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कविता

सावन आवन हेरि सखी

घनानंद


सावन आवन हेरि सखी, मनभावन-आवन-चोप विसेखी।
छाए कहूँ घनआनंद जान, सम्हारि की ठौर लै भूलनि लेखी।
बूँदैं लगै, सब अंग दगैं, उलटी गति आपने पापनि पेखी।
पौन सों जागत आगि सुनी ही पै पानि तें लागत आँखिन देखी।।


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