - चुप रहा, बहुमत इसके खिलाफ था। 
				
					इतना डर कभी नहीं लगा था इस शहर में। 
					वृद्धाओं का चेहरा घूमा द्वार की तरफ मगर शोर ने कस दिया था घेरा। 
					मेरी टाँगों में बचा था थोड़ा बल 
					तड़फड़ बाहर निकला, नया जोड़ा भी हाथ में हाथ डाले सटे हुए। 
					हाँपते बेटी को फोन किया - वो घर में माँ से कोई कहानी सुन रही थी । 
					फिर लौटा, नया जोड़ा भी - अब तक हीरो आ गया होगा। 
				
					  
				
					विज्ञापन-सुंदरियों से 
				
					इसलिए तो नहीं बचा के रखा ये क्षण 
					कि खरीद ले इन्हें कॉरपोरेट जगत चुपके से 
					देखो तो अपनी वस्तुओं की खातिर तुम्हारी सुंदरता सोखकर 
					रहने दिया तुम्हें मात्र उत्तेजक और टाँग दिया 
					इन विचार-शून्य क्षणों में। 
				
					अच्छा नहीं लगता था थरथराते कदमों से गुजरना तेरा 
					दीपक की लौ की तरह, हवा से डरते हुए 
					निऑन लाइटों की चपलता भर तो गई पैरों में तेरी 
					अब भी कोई और ही भर रहा है इनमें विद्युत-तरंग। 
					कोई और है जो तुम्हारी छवियों को जोड़ता-तोड़ता 
					डिजिटल इकाइयों में 
					बनाने के लिए चमकदार। 
				
					वो देखो, लड़की रोटी बनाना सीख रही है 
					कैसी फुलाई है पृथ्वी की तरह गोल रोटी 
					एक दिन रोटी उसे थका डालेगी और वो उदास हो जाएगी 
					नहीं दिख रही तो हटाओ अपनी आँखों की चमकीली पट्टी 
					और हर सको तो हरो उसके भविष्य की उदासी। 
				
					मुक्त तो हुई ऊखल1 से, मूसल1 से 
					पर मुक्त होओ इस विकराल ईश्वर1 से भी 
					घर से छूटकर बाजार पर मत लटको 
					तुम मुक्त होओगी तो मुक्त होंगी हमारी भी बहनें और बेटियाँ। 
				
					संदर्भ -  1.  थेरि गाथा से ली गई अभिव्यक्तियाँ 
				
					  
				
					औसत अँधेरे से सुलह 
				
					पग-प्रहार से नहीं फूलते अशोक 
					       सरल कहा ज्यों पत्नी चुनकर फेंकती है धनिया की सूखी पत्तियाँ 
					समय वहाँ भी झाड़ते हैं पंख जहाँ जल का हो रहा होता है देह 
					       सभय झाँकती बच्ची नहानघर में 
					             कि यात्रा की आँख में तो नहीं पड़े कीचक के केश - 
					कहते उतर गई उस धुवाँते निर्जन में और समेट ले गई अंधियारे का सारा परिमल 
					शेष पंखड़ियाँ कागजी कुतर रहे थे झींगुर । 
					बाहर वन की सहस्रबाहु सहस्रशीर्ष 
					            नृत्यलीन बली देह 
					            सधन तम को मथ रही थी 
					            व्योम शिल्पित, धरा शब्दित । 
					अपनी आँखें मूँद ली 
					हुआ पतित औसत अँधेरे के कुएँ में 
					       नींद मरियल फटी-मैली की जुगत में 
					जैसी-तैसी सुबह में फिर खोई भेड़ें ढूँढ़नी थी। 
				
					  
				
					या पूरी पृथ्वी 
				
					       दूब क्यों इतनी कड़ी नींद के भी तलुए को छीलती 
					       इतना घना जंगल दिखता नहीं एक भी पका फल 
					       किस घाट का पानी इसमें डाभ नहीं कर रहा ढबढब 
					इतने रंग चकमक मगर बन नहीं पाता इंद्रधनुष क्या रंगों के दूध फटे हुए। 
					       घर ही तो छोड़ा एक खुली तो है पूरी पृथ्वी 
					पर कहीं भी गाड़ूँ खंभा वहीं तारे आसमान में 
					            अकबक आँख का गोला। 
					कहीं है थोड़ी जगह जहाँ सुखा सकूँ इस पुरानी थकान में भीगे बाल 
					       या पूरी पृथ्वी माघ की बारिश में भींगती बकरी कान पटपटाती। 
				
					  
				
					इस तरफ से जीना 
				
					यहाँ तो मात्र प्यास-प्यास पानी, भूख-भूख अन्न 
					                     और साँस-साँस भविष्य 
					वह भी जैसे-तैसे धरती पर घिस-घिसकर देह 
				
					घर को क्यों धाँग रहे इच्छाओं के अंधे प्रेत 
					हमारी संदूक में तो मात्र सुई की नोक भी जीवन 
				
					सुना है आसमान ने खोल दिए हैं दरवाजे 
					पूरा ब्रह्मांड अब हमारे लिए है 
					चाहें तो सुलगा सकते हैं किसे तारे से अपनी बीड़ी 
				
					इतनी दूर पहुँच पाने का सत्तू नहीं इधर 
					हमें तो बस थोड़ी और हवा चाहिए कि हिल सके यह क्षण 
					थोड़ी और छाँह कि बाँध सकें इस क्षण के छोर। 
				
					  
				
					स्थगन 
				
					जेठ की धहधह दुपहरिया में 
					जब पाँव के नीचे की जमीन से पानी खिसक जाता है 
					चटपटाती जीभ ब्रह्मांड को घिसती है 
					कतरा-कतरा पानी के लिए 
					सभी लालसाओं को देह में बाँध 
					सभी जिज्ञासाओं को स्थगित करते हुए 
					पृथ्वी से बड़ा लगता है गछपक्कू आम 
					जहाँ बचा रहता है कंठ भीगने भर पानी 
					जीभ भीगने भर स्वाद 
					और पुतली भीगने भर जगत 
					चूल्हे की अगली धधक के लिए पत्ता खररती 
					पूरे मास की जिह्वल स्त्री अधखाए आम का कट्टा लेते हुए 
					गर्भस्थ शिशु का माथा सहला 
					सुग्गे के भाग्य पर विचार करती है 
					शिशु की कोशिकाओं की आदिम नदियों में 
					आम का रस चूता है 
					और उसकी आँखें खुलती जाती हैं उस दुनिया की तरफ 
					जहाँ सर्वाधिक स्थान छेक रखा है 
					जीवन को अगली साँस तक 
					पार लगा पाने की इच्छाओं ने 
				
					माथे के ऊपर से अभी-अभी गुजरा वायुयान 
					                   गुजरने का शोर करते हुए 
					ताका उत्कंठित स्त्री ने 
					             आदतन ठीक किया पल्लू जिसे फिर गिर पड़ना था 
					बढ़ी तो थीं आँखें आसमान तक जाने को 
					           पर चित्त ने धर लिया अधखाया आम 
					और वक्त होता तो कहता कोई 
					           शिशु चंद्र ने खोला है मुँह 
					           तरल चाँदनी चू रही है 
					       अभी तो सारी सृष्टि सुग्गे की चोंच में 
					           कंपाऽयमाऽन । 
				
					  
				
					निर्णय 
				
					स्वयं ही चुनने प्रश्न 
					और उत्तरों को थाहते धँसते चले जाना स्वप्नों के अथाह में। 
					कहीं कोई यक्ष नहीं 
					       कि सौंपकर यात्रा की धूल उतर जाएँ प्यास की सीढ़ियाँ। 
					समय के विशाल कपाट पर अँगुलियों की खटखट 
					लौट-लौट गूँजती है अपने ही कानों में 
					ये घायल अँगुलियाँ अंतिम सहयात्री शरशैय्या-सी। 
					जितना भींग सका पानी में 
					बदन में जितना घुला शहद 
					जितना नसीब हुआ नमक 
					कौन कहेगा - कम है या ज्यादा 
					खुद ही तौलना 
					         तौलते जाना 
					जरा सा भी अवकाश नहीं रफवर्क का 
					और कोई सप्लीमेंट्री कॉपी भी नहीं । 
				
					  
				
					संशय 
				
					आग की पीठ से पीठ रगड़ना कभी, कभी पैरों में बाँध लेना जल की लताएँ 
					रात की चादर की कोई सूत खींच लेना फेंट देना उसे सुबह के कपास में 
					कमल के पत्ते से छुपाना चेहरा, फोटो खिंचवाना गुलाब से गाल सटाकर 
					ट्रेन से कूदना देखने मोर का नाच और बुखार में हाथ हिलाना जुलुसियों को 
				
					कोई मेघ उड़ेलता उस घाट जल जहाँ मेरी लालसाएँ धोती हैं वस्त्र 
					या बस लुढ़क रहा एक पत्थर बेडौल अटपट गुरुत्व के अधीन। 
				
					  
				
					यात्रा 
				
					मैं कहीं और जाना चाहता था 
					       मगर मेरे होने के कपास में 
					       साँसों ने गूँथ दिए थे गुट्ठल । 
				
					इतनी लपट तो हो साँस में 
					कि पिघल सके कुमुदिनी के चेहरे भर कुहरा 
					कि जान सकूँ जल में क्या कैसा अम्ल 
					मैं अपनी साँस किसी सुदेश को झुकाना चाहता था 
					       नहीं कि कहीं पारस है जहाँ मैं होता सोना 
					       बस, मैं अपना लोहा महसूस करना चाहता हूँ । 
				
					  
				
					रात्रिमध्ये 
				
					तै तो था एक एक सुग्गे को बिंबफल 
					उसका भी वो जो उद्विग्न रातभर ताकता रहता चाँद 
					अगोरता रहा सेमल का फल पिछले साल 
					वन वन घूम रही प्यास की साही 
					निष्कंठ ढ़ूँढ़ती कोई ठौर, पथराई हवा से टूट रहे काँटे 
				
					घम रहा रात का गुड़ 
					निद्राघट भग्न पपड़िया रहा मन 
				
					खंभे हिल रहे थे, तड़-तड़ फूट रहे थे खपड़े 
					ग्राह खींच रहा था पिता के पाँव 
					उस अंधड़ में बनाया था कागज की नाव भाई की जिद पर 
					सुबह भूल गया था भाई, गल गई कहीं 
					या चूहे कुतर गए 
					या दादी ने रख दिया उस बक्से में जहाँ धरा हुआ है उनका रामायण 
					और सिंहासन बत्तीसी 
					छप्पर की गुठलियाँ दह गई 
					इधर की गुठली हुई आम किधर या सड़ गई 
					किसी लाश की लुंगी में फँसकर किसी डबरे में 
					मुठभेड़ के बाद वह आदमी सड़क हो गया 
					दौड़ रहे महाप्रभुओं के रथ, कल तो वो 
					डाभ मोला रहा था बच्चे संग लिए 
					वसंत की उस सुबह रक्त में घुली थी जिसकी छुअन 
					क्या उसका चेहरा भी हो गया फटा टाट! 
					चेहरे क्यों हो जाते फसल कटे खेत एक दिन 
					ताजिया पड़ा हुआ... निचुड़ती रंग की कीमिया पल पल... 
					लुटती रफ्ता रफ्ता कागज की धज... 
					ये कहाँ चली छुरी कि गेंदे पर रक्त की बूँदें 
					कुछ भी नहीं जान सका उस तितली की मृत्यु का 
					मैं तो ढूँढ़ रहा था कबाड़ में कुर्ते का बटन 
					हर कठौती की पेंटी में छेद, हर यमुना में कालियादह 
					कहाँ भिगोऊँ पुतलियाँ... किस घाट धोऊँ बरौनियाँ... 
					ताँत रँगवाऊ कहाँ... किस मरुद्वीप पर खोदू कुँआ 
					बहुत उड़ी धूल, पसरा स्वेद-सरोवर क्षितिज के पार तक 
					रौशनी सोख रही आँखों का शहद... 
					धर तो दूँ आकाश में अपने थापे हुए तारे 
					...क्या नींद के कछार में बरसेंगी ओस 
					पंक हुए प्यास में जनमेगी हरी दूब जहाँ दबे पाँव चलेंगे देवगण... ! 
				
					  
				
					उम्मीद 
				
					कभी तो सोऊँ बच्चों को खेलाते-खेलाते सुलाकर 
					हो तो मेरे आगे नींद में बच्चों का छप-छप 
					कई दिन से सोच रहा कॉल करूँ कि यार 
					                   क्या तूने लगवा लिए वे दाँत जो अमरूद तोड़ने में 
					                                                 टूट गए थे 
					बहुत देर तब बजता रहा फोन 
					नहीं हुई हिम्मत कि जैसे छाती में नहीं कोई बात अब कहने की 
					कौन खोंट लेता है मन पर उगी हरी दूब 
					नोनही हुई जा रही पूरी की पूरी जमीन 
				
					यह कौन छुपा रहा है मेरी इच्छाओं में तीर 
					       टिन के डब्बे हो जाएँगे एक दिन मेरे बच्चे! 
					क्या ऐसे ही ठुका रहूँगा दीवार में ताउम्र 
					       फूटे घड़े की तरह कुएँ से बहुत दूर 
					नहीं, किसी दूरबीन के शीशे में घुल जाऊँगा 
					और कूद जाऊँगा चाँद के पार किसी नदी में। 
				
					  
				
					अपने घर में 
				
					बहुत सी ट्रेनें थी चलती 
					       बहुत से वायुयान 
					धीरे-धीरे जाना और जानना अच्छा लगा 
					       कि अकेला नहीं आया इस धरती पर 
					चलने के इतने सामान 
					और बैठने के भी 
					इससे बेहतर स्वागत क्या हो सकता है एक जीव का पृथ्वी पर 
					पृथ्वी घर है तो और क्या चाहिए किसी को एक घर से 
					       मगर एक हाथ बढ़ने में भी लगता कितना जोर! 
				
					एक दिन समय बदलेगा तो घूमूँगा ऋतुओं और महलों के आर-पार 
					और साफ करबा लूँगा दीवार की नोनी जहाँ पीठ टेकता हूँ। 
				
					  
				
					बाढ़ के दिनों में सरकार के बंदों से 
				
					क्या तुम्हें शर्म नहीं आती! 
					क्या तुमने दूध के लिए रोते बच्चों को देखा है? 
					अपनी माँ से पूछ लो 
					नहीं, तुमसे छूट गई होगी वो भाषा 
					जिसमें माँओं से बात की जाती है। 
					क्या तुमने तेजाब की शीशी को 
					बच्चों की पहुँच से दूर किया है कभी? 
					अपनी पत्नी से पूछ लो 
					नहीं, तुम्हारे पास वो वीणा कहाँ जिसपर 
					बच्चों के हित बढ़ रहे स्त्रियों के हाथ बजते हैं । 
				
					तुमने परमाणु बम बनाया 
					      चाँद को छूआ 
					वह दस दिन का बच्चा डूब रहा पानी में 
					वो कागज का टुकड़ा नहीं जिसे तुम फेंक देते हो बिना दस्तखत के 
					शिशु-शरीर वह बसती है जिसमें सभ्यता की सुगंध 
					तुम इस दस दिन के बच्चे को नहीं बचा सकते 
					तुम्हें शर्म नहीं आती! 
				
					तुम्हें नींद आती है! 
					अब तो मुझे शर्म अपने पुरखों पर कि उन्होंने नींद तक राहें बनाईं 
					मुझे शर्म है अपनी नींद पर भी 
					कि जिससे तेरा रिश्ता उससे मेरा भी। 
				
					  
				
					स्वीकार 
				
					गगन देखता हो प्रसन्न 
					       बारिश के शीशे से 
					कभी झमझम मुटाता 
					तो कभी झिहिर झिहिर पतराता शीशा। 
				
					हमारी ही भीत धँसती बढ़ रहे जल के जोर से 
					हमारे ही पेट कटते, खेत फटते लौट रहे मेघों के पुच्छ-प्रहार से 
					और हम ही चुनने उतरते आँगन में जल हो रहीं बर्फ की गोलियाँ। 
				
					  
				
					कि 
				
					तो ठीक है पुत्र 
					चलो काट देते हैं इस वृक्ष को 
					कि अब तो तुम्हें ही रहना यहाँ 
					कि इस पर सुसताते पक्षियों के पंख झरते हैं 
					घुड़साल की छत पर 
					कि मैं कहीं और किसी वन में ढूँढ़ लूँगा 
					इसका समगोत्र 
					कि इस वृक्ष के साथ रहते-रहते मैंने भी 
					सीख लिया है कंधों पे कोयलों को बिठाना 
					किंतु उतरो घोड़े से धरती पर तो एक बात रखूँ 
					कि पता नहीं तुम सुन रहे कि नहीं 
					कि घोड़े तो दौड़ते-दौड़ते थककर सो लेते खड़े-खड़े घुड़सवार नहीं 
					कि कभी-कभी आदमी चाहता है मात्र एक चटाई और अश्वत्थामा माँगता मृत्यु 
					कि कभी-कभी कुशल धावकों को भी 
					कठिन हो जाती फेफड़े भर हवा 
				
					  
				
					गरीबी के दिनों में 
				
					महँगी शर्ट पहनने के बाद दफ्तर नहीं 
					       मौसी के घर जाने की इच्छा होती है। 
					बहुत याद आती है उस दोस्त की 
					       जो छूट गया जामुन से गिरकर 
					अदल-बदल लेते थे जिनसे कपड़े। 
					महँगी शर्ट पहनने के बाद माँ को देखता हूँ 
					       कि कैसे खिलता है एक का सुख दूसरे के चेहरे पर 
					महँगी शर्ट पहनने के बाद पिता की तरफ देखता हूँ 
					       गया वक्त लौट नहीं सकता 
					       कह नहीं पाता एक शर्ट आपके लिए... 
				
					  
				
					महाप्रभु 
				
					एक पतंग नाचती बहुत ऊपर 
					बढ़ती जाती हवाओं को धकियाती हुई 
					चमकती किसी खबर का कोई चटख रंग ले उधार 
					कुबेरों की लार सूखी कागज कड़कड़ 
				
					सूत नहीं कोई माँझा नहीं चरखी नहीं 
					कोई संग नहीं इस धरती से 
				
					इसकी उड़ान ही फाड़ेगी इसे किसी धूप वाले दिन में 
					गिरेगी धरती पर धड़ाम 
					भृत्यगण दौड़ेंगे बच्चों के प्रबंधन में 
					       वे रोएँ कि उन्हीं के लिए वह घूमता रहा आकाश-पाताल 
					कोई नहीं रोएगा 
					कोई निकल जाएगा मूढ़ी फाँकने 
					कोई खेलने कंचा 
					कोई ढूँढ़ने गेंद उस सुदूर झाड़ी में। 
				
					  
				
					विकल्पहीन 
				
					इधर नींद नहीं आती 
					छूटा हुआ घर नींद की किवाड़ पर रात भर पटकता लिलार 
					लगने जा रही साँकल खुल खुल जाती हींग की महक से 
					लगता है किसी खुली कब्र में फँस गया, हवाएँ डाल रहीं मिट्टी। 
					यहाँ जो जिन्नात पोसते हैं सब हैं पहुँच से दूर 
					सोचा कर ही दूँ फोन यहाँ दिन नहीं कट पा रहे 
					जहाँ भी जाता हूँ तलवे आँगन की मिट्टी खोजते हैं 
					अब मैं लौट रहा हूँ नहीं होगा पैसे-बैसे का बंदोबस्त 
				
					वहाँ अपनी ही तरफ का बच्चा फोन पर था 
					माँ मैं ठीक हूँ भरपेट खा रहा हूँ इन दिनों 
					छोटका को पढ़ाते रहना 
					मैं बचा कर लाऊँगा कुछ पैसा जरूर। 
					अब मैं किस मुँह से फोन करता 
					वो दस के नीचे और मैं तीस पार का 
					मेरा भी छोटा भाई पिता असमय वृद्ध। 
				
					  
				
					सागपात के चोर 
				
					इन्हें पता है कि किसके आँगन में खिले हैं गेंदा 
					जी खोलकर 
					और किसके बारी के नींबू होते हैं महकीले और रसदार 
					मटर के पौधों की गोद हरी-भरी है छमियों से 
					किसके खेत में 
					और किस खेत की मूली बच्चा चबाने में भी 
					लगती है मजेदार 
					गाँव में कहाँ है वह पौधा हरी मिर्च का 
					जिसकी तासीर है सबसे तीखी 
					और किस पेड़ पर लगे टिकोर मन को कर देते हैं 
					महमह। 
				
					ये दबे पाँव तोड़ लाते हैं गेंदा 
					      और चढ़ाते हैं देव-प्रतिमाओं पर क्षमा-याचना सहित 
					या दे देते हैं बच्चों को खेलने के लिए और अंदाजते हैं 
					      उनके चेहरों की खुशी 
					सफाई से तोड़ लाते हैं एकाध नींबू 
					      मिलता है घर में सभी को एक-एक फाँक 
					ओस सूखने से पहले पहुँच जाते हैं खेत में 
					      नजरों से टटोलते चारसू तोड़ते हैं छीमियाँ 
					दो-चार चखते हैं 
					      शेष बाँधकर गमछे में ले आते हैं घर वालों के लिए। 
				
					ये न हों तो घर-बाहर के कितने 
					      चख न पाएँ मीठे टिकोले 
					और कितनों की थाली वंचित ही रह जाए 
					      हरी मिर्च की महक से 
				
					गाँव की वर्णमाला के समर्थ जानकार ये 
					      बाँटते हैं बिन-माँगी सलाह 
					      फूल-पत्तियाँ सँवारने के लिए 
					अक्सरहाँ ये उन्हीं में से 
					      जिनकी चादर पाँव से छोटी 
					      और अमूमन ये होते हैं खिलाफ करने के कुछ ऐसा-वैसा 
					      इन्हें समतूल करने के लिए। 
					चार साँसों की इनकी चोरियाँ 
					      आज और अभी के लिए 
					कल के लिए जहाँ से शुरू होता है प्रचय 
					उससे पहले ठहर जाती हैं ये चोरियाँ। 
				
					  
				
					बाट पर 
				
					शिशु थे तो सलोने स्वप्न थे 
					कागज की नाव की तरह डोलते थे इधर-उधर 
					       जिस नाले उतर जाते वहीं नदी हो जाता 
					जरा सी हिलोर से भींग जाते थे पोर-पोर 
					       हम वे खत थे जिन्हें दुलार से पहुँचाता था नामावर 
				
					अगरचे हो उनके मतलब कुछ भी नहीं 
					       थिर भी न हुए पैर कि बँध गए घुँघरू 
					भर पेट भोजन अगर आ गया बजाना 
				
					किसी काठ से बना होगा हमारा कागज 
					       अब कागज को कहते कि बनो काठ 
					क्या करें हम-कागज बनें कि काठ 
					क्या चीनी नहीं सँभाल सकता गुड़ का थोड़ा सा स्वाद! 
				
					  
				
					पतन 
				
					बारिश देखता था तो कागज की नाव बन जाता था 
					जंगल देखता था तो मोर 
					बच्चा देखता था तो उसके बालों का लाल रिबन बनता था 
					चिड़िया देखता था तो उसके पंख के पड़ोस की हवा। 
				
					किस ऋतु ने सोख लिया मन का शहद 
					कँवल देखता हूँ तो उसकी कीमत सोचता हूँ 
					हाथीदाँत देखूँ तो नहीं दिखे पुतली माँजती धवल धातु 
					दिखे एक विशाल जानवर के लोथ का महँगा हिस्सा 
					हद तो यह कि बच जो गई है कुछ अच्छाइयाँ 
					उन्हें मोल लेने का कोई ईश्वर ढ़ूँढ़ता हूँ । 
				
					  
				
					चिंता 
				
					रहा करता था पहले चावल का दाना निर्भय और अनावृत 
					रहा होगा बहुत दिनों तक मौज 
					कि सिसोह लें दो-चार सीस1 
					       और डाल लें मुँह में 
					       पौधों की गंध सहित। 
					कहते हैं एक दिन ध्वस्त हो गया उपयोग और 
					             लोभ के बीच का संतुलन 
					और चावलों के दानों पर उगने लगे भूसे 
					लोभ तो बढ़ता ही जा रहा है 
					       तो क्या छुपना पड़ेगा चावल को 
					       सख्त खोल में नारियल की तरह 
					फिर औरतें फोड़ेंगी रखकर इन्हें सिलबट्टे पर 
					ओह! तब कुटाई हो जाएगी कितनी महँगी 
					और गरीब औरतों पर गिर पड़ेगा एक अतिरिक्त काम। 
					आप बचाएँ, आप बचाएँ ह्वाइट हाउस, 
					बकिंघम पैलेस और पार्लियामेंट को 
					पर इन धानों को भी तो बचाएँ 
					जिन पर चोट कर रहे हैं 
					खाद-पानी की महँगाई, ट्रान्सजेनिक चतुराई 
					       और मल्टीनेशनल टिड्डों के दल 
					श्रीमान, बचाएँ इन्हें, मनाएँ इन्हें 
					धान रुठ गए तो हम कहीं के नहीं रह जाएँगे 
					तब क्या आप ही बच पाएँगे और बच पाएगी 
					       यह पृथ्वी ही! 
				
					1.  बाली 
				
					नोटः-   जनश्रुति है कि पहले खेत में अनावृत चावल उपजते थे ,  किसी ने दूसरे के खेत से चुराकर खा लिया तो फिर धान उगने लगे। 
				
					  
				
					धान 
				
					कमजोर दिखता यह पौधा न तेज धूप से डरता है 
					                        न कमरतोड़ पानी से 
					चाहिए इसे बस पत्ते भर धूप और जरूरत भर पानी 
					डूबा हो कंठ तो भी न सोखेगा एक बूँद ज्यादा 
					बाँट लेगा हर एक बराबर-बराबर । 
					जरा सी हड़बड़ी नहीं खलिहान पहुँचने की 
					सातवें फूल तक करता है इंतजार गभाने के लिए 
					एक दे देता है जगह दूसरे को फैलने के लिए 
					कितना मुश्किल यह ऐसे समय में 
					जब कन्याभ्रूण से छीनते हैं माता-पिता गर्भाशय का पवित्र कोना 
					बरजोरी किसी पुरुषभ्रूण के लिए। 
				
					हीरा सदा के लिए उपजता यह 'गिरहथ' के खेत में 
					मेरे लिए पोखर किनारे दसकठवा में 
					       और शासकों के लिए तो बस यूँ ही, उपज जाता है 
					और पहुँच जाता है प्लेट में, पुलाव बनकर। 
				
					  
				
					किसान की जेब में लॉटरी की टिकट 
				
					वो उड़ने वाला हेलीकॉप्टर लेकर आया 
					                  दादी भी खुश हुई। 
					सुबह निकला देखने मेड़ जिसकी ओट में 
					                  बेरोजगारी छुपाता था। 
					अब वो ऊँचे मकानों और भारी ओवरब्रिजों की ओट में 
					बेरोजगारी छुपाता है। 
				
					रात में गफ अँधेरा दिखा तो सोचा यह अच्छी जगह है 
					             सुबह से खूँटियाँ गड़ने लगीं। 
					खैनी खाने का मन जागा तो पिता की जेब टटोली 
					       एक और तलघर जहाँ वो पिता के जूते में पाँव डालता है। 
					एक कागज दिखा 
					       डर कि चमकीले कागज पर भी लिखे जाते हैं स्यूसाइड नोट्स। 
					लॉटरी की किकट थी 
					       सोचा किसने कुतर दी पिता की जिद की अनिश्चय में छलाँग। 
					पेट का पानी डोल गया 
					       कि कुछ अनिश्चितताएँ तो जीवन के बाहर भी ले जाती हैं। 
				
					  
				
					उत्तर यात्रा 
				
					बहुत दूर से आ रहा हूँ 
					       चिड़इ की तरह नहीं 
					चिड़इ तो माँ भी न हुई जो वह चाहती थी 
					       कथरी पर सुग्गा काढ़ते, भरथरी गाते। 
					जुते हुए बैल की तरह आया हूँ 
					       बंधनों से साँस रगड़ता और धरती से देह 
					               हरियाली को अफसोस में बदल जाने की पीर तले। 
				
					मेरी देह और मेरी दुनिया के बीच की धरती फट गई है 
					       कि कहीं से चलूँ रास्ते में आ जाता कोई समंदर 
				
					किसके इशारे पर हवा 
					कि आँखों में गड़ रही पृथ्वी के नाचने की धूल 
				
					इतनी धूल      इतना शोर     इतनी चमक    इतना धुआँ     इतनी रगड़ 
					हो तो एक फाँक खीरा और चुटकी भर नमक 
					कि धो लूँ थकान का मुँह। 
				
					  
				
					हम तक विचार 
				
					बस उबड़-खाबड़ एकपेरिया हम तक विचारों का 
					और घोर हुआ जा रहा खेत-भुक्खड़ किसानों की छाँट से 
					जगह-बे जगह सियार का मल 
					मख जाए तो फूल जाए पाँव 
					अगल-बगल अरहर की खूँटियाँ 
					सुना है अंग्रेज हाकिम खस पड़ा था इन पर 
					      और और हाकिम हो गया था 
				
					इधर के तो नहीं ही वे 
					विचार लपकते जिनकी तरफ वायु वेग से 
					       कभी हनुमान बनकर 
					       कभी इलक्ट्रॉन सनकर 
					पहुँच जाते सीधे बड़ी आँत से सटसट 
					मेरे मुँह तो देसी ओल का कबकब 
					एक फाँक सोचूँ तो चाटूँ नींबू एक फाँक। 
				
					  
				
					साथ 
				
					क्या सच में ताक रही थी मुझको 
					चेहरा क्या उसी रंग में था 
					       उस दिन जब झाड़ी में छुप गई थी गिलहरी 
					पुतलियाँ क्या वैसे ही घूम रही थी 
					ढ़ूँढ़ती है जैसे गुब्बारे का मुँह 
				
					कोई खास बात नहीं 
					वैसे ही पूछ रहा था 
					बाहर बहुत तेज धूप थी 
					       घूम रहा था सिर 
					       समझो गिर ही पड़ा था सड़क पर 
					लिया एक फाँक तरबूज तो 
					बहुत याद आए तुम सब। 
				
					  
				
					शक्ति-तंतु 
				
					थोड़ी तेल ढाल दो ढिबड़ी में 
					बढ़ा दो बाती फगुनिया की माई 
					हिया के हंडी में हो रहा हड़हड़ । 
				
					बदरे को बाँध ले गया सिपाही 
					उसी के साथ लोन पर लिया था बैल सिलेबिया 
					हिसाब तो हो गया रफा-दफा 
					मगर कौन भरोसा सरकारी कागज-पत्तर का 
					थोड़ा भी हुआ उन्नीस-बीस तो धर लेगी पुलिस 
					अब इस बुढ़ौती में बर्दाश्त नहीं होगा इतनी बेज्जती इतना धौंजन। 
				
					ठंड अब सीधे हड्डी में गड़ता है 
					बुढ़ापे में देह का मांस भी हो जाता है पुरानी रजाई 
					कहीं घूरा के पास बैठने का मन था 
					जिसके पास ओढ़ना-बिछौना उसी के पास तो डाँट-पात 
					उस टोले में घूरा जोड़ा था भीखन मिसर ने 
					वहीं जाके बैठ गए तो खिलाया तमाखू और 
					कहने लगा गोतिया सभ का कहानी 
					किसी का नहीं होता दुनिया में कोई 
					सब घर एके हिसाब 
					हमारे मन में घूम रहा था मगर लोन का लट्टू। 
				
					धन्नो बाबू का बचवा अमरीका का मशीन ठीक करता है 
					सो उसके घर में कुह-कुह करने लगा है पैसा। 
					वैसे भी नामी खानदान है 
					सत्तनारायण कथा तक में बनता था तीन रंग का परसाद 
					       बहुत बाभनो को नहीं मिलता था एकनंबरी परसाद। 
					दरबज्जा पे भागवत बँचवा रहा है 
					वहीं जाके बैठ गया सोचकर कि दस जन बैठेंगे साथ और 
					सुनेंगे कथा-पुरान तो भाग जाएगा माथे में बैठा मधुमक्खी । 
				
					बड़ा सरजाम है इस कॉलेजिया बाबा का 
				
					देखा था फहफह दाढ़ी वाले महतमा को 
					            चभर चभर बोलते टीवी पर। 
					बीच-बीच में सारा आसन-बासन झंडा-बंडा 
					दरसनिया-परसनिया लुप्प से बिला जाता था जब 
					झम-झम करती आती थी किसिम किसिम के अटपटिया-फटफटिया का 
					गुन गाती भुक-भुक हँसती बिलैती लड़की। 
					लोक-परलोक का किस्सा सुनते जब अकछा जाता था मजमा 
					तो महतमा सुमिरने लगते थे किसिम-किसिम के देवता-पितर। 
				
					इस महतमा के आवाज में भी साध था मगर 
					जब पिराई आवाज में सुमरते थे निरगुनिया बाबा तो 
					बज्जर से बज्जर कलेजा करने लगता था टह-टह। 
					पूरे जवार में नहीं था वैसा दाढ़ी सिवाय ठक्कन बाबा के 
					बड़का गाँव के जमींदार ने गछा था दो किलो सरसों तेल 
					फी महीना दाढ़ी पोसने के लिए 
					पूरा बरहबीघवा घूम आए निरगुनिया बाबा लाठी ठकठकाते 
					नहीं छूआ एक तिनका सिवाय एक कनेर के फूल के 
					कान में खोसने के लिए। 
					हाट पर फेंके सब्जी सब से छाँटकर बाबा ने बनाया था तरकारी तो 
					हाथ चाटते उठे थे पाँचों जन 
					जब भी खाली पेट सोते थे सपना में आता था वही तरकारी । 
				
					कॉलेजिया बाबा भी कहानी बढ़िया पसारते हैं 
					मिलाने आता है सूता से सूता 
					मगर छाती में नहीं उठता है कोई अंधड़ 
					और पुजापा भी बहुत फैलाते हैं 
					बहुत नक्सा बाँधते हैं सरग-नरक का 
					सारा मोह-माया धरती पर चू जाने के बाद जब 
					             खह-खह जल जाएगा देह का भूसा और 
					इस घाट रहेंगे हम और उस घाट तुम फगुनिया की माई 
					तो फिर किसे फिकिर कि सरग मिला या नरक। 
				
					टीवी वाले महतमा भी बहुत गुन गाते थे हाकिम-हुकुम का 
					और कॉलेजिया बाबा भी बहुत चौहद्दी सुनाते हैं ताकतबाज सब का। 
					गंगा के दिअरा में कथा सुनाए थे क्राइमर को 
					तो चाकू से काटने लायक खिलाया था दही 
					बाँच रहे थे किस्सा कि पुलिस के हाकिम ने 
					पिलाया था रंग-बिरंगा ठंडा 
					जब से बाँध के ले गया बेचारा बदरे को 
					पुलिस के नाम से भड़क जाता है रोयाँ। 
					हम गए थे वहाँ मन करने थिर 
					             मगर बाबा के रमनामी में भी था वर्दी का सूता 
					धड़फड़ ससर गए वहाँ से और एके निसास में पहुँचे हैं घर। 
				
					सच कहती हो फगुनिया की माई 
					अपनी मुट्ठी में ही अपनी जिनगी का मरम 
					लगता है आँख लग जाएगी अब धीरे-धीरे 
					ढिबरी बुझा दो और भिनसारे बाँध देना गमछा में थोड़ा चूड़ा 
					          मुनिया को देखने जाएँगे बहुत दिन हुआ उसका मुँह देखे। 
				
					  
				
					सहमति 
				
					अब इस जर्जर काया पर मत व्यय करो धन 
					एक दिन जाना ही है तो जो बच जाए बचा लो 
					सड़क किनारे बिक रहा खेत खरीद लो उसको 
					मुझे भी साथ ले चलना दो पैसा कम करवा दूँगा 
					अब मुझे जाने दो, जो बच रहा है बचा लो। 
					       घर में एक-दो तो तुरत सहमत हुए 
					जो सहमे शुरू में वे भी सहमत हुए 
					पड़ोसी भी सहमत हुए। 
				
					सब आए श्राद्ध में मुखिया, सरपंच, एमएलए का भी एक खास आदमी 
					जय जय हुआ, सब ने माना कि अभी ही खरीदी थी जमीन इतनी महँगी 
					और अभी ही ऐसा भव्य श्राद्ध! 
					                         पराक्रम की बात है। 
				
					  
				
					दाल बराबर याद रखना 
				
					याद रख पाना आसान कहाँ उतना 
					जितना कि वक्त पर काम आ सकने वाले 
					टेलीफोन नंबरों को उचारकर मान लेते हैं हम। 
					कंप्यूटर की कुंजियों को दबाने से 
					जो सूचना-मरीचिका बनती है 
					कुछ सूचनाएँ ठंडी मेमोरी से उछलकर 
					चौंधियाऊ स्क्रीन के पीछे जमा हो जाती हैं 
					वे तो सोने के पानी से भी कम गहरी होती हैं। 
				
					याद रह भी जाए कि कौन-सी दाल बनती थी घर में अमूमन 
					तो भूल जाते हैं छौंक की लय 
					रही और बटुली की संगत से उत्पन्न झंकार 
					और स्वाद की सतरंगी परतें। 
				
					माँ ने कहा था कि यह मिर्च का टुकड़ा फेंक दो निकालकर 
					वरना बेहाल हो जाएगी आँखें और मुँह के अंदर की त्वचा 
					कठरा वाली ने दिया था इसका बीया 
					बड़ी तीखी तासीर है इसकी। 
				
					माँ ने यह भी कहा था कि मत छोड़ो उसे 
					वह जो थोड़ी-सी बची है कटोरी की पेंदी में 
					अपनी कटोरी में बची थोड़ी दाल भी बहुत होती है 
					अब भी भाग्यवान को ही नसीब होती है 
					भरी कटोरी गाढ़ी स्वादिष्ट दाल 
					और भी बहुत कुछ कहा था माँ ने...। 
				
					दाल बराबर भी याद नहीं... 
					घनघन कर रही पाँखलगी चींटियाँ सूचनाओं की 
					वो तो एक ने उठाया धरती से शक्कर तो आई माँ की याद। 
				
					  
				
					विवश 
				
					पेड़ की टुनगी से अभी-अभी उड़ा पंछी 
					आँखों के जल में उठी हिलोर 
					              मन के अमरूद में उतरा पृथ्वी का स्वाद 
					इसी पेड़ के नीचे तो छाँटता रहा गेहूँ से जौ 
					उस शाम थकान की नोक पर खसा था इसी चिड़िया का खोंता 
					कंधे पर पंछी भी रहा अचीन्हा, 
					मैं अंधड़ की आँत में फँसा पियराया पत्ता 
					सँवारने थे वसंत के अयाल 
					            पतझरों के पत्तों के साथ बजना था 
					बदलती ऋतुओं से थे सवालात 
					            प्रश्नो में उतरता सृष्टि का दूध 
				
					मगर रेत के टीले के पीछे हुआ जन्म 
					मुट्ठी-मुट्ठी धर रहा हूँ मरुथल में। 
				
					  
				
					एक दुख यह भी 
				
					इच्छा थी कि 
					चलूँ तो हरियाए पेड़ साथ लेकर चलूँ 
					पके बेर 
					अपनी तरफ के पानी से भरा तरबूज 
					बहुत-बहुत रौशनी में भकुआ गया उल्लू 
					और वो बूढ़ा कठफोड़वा लेकर जो अब 
					केले के पेड़ ढ़ूँढ़ता फिरता है 
					मगर 
					जहाँ भी जाता हूँ कोई दीवार साथ लग जाती है 
					जहाँ कुएँ का जल सूखा वहीं एक दीवार सीना फुलाए 
				
					खिड़की से भी आती हवा तो दीवार से पूछकर पता 
					लज्जा थी कभी कोई कि कोई क्या कहेगा दीवार देखकर 
					कोई कुछ नहीं कहता 
					अब तो यह दुख कि कोई कुछ नहीं कहता। 
				
					  
				
					प्रतिमान 
				
					वो एक पुरानी दुकान बब्बन हलवाई की 
					वहाँ मिठाइयों से मक्खियाँ भगा रहे एक वृद्ध 
					स्वाद बचाने का कोई व्रत हो कदाचित। 
					कहते हैं सन बियालीस की लड़ाई में इनकी टाँग टूट गई थी 
					गोतिया था लिखने-पढ़ने में होशियार सो उठा रहा स्वतंत्रता-पेंशन। 
					इनके जीभ में किसी जिन्न का वास है 
					       तुरंत बता देंगे किस दुकान का है पेड़ा। 
					बाइस कोस से आता था इनको न्योता 
					तीस साल से था इनके हाथ में पीतल का लोटा सवा किलो का 
					       दो साल पहले कोई छीन ले गया धुँधलके में। 
					चौक के तीन-चार हलवाई इनसे पैसे नहीं लेते 
					       आखिरी टिकान इनकी हुनर की इज्जत का। 
					खानें की चीजें अब बहुत दूर से आने लगी हैं 
					इन्हें अच्छे लगते डिब्बे-कागज में बँधे रंगों और अक्षरों के गुच्छे 
					एक बार एक लड़के ने दिया था कुछ निकालकर 
					       तो इन्हें अच्छा लगा था स्वाद - थोड़ा नया थोड़ा परदेसी-सा 
					मगर ये अचरज में कि डिब्बे से पता चलता है स्वाद 
					थे हैरान सोचते कि कहाँ कहाँ से आता होगा अन्न, 
					कहाँ कहाँ से शक्कर 
					कितने बड़े होंगे कड़ाह और फिर कैसे फेंटता होगा कोई 
					कि बराबर डिब्बे में बराबर स्वाद 
					और क्या घोल देते हैं जीभ के द्रव में कि मुड़ा हुआ स्वाद भी लगे सीधा 
				
					हमारे इस संसार की छाया में खड़े वे हाथ हिला रहे हैं 
					जगमग रोशनियों और चकमक अक्षरों के पीछे थरथरा रही इनकी देह 
					दो बाँचने इनकी आँखों को भी दुनिया और इनकी जीभ को स्वाद। 
				
					  
				
					रुचि 
				
					रहने दें ये मिठाइयाँ, मैं धनिया की चटनी 
					पर खत्म करूँगा खाना 
				
					दादा बारात में मछली के मूड़ा पर उठते थे 
					       और घर में टूँगते थे हरी मिर्च अंत में 
					दादी इतना पानी पीती थी कि पता नहीं 
					       कब खत्म होता था खाना 
				
					पिता अंत में दही को शुभ मानते थे मगर 
					       बारहा अचार चाटते उठते थे 
					मैं अंतिम कौर में बच्चों के लिए बचा रखती थी 
				
					अमरीका में लगे इंजीनियर लड़के ने वहाँ के खाने की तारीफ की 
					                                          और यहाँ के पत्तल की 
					बगल में बैठे वृद्ध हाथ रोक कुछ पूछ रहे थे 
					मगर लड़का उठ गया पाँत तोड़कर 
				
					खैर! मुझे धनिया की चटनी पर ही खत्म 
					करने दें 
					और आप कहें तो रख लूँ इन्हें, बड़के काका 
					बहुत दिनों से चाह रहे भोजन मिठाइयों पर इतियाना 
				
					  
				
					सभ्यता 
				
					कुछ की जरूरत थी तो ले आया, कुछ ले आया सोचते कि इनकी भी जरूरत है 
					कुछ की चमक रेंगने लगी दिमाग की शिराओं में, कुछ खनके कि हुए माथे पर सवार 
					कुछ खाली था कुछ आ गए, कुछ आए कुछ भरने का मंतर फूँकते 
				
					कुछ पड़ोसिन को देखकर कुछ देखकर बाजार में 
					कुछ टीवी की किरपा कुछ तीज-त्योहार में 
				
					इतनी गजबज हुई रसोई कि छोटा पड़ गया कबाड़घर 
					रसोई भी तो चार साँस पीछे खड़ा कबाड़ ही है हाँफता 
				
					अब जब बच्चों ने ढूँढ़ लिए अपने अपने वन, अपनी नदियाँ, अपने पहाड़ 
					अतिथि आते भी तो आते रेस्तराओं से लौटते पानी का बोतल लिए 
				
					यहाँ तो बस काक्रोच की टाँगें, चूहे की लार 
					एक रस्म-सा कि धूल पोंछता हूँ पानी फेंकता हूँ 
				
					ठीक ही तो कहती हैं वृद्ध महराजिन 
					कण-कण जानती हैं वो रस-घरों की कथाएँ 
				
					दो कौर चावल फाँक भर अचार 
					इन्हीं का सारा साज-सिंगार । 
				
					  
				
					टूटे तारों की धूल के बीच 
				
					मैं कनेर के फूल के लिए आया यहाँ 
					और कटहल के पत्ते ले जाने गाभिन बकरियों के लिए 
					और कुछ भी शेष नहीं मेरा इस मसान में। 
				
					पितामह की किस मृत्यु की बात करते हो! 
					जैसा कहते हैं कि लुढ़के पाए गए थे 
					सूखे कीचड़ से भरी सरकारी नाली में। 
					       या लगा था उन्हें भाला जो किसी ने जंगली 
					                             सूअर पर फेंका था 
					या सच है कि उतर गए थे मरे हुए कुएँ में भाँग में लथपथ। 
				
					सौरी से बँधी माँ को क्या पता उन जुड़वे नौनिहालों की 
					उन दोनों की रुलाई टूटी कि तभी टूट गए स्मृति के सूते अनेक। 
					वो मरे शायद पिता ने जो फेंकी माँ की पीठ पर 
					लकड़ी की पुरानी कुर्सी 
					       या माँ ने ही खा ली थी चूल्हे की मिट्टी बहुत ज्यादा 
					या डॉक्टर ने सूई दे दी वही जो वो पड़ोसी के 
					बीमार बैल के लिए लाया था 
				
					विगत यह बार-बार उठता समुद्र 
					और मैं नमक की एक ढेला कभी फेन में घूमता 
					तो कभी लोटता तट पर। 
				
					  
				
					शुभकामना 
				
					यह पार्क सुंदर है साँझ के रोओं में दिन की धूल समेटे 
					सुंदर है दाने चुग रहे कबूतर 
					बच्चों की मुट्ठियाँ खुलती सुंदर, सुंदर खुलती कबूतर की चोंच 
					मैं भी सुंदर लगता होऊँगा घास पर लेटा हुआ 
					            छुपे होंगे चेहरे के चाकू के निशान 
				
					       आँख की थकान ट्रक पर सटे डीजल 
					       के इश्तिहार में सुंदरता ढूँढ़ती है 
					       जैसे घिस रहे मन भाग्यफल के 
					       झलफल में ढूँढ़ते हैं सुंदर क्षण 
					शुभ है कि फिर भी सुंदरता इतनी नहीं सजी 
					       कि कोढ़ियों की त्वचा प्लास्टिक 
					       की लगे 
					वहाँ कई जोड़े बैठे हुए और किसी ने नहीं देखी अभी तक घड़ी 
					उम्मीद है इनके प्रेम की कथा में नहीं शूर्पणखा के कान 
					अब वहाँ पक रहे जीवन का उजास है चेहरों को भिगोता 
					उम्मीद कि हवा लहरी तो सहज हहाए हैं बाँस 
					उम्मीद कि कोई भी चुंबन किसी की हत्या की सहमति का नहीं । 
				
					  
				
					पुनश्च 
				
					आग थी लहलह 
					और करीब, और करीब जाने का मन था 
					त्वचा मना कर रही थी 
					दसेक लोग थे - बीड़ी, तमाखू, हँसी, ठहाके और ठहरा हुआ दुख 
					बातें चलती रही - नेता, चोर, उल्लू के पट्ठे, सरसों का साग 
					ग्यारह तक सब अपने अपने घर 
				
					राख में अभी भी गर्मी थी 
					दो कुत्ते आए, एक उसके बाद, एक और - सब पसर गए 
				
					सुबह किसी ने ठंडी राख को हटा दिया 
					शाम में आग फिर लहलह। 
				
					  
				
					समतूल 
				
					वे भाई की हत्या कर मंत्री बने थे 
					       चमचे इसे भी कुर्बानियों में गिनते हैं। 
					विपन्नों की भाषा में जो लहू का लवण होता है 
					       उसे काछकर छींटा पूरे जवार में 
					फसल अच्छी हुई। 
				
					कवि जी ने गरीब गोतिया के घर से उखाड़ था खंभा-बरेरा 
					       बहुत सगुनिया हुई सीढ़ी 
					कवि जी गए बहुत ऊपर और बच्चा गया अमरीका । 
				
					गदगद कवि जी गुदगुद सोफे पर बैठे थे 
					जम्हाई लेते मंत्री जी ने बयान दिया - वक्त बहुत मुश्किल है 
					       कविता सुनाओगे या दारू पिओगे । 
				
					  
				
					चाँद पर हमारा हिस्सा 
				
					पराए ही रह गए पैर जो चले चाँद पर 
					साथ गई तो थी हमारे पसीने की भी भाप। 
					अगम गम हुआ, हमें क्या मिला 
					छला ही इस बड़ी छलाँग ने 
					अधिक उदार थी वनरकूद। 
				
					पुत्रों को सपरिवार पड़ा जाने के बाद माटी अगोर रही 
					       जिद्दी कुम्हारिन नहीं जानती 
					चौठचंद्र पर निखोट दूध बेचने का व्रत निबाह रही 
					       बूढ़ी ग्वालिन नहीं जानती 
					माँ नहीं जानती 
					सौंप रही आँचल से ढाँप चुह-चुह कर जामन 
					नहीं जानते सफेद फूल चुन रहे पेटहा पंडित 
					       कि चाँद की ओर उठे लाल टुह-टुह मटकूरों पर 
					       लगी है बहुतेरी व्याध-दृष्टियाँ। 
				
					चाँद से मरासिम बड़े पुराने हामिद मियाँ के 
					       पड़ गए हैं कुछ चाँदमार इनके भी पीछे 
					हर साल पेट काट जमा करते हैं मुट्ठी मुट्ठी 
					बाँट दे ईदी तो अपने हाथ बचे सिर्फ सल्फॉस की टिकिया 
					जिन्हें यह फिर से लौटाया करे 
					जिए चले जाने की कोठार में। 
				
					चन्द्रोन्मादियों ने पटका है मृगछाल धरती पर 
					जहाँ से उठा रहा था काँपते हरे पत्तों का संगीत 
					हरापन पर आरोप कि यह कभी भी दे सकता है बाँग 
				
					चाँद से सब का है खून का रिश्ता 
					जंगल के दिनों से ही कि जब यह 
					देह में घुला करता था पानी के संग। 
				
					       तुम भी तो इधर ही हुए हो धनबिलाड़ 
					       पहले तो हम साथ कदकते थे बनबिलाड़। 
					चाँद खींचता है हम सबको बराबर-बाराबर 
					इस खिंचाव से खेलने का हुनर सिरजने वाले तो 
					हमारे भी थे 
					ताकत की चाक पर घुमाते-घुमाते तुम ने बिगाड़ दिया 
					हुनर की लय 
					ओर मत बिगाड़ो... 
					अधिक गुणा करोगे ताकत से तो अँधेरे में बिला जायेगा गुणनफल। 
				
					यह कैसी जमीन है जो बसने के लिए नहीं मात्र बेचने के लिए खरीदी जाती है! 
					या सचमुच चाँद के काँधे पर कर रहे घर 
					तो हमारे भी नाम लिखो दो-दो धूर 
					आदमी दौड़ सकता है बहुत तेज वहाँ 
					दौड़ना तो सनातन कामना गुरुत्व से छूटने की 
					       गुरुत्व का हाथ धरकर 
					खुल जाए शायद अंग-विकल भाई की गति की गाँठ। 
				
					हम फिर से बनेंगे हिरणयूथ और साथ-साथ 
					                    थिरकेंगे हमारे पैर 
					       ऊखलों की पाँत में मूसलों का धमधम 
					       पूरन-पात पर जलकण टपटप 
					       काग़ज की चौड़ी हथेली पर लाख-लाख 
					       निबों की टिपटिप 
					सब एक दूसरे का संगतकार 
					कोई नहीं लगा किसी को पछुआने में। 
				
					जीन-शास्त्री कुछ कहो कि जैतुन की टहनियों पर 
					       उग रहे मात्र कनक 
					सभ्यता-संघर्ष के गुणकीलक सोचो 
					कि हिरणों के झुंड से टूटकर क्यों पैदा हो जाते हैं 
					       एकरबा वानर 
					स्वप्न-समीक्षक कुछ करो 
					       कि आधी रात में मेरा भाई चहा कर उठता है लथपथ 
				
					कोई खींच रहा उसके शरीर का लहू द्रुतधावकों की शराओं के लिए 
				
					  
				
					खुलने की सूरतें 
				
					इस तरह न खोलो मेरी साँस 
					       कि जैसे कोई खोले दफ्तर से लौट जूते का फीता 
					खोल रहे हो तो खोल ऐसे 
					       कि जैसे माँ खोलती थी नींद तलाशने की पोटली 
				
					ताकतवर यूँ क्यों खोलता शब्द 
					       कि खिड़कियों के बदले खुल जाते इजारबंद1 
				
					इच्छाएँ क्यों खुली जा रही बचपन की उछाह की तरह 
					और समय क्यों खुल रहा अकाल के आकाश की तरह 
				
					दुनिया क्यों खुल रही महाजन की पंजी की तरह 
					और हम क्यों खुल जा रहे भिखियारों की हथेलियों की तरह 
				
					इस तरह न खोलें हमरा अर्थ 
					       कि जैसे मौसम खोलता है बिवाई 
					जिद है तो खोलें ऐसे 
					       कि जैसे भोर खोलता है कँवल की पँखुड़ियाँ। 
				
					1. मंटो की कहानी से संदर्भित। 
				
					  
				
					किसी भी ऋतु में 
				
					फिर नहीं आए 
					घूमते रहे देस-दिसावर - कहीं सत्तू, कहीं पानी 
					तो कहीं दिनभर उपास 
				
					कौआ भी नहीं आया 
					पिछले अकाल में भस्म हुआ लोकगीतों का सारा सोना 
				
					एक मुट्ठी गुलाल आँचल में पिछली होली का 
					और कुछ दिए पूजाघर में अमावस में बचा 
				
					टूट गई चप्पल, तलवे के नीचे तिलचट्टा रसोईघर में 
					फूट गया तवा, रोटी फेंक देती है धुआँ 
				
					टिकस का नहीं जुट रहा पैसा या नजरों को 
					बाँध लिया चकमक शहर ने 
					हर रात पुकारता है उन्हें बरसते अँधेरे का झमझम 
					वे आएँगे, शेष हैं अभी बारिश ठंड और वो 
					गरमी पके आमों से मह-मह 
				
					  
				
					तटभ्रंश 
				
					(आत्महत्या को विवश विदर्भ के किसानों और प्रिय फुफेरे भाई सुनील के लिए) 
				
					आँगन में हरसिंगार मह मह 
					नैहर की संदूक से माँ ने निकाला था पटोर 
					पिता निकल गए रात धाँगते 
					नहीं मिली फिर कहीं पैर की छाप 
				
					पानी ढहा बाढ़ का तो झोलंगा लटकाए 
					आया एक मइटुअर सरंगी लिए 
					माँ ने किया झोलंगा को उसकी देह का 
					और ताकने लगी मेरा मुँह 
					ऐसा ही कुर्ता था तुम्हारे बाप का 
					पता नहीं किस वृक्ष के नीचे खोल रहा 
					होगा साँसों का जाल 
				
					उसी पेड़ की डाल से झूलती मिली परीछन की देह 
					जिस के नीचे सुस्ताता था गमछा बिछाकर 
				
					सजल कहा माँ ने - यों निष्कंप न कहो रणछोड़ 
					उत्कट प्रेम भी रहा हो कहीं जीवन से 
				
					  
				
					इस तरफ से होना 
				
					इसी धरती पर वह भी हिस्सा है, वह भी कोण 
					जहाँ से देखो तो लगता है कि फटी ज्वालामुखी और हुए सरसों के फूल ! 
					यहाँ से होने में तो पहले होते हैं सरसों के चुनमुनिया पौधे 
					वो न हुए पौधे भी जिनका होना छुप गया हो गए दूब से 
					यहाँ से देखो तो पहले दिखे सरसों के पत्ते 
					वे न हुए पत्ते भी बीछ लिए गए जिनके पौधे 
					मह-मह हो रहे है चावल के रोटी के कौर 
					हो रहे हैं स्वाद दिलफरेब इबारतों को छका 
					       फाव में मिली हरी मिर्च से 
					हो रही बच्चों की खुशी छीमियों के झन-झन से 
					       जो असह्य शोर के बीच सुंदर ध्वनियों के 
					                  बच्चों तक हो रहे रास्ते हैं। 
				
					हो रहा कहीं नमक के साथ दो ठोप तो कहीं सिलबट्टे पर एक मुट्ठी 
					       कहीं बुद्ध के हाथों मृत्यु का चेहरा 
					       तो कहीं माँ के हाथों नौनिहाल की पीठ 
				
					मात्र क्षण भर फूल नहीं 
					       इधर से होने में क्या-क्या नहीं होता सरसों! 
				
					  
				
					दृष्टिपथ 
				
					पूरा खेत भीग रहा 
					एक एक बीच भींग रहा 
					कोई होड़ नहीं... 
					       भींग रहे अँगुलियों से अँगुलियाँ बाँध 
				
					हर एक बारिश में मेरा नहान 
					       मैं देखना चाहता हूँ अँखुआ रहा एक एक बीज 
				
					खाट पर पड़ा रहूँ या खटूँ जा परदेस 
					किसी चक्की में पिसती रहती है मेरी दुनिया 
					खसती रहती है धूल मेरे रक्त में, मेरी दिखन पर, मेरी छुअन पर 
				
					कंठ में बैठ गई कहाँ कहाँ की धूल 
					चुभता ही नहीं साथी मछरी के कंठ का काँटा 
				
					सूरज की ललाई में डुबोनी हैं अँगुलियाँ 
					             तलवे क्यों छील रही समय की विषम जिह्वा! 
				
					बहुत श्रम है अभी बहुत श्रम 
					पानी है ओसाई देह और नहाई दीठि 
					जैसे भोर में पा लेते है 
					खुल रहे कँवल से छूट रहे भ्रमर। 
				
					  
				
					पुकार 
				
					नहीं, मैं नहीं रोक सकती 
					मैं जान ही नहीं पाती कि नींद में कब कराहती हूँ और क्यों 
					जगे में कराहना भी मैंने बड़ी मुश्किल से रोका है 
					लगता है खून में धूल मिल गई है जो नसों की दीवार खुरचती रहती है। 
					नहीं हो पाएगा बंद नींद में कराहना 
					जगे में कराहना भी रूक नहीं पता 
					सच कह ही दूँ, बस किसी तरह छुपा लेता हूँ तुम सब से 
					जीवन की फाँस में फँसे हो अच्छा है ध्यान नहीं जाता इधर। 
					पाट पर कपड़ा पटकने की आवाज छुपा भी लूँ 
					तो बाहर आ जाता है पानी का गड़गड़। 
					कई पुरखे याद आते हैं 
					नानी के श्वेत स्वर का पुरानी साड़ी सा फटना और दागों से भरते जाना 
					मरने से एक दिन पहले मछरी खाने की अपूर्ण इच्छा माँ की 
					गिरना कौअे के टूटे पंख का पिता की थाली में 
					असंख्य चितकबरी यादें कराह के उलझे धागों पर रेंगती रहती हैं 
				
					मैं नहीं रोक पाऊँगा नींद से उठता यह विषम स्वर 
					नींद मेरे बस में नहीं 
					नींद की नाव में जो आता मैं उसकी स्वामिनी नहीं 
					जो बस में था वो भी छूटता जा रहा 
					मेरी आँख, मेरा गला कुछ भी मेरे बस में नहीं 
					जब असह्य हो जाये मेरी कराह 
					तो तुम ही घोंट देना 
					तो तुम ही सारथि बन जाना इहलोक से परलोक का 
					तु ही बना जाना इस नींद से उस नींद के बीच का पुल मेरे पुत्र। 
				
					  
				
					शेष 
				
					दरिद्रा तो अब अपनी सिकुड़ गई अकाल दुकाल फूलता पेट 
					जोड़तोड़िया ग्राहक को देख कान में हँसी फेंकता है परचूनिया 
					पनियाए बासी भात की खातिर झलफल भोर तोड़ता था बबूल की टहनी छुपाता हूँ बच्चों से। 
					फिर भी जब छूटता है सामने अन्न और खराब नल बेसिन का 
					तो हथेली की कोई धातु अकबकाती गिड़ाती हथ-धोअन थाली में। 
					रख आता हूँ 
					अब यह जो औसतिया भूख अलसाए रोओं वाली 
					उसकी चोंच से छिटके दाने, सड़क जहाँ साफ और ओट बिजली के खंभे का। 
					वो स्त्री तो जानती बचा लेगी सुबह झाड़ू देते वक्त कहीं खुरेठ न दे कोई अधसोया साँड़ 
					कोइ कव्वा आए कदाचित निराश किसी दुखी सजनी की आँगन की मिट्टी कोड़ 
					या कोई मैना नवतुरियों को उड़ना सिखाते सिखाते थकी हुई। 
					बेटी लपेटती मेरे कॉलर पर अपना हरा रिबन क्यों नहीं रख देते सेव के टुकड़े भी 
					       उतरेंगे सुग्गे। 
				
					जब से आई फ्रिज कुछ भी अतिरिक्त कहाँ! 
				
					  
				
					प्रार्थना 
				
					जो पाँव कट जाते हैं वे भी शामिल रहते हैं यात्रा में, 
					कट गए हिस्सों से देखो तो दुनिया और साफ दिखती है 
					                       नक्शों की लकीरें और गहरी। 
				
					दर्शनियाँ जितने आते हैं मरियल या मोटाया हुआ 
					पुजारी तो बस उन्हें प्रसाद देता है 
					किसी किसी को ही पहचानता जिससे रिश्ते लेन-देन के, 
					मगर प्रवेशद्वार पर बैठा भिखारी जानता है सबकी खूबी, सबके ऐब। 
				
					प्रार्थना करो कि यह शाप न मिले कि 
					सारे अंग साबूत 
					मगर जब जल में उतरो तो लगे नहा लिया बहुत देर 
					       और शरीर को अज्ञात ही रह जाए जल का स्पर्श 
				
					  
				
					उत्तर जीवन 
				
					खाँसना भी न आया था जब पानी चढ़ गया था ओसारे पर 
					सब भाग कर एकत्र गाँव में एक ही थी उँची परती 
					बाँस-काठ पत्ता-पन्नी कुछ जुटा हुए कुछ कच्चे-अधकच्चे खोह 
					जिसमें कुछ मनुष्य-सा रहे हम, 
					पाँच बच्चे थे हमारे आस-पास की उमर के जिन्हें 
					पाँच-पाँच माँओं के दूध का सुख हुआ, पेड़ों के भी दूध 
					चखे हमने, एक गूलर है स्मृति में उपरांत-कथाओं से झाँकता 
				
					अब इतना खाँसता कि कोई कमरा नहीं देता किराए पर 
					बार-बार हाथ से छूट जाता है भरा हुआ लोटा 
					ठंड सहने की भी जुगत नहीं गर्मी की भी नहीं 
					पहली बार ए.सी. देखा शवगृह से लाते वक्त चाचा का पीला शरीर 
					टूटता गया साही का एक-एक काँटा 
					कब तक छुछुआए भादो की रात में साही जिनके सारे काँटे झड़ गए 
					एक मन हुआ था कि सिमरिया-पुल से दे दूँ देह को गंगा में पलटी 
					आस लगाए मल्लाह की जाल में बाहर आएगा चवन्नी, अठन्नी के साथ नरपिंजर 
					कि देखो क्या हाल है मनुष्य का गंगा के कछार में 
					मगर बार-बार बाँध लेती है ब्रह्मांड की यह हरी पुतली जिसमें हहाता जल अछोर नीला 
					बार-बार पाँव लग जाते हैं खाट के नीचे रखे लोटे में 
					पूरी मिट्टी पिचपिचा जाती है 
					कि तभी अँधियाला बिखेर जाता है नाभि की कस्तूरी 
					खाँसता हूँ तो चतुर्दिक हवाओं से धुना धूप का कपास फेफड़ा सहलाता है 
				
					मलिन मन उतरा जल में कि फाल्गुन बीता विवर्ण 
					लाल-लाल हो उठता है अंग-अंग अकस्मात 
					कौन रख चला गया सोए में केशों के बीच रंग का चूर । 
				
					  
				
					फिर भी जीवन 
				
					इतनी कम ताकत से बहस नहीं हो सकती 
					           अर्जी पर दस्तखत नहीं हो सकते 
					इतनी कम ताकत से तो प्रार्थना भी नहीं हो सकती 
					इन भग्न पात्रों से तो प्रभुओं के पाँव नहीं धुल सकते 
					फिर भी घास थामती है रात का सिर और दिन के लिए लोढ़ती है ओस 
					चार अँगुलियाँ गल गई पिछले हिमपात में कनिष्ठा लगाती है काजल। 
				
					  
				
					त्राहि माम 
				
					            शीशे आकर्षक दीवारें भी 
					            आवजें आकर्षक सारी 
					चिपका हुआ स्टीकर कि मूल्य भी आकर्षक 
					पीने का पानी तक आकर्षक 
					मैं झेल नहीं पा रहा आकर्षणों का ताप 
					मेरे थर्मामीटर में इतनी दूर की गिनती नहीं 
				
					कई सहश्र पीढ़ियों से झूल रहा हूँ ग्रह-नक्षत्रों के आकर्षणों के मध्य 
					सबसे कड़ा खिंचाव तो इस धरती की ही 
					जैसे तैसे निभाता कभी बढ़ाता दो डेग तो कभी लगती ठेस 
					नाचता शहद और नमक के पीछे 
				
					आचार्य! कौन रच रहा है यह व्यूह 
					मुझे बस रहने लायक जगह हो 
					और सहने लायक बाजार 
					जहाँ से अखंड पनही लिए लौट सकूँ। 
				
					  
				
					अकारण 
				
					क्या रुकेगी नहीं एक क्षण के लिए यह एंबुलेंस 
					कि जान लूँ बीमार कितना बीमार 
					       या मृतक कैसा मृतक 
					वृद्ध हैं तो कितने दाँत साबूत और बच्चा है तो उगे हैं कितने 
					कौन उसके साथ रो रहे और कौन दबा रहे हैं पाँव 
				
					कोई कारण नहीं, नहीं मैं कोई कारण नहीं ढ़ूँढ़ पा रहा 
					बस यूँ ही मैं भी धरती के इसी टुकड़े का रहवैया 
					और एक ही रस्ते से गुजर रहे हम दोनों। 
				
					  
				
					चमक की चोट 
				
					यह वो रोशनी नहीं जो सुस्तकदम आती, बैठ जाती अँधियाले से सटकर 
					और उसके हाथ की सुई में धागा डाल देती है। 
					रेत के कण पर पानी का पानी चढ़ाती वस्तुओं के माथे पर चढ़ी है यह ढीठ चमक 
					नहीं यह सकुचौहाँ चमक जो एक स्वस्थ मनुष्य के नाखून में होती है 
					यह तो वो चमक जो एक फूँक में मनुष्य को पॉलिथीन की त्वचा में बदल देती है। 
				
					आधी रात गए जब करवट बदलते कमर में गड़ रही होती है अधपकी नींद की डंठल 
					उस वक्त कोई अभागा काँच का केंचुल उतार रहा होता है 
					और फिर हट जाता है साँप की लपलपाती जीभ जैसे मोहक शीशे से दूर 
					और लौट जाता है चूर उस फाँट में जो अबतक उगी हर सभ्यता में 
					इन्ही के लिए है । 
				
					  
				
					जटिल बना तो बना मनुष्य 
				
					मेरी जाति जानकर तुम्हें कुछ भी प्राप्त नहीं होगा 
					तुम और मेरी जाति के लोग एक सरल रेखा खींचोगे और चीखोगे 
					कि उसी पार रहो, उसी पार 
					मगर इन कँटीली झाड़ियों का क्या करोगे 
					जो किसी भी सरल रेखा को लाँघ जाती है, जिनकी जड़ें अज्ञात मुझे भी 
					हालाँकि मेरी ही लालसाओं से ये जल खींचते हैं। 
				
					एक धर्म को तुम मेरा कहोगे और भ्रम में पड़ोगे 
					कोई एक ड्रम की तरफ इशारा करेगा 
					और कहेगा कि यह इसी में डूबकर मरेगा। 
					मगर हजारों नदियाँ इस देश में, इस पृथ्वी पर 
					मैं किसी भी जल में उतर सकता हूँ 
					किसी भी रंग का वस्त्र पहने और किसी भी धातु का बर्तन लिए 
				
					तुम मेरा जन्मस्थान ढ़ूँढ़ोगे और कहोगे 
					अरे यह तो वहाँ का है वहाँ का 
					किंतु नहीं, मेरा जन्मस्थल धरती और मेरी माँ के बीच का जल है आलोकमय, 
					अक्षांशों और देशांतरों की रेखाओं को पोछता। 
				
					चींटियों का परिवार इसमें, मधुमय छत्ता, कोई साँप भी कहीं 
					दूर देश के किसी पंछी का घोंसला, किसी बटोही का पाथेय टँगा 
					मनुष्य एक विशाल वृक्ष है पीपल का 
					सरलताओं के दिठौनों को पोछता। 
				
					इस चौकोर इतिहास से तो नमक भी नहीं बनेगा 
					कैसे बनेगा मनुष्य! 
				
					  
				
					पहुँच के बाहर 
				
					मति यहीं है, गति यहीं है, द्युति यहीं है, 
					अति यहीं है, अति यहीं है 
					इधर आओ, पंथ मेरा सबसे बढ़िया 
					इसे अपना भी बनाओ। 
				
					क्यों सुनू मैं बत-पिसानी, क्यों करूँ मैं गप-कुटानी 
					       खेत लह-लह हुलस रहा है 
					       मित्र नभ में बिहस रहा है 
					बाट ताक रहे हैं बच्चे, तोड़ने दो साग बथुआ 
					       जो कहीं अन्यत्र गाओ। 
				
					  
				
					बाहरी 
				
					वृक्ष ने कुछ नहीं कहा 
					पत्ते एक काँप भर असमंजस में नहीं थे मेरे वहाँ होने से 
					मोर ने भी कुछ नहीं कहा 
					       वो नाचा मेरे होने से स्वाधीन 
					चिड़िया को तो मैंने अंडे सेते देखा 
					रास्तों ने साथ दिया 
					       एक भी काँटा नहीं मेरे लिए अतिरिक्त 
					जल ने तो प्राण दिया उस ताप में 
					जो उठी वो अँगुलियाँ थीं 
					              मनुष्य की 
					मेरी माँ के से उदर में जिन्होंने पाया था आकार। 
				
					  
				
					आत्मकथा 
				
					यह जो डायरी जिसकी पीठ पर आँखें हैं घूमती 
					मुझे इसका चेहरा मुकद्दर 
					कई कविताएँ अधूरी या शायद सारी 
					कई तो मात्र अक्षर फूटी हूई 
					इसी में कर्ज की लिखा-पढ़ी काट-कूट 
					हाँ इसी में, 
					मैं क्या कहाँ से सुना रहा 
					मुझे कुछ पता नहीं, मुझे कुछ नहीं... 
				
					  
				
					मेरा बिस्तर 
				
					तकिए में रुई नहीं फटे हुए कपड़े, अंतर्वस्त्र तक 
					चादर पर एक बड़ी सुंदर चिडि़या थी, जहाँ डैने थे वहीं फट गई 
					तख्त के चौथे पाए की जगह ईंटें हैं 
					नीचे एक कनटूटी प्याली है माँज सकूँ तो चमकती है 
					हैमलेट की एक पुरानी कॉपी है जिसके नोट्स फट गए 
					अधसोई देह की फड़फड़ाहट के निशान हैं 
					यह किसका बिस्तर है 
					जिस पर मेरी रात की आँख से पिघला शीशा चूता है। 
				
					  
				
					रात की फाँक 
				
					मैं हाँफता रहा 
					अपने क्रोध मे धुआँता 
					वो सो गई बच्चे को पँजिया 
					अब मेरी आग मेरी राख से दबी 
					मैनें ही फेंका था जल का पात्र 
					मेरा कोई शरण नहीं 
					रात का हाथ खाली 
					नींद मेरे रक्त में अम्ल हो नाचती 
					मैं यही सोचता देह को तवे पर पलटता 
					कि सुबह तक यह फाँक इसी स्त्री के 
					नींद में घुल जाए 
					धुल जाए इसके सपनों से। 
				
					  
				
					लाभ 
				
					यह आपको बिलकुल ब्रोथेल की तरह नहीं लगेगा 
					कहीं पान का पीक नहीं 
					रोती बिसुरती लड़कियाँ नहीं 
					सब प्रसन्न। 
					जो यह है उसकी तरह नहीं दिखता है 
					फिर भी यह वही है 
					तकनीक का यही तो फायदा है 
					और इस राष्ट्र की तरक्की का। 
				
					  
				
					यहाँ ठीक हूँ 
				
					जितनी देर में एक शब्द ढूँढते हो 
					उतनी देर में तों कपड़े पर इस्तिरी हो जाएगी 
					मेहनती रहे तो एक शर्ट खरीद ही सकते हो 
					बुद्धि भी रही तो कपड़े की दुकान 
					जिन्हें नसीब है वो तो दुनिया घूम सकते हैं 
				
					अब मैं क्या करूँ दुनिया घूमकर 
					शब्दों की एक बाड़ी है काँटों भरी, 
					फूल भी कुछ आज के कुछ पुराने 
					और है ही हवा, और जल, शहद, नमक 
					ज...ल...श...ह...द...न...म...क...। 
				
					  
				
					अजनबी 
				
					तो ये अभी तक हैं इस धरती पर, इस गाँव में, 
					पिछले एक साल में आई न याद एक बार 
					थीं ये भी पास वहाँ उस दिन पर मैं देखता रहा मरे साँप को 
					यह लाठी कब से है इनका सहारा 
					अनुमान से बता दो पता है यह तुम्हारे बेटे का बर्थ डे नहीं है 
					क्या अब भी ये कह पाती हैं सात किस्से लगातार 
					मैं मिलूँ तो मगर कहाँ से शुरू करूँ बात 
					क्या कोई बीच की भाषा है जिसमें माँगूँ क्षमा 
					कि भूला उनकी उपस्थिति मैं कुपात्र 
					जबकि थीं वो ढाई घर दूर मात्र 
				
					  
				
					बेजगह 
				
					प्रेम में हूँ कहता था तो पूछ डाला 
					क्या बंगालन है? 
					अकड़ते कहा नहीं उजबक कॉस्मोपॉलिटन है 
					मैं तो हड़क गया 
					क्या पलट के आया गोरा पलटन है! 
				
					  
				
					अकेला 
				
					मैं साही की देह का काँटा 
					झमकता झनझनाता तोड़ता सन्नाटे का पत्थर 
					       एक दिन गिड़ पड़ा 
					       जब रात की पंखुड़ियाँ ओस से तर थीं 
					       हवा भी मद्धम थी और साही की गति भी मद्धम 
					       अब इस खेत में पड़ा हूँ ऊपर पड़ा ढेला 
					       पता नहीं कहाँ जाउँगा 
					       बाढ़ आने का समय हो गया है 
				
					  
				
					इस भाषा में 
				
					जो स्कूल में टिक न सका 
					                उस बच्चे के उकेरे अक्षर सा मेरा प्रेम-निवेदन 
				
					चाहो तो समझ सकती हो 
					       मगर चाहो क्योंकर 
					       इतनी चीजें हैं इस दुनिया में 
					       उसकी चाह को भी शायद प्रेम कहते हैं 
				
					इस भाषा से तुम उलझोगी क्योंकर 
					तुम्हारी अँगुलियाँ कोमल हैं और ये अक्षर नुकीले पत्थर 
					तुम अपनी अँगुलियाँ सँभालो, मैं अक्षर उकेरता हूँ 
					कभी आना इस पार जब कोई राह फूटे 
					देखना तब इन शब्दों की नाभि में कितनी सुगंध है 
				
					  
				
					चुनाव 
				
					एक बीमार शरीर नगाड़े पर चोट है 
					देखो कैसा है समाज, कैसे हैं पड़ोसी 
					सरकार तो मच्छरदानी भी नहीं रह गई है 
					फटा मफलर बाँध खेतों से सियार भगाने होते हैं 
					खूब चंदा उठा रामनवमी में 
					एक शरीर काँपता माँगता प्रसाद 
					जिसने पी सुबह से तीन बार शराब वो टोकता दुबारा मत माँगो 
					ये मौत भूख से नहीं होगी, बीमारी से होगी 
					जहाँ है दवा की दुकान वहाँ एक गुस्सैल कुत्ता बैठा है 
					दुकानदार नहीं भगाएगा उसको 
					उसे मालूम है तुम आठ आने की टिकिया लेने आए हो 
					क्या फर्क है तुम भूख से मरो या कुत्ते की काट से। 
				
					एक बीमार शरीर धूप के रंग फाड़ देते हैं 
					मगर धूप के रंग फटे या नीरवता की आँत कटे 
					ये लोग चुन लेंगे अलग आँख और अलग कान 
				
					  
				
					झूठे धागे 
				
					मोबाइल तीन लौटाए मैंने 
					एक तो साँप की आँख की तरह चमकता था 
					एक बार-बार बजता था उठा लिया एक बार 
					तो उधर से छिल रहे खीरे की तरह नरम आवाज ने हेलो कहा 
					एक को लौटाया मोबाइल तो हलवा मिला ईनाम 
					क्या ये सब झूठ हैं नाना के प्रेत के किस्सों की तरह 
					कि एक ने चुराकर ईख उखाड़ते वक्त तीस ईख उखाड़ दिया 
					एक ने बीच जंगल में साइकिल में हवा भर दी 
					क्या लालसाएँ ऐसे ही काटती है औचक रंगों के सूते 
					और इतने सुडौल झूठ की कलाई 
					कि पकड़ो तो लहरा उठते हैं रोम रोम। 
				
					  
				
					कोई भी,  कहीं भी 
				
					कभी भी हास्यास्पद हो सकता हूँ 
					       इससे भी नीचे का कोई शब्द कहो 
					       कोई शब्द कहो जिसमें इससे भी अधिक ताप हो, अधिक विष 
					       मनुष्यता को गलनांक के पार ले जाने वाला कोई शब्द कहो। 
				
					कभी भी हो सकता हूँ हास्यास्पद - घर, बाहर कहीं भी 
					बच्चे के हिस्से का दूध अपनी चाय में डालते वक्त 
					कभी भी कलाई पकड़ सकती है पत्नी। 
					मेरे जैसा ही तो था जो उठाने झुका था कोलतार में सटा सिक्का 
					मैं उसको चीन्ह गया, उस दिन एक ही जगह खरीदे हमने भुट्टे 
				
					जब उसको कह रहे हास्यास्पद तो मैं ही कितना बचा। 
					कभी भी हो सकता हूँ हास्यास्पद - और यह कौन बड़ी बात है इस पृथ्वी पर 
					जब हर इलाके में जूठा पात चाट रहा होता है कोई मनुष्य, 
					सुविधा में जिसे पागल कह डालते हो। 
				
					  
				
					ज्ञान 
				
					ऐसे ही घूमते रहोगे रौद्र धूप भीषण बारिश में 
					दरवाजे खटखटाते रहोगे 
					सब सोए होंगे तुम्हारे दस्तक निष्फल जाएगी 
					कोई लाठी लेकर निकलेगी कुत्ते की आशंका में 
					तुम्हें देखकर कंधे पर हाथ नहीं रखेगा 
					इतना तक नहीं कहेगा कि मेरी आशंका निर्मल थी 
					जहाँ बिलकुल आशंका नहीं वहाँ की अपमानित होओगे 
				
					इसलिए नहीं कि तुम बड़े कुशाग्र हो या बड़े मूर्ख 
					       या बड़े नेक हो या बड़े पाखंडी 
					बस इसलिए कि तुम्हें अन्नसे प्रेम है 
					       जल से और धरती से 
					       और मनुष्य के प्रेम से 
					बल्कि सचमुच सोच सको तो प्रेम की नहीं 
					       तुम्हें इनकी जरूरत है 
					तुम चाहोगे कि जरूरत को प्रेम की तरफ झुका दो 
					मगर लोग तुम्हारे प्रेम को जरूरतों की तरफ 
					झुका देंगे 
					भटकते फिरोगे 
					इसलिए नहीं कि मणि के खींच लेने के बाद का 
					घाव है तुम्हारे माथे पर 
					बल्कि इसलिए कि यह पृथ्वी बड़ी सुंदर है 
					और तुम जानते हो कि यह पृथ्वी बड़ी सुंदर है। 
				
					  
				
					दूसरा कोना 
				
					जिस भाषा में मेरे नाम का मतलब कुत्ता होता है 
					वो भाषा भी सीखूँगा 
					हो सकता है उस भाषा में मेरे दोस्त के नाम का मतलब हंस हो 
					न भी हो तो 
					       हंस के लिए कोई तो शब्द होगा ही 
					       कोई शब्द होगा सुंदर के लिए 
					       कोई शब्द रोटी के लिए 
					       प्यार के लिए और पृथ्वी के लिए 
					क्यों न करूँ परिक्रमा जीवन की अन्य रथ पर हो सवार। 
				
					  
				
					हे,  प्रभो! 
				
					यह युद्ध इतना विषम 
					नोचे इतने पंख 
					लूटते रहे मेरे दिन की परछाइयाँ 
					कुतरते रहे मेरी रात की पंखुरियाँ 
					चितकबरा लहू थूकता यह अंधकार 
					फिर भी छूटा वो कोना निपट अकेला 
					जहाँ बसे हैं विकट दुर्गुण मेरे खास। 
				
					  
				
					घर भी बस एक जगह है 
				
					यह अंतिम ठौर नहीं 
					यहाँ ही नहीं बीजों की पोटली अंतिम 
					यहा भी बस लालसा ही शहद की गाढ़ी झील सी नींद 
					       जिसमें सपनों के नुकीले हिमखंड भी न हिल सकें 
				
					मैं तो पके आम की गुठली 
				
					रसमय गूदा ही था बंधन मेरा 
					मगर अब वो गूदा भी नहीं तो कहाँ जाऊँ 
					यह भी एक जगह है 
					और हर जगह रहने के तय हैं वजूहात 
				
					  
				
					आधार 
				
					मैने कपड़े माँगे, शीत से अस्थियों की आँख अंधी हो गई थी 
					मैने रोटी माँगी, भूख अकेली आँत मे साँप की तरह नाचती थी 
					मैने चप्पल माँगा, घर बहुत दूर था रास्ते में चीटियाँ और काँटे असंख्य। 
					मैने भीख नही माँगी 
					आप जो भी कहें, मैने भीख नही माँगी 
					मैने इस पृथ्वी पर होने का आधार माँगा। 
				
					  
				
					कदाचित बेसलीका 
				
					यह चाँदनी मुझे भटका रही है 
					तुम आई याद बस इसलिए कि तुम याद क्यों नहीं आई 
				
					चाँद देखा तो वो चोर याद आया 
					       जिसके लिए चाँदनी तीखा अम्ल है 
					सोचो! चार दिन के खरचे घर में आठ दिन है चाँद। 
				
					घुप्प अँधेरी रात में सोचा आम्रवृक्ष को जिसपर जुगनुओं की प्यारी बारात थी 
				
					तथापि एक चोर ही याद आया जिसकी बीड़ी की चोंच 
					जब जुगनू बन जाती थी तो अँधेरे में लिपटा वृक्ष 
					उसकी थकी देह को ओट देता था। 
				
					तुम ठीक ही कहती थी कि मुझे ठीक से सोने का भी सलीका नहीं 
					मेरे लोहे से सिर्फ सुई बन सकती है वो भी महज जानवरों के काँटों के लिए 
					मेरे चिंतन से भी यही फल निकला कि शयन का सौम्य तरीका तो सीख लूँ 
					पर अब भी वैसे ही सोता हूँ 
					जैसे कोई कृषकाय मूषक किसी विशाल शयनागार में अकुलाता। 
				
					  
				
					निष्ठुरता 
				
					जाड़े में कहा गया उस स्त्री से 
					राहत देती होगी चूल्हे की आँच 
					गर्मी में कहा गया 
					बर्तन धोते पानी ठंडक सौंपता होगा 
					भूमिहीन मजूर से कहा गया सूखे में 
					इस साल आराम का अच्छा मौका है 
					मैं ये सब कहाँ सुना याद नहीं 
					लेकिन सुना जरूर 
					शायद, अरकार-सरकार के लगुए-भगुए ताकतवरों के गपशप में। 
				
					  
				
					कैसे सोचूँ 
				
					यह बीमारी मुझे मारकर दम लेगी 
					सोचूँ तो बीमारी मेरी दुश्मन नहीं 
					यह इस बेढंगी देह का एक मजबूत साथी है 
					यह भूख को मात देने वाली एक सफेद बिल्ली है 
				
					बीमारी से मरूँ या भूख से तो 
					भूख चुनूँगा कि फँसे एक काँटा सरकार के मसूड़े में 
					बीमारी भी चुन सकता हूँ, मेरे बच्चे लजाएँगे नहीं। 
				
					  
				
					बुहारन 
				
					पंडाल उठा लिया गया, कुर्सियाँ हटा ली गईं 
					खंभे उखाड़ लिए गए 
					बचे दो चार 
					सारे पत्तल चुन लिए गए 
				
					सारे मजूर चले गए, थके थे 
					बाकी सबभी चले गए, सब बड़े थे 
					कुछ पत्ते गिरे हुए, पत्तलों से टूटे जूठन से गंदे 
					तुझे बुहारना ये पत्ते, रात गिर रही। 
				
					  
				
					नया 
				
					जैसे सबकी तरह की मेरी नींद सबसे अलग 
					सबकी तरह का मेरा जगना सबसे अलग 
					रोज की तरह रहना यहीं पर हर रोज की तरह हर रोज से अलग 
					पर एक काँप अलग होने से जीने का मन नहीं भरता 
					कोई अंधड़ आये सारे पीले पत्ते झर जाएँ पेड़ दिखे अवाक करता अलग 
					मनुष्य होने का कुछ तो सुख मिले बसा रहूँ मकई के दाने-सा भुट्टे में 
					और खपड़ी में पड़ूँ तो फूटूँ पुराने दाग लिए मगर बिल्कुल अलग। 
				
					  
				
					पुनर्वास 
				
					यकायक इतना प्रकाश 
					मैं कुछ भी नहीं देख पा रहा 
					होता जाता है चित्त चोटिल और बरसता जाता है प्रकाश मूसलाधार 
					मुझे प्रकाश के भीतर का दूध वापस दे दो। 
					किसने फोड़ा इतनी जोड़ से नारियल कि इसके भीतर का पानी धुआँ हो गया 
					मुझे डाभ के भीतर का जल लौटा दो। 
					एक नाम, दो नाम, तीन नाम, दस नाम 
					नाम पट्टिकाओं से टकराकर मेरी साँस फट रही है 
					मुझे नामपट्टिका नहीं ठोस जलमय चेहरा दिखाओ। 
					इस झाड़ी में कुछ था जो त्वचा की गंध बदल देता था 
					मुझे वो सबकुछ वापस करो - सभी गंध और सारी झाड़ियाँ। 
				
					मेरी इंद्रियाँ मेरी देह के भीतर ही रास्ते भूल गई हैं 
					मुझे जाने दो अपनी इंद्रियाँ वापस पाने 
					और सब कुछ यहीं - इसी देश में, इसी काल में 
					इसी धूल में, इसी घाम में। 
				
					  
				
					विनय 
				
					नहीं, अभी नहीं 
					अभी रात बहुत तेज है 
					अभी नहीं जा सकता पोखर तक 
					लोग लूट रहे मछलियाँ, लूटने दो 
					पानी जाने के बाद पहली बार आया हूँ घर 
					तुमने लीपा है जलधर मिट्टी को 
					पूरे शरीर को बाँध दिया है घर की गंध ने 
					नहीं, अभी नहीं जाऊँगा 
					चलो एक दिन और सिर्फ भात के कौर 
					बच्चों की तरफ तो मेरी माँ भी झुकी हुई थी 
					मगर तुम ही बोलो मेरा भी और कहाँ ठौर। 
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