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कविता

तब तौ छबि पीवत जीवत हे

घनानंद


तब तौ छबि पीवत जीवत हे, अब सोचन लोचन जात जरे।
हित-पोष के तोष सु प्रान पले, बिललात महादुख दोष भरे।
'घनआनंद' मीत सुजान बिना, सब ही सुख-साज समाज टरे।
तब हार पहार से लागत हे, अब आनि के बीच पहार परे।।


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