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लेख

आतंकवाद

अमित कुमार विश्वास


आतंकवाद समकालीन युग की सर्वाधिक ज्वलंत अंतरराष्‍ट्रीय समस्या है। आज दुनिया हिंसा आतंकवाद की चपेट में आ चुका है। और मनुष्य का अस्तित्व खतरे में है। आतंकवाद एक संगठित उद्योग का रूप धारण कर चुका है। कोई भी ऐसा देश नहीं है, जो इसकी पीड़ा से न गुजरा हो। भूमंडलीकरण के दायरे के साथ ही आतंकवाद का भी दायरा बढ़ता गया और आज यह विविध रूपों में फैल रहा है। इसमें जेहादी आतंकवाद, सांप्रदायिक आतंकवाद, लिंग आधारित आतंकवाद, अभिजातवादी आतंकवाद, जातीय आतंकवाद, दलित चेतनावादी आतंकवाद, क्षेत्रीय पृथकतावादी आतंकवाद, विस्तारवादी आतंकवाद, प्रायोजित आतंकवाद से लेकर लव जेहाद आतंकवाद तक शामिल हैं। इसके लिए राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक स्‍वार्थ तो हैं ही। झूँझलाहट, क्रोध, सामाजिक परिवेश का मन पर असर, महत्‍वाकांक्षा का राजसी रूप, धार्मिक कट्टरपंथ आदि को आतंकवाद के मूल में देखा जा सकता है। अत्‍याधुनिक हथियार, नाभिकीय हथियार, जैविकीय हथियार, मानव बमों के द्वारा आतंकवादी विविध घटनाओं को अंजाम देते हैं। वस्तुतः आतंकवाद एक ऐसा सिद्धांत है जो भय या त्रास के माध्यम से अपने लक्ष्य की पूर्ति करने में विश्वास करता है। इनसाइक्लोपीडिया ऑफ दि सोशल साइंसेज के अनुसार -'आतंकवाद वह पद है जिसका प्रयोग विधि अथवा विधि के पीछे सिद्धांत की व्याख्या के लिए किया जाता है और जिससे एक संगठित समूह या पार्टी अपने स्पष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति मुख्य रूप से व्यवस्थित हिंसा के प्रयोग द्वारा करता है।' भूदान आंदोलन के प्रणेता विनोवा भावे ने कहा था कि अगर हिंसा का रास्ता लोगों ने अपनाया तो सर्वनाश होगा और अगर अहिंसा व सत्य का रास्ता अपनाया तो सर्वोदय होगा, अंतिम पंक्ति में खड़े लोग भी मुख्‍यधारा में आ सकेंगे, समतामूलक समाज का निर्माण की संकल्‍पना साकार हो सकेगी। यहाँ सवाल उठता है कि आखिर हिंसा की यह दुनिया को तबाही में डालने वाली आग पर कैसे काबू किया जाएँ? यह बात सभी समझदार लोग स्वीकार करते हैं कि हिंसा-आतंकवाद की जड़ें शोषण व अन्यायकारी नीति-रीतियों में छिपी होती है। इसलिए आतंकवाद को पैदा करने वाली-कुरीतियों, भ्रष्टाचार को जन्म देने वाली नीतियों को मिटाने पर सबसे पहले जोरदार पहल करनी चाहिए।

अमेरिका में हुए आतंकवादी घटना 9/11 के बाद दुनिया अचानक से आतंकवाद के प्रति अति चिंति‍त दिखी। हमें इसके मूल को समझना चाहिए। बुद्धिजीवियों और खासकरके राजनीतिक चिंतकों ने यह भरमाने की कोशिश की है कि कैसे मध्‍य-पूर्व के अधिकांश देशों में साम्राज्‍यवादी दबाव और उसके क्रांतिकारी प्रतिरोध के न होने के कारण इस्‍लामी कट्टरपंथ पनपा है और उसे धार्मिक मतावलम्बियों से समर्थन भी मिला है। अलकायदा, हमास, हिजबुल्‍ला, तालिबान आदि, ये सभी कट्टरपंथी ताकतें हैं, जिनसे आतंकवाद को खाद पानी मिलता है। कभी लोकतंत्र की बहाली या शांति स्‍थापित करने के नाम पर तो कभी आतंकवाद को मिटाने के नाम पर अमरीका ने दुनिया के तमाम मुल्‍कों में अपनी सैन्‍य शक्ति के बल पर मन-मुताबिक सत्‍ता-परिवर्तन करवाए हैं। गौर करने की बात जिस दिन अमरीका ने आतंकवादी हमले के चलते अपने वर्ल्‍ड ट्रेड सेंटर (डब्‍ल्‍यू.टी.ओ.) को ध्‍वस्‍त होते देखा ठीक उसी दिन अमरीका ने चिली में सत्‍ता-परिवर्तन करवाया था। 9/11 के बाद अमरीका ओसामा बिन लादेन को अपना दुश्‍मन माना और उसका संबंध इराकी अलकायदा से जोड़कर देखा गया। सीएनन पर ह्वाइट हाउस के प्रवक्‍ता को एक पत्रकार ने सवाल किया कि, अमरीका ने हाल ही में 'इराक से अलकायदा से संबंध हैं' यह आरोप क्‍यों लगाया है? क्‍यों 1991-2002 तक कभी भी अमरीका ने यह सवाल नहीं उठाया? जवाब बहुत ही गैर जिम्‍मेदाराना था कि एक व्‍यक्ति को पकड़ा गया है जिसने कहा है कि 'अलकायदा के इराक से संबंध हैं।' इराक पर हमला के पूर्व ही अमरीका ने यह भी कहा कि इराक के पास चलती-फिरती जैवीय हथियारों की प्रयोगशाला है। स्‍वयं राष्‍ट्रपति बुश स्‍वीकार करते हैं कि 1999 में संयुक्‍त राष्‍ट्र संघ ने निष्‍कर्ष निकाला था कि इराक के पास जो सामग्री है इससे 25,000 लीटर एंथ्रेक्‍स तैयार हो सकता है, इतना ही नहीं, 38,000 लीटर बोटोलिनियम और 500 टन नर्व गैस है, इससे लाखों लोगों को मारा जा सकता है। उल्‍लेखनीय है कि 1991-98 के बीच अमरीका और ब्रिटेन ने कभी भी यह आरोप नहीं लगाया कि इराक के पास रासायनिक-जैविक हथियार हैं। हालाँकि यह भी सच है कि इराक ने 1980 से पहले बड़े पैमाने पर रासायनिक और जैव हथियार निर्मित किए थे, इनके निर्माण में अमरीका की अग्रणी भूमिका थी। क्‍या यह सच नहीं है कि इस संदर्भ में अमरीका ने आज तक विश्‍व जनमत से माफी नहीं माँगी है। सद्दाम हुसैन ने एक साक्षात्‍कार में स्‍वीकार किया कि अलकायदा से हमारे संबंध होते तो हम उन्‍हें छिपाते नहीं। हम उन्‍हें स्‍वीकार भी करते। सच्‍चाई यह है कि अलकायदा से हमारा कोई संबंध नहीं है। अमरीका ने इराक पर हमला करने की जो तैयारियाँ की हैं उनका जनसंहारक अस्‍त्रों को खत्‍म करने से कोई लेना-देना नहीं है बल्कि वह केवल इराकी तेल कुओं पर कब्‍जा करके सारी दुनिया में अपने प्रभुत्‍व का विस्‍तार करना चाहता है। दरअसल अमरीका द्वारा इराक पर हमला करने के पीछे इन चरणों की रणनीति चल रही थी - 1. तेल स्‍त्रोतों पर कब्‍जा, 2. सत्‍ता परिवर्तन, 3. अंतरराष्‍ट्रीय आतंकवाद का अंत आदि। अमरीका इराक के खिलाफ युद्ध का माहौल जनमाध्‍यमों के द्वारा बना रहा था कि इराक आतंकवाद की जड़ है। आप देखिए कि इराक पर युद्ध करने के लिए अमरीकी प्रचार अभियान मुख्‍य रूप से तीन बिंदुओं पर केंद्रित रही- पहला, इराक के पास जनसंहारक‍ हथियारों का जखीरा है। दूसरा, इराक का अलकायदा से संबंध है। और तीसरा, इराक ने अपने वैज्ञानिकों को सच बोलने से रोका है। उन्‍हें परिवार सहित जान से मारने की धमकी दी है। इन तीनों पहलुओं पर मीडिया की सत्‍यान्‍वेषी दृष्टि नहीं गई। दरअसल मुख्‍य धारा मीडिया प्रभुत्‍ववादी ताकतों को ही बढ़ावा देता है। मीडिया वही दिखाता है जो प्रभुत्‍ववादियों के हक में है।

कहना नहीं होगा कि बहुराष्‍ट्रीय कंपनियाँ हथियारों की बिक्री को बढ़ाने के लिए आतंकवाद को शह देता है। अमेरिका का वर्चस्‍व जनमाध्‍यमों पर होने की वजह से वह दुनिया में अपने निर्मित्‍त माल को बेचकर दुनिया का सरताज बनता फिरता है। हम जानते हैं कि प्रथम महायुद्ध में दुनिया झुलस चुकी थी। फलस्वरूप शांति व विकास के लिए कई संगठन बने। महायुद्ध की विभीषिका या युद्ध होने के कारणों को खँगालने तो हम पाते हैं कि कोई भी युद्ध किसी भी देश के विकास करने के लिए नहीं किया जाता है। युद्ध तो राजनीतिक कारणों से नहीं अपितु आर्थिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए किया जाता है। प्रथम विश्वयुद्ध में अमेरिका ने दखल तभी दिया जब उसे लगा कि अमरीकी कंपनियों के आर्थिक हित खतरे में हैं। ''सन् 1914 तक अमरीकी कंपनियों का यूरोपीय देशों के साथ कुल व्यापार 16.9 करोड़ डालर था। (वर्तमान समय में लगभग 3.42 अरब रुपये के बराबर) का था, जो 1916 तक आते-आते मात्र 11.59 लाख डालर (वर्तमान समय में लगभग 2.08 करोड़ रुपये) रह गया था। यूरोपीय देशों के साथ व्यापार में आई गिरावट से अमरीकी कंपनियों को बहुत अधिक घाटा हुआ। अब अमरीकी कंपनियों ने इस घाटे को पूरा करने के लिए अन्य मित्र देशों में सेंध लगाना शुरु किया और इसमें वे काफी सफल भी रहे। 1914 ई. तक यूरोपीय देशों के बाहर दुनिया के अन्य देशों में अमरीकी कंपनियों का प्रतिवर्ष का कारोबार 82.4 करोड़ डालर था, जो 1916 में बढ़कर 321.4 करोड़ डालर हो गया था।'' [1] इस व्यापार में एक बड़ा हिस्सा हथियारों की बिक्री का शामिल था क्योंकि युद्ध शुरू हो चुका था यही कारण है कि अमरीकी कंपनियों ने अब हथियारों का उत्पादन करना शुरू कर दिया था। युद्ध में हथियारों की बिक्री बहुत बढ़ चुकी थी। कंपनियों ने पुराने उत्पादों के उत्पादन को बनाना बंद करके हथियारों का उत्पादन करना शुरू कर दिया। अब अमेरिका की हर बड़ी कंपनी हथियार के उत्पादन में लग गई और हथियारों को बेचकर अकूत संपत्ति जमा कर ली। ''पूरे युद्ध के दौरान 375 अरब डालर के हथियार कंपनियों द्वारा विभिन्न देशों को बेचे गए।'' [2] यहाँ यह कहना समीचीन होगा कि कंपनियों ने आर्थिक हितों को ध्यान में रखते हुए 'कार्टेल' (कई कंपनियों को मिलाकर एक समूह) बनाया। प्रथम विश्व युद्ध से द्वितीय विश्व युद्ध के बीच का समय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के इतिहास में 'कार्टेलाईजेशन' के नाम से प्रसिद्ध है। पूँजी का संकेंद्रण होता गया और तकनीक पर कुछ कंपनियों का एकाधिकार स्थापित हो गया। हथियार बनाने वाली कंपनियों ने 'कार्टेल' बनायी थी जो निम्न है - ''जनरल मोटर्स (General Motors)] फोर्ड (Ford), स्टैन्डर्ड आयल (Standard Oil), ड्यूपान्ट (Dupont), आई.सी.आई. (I.C.I.), एलाइड केमिकल्स (Allied Chemicals), रेमिंगटन (Remington), कैंटर पिलर ट्रैक्टर (Cater Pillar Tractor), क्राइसलर कार्पोरेशन (Cryeslar Corporation), फायर स्टोन (Fire Stone, जनरल इलैक्ट्रीकल कार्पोरेशन (General Electricals Corporation), इन्टरनेशनल हार्वेस्टर (International Harvester), कोल्ट (Colt), कोका-कोला (Coca-Cola), आई.बी.एम. (I.B.M.) आदि।'' [3] द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत अमेरिका की 23 बड़ी कंपनियों ने नाभिकीय हथियार बनाना शुरू किया और एशिया व अफ्रीका के गरीब मुल्कों को ऐसे हथियारों का परीक्षण स्थल बनाया गया। अब यह हथियारों का व्यवसाय कंपनियों के फलन-फूलने का आधार बना जो आगे चलकर वियतनाम युद्ध, कोरिया युद्ध, ईरान-ईराक युद्ध व कई अन्य छोटे युद्धों में और अधिक तेजी से फैलता गया। न्यूयार्क टाइम्स में प्रकाशित एक संपादकीय लेख के अनुसार ''हथियारों का उत्पादन करने और कानूनी तौर पर उनका निर्यात करने में अमेरिका की एक हजार से ज्यादा कंपनियाँ लगी हुई हैं। उनमें वे प्रमुख औद्योगिक प्रतिष्ठान भी शामिल हैं जो दैनिक उपभोक्ता वस्तुओं का उत्पादन करने के लिए जाने जाते हैं। युद्ध सामग्री के निर्माण में एक्सोन (तेल), जनरल मोटर्स (मोटर), आई.बी.एम. (कंप्यूटर), आर.सी.ए. (टी.वी. सैट), गुडईयर (टायर), ड्यूपोंट (रयायन), सिंगर (सिलाई की मशीनें), वेस्टिंग हाऊस (बिजली का सामान), गल्फ आयल जैसी कंपनियाँ भी शामिल हैं। इन निगमों की कारगुजारियों के कारण स्थाई शांति नहीं रह पाती। बल्कि सच तो यह है कि ये निगमें लगातार दुनिया को युद्ध के कगार पर खड़ा करने की कोशिश में लगी रहती हैं।'' [4] वियतनाम पर अमरीकी आक्रमण के उपरांत हम देखें तो पाते हैं कि बहुराष्ट्रीय निगमों को हथियारों से 75 प्रतिशत आय प्राप्त हुई थी। यही कारण है कि अमरीकी सेना को शस्त्रों की आपूर्ति करने वालों की सूची काफी कुछ कहती हैं - ''बोईंग-1800 करोड़ डालर, जनरल डायनामिक्स-1400 करोड़ डालर, यूनाईटेड एयर क्राफ्ट-1160 करोड़ डालर, जनरल मोटर्स-1050 करोड़ डालर, डगलस-850 करोड़ डालर, आई.टी.टी.-710 करोड़ डालर, मार्टिन मारिये-660 करोड़ डालर, ह्यूग्स-470 करोड़ डालर, मेक्डोनेल-570 करोड़ डालर, ग्रूमेन-420 करोड़ डालर, बेनडिक्स-410 करोड़ डालर, वेस्टिंग हाऊस-390 करोड़ डालर, कर्टिस राइट-380 करोड़, रेथियोन-330 करोड़ डालर, आई.बी.एम.-320 करोड़ डालर। इन निगमों को युद्ध सामग्री के आर्डरों का एक बड़ा हिस्सा कांग्रेस सदस्यों और सीनेटरों की मदद से मिला।'' [5] हमें यह जान लेना चाहिए कि सन् 1866 में विश्वविख्यात भौतिक शास्त्री अल्फ्रेड नोबुल ने डायनामाइट के उत्पादन के लिए 'नोबुल इण्डस्ट्रीज' नामक कंपनी की स्थापना हेम्बर्ग में की। दुनिया का प्रतिष्ठित नोबुल पुरस्कार, डायनामाइट व अन्य विस्फोटक पदार्थों का उत्पादन करने वाली कंपनी नोबुल इंडस्ट्रीज द्वारा ही दिया जाता है।'' [6] आशय स्‍पष्‍ट है कि बहुराष्‍ट्रीय कंपनियाँ हथियारों की बिक्री बढ़ाना जानती है। अल कायदा ने मीडिया और सोशल मीडिया के माध्‍यम से मुस्लिम उत्‍पीड़न की अवधारणा के तहत दुनियाभर के मुसलमानों को संदेश दिया कि इस्‍लाम खतरे में है और उसे निशाना बनाया जा रहा है। अलकायदा के इस प्रचार से धर्मिक जेहाद के नाम पढ़े-लिखे (सॉफ्टवेयर इंजीनियर) युवा भी आतंकवादी संगठनों में जुड़ने लगे। ये युवा आतंकवादी संगठनों के लिए मास्‍टर माइंड के रूप में घटनाओं को अंजाम देते हैं। स्‍वतंत्रता के दौरान भारत विभाजन में भी मजहब को हथियार के रूप में इस्‍तेमाल किया गया। पाकिस्‍तान बनाने के प्रबल समर्थकों में से एक मोहम्मद अली जिन्ना परंपरागत रूप से कट्टरवादी मुसलमान न होने के बावजूद उन्हें भी लगा कि इस हथियार के इस्तेमाल से भारत का बँटवारा संभव है और कोई तर्क काम नहीं कर सकेगा। हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग संप्रदाय हैं। दोनों की संस्कृतियाँ अलग हैं। दोनों अलग-अलग सभ्यताओं की उपज हैं, इसलिए अलग-अलग राष्ट्र हैं। मुस्लिम लीग का तर्क था कि अगर भारत को आजाद होना है तो मुसलमानों के लिए अलग देश की व्यवस्था हो जानी चाहिए।

भारत जैसा शांतिप्रिय देश आतंकवाद का दंश झेलने को मजबूर है। पड़ोसी मुल्‍क सीमा रेखा पर आतंकवादी घुसपैठ के जरिए देश को तबाह करता रहता है। पाकिस्‍तान कश्‍मीर की तथाकथित आजादी के नाम पर भारत विरोधी तत्‍वों को साथ देकर आतंकवादी संगठनों को प्रश्रय देता है। चीन पाकिस्‍तान के साथ हाथ मिलाकर अपने निहित स्‍वार्थ की पूर्ति कर रहा है। चीन अरूणाचल प्रदेश की सीमा को अपने मैप में स्‍थान देकर भारत को आँखें दिखाता र‍हता है। बांग्‍ला देश, बर्मा, भूटान और नेपाल की चतुर्दिक खुली सीमाओं से आतंकवादियों का प्रवेश हो र‍हा है। जहाँ देश के भीतर पूर्वोत्‍तर की 'सेवन सिस्‍टर' सात राज्‍यों में उल्‍फा और बोडो आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं तो वहीं विकास के नाम पर मध्‍य भारत नक्‍सली हिंसा से प्रभावित हो रहा है। मालेगाँव बम विस्‍फोट में हिंदू संगठनों का नाम आया। भारत के कश्‍मीर से लेकर असम, नागालैंड, बिहार आदि तक में पाकिस्‍तानी, इस्‍लामी, माओवादी, नक्‍सली, हिंदू आतंक, सिख जैसे आतंकवादी संगठन सक्रिय हैं। जो क्षेत्र आज आतंकवादी गतिविधियों से लंबे समय से जुड़े हुए हैं उनमें जम्मू-कश्मीर, मुंबई, मध्य भारत (नक्सलवाद) और सात बहन राज्य (उत्तर पूर्व के सात राज्य) (स्वतंत्रता और स्वायत्तता के मामले में) शामिल हैं। अतीत में पंजाब में पनपे उग्रवाद में आंतकवादी गतिविधियाँ शामिल हो गई जो भारत देश के पंजाब राज्य और देश की राजधानी दिल्ली तक फैली हुई थीं। 2006 में देश के 608 जिलों में से कम से कम 232 जिले विभिन्न तीव्रता स्तर के विभिन्न विद्रोही और आतंकवादी गतिविधियों से पीड़ित थे। अगस्त 2008 में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम.के. नारायणन का कहना था कि देश में 800 से अधिक आतंकवादी गुट सक्रिय हैं और 2014 तक देश में 800 से अधिक आतंकवादी गुट सक्रिय हैं। हाल के आतंकवादी हमले के घटनाक्रम को देखा जा सकता है।

1. मुंबई, 13 जून, 2011 : तीन स्थानों पर बम विस्फोट, बीस से अधिक मृत तथा सैकड़ों घायल।

2. पुणे, फरवरी, 2010: महाराष्ट्र के पुणे शहर की मशहूर जर्मन बेकरी को आतंकवादियों ने निशाना बनाया, इसमें 16 लोग मारे गए, जिनमें से काफी विदेशी भी थे, एक बार फिर इंडियन मुजाहिदीन को जिम्मेदार ठहराया गया।

3. मुंबई, 26 नवंबर 2008 : भारत की आर्थिक राजधानी मुंबई में आतंकवादियों ने घुसकर तीन दिनों तक दहशत फैलाई। पाँचसितारा होटलों और रेल्वे स्टेशन पर हुए बम धमाकों में 166 लोग मारे गए। भारत के ब्लैक कैट कमांडो की कार्रवाई में पाकिस्तानी नागरिक आमिर अजमल कसाब को छोड़ कर सारे आतंकवादी मारे गए। हमले की साजिश पाकिस्तान में रचे जाने की पुष्टि हुई।

4. असम, 30 अक्टूबर 2008 : असम में 18 आतंकवादी हमलों में कम से कम 77 लोग मारे गए और सौ से ज्यादा लोग घायल हो गए।

5. इंफाल, 21 अक्टूबर 2008 : मणिपुर पुलिस कमांडो परिसर के नजदीक शक्तिशाली विस्फोट में 17 लोग मारे गए।

6. मालेगाँव (महाराष्ट्र), 29 सितंबर 2008 : भीड़भाड़ वाले बाजार में मोटरसाइकिल में रखे विस्फोटकों के विस्फोट होने से पाँच लोगों की मौत।

7. मोदासा (गुजरात), 29 सितंबर 2008 : एक मस्जिद के नजदीक कम तीव्रता वाले बम विस्फोट में एक की मौत, कई घायल।

8. नई दिल्ली, 27 सितंबर 2008 : महरौली के भीड़भाड़ वाले बाजार में बम फेंकने से तीन लोगों की मौत।

9. नई दिल्ली, 13 सितंबर 2008 : शहर के विभिन्न हिस्सों में छह बम विस्फोटों में 26 लोगों की मौत।

10. अहमदाबाद, 26 जुलाई 2008 : दो घंटे से कम समय के भीतर 20 बम विस्फोटों में 57 लोगों की मौत।

11. बेंगलुरु, 25 जुलाई 2008 : कम तीव्रता के बम विस्फोट में एक व्यक्ति की मौत।

12. जयपुर, 13 मई 2008 : सिलसिलेवार बम विस्फोट में 68 लोगों की मौत।

13. रामपुर, जनवरी 2008 : रामपुर में सीआरपीएफ शिविर पर आतंकवादी हमले में आठ की मौत।

14. अजमेर, अक्टूबर 2007 : राजस्थान के अजमेर शरीफ में रमजान के समय दरगाह के अंदर विस्फोट में दो की मौत।

15. हैदराबाद, अगस्त 2007 : हैदराबाद में आतंकवादी हमले में 30 की मौत, 60 घायल।

16. हैदराबाद, मई 2007 : हैदराबाद की मक्का मस्जिद में विस्फोट में 11 की मौत।

17. फरवरी 2007 : भारत से पाकिस्तान जाने वाली ट्रेन में दो बम विस्फोटों में कम से कम 66 यात्री जल मरे, जिनमें अधिकतर पाकिस्तानी थे।

18. मालेगाँव, सितंबर 2006 : मालेगाँव के एक मस्जिद में दोहरे बम विस्फोट में 30 लोगों की मौत और सौ लोग घायल।

19. मुंबई, जुलाई 2006 : मुंबई की ट्रेनों में सात बम विस्फोटों में 200 से ज्यादा लोगों की मौत और 700 अन्य घायल।

20.वाराणसी, मार्च 2006 : वाराणसी के एक मंदिर और रेलवे स्टेशन पर दोहरे बम विस्फोट में 20 लोगों की मौत।

21. नई दिल्‍ली अक्टूबर 2005 : दीवाली से एक दिन पहले नई दिल्ली के व्यस्त बाजारों में तीन बम विस्फोटों में 62 लोगों की मौत और सैकड़ों लोग घायल।

आतंकवादी गतिविधियों के तहत बम विस्‍फोट के संदर्भ में कहा जा सकता है कि आतंकी हमला या आतंकवाद का संबंध किसी जाति, धर्म या संप्रदाय के हित के लिए नहीं वरन संपूर्ण मानवता के विनाश के लिए है। आतंकवाद की समस्या को अनेक पहलुओं से विचार करने की आवश्यकता है। सबसे पहली बात तो ये कि आतंकवाद को नैतिक व तात्विक आधार धर्म से मिल रहा है। यह कहना सच्चाई से मुँह चुराना है कि आतंकवादी का कोई मजहब नहीं होता। जब आतंकवादियों को ट्रेनिंग दी जाती है तो सबसे पहले तो उनके दिमाग में यह बात बिठाई जाती है कि यह बड़े पुण्‍य का काम है। आप ही बताइये किसी व्यक्ति में फिदाइन (आत्मघाती) बनने लायक, अपनी जान देकर भी वर्ल्ड ट्रेड टॉवर, संसद, ताजमहल होटल या अब क्रिकेट खिलाड़ियों से भरी बस पर हमला करने लायक जज़्बा और किस ढंग से पैदा किया जा सकता है? आतंकवादी यह सोच कर शायद ही हमला करने के लिए निकलते हों कि वह सुरक्षित लौट पाएँगे। आत्मघाती हमलों में आतंकवादी सबसे पहले अपनी जान देते हैं, तब जाकर दूसरों की जान लेने की उम्मीद करते हैं। इस प्रकार का उन्माद सिर्फ मजहब या देश की रक्षा के नाम पर ही व्यक्ति में पैदा किया जा सकता है। अतः आतंकवादियों को आम अपराधी मानने से हम केवल स्वयं को धोखा ही दे सकते हैं। हमें आतंकवाद से लड़ना है तो यह समझ लेना होगा कि आतंकवादी अपनी निगाह में बहुत अच्छा व पुण्य का काम कर रहे हैं व जो भी कर रहे हैं, वह उनकी निगाह में अपने मजहब की, समाज की बेहतरी के लिए है। आतंकवादी वास्तव में वे हैं जो लोग यह ट्रेनिंग देते हैं, निपटना तो वास्तव में उनसे है। सड़कों पर हमला करते दिखाई दे रहे आतंकवादी तो उनके हाथों में खिलौना भर हैं। आज पचास को मार गिराइये, सौ और पैदा हो जाएँगे।

भारत सरकार ने मुंबई आतंकवादी हमले के बाद भारत दौरे पर आई अमरीका की विदेशमंत्री हिलेरी क्लिंटन से ऐसे शिकायतें कीं मानो अमेरिका समूचे विश्‍व का अभिभावक हो। अमरीका में 11 सिंतबर को वर्ल्‍ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमले को 9/11 कहा गया और इसी तर्ज पर भारतीय मीडिया ने भी 2009 में मुंबई आतंकी हमलों को 26/11 का नाम दिया। आशय है कि हमारे दुख और संताप की भाषा भी अमरीकी है।

सारांश यह है कि मामला चाहे अमेरिका पर आतंकी हमले का हो या भारतीय संसद पर हमले का या फिर बस, ट्रेन, वायुयान, धार्मिक या भीड़ भरे स्थानों या आर्थिक ठिकानों को तहस नहस करने का इन सबके पीछे सिर्फ आतंकवादियों का एक ही उद्देश्य निहित रहता है कि भय द्वारा अपनी माँगों की पूर्तिकर संगठन का परचम फहराना। महात्मा गांधी मानसिक आतंकवाद को ज्यादा बड़ी समस्या मानते थे न कि भौतिक आतंकवाद को। इसी कारण उन्होंने विचारों को खत्म करने की बजाय उसे बदलने पर जो दिया। निश्चिततः आतंकवाद आज विश्वव्यापी समस्या है। भौतिक आतंकवाद की बजाय 'मानसिक' एवं 'प्रायोजित' आतंकवाद में इजाफा हुआ है। आतंकी गतिविधियों को प्रोत्साहन देने वाले देश यह भूल जाते हैं कि आतंक का कोई जाति, धर्म, लिंग या राष्ट्र नहीं होता। अपनी क्षुधा शांत करने के लिए आतंकी अपने जन्मदाता को भी निगल सकता है। ऐसे में जरूरत है-आतंक के केंद्र बिन्दु पर चोट करने की।



[1] दीक्षित राजीव, 'बहुराष्‍ट्रीय कंपनियों का मकड़जाल', आजादी बचाओ आंदोलन, पश्चिम भारत, वर्धा, पृ.सं. 12

[2] वही

[3] वही

[4] . वही, पृ.सं. 15

[5] . वही

[6] . वही, पृ.सं. 10


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