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लेख

बढ़ती आकांक्षाएँ और सिमटता बचपन

अमित कुमार विश्वास


आज जब हम किसी बच्‍चे को देखते हैं तो हमें तीन दशक पहले का बिताया अपना बचपन याद आता है। अपने बचपन की स्‍मृतियों में जाते हैं तो हम पाते हैं कि 'तब और अब' में बहुत बड़ा अंतर आया है। दोनों के बचपन में हुए बदलाव को किसी बैरोमीटर से नहीं मापा जा सकता है। परिवर्तन के लहर की तीव्रता को न सिर्फ महसूस किया जा सकता है बल्कि नंगी आँखें सबकुछ देख रही हैं, खेल से लेकर व्‍यवहार तक में बदलाव।

हम अपने बचपन को याद करते हैं तो पाते हैं कि, मिडिल स्‍कूल पास कर हाईस्‍कूल में मेरा दाखिला हुआ था। गाँव में दूसरे किशोरों की भाँति सुंदर भविष्‍य की सपना देखता था। घर में किसानी तो थी ही कुछ लोग सरकारी नौकरी में भी थे। किसानी अच्छे, सुरक्षित भविष्य की परिचायक थी। गाँव के कई और व्यक्ति भी नौकरी में थे। जिनकी प्रतिष्ठा का आधार थी, अच्छी नौकरी तथा उससे जुड़ी आमदनी। उससे वे गाँव में खेती की जमीन खरीदकर अपनी हैसियत बढ़ाकर भविष्‍य सुरक्षित करते थे। उन दिनों आदमी की हैसियत उसके अधिकार में मौजूद भू-संपदा से आँकी जाती थी। नौकरीपेशा लोगों द्वारा गाँव छोड़ शहर बसने का ख्याल तक नहीं आता था। गाँव का आकार बड़ा था क्‍योंकि ऐसे लोगों की संख्या काफी थी, जो सेवानिवृत्‍त होने के बाद गाँव छोड़ शहर नहीं जाते थे। उन लोगों में प्रोफेसर, लेकर दारोगा, सिपाही, अध्यापक, कलर्क आदि शामिल थे। रिटायरमेंट के बाद खेती की देखभाल करनी है, अभ्यास कहीं छूट न जाए, इस डर से नौकरीपेशा लोग छुट्टियों में गाँव आते ही हल-बैल लेकर शान से खेतों में चले जाते तथा तपती धूप में, नंगे पाँव खेतों की जुताई-बुवाई करते थे।

1990 तक आते-आते हालात बदलने लगे थे। आधुकनिकता और चकमक संचार प्रौद्योगिकी के दौर में माता-पिता समाज और परिस्थिति के अनुरूप अपनी अतृप्त आकांक्षाओं को अपने बच्चे में पूरा होते हुए देखना चाहते हैं। इसलिए उनपर मानसिक दबाव बढ़ जाता है। अभिभावक की महत्वाकांक्षा के कारण बच्चे को कम उम्र में ही युवा बना देती है। घोर प्रतिस्पर्धा और प्रतियोगिता की भावना बचपन से ही उनके मन में इस कदर भर दी जाती है कि लक्ष्‍य को पा कर ही रहना है, हाल ही में प्रकाशित एक रपट के मुताबिक लिटिल चैंपियन्‍स के कार्यक्रम के लिए बच्‍चों से इतना मेहनत करवाया गया कि उनके लिए जिंदगी जीना दुश्‍वार लगने लगा, आत्‍महत्‍या करने को विवश हुए। प्राइमरी कक्षा के कम उम्र के बच्चे भी परीक्षाओं में अधिक अंक पाने के लिए भारी दबाव व तनाव में रहते हैं। स्कूली शिक्षा के बाद ट्यूशन करना आज नितांत आवश्यक हो गया है अन्यथा बच्चा कक्षा में पिछड़ जाएगा। स्वयं को प्रतियोगिता के लिए तैयार कर अपने लक्ष्य को हासिल करना ही एकमात्र उनका ध्येय होता है। यह प्रतियोगिता या स्पर्धा सिर्फ शिक्षा के क्षेत्र तक ही सीमित नहीं रह गई है बल्कि खेल, गायन, नाट्य, नृत्य, कला, चित्रकारी, आदि हर क्षेत्र में है। खेलने की उम्र में बच्चे बड़ी-बड़ी प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेने लगे हैं। हर बच्चा अपने आप में विशेष होता है लेकिन हर बच्चे हर क्षेत्र में निपुण हों यह आवश्यक नहीं। उनमें निपुणता लाने के लिए हर संभव प्रयास किया जाता है। एक तरफ पढाई में भी अव्वल आना है तो दूसरी तरफ प्रतिस्‍पर्धा में भी पिछड़ना नहीं है। इन सबसे बच्चे इतने ज्यादा मानसिक दबाव में होते हैं कि कभी-कभी यह दबाव उनके अवसाद की वजह बन जाता है।

स्‍कूल जाते किसी बच्‍चे को देंख लें तो रोंगटें खड़े हो जाए, किताबों से भरी बैग का वजन बच्‍चे के वजन से कहीं ज्‍यादा। आकांक्षाओं के बोझ तले सिमटते-सिमटते बच्चे समाज से इस कदर कट जाते हैं कि सामूहिकता के महत्व को ही भूल जाते हैं। सामूहिक खेल जो हमारे बच्चों के शारीरिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते थे अब मैदानों से गायब हो गए हैं। आज के जमाने के बच्चों को अगर पढने-लिखने से थोड़ा भी समय बचा तो वे आधुनिक तकनीकी उपकरण जैसे कंप्यूटर, मोबाइल, आई पैड आदि में व्यस्त हो जाते हैं। अतः धीरे-धीरे वे एकाकी होने लगते हैं। बच्चों के पास अब न खेलने का समय है न रिश्‍तेदारों से मिलने-जुलने का। उन्हें प्रतिस्‍पर्धी समाज में पिछड़ जाने का भय सताता रहता है। इनका हर एक मिनट बँधा रहता है। अपनी और घरवालों की आकांक्षाओं की पूर्ति हेतु बच्चे का भविष्य दाँव पर लग जाता है। बच्चे जानते हैं हर हाल में उन्हें अपने लक्ष्य को हासिल करना है। इस दौड़ में जो सफल हो गए वे अगली दौड़ के लिए जुट जाते हैं। जो बच्चे इसमें पिछड़ जाते हैं वे अवसाद ग्रस्त हो जाते हैं। कई बच्चों को जब प्रतियोगिता में पिछड़ने का अनुमान होता है तो वे आत्महत्या तक कर लेते हैं। या फिर झूठ बोलना, चोरी करना, जालसाजी करना आदि गलत रास्ता अख्तियार कर लेते हैं। यह बात मन में सताता है कि आखिर ऐसा क्‍यों दरअसल बच्‍चे आभासी दुनिया में जीने के लिए अभ्‍यस्‍त हो गए। आबादी बढ़ने से जोतें सिकुड़ने लगी थीं। खेती अब लाभ का धंधा नहीं रह गई थी। गाँव में खेती के सहारे सम्मानजनक जीवन जी पाना सभी के लिए संभव नहीं रह गया था। इस कारण सोच में भी बदलाव आया था। इस दौर में जमीन की किल्लत बढ़ी थी। इसके साथ ही सुविधाएँ और शहर में रहने की ललक भी। रंगीन टेलीविजन के साथ उपभोक्तावाद दस्तक दे चुका था। नौकरी के चलते गाँव छोड़कर शहर आने वाले लोग सुविधाओं के मोह में वहीं बसने का ख्वाब पालने लगे। गाँव में कई-कई बीघा, एकड़ जमीन रखने वालों का नया सपना था, शहर में बसना। कृषि उपेक्षित होने से अब घाटे का धंधा बनती चली गई। नई संचार क्रांति ने लुभावने विज्ञापन से 'आवश्‍यकता पैदा करो की संस्‍कृति' से हमें मोहपाश में बाँधना शुरू किया। बच्‍चे अब कबड्डी नहीं खेलते अपितु वे ई-स्‍पोर्टस के आदी बन चुके हैं। चीन में बच्‍चे इंटरनेट पर गेम खेलने में ऐसे मशगूल होते हैं कि उन्‍हें नाश्‍ता या शौच करने की फुर्सत भी नहीं। माँ उसे डायपर पहना देती ताकि उन्‍हें गेम पूरा करने के दौरान में बाथ रूम न जाना पड़े।

ग्रामीण युवाओं का बड़े पैमाने पर कृषि से मोहभंग होता गया। चिंतनीय बात तो यह है कि शिक्षित ग्रामीण युवा, जिनमें कृषि स्नातक भी शामिल हैं, खुद को लगभग पूरी तरह से खेती-बाड़ी से अलग कर रहे हैं। यहाँ तक कि अधिकांश किसान नहीं चाहते कि उनकी अगली पीढ़ी भी उनके परंपरागत पेशे को अपनाएँ। वे चाहते हैं कि उनके बच्चे गाँव-खेत छोड़ शहरी इलाकों में बस जाएँ। देश की 35 फीसदी आबादी 15 से 35 वर्ष के आयुवर्ग में आती है और उसमें से तकरीबन 75 फीसदी आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है, ऐसे में खेती से इतने बड़े पैमाने पर मोहभंग चिंता का विषय है। अगर इस आबादी का एक बड़ा हिस्सा शहरों की ओर कूच करता है तो इससे पहले से ही बोझ तले दबे शहरी केंद्रों पर और ज्यादा दबाव बढ़ेगा। इसके अलावा यह पलायन कृषि आधारित ग्रामीण अर्थव्यवस्था के लिए भी भारी झटका साबित होगा क्योंकि युवाओं में ही वह हिम्‍मत है कि वे खेती को एक विज्ञान एवं ज्ञान आधारित उद्यम में तब्दील कर सकें।

वर्तमान संदर्भ में कृषि क्षेत्र को देखकर कहा जा सकता है कि इस क्षेत्र में भी बहुराष्‍ट्रीय कंपनियां अपना निवेश कर रही हैं। स्‍पष्‍ट है कि कृषि उत्‍पादन के साधनों पर उनकी पैनी नजर। पिछले कुछ वर्षों से 'कांट्रेक्ट फॉर्मिंग' या ठेके पर खेती का धंधा शुरू हुआ है। जिसके तहत बड़ी कंपनियाँ कृषि क्षेत्र में आ गई हैं जो उत्पादन कर अपना प्रोसेसिंग का कारोबार कर अधिकांशतया डिब्बाबंद उत्पाद बाजार में लाते हैं। उत्तर प्रदेश व बिहार के गन्ना उत्पादक और विदर्भ के कपास उगाने वाले किसान नहीं खेतिहर हैं। यह तो सच है कि बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मालिकान खेतिहरों को पूँजी व उपकरण मुहैया कराकर उत्पादन पर भी कब्जा करने में जुट गए हैं। वे उत्पाद माल पर अपना रैपर डाल कर बाजार में उतारती है और मोटे दामों में बेचती है। ''वालस्ट्रीट जर्नल (10 जून 2009) में छपी एक रपट के मुताबिक, बहुराष्ट्रीय निगमों ने अपने माल बेचने के लिए दूरदराज के ऐसे गाँवों में घुसना शुरू किया है जहाँ सड़क खस्ता हाल है, बिजली नदारद है और टेलीविजन एवं इंटरनेट की सुविधा का सवाल ही नहीं उठता। अखबार देर-सबेर आ जाता है। इस स्थिति को देखते हुए उन्होंने पुराने तरीकों का सहारा लिया है। गायक और कथावाचक युवकों को काम पर लगाया है जो गायन-वादन और किस्से-कहानियों के सहारे भीड़ जमा करते हैं और आधुनिक उपभोक्ता उत्पादों के बारे में बतलाते हैं, उनके गुणों का बखान करते और ग्रामवासियों को उनके फायदे बतला उन्हें खरीदने के लिए प्रोत्साहित करते हैं। गाँवों के स्कूलों में जा वे बच्‍चों को नेस्ले के नूडल खिलाने के लिए प्रेरित करते हैं। यूनिलीवर के साबुन और क्रीम के साथ ही दंतमंजन और कंडोम का प्रचार करते और उनके नमूने मुफ्त बाँटते हैं। एक बहुराष्‍ट्रीय कंपनी के सीईओ का स्‍पष्‍ट कहना था कि बाजार पर कब्‍जा करना है तो आप बच्‍चों को अपना ग्राहक बनाइए। अगर बच्‍चे को आपका उत्‍पाद अच्‍छा लग गया तो वह अगले 25 वर्षों तक आपका उपभोक्‍ता बन जाएगा। इसलिए सारा विज्ञापन जगत से लेकर मीडिया घराने बच्‍चों को लुभाने वाले कार्यक्रमों पर जोर देने लगे हैं। ताकि बच्‍चे कार्यक्रमों के बहाने उनके उत्‍पाद की ओर आकर्षित हो सके। 'वालस्ट्रीट जर्नल' के एरिक बैल्ल मैन के शब्दों में 'भयंकर भूमंडलीय मंदी से अछूते भारत के ग्रामीण उपभोक्ता अभूतपूर्व रूप से खर्च कर रहे हैं। अन्यत्र सिकुड़ते हुए बाजार के कारण होने वाली क्षति से बचने के उपाय ढूँढ़ने की उत्सुक अंतरराष्ट्रीय कंपनियाँ - विक्रेताओं की पूरी फौज भेज रही हैं।" उत्पाद कंपनियाँ अपने माल को बाजार में खपाना जानती हैं और उसे पता है कि कैसे इनके पॉकेट से पैसा निकाला जा सकता है।

अब जीविका के लिए नौकरी और व्यवसाय जैसे विकल्पों को महत्त्व दिया जाने लगा। शहरों में फ्लैट संस्कृति का प्रचलन बढ़ा। इन दो-तीन दशकों में जो बदलाव आया, वह यह कि पहले गाँव में खेती-योग्य भूमि प्रतिष्ठा का मापदंड थी। बदले सोच के साथ शहर में मकान होना सुख-समृद्धि का प्रतीक माना जाने लगा था। इसके बावजूद मकान अब भी सिर पर छत की व्यवस्था के रूप में देखा जाता था। वह निवेश का द्योतक नहीं बन पाया था।

देश में उदारवाद की हवा चली। तथाकथित रूप से 'लोककल्‍याणकारी राज्‍य' में सरकार ने निजीकरण के बहाने अपनी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़ना शुरू कर दिया था। बाजार बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए खोल दिए गए। बड़े पूँजीपति कंपनियों ने वित्त, संचार, मनोरंजन, परिवहन, यातायात, बीमा, सीमेंट, लोहा, रंग-रोगन, शराब, शरबत आदि को बहुसंख्‍य उपभोक्‍तावादी समाज तक पहुँचाने के रास्‍ते तलाशने लगे। अब सबकुछ निजी पूँजी के भरोसे था। अनियोजित आयात के चलते छोटे उद्योग-धंधे तबाह होने लगे तो उनमें से बहुतों ने समय रहते हथियार डालने में भलाई समझी। वे उन सुरक्षित रास्तों की ओर पलायन करने लगे जो अभी तक स्पर्धा से बचे थे। उनमें विपणन, शिक्षा, स्वास्थ्य और आवास क्षेत्र प्रमुख थे। कारपोरेट जगत के लिए ये चारों बड़े काम के थे। इनमें सबसे अधिक संभावनाओं वाला क्षेत्र था - आवास निर्माण, मल्‍टीप्‍लेक्‍स मॉल कल्‍चर। माल की बिक्री के लिए उन्हें बाजार की जरूरत थी। ऐसे पढे़-लिखे किशोरों, युवकों की जरूरत थी जो संस्कृति के मोहपाश से मुक्त, उपभोक्ता वस्तुओं को ललचाई नजरों से देखते हों। ऐसे ही युवक उपभोक्ता वस्तुओं को प्रतिष्ठा की वस्तु बताकर बेच सकते थे। बाजार उनकी ख्वाबगाह था। वे कहीं सेल्समेन थे, कहीं पर उपभोक्ता। बाजार संस्कृति के चौतरफा विस्तार के लिए उपभोक्ता के मन को बदलना अनिवार्य था। वह तभी संभव था, जब मनुष्य अपनी परंपरा से बंधा दबा हुआ न हो। नौकरी की मजबूरी के चलते आम भारतीय का शहर में बसना विवशता थी। शहर पूँजीपतियों के वस्‍तुओं को खपाने का जरिया बन चुका है। दरअसल पूँजीपति कारपोरेट कंपनियों का लक्ष्य है उपभोक्ताओं के उपनिवेश बनाना। देश के भीतर छोटे-छोटे उपनिवेश 'क्रिएट' करना। शहरीकरण के बहाने उपभोक्ता-संस्कृति के नए टापू बसाना। सभ्यता और संस्कृति के कमजोर पहलुओं की पहचान कर अपना हित साधना। ऐसी बस्तियाँ खड़ी करना जहाँ थोक के भाव उपभोक्ता उपलब्ध हों। जिनका अपना न कोई दिल हो न दिमाग। जो पूँजीवाद के आकाओं के अनुसार सोचें, उनका बताया हुआ खाएँ, उनका दिखाया हुआ पहने। उनकी समय-सारणी के अनुसार जीवनचर्या हो। यह संभव कैसे हो? इलाज सोचा-समझा और आजमाया हुआ था, औपनिवेशीकरण। बाधा थी तो एक, बचत-संस्कृति। अतीत से प्रेरणा लेना। भविष्य पर नजर रखना और वर्तमान को सबके साथ मिल-जुलकर, सुख-दुख बाँटते हुए जी लेना। उसी के चलते तो हर आदमी अपने बुरे दिनों के लिए, मुश्किल घड़ी में मित्रों, रिश्तेदारों की मदद के नाम पर, कुछ न कुछ बचाकर रखना चाहता था। आदमी की बचत पर कब्जा किया जाने लगा। हर तरफ से कैसे आप खर्च करें, इसके लिए वाजप्‍ता पूरी ट्रेनिंग के साथ एजेंट आपका ब्रेनवाश करने के लिए आमदा है। इतना ही नहीं, ऋण लेकर नई इच्‍छाओं की पूर्ति करने के नुस्‍खे भी वे बताते। नया कारपोरेटी चिंतन के केंद्र में है आदमी की पूरी की पूरी कमाई को अपनी जेब के हवाले कर लेना। उसके हिस्से बस इतना छोड़ना कि वह जीवनयापन कर सके। अगले दिन काम पर जाए और उनके लिए कमाकर लाए, ताकि ऋण की किश्तें समय पर चुका सके। मकसद इतना कि आदमी को उसकी पूरी संस्कृति, परंपरा, कुल, मर्यादा, देश, समाज से अलग-थलग कर देना। उसके लिए इतनी सुविधाएँ जुटा देना कि उनसे बाहर वह कुछ दे-सोच न सके। उपभोग में इतना डुबा देना कि उसकी अपनी ही साँसें एक-दूसरे के साथ स्पर्धा करने लगें। अधिक से अधिक सुविधाएँ कैसे जुटाई जाएँ-इसके अलावा आदमी यदि कुछ सोच पाए तो बस इतना कि पड़ोसी उससे ईर्ष्या करते हैं। रिश्तेदार उससे घृणा करते हैं। दोस्त उससे जलते हैं। उन सबके कारण उसका भविष्य असुरक्षित है। उसका न स्वयं पर विश्वास हो, न किसी नाते-रिश्‍तेदार पर। अपने मित्रों, रिश्तेदारों, पड़ोसियों के प्रति संदेह और डर उसके दिलो-दिमाग में समा दिया गया। डरा हुआ आदमी भविष्य से भागेगा। वह केवल वर्तमान में जिएगा। कल की चिंता से मुक्त होगा तभी वह आज में डूब पाएगा। आज का बचपन इससे अछूता नहीं है।

सचमुच में बचपन खुशहाली, लचीलेपन, आश्चर्य और जिज्ञासा का मिश्रण होता है। यह जिम्मेदारी सबकी है कि वह तमाम तरह की चिंताओं और जिम्मेदारियों से मुक्त रहे, उसे सीखने, खेलने, दूसरों से मेल-मिलाप करने के अवसर मिलें और आज हमारी विडंबना यह है कि खुशहाली, लचीलेपन और जिज्ञासा के मिश्रण का सुख भोगने के लिए वर्गों में बंटा आज का बचपन कहीं तथाकथित ज्ञान के बोझ से दबा जा रहा है और कहीं एक आपराधिक उपेक्षा का शिकार भी हो रहा है। 'बचपन' को 'बड़ा' बनाने की कोशिश जीवन को उस नैसर्गिक सुख से वंचित कर रही है जो 'बचपन' और बच्चों जैसी बातों से जुड़ा हुआ है। काश, हम इस बचपन को बचा पाएँ। मैं अपने बचपन के दिनों को जीने की ख्‍वाहिश रखता हूँ और जब-जब मेरे जेहन में ये ख्‍याल आता है तो बरबस ही मेरा मन जगजीत सिंह की आवाज में पिरोये उन शब्‍दों को गुनगुनाने लगता है -

ये दौलत भी ले लो, ये शोहरत भी ले लो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज की कश्‍ती वो बारिश का पानी।

संदर्भ-लिंक

1.https://omprakashkashyap.wordpress.com/tag/%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%82%E0%A4%A6%E0%A5%80-% E0%A4%B8%E0%A4%BE%E0%A4%B9%E0%A4%BF%E0%A4%A4%E0%A5%8D%E0%A4%AF/page/3/?iframe=true&preview=true%2Ffeed%2F

2. http://saajha-sansaar.blogspot.in/

3. http://www.navneethindi.com/%E0%A4%AC%E0%A4%9A%E0%A4%AA%E0%A4%A8-%E0%A4%95%E0%A5%87-%E0%A4%A6%E0%

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