पिछले दिनों पत्रकारिता के स्तंभ कहे जाने वाले संपादकाचार्य बाबूराव विष्णु
पराडकर की स्मृति में मिशनरी पत्रकारिता को लेकर बहस छिड़ी। समाचार जगत अगर
पूँजी पर अवलंबित है और खबर को एक उत्पाद के रूप में परोसा जा रहा हो तो
लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के रूप पत्रकारिता की मिशनरी भावना पर विमर्श होना
लाजिमी है। क्योंकि आज उस पत्रकारिता का सवाल है जिसे समाज का पहरूआ होना है,
पर वह पहरूआ होने का कमीशन माँगने लगी है। आज तो विमर्श यह भी किया जाना कि आम
आदमी के विकास में क्या मीडिया सहभागिता की भूमिका निभा रही है \ हमें यह सोचना पड़ेगा कि समाज का कौन सा काम मिशनरी ढंग से
हो रहा है\ उपभोक्तावादी दौर में आज मूल्य सबमें गिरा है
चाहे राजनीति हो या न्यायपालिका, सिर्फ पत्रकारिता पर यह आरोप मढा जाना क्या
उचित है\ दरअसल समस्या लोकतांत्रिक व्यवस्था में है।
समाज के हाशिए के लोग भी जब इस लोकतांत्रिक व्यवस्था से तंग आ जाते हैं तो
आखिरी पायदान पर वे मीडिया से अपेक्षा करते हैं कि उनकी आवाज
बनें। लेकिन जब मीडिया पूँजीपतियों के आगे नतमस्तक होता हो तो ऐसे में आम जन
की अपेक्षाएँ क्या उचित है\ आज पूँजीपति वर्ग नियोजनबद्ध
तरीके से मीडिया के माध्यम से हमारी बौद्धिकता को बंद करने के पुरजोर प्रयास
में जुटा है। ''संचार माध्यम एक पृथक भावबोध निर्मित करते हैं जिसके कारण एक
नवीन मनुष्य जन्म लेता है। उनके द्वारा विभिन्न संस्कृतियों के
आदान-प्रदान के कारण एक नया सामूहिक व्यक्तित्व उभर कर आ गया है, जो पहले के
मनुष्य से बिल्कुल भिन्न है।''1 अब कहा जाएगा कि तकनीक व
प्रौद्योगिकी विकास के आयाम हैं तो हम ये न कह बैठे कि तकनीक के विरोध में जा
रहे हैं पर मुनाफाखोरी तकनीक पर आधारित उद्योग से तो लाभ के गणित को तरजीह
देगा। इसलिए उन्हें न तो विरोध पसंद है और न ही तर्क करने की क्षमता को
विकसित करना। मैक्लुहान ने घोषणा की थी कि संचार माध्यम पूरी दूनिया और
चेतना बदल देंगे। उन्होंने अपनी पुस्तक 'अंडरस्टैंडिंग मीडिया' में बताया
है कि - ''संचार माध्यम हमारे शरीर के ही विस्तार (एक्सटेंशन) हैं। अखबार,
रेडियो, टेलीविजन, सिनेमा आदि ही नहीं हम, स्वयं मीडियम हैं। हमारा शरीर,
मन-मस्तिष्क और हमारी चेतना लगातार अपने को संप्रेषित करने में लगी रहती हैं।
अपने को संप्रेषित करने की यह कोशिश ही इन बाहरी उपकरणों के द्वारा
टेक्नोलॉजिकल विस्तार के रूप में व्यक्त होती है। यानी मीडिया अंततः हमारी
चेतना का ही विस्तार है, वैसे ही जैसे वस्त्र हमारी त्वचा का विस्तार है,
साईकिल, कार आदि हमारे पैरों का विस्तार हैं। मुद्रण हमारी वाणी और स्पीच का
विस्तार है। मुद्रित सामग्री, टेलीग्राफ आदि हमें दूर-दराज के लोगों से
जोड़ते हैं। यहाँ मीडियम एक युग्म का रूप ले लेती है यानी एक मैं हूँ और एक
दूसरा या अदर है। मीडिया मैं को दूसरे से जोड़ती है। आई को अदर से। यही मीडिया
मैसेज का रूप ग्रहण कर लेती है।''2 संचार माध्यम पर चंद धनकुबेरों
का कब्जा है। मीडिया विश्लेषक क्रिस्टोफर डिक्शन के अनुसार - ''20 वीं
शताब्दी के आरंभ में तेल एवं मोटर उद्योग पर जिस प्रकार मुट्ठीभर धन कुबेरों
का कब्जा हो गया था, उसी प्रकार मनोरंजन एवं सूचना उद्योग पर भी पूँजीपतियों
का दबदबा बढ रहा है।''3
आज संचार माध्यम हमें पृथक भावबोध संचारित करके एकाकी परिदृश्य में ले जाता
है। पहले पब्लिक स्पेयर पर जन को संवादों के माध्यम से शिक्षित किया जाता था
पर आज टेक्नॉलॉजी ने उसे भी कुंद कर दिया है। शिक्षा का काम भी मिशनरी नहीं
रहा। राजनीति का प्रयोग मिशनरी ढंग से होता तो शायद 311 करोड़पति संसद में नहीं
पहुँच पाते। अखबार जगत में पूँजी ही भगवान हो गया है और मुनाफा ही मोक्ष हो
गया है। आज संपादक की बजाय मैनेजर ही खबर का निर्धारक हो गया है। ऐसे में
समाचार पत्रों का मिशनरी स्वरूप संभव नहीं है। फोर्ब्स पत्रिका में शामिल
200 अमीरों में 44 भारतीय हैं हालाँकि यह अलग बात है कि 77 प्रतिशत भारतीय 20
रूपये में ही गुजारा करने को विवश हैं। भारत की भूखमरी ऐसी है कि जो मजदूर
कठिन परिश्रम करते हैं उनको मात्र 1600 कैलोरी ही मिल पाता है, कम कैलोरी
मिलने से वे रोग से ग्रसित होते हैं, सरकार कहती है कि ये मौतें बीमारी की वजह
से हुई है, यहाँ यह कहना समीचीन होगा कि हर 28 मिनट पर देश में एक किसान
आत्महत्या कर लेता है, इसप्रकार की मौतें खबर नहीं बन पाती है। हम यह जानते
हैं कि - ''देश के 70 प्रतिशत लोग अब भी गाँवों में रहते हैं, देश के कुल
मजदूरों के 58 प्रतिशत लोग अब भी खेती में काम करते हैं और देश के साठ करोड़
लोग अब भी खेती पर अपना जीवनयापन करते हैं। खेती का जीडीपी में योगदान 17.6
प्रतिशत रह गया है, जो 1951-52 में 54.2 या 54.3 प्रतिशत रहा करता था। खेती जो
सिर्फ 17.6 प्रतिशत कान्ट्रीब्यूट करती है, उसके ऊपर 70 करोड़ लोग जीते हैं
और जो 50 प्रतिशत से ज्यादा सेक्टर कंट्रीब्यूट करता है जीडीपी से उस पर
मुश्किल से देश के दस प्रतिशत लोग जीते हैं और मैन्यूफेक्चरिंग सेक्टर पर
ज्यादा से ज्यादा उन्नीस प्रतिशत लोग जीते हैं। अब तो ये बजट की माया है,
ये किसी अखबार ने नहीं दी। इसका मतलब यह है कि अपने देश का पूरा मीडिया वही
करना चाहता है जो कि सरकार चाहती है जो कि इसके कार्पोरेट सेक्टर के लोग
चाहते हैं कि सरकार करे।''4 जाने-माने पत्रकार पी.साईनाथ ने एकबार
राजेंद्र माथुर स्मृति व्याख्यान देते हुए दिल्ली में बताया था कि - ''जब
मुंबई में (वर्ष 2007) लेक्मे फैशन वीक में कपास से बने सूती कपड़ों का
प्रदर्शन किया जा रहा था लगभग उसी दौरान विदर्भ में किसान कपास की वजह से
आत्महत्या कर रहे थे। इन दोनों घटनाओं की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि 'फैशन
वीक' को कवर करने के लिए जहाँ कोई 512 मान्यता प्राप्त पत्रकार पूरे हफ्ते
मुंबई में डटे रहे और कोई 100 पत्रकार रोजाना प्रवेशपत्र लेकर आते-जाते रहे
वहीं विदर्भ के किसानों की आत्महत्या को कवर करने के लिए, बमुश्किल 6
पत्रकार ही पूरे देश से पहुँच पाए।''5 नई आर्थिक नीति के तहत विकास
हो या फिर भूमंडलीकरण के जुमले ये हमें सामूहिकता की बजाय व्यक्तिनिष्ट
बनाता है इसलिए तो राबर्ट पुकवम अपने सोशल कैपिटल थ्योरी शोध आलेख में कहते
हैं कि पहले हम 30 मिनट सामाजिक रूप से जुडे़ रहते थे पर आज यह घटकर मात्र 12
मिनट ही रह गया है। पूरे विश्व में 9 मीडिया घरानों का संचार माध्यमों पर
कब्जा है इनकी कोशिश रहती है कैसे बौद्धिक प्रक्रिया को बाधित कर दिया जाय
ताकि सिर्फ ये खरीददार बनकर रह जाएँ। इसलिए मीडिया मालिकान खबर को साबून शैंपू
की तरह बाजार में बेचना चाहते हैं। पूँजीवादी मालिकान के पास नौकरी करने वाले
पत्रकार आखिर कौन सी खबर को तरजीह दे, क्या वह बाजार में टिके रहने के लिए
कुछ दायाँ-बायाँ करे या समाज सापेक्ष बने रहे यह सवाल है। ''मीडिया कोई
प्रोडक्ट ना होकर उसमें काम करने वाले पत्रकार कोई प्रोडक्ट हो चुके हैं जो
किसी घटना को लेकर रिपोर्टिंग तभी कर पाएँगें जब मीडिया हाउस उसे भेजेगा। अब
सवाल सबसे पहले पत्रकार का जो उपभोक्ताओं को खबरें ना परोस कर चारसौ बीसी कर
रहा है तो पत्रकार के सामने तर्क है कि वह बताये कि आखिर शहर में दंगे के दिन
वह किसी फिल्म का प्रीमियर देख रहा था तो खबर तो फिल्म की ही कवर करेगा या
फिर फिल्म करोड़ों लोगों तक पहुँचेगी और दंगे तो सिर्फ एक लाख लोगों को ही
प्रभावित कर रहे हैं तो वह अपना प्रोडक्ट ज्यादा बड़े बाजा़र के लिए बनाएगा।
यानी देश में सांप्रदायिक दंगों को राजनीति हवा दे रही है और उसी दौर में
फिल्म अवार्ड समारोह या कोई मनोरंजक बालीवुड का प्रोग्राम हो रहा है और कोई
चैनल उसे ही दिखाए या फिर अवार्ड समारोह की ही ख़बर किसी अखबार के पन्ने पर
चटकारे लेकर छपी हो तो कोई उपभोक्ता क्या कर सकता है।'' (ज्ञानोदय 21) हर
पत्रकार को यह सोचकर रहना चाहिए कि सामाजिक दायित्वों का निर्वहन करते हुए
पत्रकारिता का धर्म निभाएँ। पी साईनाथ अगर यह सवाल उठाते हैं कि किसानों की
आत्महत्या की कवरेज पत्रकार क्यों नहीं करता तो यहाँ सीधा सा मतलब है कि
गाँव व किसान के मुद्दों से किसका लेना-देना रह गया है। अगर बिक्री बढाने की
होड़ में अखबार के संपादक गाँव में किसी संवाददाता की नियुक्ति करता है तो
उन्हें महज दो या तीन सौ रूपये मासिक में गुजारा करना पड़ता है। ऐसे में सोचा
जा सकता है कि वह पत्रकार किस प्रकार से अपना पेट का पालन करेगा। हाल वर्षों
तक गाँवों में रिपोर्टिंग के लिए संवाददाता को मानदेय के रूप में 300 रूपये हर
महीने का चेक मिलता था।
यहाँ सवाल यह उठता है कि क्या तीन सौ रूपये में जिंदा रहने वाले गाँवों के
पत्रकार को ही सामाजिकता का निर्वहन करना चाहिए। चूँकि मीडिया में बडी पूँजी
लगी है तो आज हमें यह याद रखना चाहिए कि हम अखबार को उस तरह से नहीं निकाल
सकते हैं जैसे कि साबून उद्योग या स्टील कंपनी अपना उत्पाद बनाती है।
पूँजीपति लाभ के लिए अखबार निकालते हैं तो उन्हें सामाजिक सरोकार से आखिर
क्या लेना-देना\ प्रभाष जोशी अपने एक आलेख में कहते हैं कि
- ''स्याही बनाने वाले लोगों से आज तक क्यों नहीं पूछा गया कि तुम्हारा
सामाजिक सरोकार क्या है\ अखबार जिस कागज पर छपता है, उस
कागज वाले से आजतक कभी किसी ने नहीं पूछा कि भाई, तुम्हारा सामाजिक सरोकार
क्या है\ तुम पेड़ों को काटकर जंगल साफ करके जो इतना कागज
पैदा करते हो और उसका क्या मतलब है\ छत्तीस पेज के अखबार
में पढने के लिए एक पेज का भी मटेरियल भी नहीं होता\ और एक
पेज का भी मटेरियल ज्यादा देर पढा़ नहीं जा सकता इसलिए हम उसको रख देते हैं।
हमारी इतनी सी सेवा करने के लिए आपने जंगल क्यों काट दिए\
ऐसा किसी ने अभी तक पूछा नहीं है, उससे भी किसी ने अब तक नहीं पूछा कि भाई,
तुम ये कैसी मशीनें तैयार करते हो, जिन पर कैसे-कैसे बदसूरत अखबार छपते हैं और
जो सिर्फ अर्ध नग्न महिलाओं के फोटो छापने में ही आनंद लेते हैं। ऐसी मशीनें
क्यों बनाते हो ऐसा किसी ने नहीं पूछा\''6
इसके विवेक के लिए जिम्मेदार किसी ने अब तक नहीं माना। प्रिटिंग मशीन वाले को
क्या छापना है, क्या नहीं छापना है - इसका निर्णय करने का विवेक आजतक किसी
ने नहीं दिया और कागज बनाने वाले को भी कभी किसी ने यह नहीं कहा कि तुम तो
सिर्फ वैसा कागज बनाया करो जिस पर बाईबिल, गीता संपृक्त जनकल्याणकारी बातें
छपे और कुछ नहीं छपे। ऐसा अब तक किसी ने नहीं कहा। क्यों नहीं कहा \ क्योंकि ये तीनों उद्योग के लोग अपना काम करते हुए यह तय
नहीं करते हैं कि क्या करना है, क्या नहीं करना है। एक मात्र समाचार पत्र
उद्योग ऐसा है, जिसकी पहली लाइन से लेकर आखिरी लाइन तक अगर आप विवेक का
इस्तेमाल नहीं करें, तो अखबार निकल ही नहीं सकता। हम जानते हैं कि
टेलीप्रिंटर पर जितनी खबरें आती हैं, उतनी सबकी सब छाप देने वाला तो एक भी
अखबार आज तक दुनिया में पैदा नहीं हुआ। सभी गेटकीपिंग थ्योरी के तहत काम करते
हैं। वो भले ही 50 पेज का अखबार हो, फिर भी उसको चुनना पड़ता है कि मैं क्या
छापूँ, क्या नहीं छापूँ। ये सब चुनने के बाद उसको यह तय करना पड़ता है कि
कौन सी चीज पहले पेज पर रखूँ, कौन सी चीज आखिरी पेज पर रखूँ, किस खबर को
ज्यादा महत्व दूँ और किस खबर को कम महत्व दूँ। ये सारी की सारी चीजें विवेक
के इस्तेमाल के कारण होती हैं और विवेक हमेशा मूल्य से निर्धारित होता है।
यहाँ यह कहना समीचीन होगा कि - ''अब जो लोग कहते हैं कि हम तो अखबार निकाल रहे
हैं, हमको इससे क्या लेना-देना है कि समाज में क्या हो रहा है या कहाँ क्या
हो रहा है। हमारे पास तो जो आ रहा है, वह हम छापते हैं। जो यह कह रहे हैं कि
वे बिल्कुल बंडलबाजी कर रहे हैं, क्योंकि आप जानते हैं कि उन्होंने खबरें
चुनकर आपको ठीक से परोसकर पढ़ने के लिए तैयार करके दी हुई हैं। एक खबर बिना
विवेक के इस्तेमाल के अखबार में जा ही नहीं सकती। एक खबर बिना मूल्य के
एप्लीकेशन के अखबार में नहीं जा सकती है।''7 तो फिर क्यों कहें
कि साहित्य या पत्रकारिता समाज का दर्पण है जिसमें हमें समाज का प्रतिबिंब
दिखाई पड़ता है। ''पहले कभी पत्रकारिता या मीडिया समाज का दर्पण रहा होगा
लेकिन आज शायद मुझे कई बार दिखता है कि वह दर्पण जरूर है लेकिन जैसा सर्कस में
एक घुमावदार दर्पण होता है जिसमें अपना ही केरिकेचर हम लोग देखते हैं, कुछ उस
तरह का दर्पण मीडिया का होता जा रहा है। समाज ने हमारे राज्य का संचालन और
उसका मार्गदर्शन करना तो बहुत पहले ही छोड़ दिया था क्योंकि कोई संस्था हमारे
यहाँ ऐसी नहीं बची जो इतनी नैतिक रूप से शक्तिवान हो कि राज्य को उनकी बात
सुननी पड़े या माननी पड़े वह नैतिक शक्ति जैसे राज्य से या राजनीति से चली गई
है। वैसे ही समाज से भी कम हुई है।'' (चिंता और चिंतन पृष्ठ 85)
अब तो हमें यह सोचना ही पड़ेगा कि मीडिया अगर प्रोडक्ट है तो पाठक उपभोक्ता
है और उपभोक्ता के भी कुछ अधिकार होते हैं। अगर वह माल खरीद रहा है तो उसे जो
माल दिया जा रहा है उसकी क्वालिटी और माप में गड़बड़ी होने पर उपभोक्ता
शिकायत कर भरपायी कर सकता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि - ''मीडिया अगर खबरों
की जगहों पर मनोरंजन या सनसनाहट पैदा करने वाले तंत्र-मंत्र को दिखाये या छापे
तो उपभोक्ता कहाँ शिकायत करे।''8 यह तो तय है कि मीडिया राज्य और
समाज की निगरानी करता है तो हमें यह कहने में गुरेज नहीं है कि - ''राज्य,
समाज और मीडिया ब्रह्मा विष्णु और शिव हैं। समाज का नाम यदि ब्रह्मा रखा जाये
तो यह राज्य की रचना वाले की चीज है, समाज ब्रह्मा है, राज्य का काम दुनिया
का संचालन करना है जो विष्णु करता है, इस दुनिया और समाज में यदि कोई
बुराईयाँ व्याप्त हो गई हैं तो उन बुराईयों को हटाने की दिशा में प्रयास
करना या दिशा देने का काम शिव का है और वह काम मीडिया निर्वाहित करता है।'' 9
इसलिए यहाँ यह कहा जा सकता है कि लोकतंत्र का चौथा खंभा अगर मीडिया है तो आम
आदमी लोकतंत्र का पाँचवाँ खंभा है। इस पाँचवें खंभे पर ही चारों खंभा आश्रित
है। हमें तो पांचवें खंभे के जड़ों को मजबूत करना है।
संदर्भ-सूची
1. नया ज्ञानोदय, (सं) रवींद्र कालिया, अंक 83, जनवरी 2010, भारतीय ज्ञानपीठ,
18 इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, पोस्ट बॉक्स नं- 3113, नई दिल्ली-
1100033 पृष्ठ-16
2. नया ज्ञानोदय, (सं.) रवींद्र कालिया, अंक 83, जनवरी 2010, भारतीय ज्ञानपीठ,
18 इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, पोस्ट बॉक्स नं- 3113, नई दिल्ली-
1100033 पृष्ठ-17
3. योजना, अंक मई 2009, 538, योजना भवन, संसद मार्ग, नई दिल्ली, पृष्ठ-13
4. शर्मा, युगेश (सं) 'चिंता और चिंतन', मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार
समिति, भोपाल, पृष्ठ-16
5. योजना अंक मई 2009 538, योजना भवन, संसद मार्ग, नई दिल्ली, पृष्ठ-13
6. योजना अंक मई 2009 538, योजना भवन, संसद मार्ग, नई दिल्ली, पृष्ठ-13
7. शर्मा, युगेश (सं) 'चिंता और चिंतन', मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार
समिति, भोपाल, पृष्ठ-15
8. नया ज्ञानोदय, (सं.) रवींद्र कालिया, अंक 83, जनवरी 2010, भारतीय ज्ञानपीठ,
18 इंस्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड, पोस्ट बॉक्स नं- 3113, नई दिल्ली-
1100033 पृष्ठ-21
9. शर्मा, युगेश (सं) 'चिंता और चिंतन', मध्यप्रदेश राष्ट्रभाषा प्रचार
समिति, भोपाल, पृष्ठ 51