hindisamay head


अ+ अ-

कविता

बरसैं तरसैं सरसैं अरसैं न

घनानंद


बरसैं तरसैं सरसैं अरसैं न, कहूँ दरसैं इहि छाक छईं।
निरखैं परखैं करखैं हरखैं उपजी अभिलाषनि लाख जईं।
घनआनंद ही उनए इनि मैं बहु भाँतिनि ये उन रंग रईं।
रसमूरति स्यामहिं देखत ही सजनी अँखियाँ रसरासि भईं।।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में घनानंद की रचनाएँ