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कविता

घनआनंद जीवनमूल सुजान की

घनानंद


'घनाआनंद' जीवन मूल सुजान की, कौंधन हूँ न कहूँ दरसैं।
सु न जानिये धौं कित छाय रहे, दृग चातिग-प्रान तपै तरसैं।
बिन पावस तौ इन्हें थ्यावस हो न, सु क्यों करि ये अब सो परसैं।
बदरा बरसै रितु मैं घिरि कै, नित ही अँखियाँ उघरी बरसैं।।


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