चंपारण सत्याग्रह की कहानी उस महामानव की है
,
जिसने दुनिया को अहिंसा और सत्याग्रह जैसे हथियार दिए और इन हथियारों से
चंपारण में किसानों को अँग्रेजों के शोषण से राहत मिली।
महात्मा गांधी
15 अप्रैल
,
1917 को जब बिहार आए तो उनका एक मात्र मकसद चंपारण के किसानों की समस्याओं
को समझना
,
उसका निदान और नील के धब्बों को मिटाना था। अँग्रेजों द्वारा जबरन नील की
खेती कराए जाने के संदर्भ में एक स्थानीय पीड़ित किसान राजकुमार शुक्ल के
आग्रह पर मोतिहारी पहुँचकर 2900 गाँवों के तेरह हजार किसानों की स्थिति का
जायजा लिया। 1916 में लगभग 21,900 एकड़ जमीन पर अँग्रेज चंपारण के किसानों
से जबरन तीनकठिया पद्धति से नील की खेती करवाते और नील उपजाने वाली भूमि
बंजर हो जाती थी।
चंपारण सत्याग्रह की कहानी 19 लाख लोगों के दुख-दर्द की है, जिनकी पीढ़ियाँ
ब्रिटिश नील प्लांटरों की तिजोरियाँ भरने में त्रस्त हो गई थीं। जिनके घरों
में अनाज का एक दाना भी नहीं होता, फिर भी वे अपने खेतों में धान-चावल के बदले
इन परदेसी अधिकारियों के भय से नील की फसल उगाते थे। इतने पर भी शोषकों का मन
नहीं भरता, वे बात-बात पर किसानों पर कर लगाते और लगान न चुकाने पर उन्हें
अमानवीय पीड़ा देते। नील प्लांटर एक तरह से उस इलाके के मालिक मुख्तार हुआ
करते थे। अँग्रेजों ने कर्ज में डूबे बेतियाराज से जमीन ठेके पर ले ली थी और
जिस इलाके में नील की खेती करवाते (जिस खेत में नील की खेती होती, वह भूमि
बंजर हो जाती थी)। इससे लोग परेशान थे। चंपारण किसानों के शोषण की यह कहानी
शेख गुलाब, शीतल राय, खेनहर राय, संत भगत और पीर मोहम्मद मूनिस जैसे अल्पज्ञात
योद्धाओं की तो है ही, जिन्होंने अपना जीवन चंपारण के लोगों को इस शोषण से
मुक्ति दिलाने में लगा दिया। निलहों से मुक्ति के लिए रैयतों में छटपटाहट थी।
तभी पश्चिम चंपारण के सतवरिया निवासी पंडित राजकुमार शुक्ल की मेहनत रंग लाई।
पंडित शुक्ल ने नील कृषकों की समस्याओं से लोगों को जोड़ने का प्रयास किया।
कृषकों से मोतिहारी और पटना के अदालतों में मुकदमा दर्ज करवाया। मुकदमे के लिए
राजेंद्र प्रसाद, ब्रजकिशोर प्रसाद जैसे नामचीन वकीलों ने उनका साथ दिया। इनके
अभियान से प्रभावित होकर धरणीधर प्रसाद, कचहरी का कातिब पीर मोहम्मद मुनिस,
संत राउत, शीतल राय और शेख गुलाब जैसे लोग हमदर्द बन गए। मोतिहारी के वकील
गोरख प्रसाद (जो बिहारी अखबार से जुड़े थे) ने अखबार के माध्यम से किसानों की
पीड़ा को जन-जन तक पहुँचाया। इसी क्रम में कानपुर से प्रकाशित अखबार 'प्रताप'
के स्थानीय संवाददाता पीर मुहम्मद मुनिस से शुक्ल की मुलाकात हुई और
उन्होंने 'प्रताप' के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी से परिचय करवाया।
विद्यार्थी जी ने पंडित राजकुमार शुक्ल को बताया कि चंपारण के किसानों की
समस्या से निजात दिलाने के लिए गांधीजी को बुलाया जाए। गांधीजी चंपारण आ रहे
थे यह जानने-समझने के लिए राजकुमार शुक्ल जैसे किसान जो आरोप नील प्लांटरों
पर लगा रहे हैं, उसमें सच्चाई कितनी है। 15 अप्रैल, 1917 को वे मोतिहारी
पहुँचे। यहाँ आए थे वे तीन-चार दिनों के लिए पर रूके करीब एक वर्ष। चंपारण के
किसानों की पीड़ा को समझने और उसका निजात दिलाने वाला व्यक्ति मिल गया था।
चंपारण के किसानों की लड़ाई लड़ने के लिए अहिंसा और सत्याग्रह के रूप में एक
नया और कारगर हथियार मिल गया था।
गांधी के आगमन के साथ पूरे चंपारण में किसानों के भीतर आत्म-विश्वास का
जबर्दस्त संचार हुआ। उनके पहुँचते ही लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा। प्रत्येक
व्यक्ति अपनी आपबीती सुनाने लगा। चंपारण में नील की खेती के अलावा अँग्रेजों
ने किसानों पर 42 प्रकार के अलग से कर लगाए। 'घोड़हवा' से 'घवहवा' जैसे कर।
यानी किसी अँग्रेज को घोड़ा खरीदना हो तो उसके लिए जनता कर दे, किसी अँग्रेज को
घाव हो गया हो, इलाज कराना हो तो उसके लिए भी जनता से कर लिया जाता।
'बपहा-पुतहा' जैसे कर लगे, यानी किसी के पिता की मौत हो जाती है और उसकी जगह
बेटा घर का मालिक बनता है तो उसके लिए भी अलग से अँग्रेजों को कर देना पड़ता
था। पईन टैक्स लगा, किसान अपनी जमीन की सिंचाई करे न करें तो भी टैक्स देना
पड़ता था। हल रखने के लिए भी बेंटमाफी टैक्स देना पड़ता था। किसान अपनी बेटी की
शादी के लिए जो मड़वा बनवाता था उस पर भी सवा रुपये का टैक्स लगता था। होली और
रामनवमी का त्योहार मनाने के लिए भी उसे टैक्स देना होता था। जनता को ऐसे ही
कई प्रकार के कर देने पड़ते थे। चंपारण के रैयतों से मड़वन, फगुआही, दशहरी,
सिंगराहट, घोड़ावन, लटियावन, दस्तूरी समेत लगभग 46 प्रकार के कर वसूले जाते थे
और वह कर वसूली भी काफी बर्बर तरीके से की जाती थी। सुनकर रौंगटे खड़े हो जाते
हैं, किसानों को गोली मार दी जाती थी, बरछी से बदन में छेद कर दिया जाता था,
घर तोड़ दिए जाते थे ताकि उस जमीन पर नील की खेती हो सके। किसानों से ऐसे-ऐसे
टैक्स लिए जा रहे थे जिसकी आप कल्पना नहीं कर सकते।
चंपारण में जसौलपट्टी गाँव के किसान पर निलहों द्वारा अमानवीय अत्याचार की
ताजा खबर सुनकर गांधी वहाँ पहुँचने को तैयार हुए। हाथी पर सवार होकर दोपहर में
चंडहिया गाँव पहुँचे ही थे कि उन्हें एक दरोगा ने सूचना दी कि जिलाधीश आपसे
मिलना चाहते हैं। गांधीजी दरोगा के साथ एक बैलगाड़ी पर सवार होकर नगर की ओर लौट
पड़े। गांधीजी ने जब आधी दूरी तय कर ली तब उन्हें पुलिस का एक उच्चाधिकारी
मिला, जो धारा-144 की नोटिस के साथ था। इस नोटिस में गांधीजी को अविलंब
मोतिहारी छोड़ने का आदेश दिया गया था। 'मुझे इसका अंदेशा तो था ही!' कह कर
गांधी चंपारण के जिलाधिकारी का आदेश-पत्र लेते हैं। उसमें लिखा है, 'आपसे
अशांति का खतरा है।' गांधीजी ने इस नोटिस को अनदेखा कर दिया। तीसरे दिन
गांधीजी पर आज्ञा उल्लंघन के मुकदमे की सुनवाई शुरू हो गई। गांधीजी ने आरोप को
स्वीकार कर लिया। 18 अप्रैल, को मोतिहारी कोर्ट में उनपर धारा-144 के उल्लंघन
का मुकदमा चला। कचहरी में दो हजार स्थानीय किसानों का रेला उमड़ पड़ा था।
न्यायाधीश ने पूछा कि गांधी आपका वकील कौन है, तो उन्होंने जवाब दिया - कोई
भी नहीं। फिर? गांधी बोले, 'मैंने जिलाधिकारी के नोटिस का जवाब भेज दिया है।
अदालत में सन्नाटा सा पसर गया। न्यायाधीश बोला, 'वह जवाब अदालत में पहुँचा
नहीं है।' गांधीजी ने अपने जवाब का कागज निकाला और पढ़ना शुरू कर दिया। इस वक्त
मैं सरकार से भी उच्चतर कानून अपनी अंतरात्मा के कानून का पालन करना उचित समझ
रहा हूँ। एक कानून से प्रतिबद्ध नागरिक के रूप में यहाँ रहना मेरी पहली
प्राथमिकता होगी, जैसा कि मुझे भेजे गए आदेश का पालन करना चाहिए, लेकिन अपने
कर्तव्य के भाव के प्रति हिंसा किए बिना मैं ऐसा नहीं कर सकता, इसलिए मैं यहाँ
आया हूँ। मुझे लगता है कि मैं सिर्फ उनके बीच रहकर ही सेवा कर सकता हूँ, इसलिए
मैं स्वच्छा से इस सेवा से नहीं हट सकता। कर्तव्यों के इस संघर्ष के बीच मैं
अपने को यहाँ से हटाए जाने की जिम्मेदारी प्रशासन पर नहीं लगा सकता। मैंने
व्यवस्था के वैध अधिकार के सम्मान की इच्छा के लिए नहीं बल्कि अपने अस्तित्व
के लिए उच्च कानून के प्रति अपने विवेक का उपयोग किया। अपने देश में कहीं भी
आने-जाने और काम करने की आजादी पर वे किसी की, कैसी भी बंदिश कबूल नहीं
करेंगे। हाँ, जिलाधिकारी के ऐसे आदेश को न मानने का अपराध मैं स्वीकार करता
हूँ और उसके लिए सजा की माँग भी करता हूँ। गांधीजी का लिखा जवाब पूरा हुआ और
इस खेमे में और उस खेमे में सारा कुछ उलट-पुलट गया।
न्यायालय ने ऐसा अपराधी कभी नहीं देखा था जो बचने की कोशिश ही नहीं कर रहा था।
वकील भी हतप्रभ थे कि इनपर तो कानूनी रूप से सजा का कोई मामला बनता ही नहीं
है। सरकार, प्रशासन सभी अपने ही बुने जाल में उलझते जा रहे थे। अदालत ने
उन्हें सौ रुपये के मुचलके पर जमानत लेने को कहा, तो उन्होंने इससे भी इनकार
कर दिया। न्यायाधीश ने फिर कहा कि बस इतना कह दो कि तुम जिला छोड़ दोगे और फिर
यहाँ नहीं आओगे तो हम मुकदमा बंद कर देंगे। इसपर गांधी ने कहा, 'यह कैसे हो
सकता है। आपने जेल दी तो उससे छूटने के बाद मैं स्थाई रूप से यहीं चंपारण में
अपना घर बना लूँगा।' यह सब चला, अंततोगत्वा जज को खुद मुचलका भरना पड़ा।
गांधी के सत्याग्रह की पहली जीत हो चुकी थी। चंपारण में किसानों से बयान दर्ज
करवाने का काम किसी युद्ध की तैयारी जैसा चला। देशभर से आए विभिन्न भाषाओं के
लोग, बिहार के लोगों की मदद से बयान दर्ज करने के काम में जुटे। गांधी जैसे एक
वकालतखाना ही चला रहे हों। तथ्यों का सच्चा और संपूर्ण आकलन एक अकाट्य हथियार
बन गया। उसके बाद गांधीजी पूरे चंपारण में घूम-घूम कर किसानों और नील
प्लांटरों के बयान लेने लगे। चंपारण के इस ऐतिहासिक संघर्ष में डॉ. राजेंद्र
प्रसाद, अनुग्रह नारायण सिंह, आचार्य कृपलानी समेत चंपारण के किसानों ने
महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। आंदोलन के शुरुआती दो महीनों में गांधीजी ने इस
क्षेत्र के हालात की गहराई से पड़ताल की। चंपारण के लगभग 2,900 गाँवों के
तकरीबन 13,000 रैयतों की स्थिति का जायजा लिया। इस मामले की गंभीरता उस समय के
समाचार-पत्रों की सुर्खियाँ बनती रहीं। 18 अप्रैल से 16 जुलाई के बीच गांधी के
नेतृत्व में चंपारण के 10,000 किसानों के बयान दर्ज किए गए। भारतीय इतिहास में
संभवतः ये पहली जनसुनवाई होगी। 2015 में भारत के 12,615 किसानों ने आत्महत्या
कर ली, उनकी कोई सुनवाई नहीं हो पाती है। चंपारण के किसान गुलाम बना लिए गए
थे। 400 गोरे किसान थे मगर 19 लाख किसानों को गुलाम बनाया था। मुनाफा कमाने के
लिए किसानों से उनकी अपनी जमीन पर भी नील उगाकर देने के लिए कहा गया। वो अपनी
मर्जी से कुछ उगा नहीं सकते थे। गांधी ने अँग्रेजों से कोई झगड़ा मोल नहीं
लिया बल्कि सत्याग्रह का मार्ग अपनाया। सत्याग्रह का मूल मंत्र था अपने
विरोधी को यह समझा देना कि उनका विरोध किसी व्यक्ति से नहीं बल्कि उस सोच से
हैं जिसका परिणाम है शोषण। यह कोई आसान काम नहीं था। यह समझ अभी भी
नक्सलवादियों को नहीं है। जब-जब पुलिस के लोगों को मारने में उन्हें सफलता
मिलती है, तब-तब उनके विचारों को सर्वमान्य बनाने में उन्हें असफलता मिलती है।
गांधी को इस बात की समझ थी और लड़ाई का यही मूल मंत्र उनके पास था। चंपारण में
गांधी ने घोषणा कर दी कि किसानों का आंदोलन अलग तरह का है। इसमें मानवीय
मूल्यों की रक्षा की जानी चाहिए।
गांधी की इस गतिविधि से प्लांटर और प्रशासन दोनों घबरा गए थे। किसानों को लगने
लगा था कि उनका तारणहार आ गया है। गांधीजी की मौजूदगी और उनके सामने मोतिहारी
के प्रशासन और अदालत को घुटने टेकते हुए देखकर चंपारण की रैयत का आत्मविश्वास
काफी बढ़ गया था। प्लांटरों और प्रशासनिक अधिकारियों ने कई झूठे आरोप गढ़ कर
गांधी को चंपारण से भगाने की कोशिश की। मगर उन्हें सफलता नहीं मिली। थक हार कर
बिहार सरकार को चंपारण के मसले की जाँच के लिए 10 जून, 1917 को सरकारी जाँच
समिति का गठन करना पड़ा और महात्मा गांधी को भी उस समिति का महत्वपूर्ण सदस्य
बनाना पड़ा। समिति ने जाँच की और किसानों के आरोप सही पाए गए। इस जाँच के आधार
पर कानून बना कर 4 मार्च, 1918 को तिनकठिया प्रथा (बीघे में तीन कट्ठा भूमि पर
नील की खेती करना) को गैर-कानूनी घोषित कर दिया गया और लगभग एक साल की कोशिशों
के बाद चंपारण के किसानों को शोषण के अंतहीन चक्र से मुक्ति मिल गई। मार्च
1918 तक 'चंपारण एग्ररेरियन बिल' पर गवर्नर-जनरल के हस्ताक्षर के साथ तीनकठिया
समेत कृषि संबंधी अन्य अवैध कानून भी, जो तबतक प्रचलन में थे, समाप्त हो गए।
इस बड़ी घटना ने राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन का रास्ता प्रशस्त करने के साथ ही
गांधी का कद और बड़ा कर दिया। चंपारण सत्याग्रह का एक बड़ा लाभ यह भी हुआ कि
इस इलाके में विकास की शुरुआती पहल हुई, जिसके तहत कई विद्यालय व चिकित्सा
केंद्र स्थापित किए गए। चंपारण की पवित्र मिट्टी ने मोहनदास करमचंद गांधी जैसे
शख्स को महात्मा बनाया और आम जनों को अपना हक हासिल करने का सहज हथियार
(सत्याग्रह) उपलब्ध कराया।
चंपारण सत्याग्रह के दौरान गांधीजी ने विद्यालय बनवाने, सफाई करने, स्वास्थ्य
की देख-भाल करने जैसी कई सामाजिक कार्यों को अपने हाथ में लिया। इन बातों का
आंदोलन से सीधा संबंध तो नहीं ही था। फिर गांधी के आंदोलन के तकनीक में इन
सबकी क्या भूमिका थी? मकसद यह था कि समाज बदले, लोग स्वस्थ और जागरूक हो। उनका
मानना था कि अगर कोई समाज स्वस्थ और जागरूक होगा, तो वह कभी गुलाम नहीं हो
सकता। गांधीजी ने चंपारण में तीन स्कूल खोले थे। उन्होंने बड़हरवा लखनसेन,
भीतिहरवा और वृंदावन में स्कूल खोले गए। शिक्षा, स्वास्थ्य और स्वच्छता का
प्रसार करने के लिए उन्होंने राज्य के बाहर से स्वयं सेवकों को बुलाया था। 21
स्वयं सेवकों की टीम में कस्तूरबा, देवदास गांधी, बबन गोखले और उनकी पत्नी
अवंतिका गोखले, डॉ. देव समेत कई जाने-माने लोग थे। शिक्षा नीति का प्रयोग किए।
भितिहरवा में तो स्कूल की जगह पर शानदार संग्रहालय बन गया है, लेकिन गांधीजी
द्वारा खोला गया स्कूल संचालित है। मधुबन का स्कूल बंद हो गया। बड़हरवा,
लखनसेन का स्कूल आज भी संचालित हो रहा है। इसी काम के सिलसिले में गांधीजी को
वह महिला चंपारण के श्रीरामपुर में मिली, जिसके पास पहनने के लिए दूसरा कपड़ा
नहीं था, वह एक कपड़े से ही काम चलाती थी। उसी महिला को देखकर गांधीजी ने
काठियावाड़ी लिबास को त्यागकर आजीवन एक वस्त्र से काम चलाने का प्रण किया।
चंपारण सत्याग्रह शताब्दी वर्ष पर किसानों के हालात को देखकर कहा जा सकता है
कि देश के किसान सौ वर्ष पूर्व भी परेशान थे और आज भी परेशान हैं। आर्थिक
विषमताएँ, सामाजिक कुरीतियाँ और धार्मिक-जातिगत तनाव देश की कमजोरी बने हुए
हैं। सत्य, अहिंसा और प्रेम के जो मंत्र महात्मा गांधी द्वारा हमें प्रदान किए
गए, आज अपने ही देश के अंदर अव्यावहारिक साबित किए जा रहे हैं। गांधी ने
चंपारण पहुँच कर बगैर किसी हिंसा के उस वक्त के सबसे शोषित किसानों को ब्रिटिश
हुकूमत के आगे खड़ा होना सिखा दिया। अहिंसा का अनुशासन कायम हो गया। गांधी ने
लाखों किसानों के मन से जेल का भय समाप्त कर दिया। चंपारण के सौ साल की कमाई
यही है कि आज का किसान फिर से डरा हुआ है, भयभीत है और बैंक कर्ज के आगे कमजोर
भी। किसानों की आत्महत्या की खबरें अब न तो किसी संपादक को विचलित करती हैं न
अब कोई पीर मोहम्मद मुनिश है जो नौकरी को खतरे में डालकर कानपुर से निकलने
वाले प्रताप अखबार के लिए किसानों के शोषण की कहानी भेंजे। न ही कोई गणेश शंकर
विद्यार्थी है जो चंपारण की कहानी छापने का जोखिम उठाए। आज के किसानों को
गांधी का इंतजार नहीं बल्कि उन्हें फाँसी का इंतजार रहता है। वर्तमान हालातों
को देखकर गांधीजी का चंपारण सत्याग्रह आज और भी मौजूँ प्रतीत होता है। दरअसल
वर्तमान में मौजूद सारी समस्याओं का हल गांधी के दर्शन में निहित है और हम
गांधी के दर्शन को भुला रहे हैं। गांधीजी का दर्शन अंतिम पायदान पर खड़े
व्यक्ति की बात करता है। उनका सपना एक ऐसे भारत का था, जहाँ सबको बराबरी के
आधार पर जीने व अपना भविष्य तय करने का संवैधानिक अधिकार हो। उनका सपना उनके
चश्में में नहीं बल्कि उनकी आँखों में बसता था। क्योंकि आँखों का मन से सीधा
संबंध होता है। सपने देखने के लिए तो चश्मे की जरूरत नहीं है। अब सवाल है कि
चंपारण में देखे सपने को कौन पुनः जागृत करेगा। आज गांधी हमसे सवाल कर रहे हैं
कि वह सपना अब तक पूरा क्यों नहीं हुआ है? हम चंपारण सत्याग्रह की शताब्दी मना
रहे हैं। आजादी की लड़ाई को पीछे मुड़कर देखना चाहिए। 1917 में आजादी की लड़ाई
के गांधी युग की नींव पड़ी थी, जो 15 अगस्त, 1947 को आजादी की मंजिल पर पहुँच
कर पूरी हुई। चंपारण शताब्दी समारोह के मौके पर किसान, मजदूर, आदिवासियों के
सवाल आज भी मौजूँ है। शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर तमाम बुनियादी जरूरतों को
पूरा करने के लिए देश की बड़ी आबादी दूसरों पर निर्भर है। आज के नवयुवक इन
बातों को समझ कर गांधीवादी मूल्यों को अपनाते हुए आने वाली चुनौतियों का
सामना कर इसका हल ढूँढेंगे। अंत में एक सवाल यह भी कि, चंपारण शताब्दी पर
गांधीजी पर विमर्श तो किया जा रहा है पर 'कस्तूरबा' पर चर्चा क्यों नहीं की
जा रही है आखिर स्त्री सशक्तिकरण के क्या मायने 2019 में 'बा' और 'बापू' की
डेढ़ सौंवी जयंती को नए तरीके से मनाए जाने पर चर्चा जरूर की जानी चाहिए।
संदर्भ-लिंक
http://www.prabhatkhabar.com/news/vishesh-aalekh/champaran-satyagraha-mahatma-gandhi-rajkumar-shukla-bihar/967816.html
http://sablogmonthly.blogspot.in/2017/05/blog-post_9.html (सबलोग
मई-2017)
http://m.dailyhunt.in/news/india/hindi/bihar-epaper
bihar/champaran+ke+sau+sal+kaise+bhul+sakate+hai+mahatma+gandhi+ke+satyagrah+ko-newsid-66157846
http://tehelkahindi.com/champaran-satyagrah-completes-it-s-hundred-years/