नई कहानी के दौर में ही कहानीकारों की एक धारा के द्वारा ग्रामीण संवेदना की कहानियाँ लिखी जा रही थी। आजादी के बाद की स्थिति का प्रभाव गाँवों पर भी पड़ा था। गाँवों के लिए विकास की योजनाएँ बनीं, परंतु उसका क्रियान्वयन दोषपूर्ण था। 'स्वतंत्रता के बाद 1956 के जमींदारी-उन्मूलन अधिनियम जैसे भूमि-सुधार उपायों ने देहातों में यथास्थिति को केवल एक सीमा तक ही बदला और वहाँ की सत्ता थोड़े से बेहद अमीर सवर्ण किसानों से खिसककर मध्यवर्ती जातियों के मँझोले किसानों की विशाल संख्या के हाथ में आ गई।'1 लेकिन निचले पायदान के किसानों एवं जातियों की स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ। गाँवों में सामाजिक एवं आर्थिक सुधार की रफ्तार धीमी थी। 'जिस देश में 80 प्रतिशत लोग देहात में रहते हों, और उनमें भी ज्यादातर गरीब हों, उसमें खेती और सामुदायिक विकास के लिए पहली तीन पंचवर्षीय योजनाओं में कुल खर्च के 15 प्रतिशत से ज्यादा का प्रावधान नहीं किया गया।'2 इस उपेक्षा के कारण गाँवों की स्थिति शहरों की अपेक्षा काफी पिछड़ी हुई थी। 'नई कहानी का दौर जैसे-जैसे आगे आने वाले समय में विस्तारित हुआ वह केवल मध्यवर्ग तक सिमट कर रह गया। ...इनके बीच ग्रामीण जीवन के नए बदलते रूप और भूमि संबंधों के साथ उनके संघर्षों की अभिव्यक्ति जैसे कथानक बेहद सीमित हो गए।'3 ग्रामीण जीवन की इस उपेक्षा को ग्रामीण जीवन के कथाकारों ने गंभीरतापूवर्क प्रतिकार किया। दरअसल ग्रामीण जीवन हिंदी कहानी में लंबे समय से उपक्षित था। 'प्रेमचंद के बाद से जीवन का वह पक्ष उपेक्षित ही पड़ा था और उसकी ओर उन्मुख होना एक प्रकार से लेखक के लिए नए भाव-जगत की उपलब्धि थी।'4 इस दौर में ग्रामीण जीवन पर लिखने वाले प्रमुख कथाकार थे - मार्कण्डेय, शिवप्रसाद सिंह और फणीश्वरनाथ रेणु। 'शिवप्रसाद सिंह और रेणु मार्कण्डेय के केवल समकालीन थे, बल्कि प्रवृत्ति के हिसाब से भी दोनों मार्कण्डेय के करीब थे। रेणु, मार्कण्डेय और शिवप्रसाद सिंह की एक त्रयी बनती है।'5 ग्राम्य जीवन के प्रति लगाव इन तीनों कथाकारों को एक सूत्र में जोड़ता है। ग्रामीण जीवन के सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों पक्षों को इन्होंने अपनी कहानियों का विषय बनाया। 'जहाँ शिवप्रसाद सिंह ने परंपरा के मोड़ पर उपेक्षितों के लिए आहुति दी है, मार्कण्डेय ने बौद्धिक सहानुभूतिवश भारतीय किसानों के लिए अपने को समर्पित किया है, वहाँ 'रेणु' की सामाजिक चेतना नए-नए अंचलों की खोज में संलग्न रही।'6
मार्कण्डेय ने अपनी कहानियों में ग्रामीण रूढ़िग्रस्तता, सामंती वर्चस्व की उपस्थिति, योजनाओं के नाम आम आदमी के साथ किए जा रहे छल को अपनी कहानी का विषय बनाया। स्वयं मार्कण्डेय के अनुसार, 'कथा में वास्तविकता' के चित्रणों की यह सर्वथा नई यात्रा थी जिसका अभिप्राय वर्ग-संघर्ष की जनचेतना तक पहुँचना था। ऐसे सोए हुए आडंबरों और रूढ़िग्रस्त समाज में जहाँ हीनता, अपमान और यातना को मनुष्य की नियति बना दिया गया हो, वास्तविकतावादी कथाकार की सबसे पहली मुठभेड़ इसी दैवी सामाजिक ढाँचे से होती है। अर्थवाद और स्वभाववाद का खतरा तो बाद में आता है।'7 मार्कण्डेय ने स्वातंत्र्योत्तर ग्रामीण समाज के विभिन्न संबंधों को स्थान दिया। खगेंद्र ठाकुर के अनुसार, 'मार्कण्डेय उस युग में हुए जब देश आजाद तो हो गया, जमींदारी उन्मूलन भी हो गया, लेकिन समाज का ढाँचा तो नहीं बदला। ...मार्कण्डेय समाज को तो पहचान ही रहे थे, इसीलिए उसकी असंगितयों को अपनी रचना में जगह देने की कोशिश कर रहे हैं।'8
मार्कण्डेय की कहानियाँ मुख्य रूप से सामाजिक चेतना की कहानियाँ हैं, लेकिन 'हंसा जाई अकेला' जैसी कहानियों में उन्होंने व्यक्तिगत अकेलेपन को भी जगह दी है। हंसा के रग-रग में गाँव बसा है। गाँव में चुनाव कार्य के लिए सुशीला जी का आगमन होता है, और हंसा का उनसे संग-साथ बनता है। बाद में सुशीला जी को चुनाव से दो दिन पहले बापू के आदर्श तोड़ने की नोटिस मिलती है। वह बीमार पड़तीं हैं, फिर उनकी मृत्यु हो जाती है। उसके बाद हंसा अकेला पड़ जाता है। मधुरेश के अनुसार, 'अपने कुछ रोमानी आग्रह के बावजूद इस कहानी का महत्व इसलिए है क्योंकि यह सारे परिवेशगत और सामाजिक संदर्भों के बीच आदमी के अकेलेपन की पीड़ा उभारती है।'9 कहानी में सुशीला जी के आने के बाद हंसा में एक किस्म की खुशी छा जाती है कि 'एक औरत के रहने से घर कैसा हो जाता है। कितना अच्छा लगता है...।'10 उसी हंसा का घर उजाड़ सा हो जाता है, वह पगला हो जाता है।
'हंसा जाई अकेला' एक ओर व्यक्तिगत संबंधों के टूटने की पीड़ा है, वहीं आजादी के आदर्शों के खात्मे की भी कथा है। सुशीला जी पर लगे आरोप इसी को दर्शाते हैं। आजादी के आदर्श के टूटने एवं नेताओं के वास्तविक चरित्र सामने आने की कहानी 'नौ सौ रुपये और एक ऊँट दाना' में भी कही गई है। कहानी में कांग्रेस के नेता एवं विरोधी नेता दोनों के चरित्र में पतन हो गया है। कोई बेटे के बदले में पैसा ले रहा है तो कोई बेटी के बदले में। गाँव की गरीबी का हाल यह है कि दस का नोट कोई नहीं भुना पाता।
नेताओं के चारित्रिक पतन के साथ ही गाँव में योजनाओं के नाम पर ठगी हो रही है। इस प्रक्रिया को मार्कण्डेय ने 'भूदान' एवं 'आदर्श कुक्कुट-गृह' में उद्घाटित किया है। 'आदर्श कुक्कुट-गृह' में नौकरशाही एवं सत्ता के अमलों के द्वारा आम लोगों के लूट-खसोट को दर्शाया गया है। कहानी में रमजान आदर्श कुक्कुट गृह के द्वारा अपनी बेहतरी का सपना देखता है, परंतु कुक्कुट-गृह के उद्घाटन के दिन ही उसका सपना मिट्टी में मिल जाता है। कलक्टर साहब की पत्नी को मुर्गे का गोश्त पसंद है, इसलिए उनका ड्राइवर बी.डी.ओ. को कहकर एक मुर्गा ले लेता है और फिर : 'तब तक धीरे-धीरे चपरासियों ने छोटे साहब को घेर लिया और... एक-दो... दो-तीन... मुर्गे इक्कों पर बँध गए, साईकिलों के कैरियरों पर टँग गए, झोलों में कस लिए गए और मेहमानों के जाते-जाते आदर्श कुक्कुट-गृह खाली हो गया।'11
'भूदान' कहानी में भूदान आंदोलन की वास्तविकता एवं इसमें व्यापक पैमाने पर चले रहे षड्यंत्र को उजागर किया गया है। कहानी में रामजतन से षड्यंत्र कर जमीन ले ली जाती है, फिर उसे जो जमीन मिलती है, उसका अस्तित्व सिर्फ कागज पर है :
'भूदान कमेटी के मंतिरी जी ने तो कब का रामजतन को समझा बुझा दिया है कि ठाकुर के जिस दान से उसे भूँय मिली थी, वह केवल पटवारी के कागज पर थी। असल में तो वह कबकी गोमती नदी के पेट में चली गई है।'12
इसके बाद रामजतन मजदूर बन जाता है। नौकरशाही एवं स्थानीय वर्चस्वशाली लोगों के षड्यंत्र से छोटे किसान के मजदूर बनने की प्रक्रिया को यह कहानी दर्शाती है।
कानून बनने के बावजूद गाँवों में वर्चस्व की प्रक्रिया ज्यों की त्यों रही। कहीं ठाकुर लोगों के जीवन से जुड़े महुए के पेड़ को खत्म करने पर तुला है; (महुए का पेड़) तो कहीं चैतू (गुलरा के बाबा) जैसे हाशिए के लोगों के घर पर छप्पर नहीं है। 'जूते' में गँवई मनोहर जूते की सुंदरता देखकर हतप्रभ है। यह ग्रामीण पिछड़ेपन को ही दर्शाता है।
तमाम तरह के षड्यंत्र एवं पिछड़ेपन की प्रतिक्रिया भी गाँवों में होने लगी है। 'गुलरा के बाबा' में चैतू अहीर गाँव भर में सम्मानित बाबा से टकराहट मोल लेता है :
'सलाम ठाकुर!'
'खुश रहो चैतू, लेकिन तुम क्या कर रहे हो?'
'सरपत काट रहे हैं ठाकुर।'
'अच्छा कल से मत काटना।'
'ऐसे ही काटूँगा।' और चैतू लटक कर हँसिया चलाने लगा।'13
चैतू की टकराहट के पीछे उद्दंडता न होकर मजबूरी है। 'गुलरा के बाबा' में जो टकराहट उभरती दिखाई देती है, वह 'बीच के लोग', 'गनेसी', 'कल्यानमन' में बढ़ती जाती है। इन कहानियों में प्रतिरोध एवं टकराहट की विविध् स्थितियाँ हैं। 'बीच के लोग' में वर्ग-संघर्ष की चेतना है। इस कहानी में यथास्थितिवाद के पोषक मध्यवर्ग के प्रति विक्षोभ दिखाई देता है।
मार्कण्डेय ने सरकारी योजना एवं भूमि संबंध के विविध् पहुलओं के उद्घाटन के साथ ही, ग्रामीण-जीवन के अन्य पक्ष को भी रखा है। 'नीम की टहनी' में समाज में घर कर गई रूढ़ियों, संकीर्णता एवं पारलौकिक विश्वास को दर्शाया गया है। 'साबुन' कहानी बेरोगजारी की दारुण स्थिति पर है। 'सात बच्चों की माँ' स्त्री-शोषण एवं प्रतिरोध की स्थिति को रखती है। 'माई' कहानी में मोहन राकेश की 'आर्द्रा' एवं कृष्णा सोबती के 'भोले सरकार' की तरह माँ का अपने असामान्य बच्चे के प्रति अतिरिक्त प्रेम दिखाया गया है।
'पान-फूल' में दो बच्चे, जो भिन्न-भिन्न वर्ग के हैं, उनके प्रेम के माध्यम से भौतिकता की अंधी दौड़ को नकारा गया है। कहानी में नीली एवं उसके यहाँ काम करने वाली पारो की बेटी रीति में दोस्ती है। दोनों के गुड्डे-गुड्डियों के बीच शादी तय होती है। वे दोनों पान एवं फूल लाने के लिए निकलते हैं। रीती कमल का फूल लाने के क्रम में डूबने लगती है, उसे बचाने के लिए नीली भी तालाब में कूद पड़ती है। दोनों डूब जाती हैं। चंचल चौहान के अनुसार, '...आजादी के बाद के माहौल में चालाकी, छल, पफरेब, बेईमानी और कलह आदि से भरे भवसागर में मासूमियत डूब रही थी, ...वे इसी लोप होती मासूमियत की ट्रेजिडी रच रहे थे।'14
मार्कण्डेय की कहानी ग्रामीण जीवन के प्रति रागात्मक लगाव एवं वहाँ मौजूद विद्रूपताओं के उद्घाटन की कहानी है।
शिवप्रसाद सिंह ने अपनी कहानियों में ग्रामीण यथार्थ के विभिन्न पक्षों का अंकन किया है। इनमें परंपरागत ग्रामीण जीवन का आदर्श पहलू, स्त्री की पीड़ा, हाशिए के लोगों का जीवन आदि शामिल हैं। उन्होंने ग्रामीण समाज में व्याप्त रूढ़ियों एवं सकीर्णताओं पर भी कटाक्ष किया है। '...उन्होंने ग्रामीण जीवन को आदर्श यूटोपिया के रूप में चित्रित नहीं किया है। यह यथार्थ है, पर सहानुभूतिपूर्ण आधुनिक दृष्टि से ही उसे देखने-परखने का प्रयत्न किया गया है।'15 उनकी कुछेक आदर्शवादी कहानियों को छोड़ दिया जाए तो ग्रामीण-जीवन के यथार्थ-चित्रण का आग्रह उनकी कहानियों में दिखाई देता है। स्वयं उन्हीं के अनुसार, 'मेरी कहानियों के पात्र अब तक के उपेक्षित वे आम आदमी रहे हैं, जिन्हें शुरू-शुरू में गँवई-गाँव के लोग कहकर टाला जाता रहा है। उनके जीवन को लेखक ने सुख-दुखात्मक दोनों पहलुओं के साथ समन्वित समग्र रूप में अंकित नहीं किया है, उनके जीवन और मन के अंतर-दर्शन का भी प्रयत्न किया है तथा अपनी संवेदना में उन्हें सजीव बनाकर चमका दिया है।'16 'समन्वित समग्र' का यह प्रयास ही हमें 'कर्मनाशा की हार', 'बिंदा महाराज', 'दादी माँ' जैसी कहानियों में दिखाई देता है। दरअसल शिवप्रसाद सिंह अपनी अनेक कहानियों में आदर्श पात्र का निर्माण करते दिखाई देते हैं। 'कर्मनाशा की हार' में भैरो पाँडे अपने भाई कुलदीप की टीमल मल्लाह की विधवा लड़की फूलमत से प्रेम-संबंध को लेकर असहज है। फूलमत को जब बच्चा होता है, उन्हीं दिनों कर्मनाशा में बाढ़ आती है, पूरा गाँव फूलमत के बच्चे की बलि देना चाहता है, लेकिन तब भैरों पाँड़े इनकार कर देते हैं : '...सुनो, कर्मनाशा की बाढ़ दुधमुँहे बच्चे और एक अबला की बलि देने से नहीं रुकेगी, उसके लिए तुम्हें पसीना बहाकर बाँधों को ठीक करना होगा...।'17
यह कहानी एक ओर गाँव में व्याप्त रूढ़ियों एवं संकीर्णता को सामने रखती है, वहीं इसके विरोध को दिखलाकर गाँव के सकारात्मक पक्ष को भी दिखलाती है। इस कहानी के संदर्भ में स्वयं शिवप्रसाद सिंह कहते हैं, 'कर्मनाशा की हार' मनुष्य के कर्म को नष्ट करके, उसके ऊपर सामाजिक रूढ़ि और नियति का अभिशाप लादने वाली समूची प्रवृत्ति के विरोध का प्रतीक है। कर्मनाशा हमारे समाज के वैषम्य का प्रतीक है, जिसे पराजित करना नई मानवता का सही संकल्प होना चाहिए।'18 ग्रामीण समाज की संकीर्णता एवं रूढ़ि शिवप्रसाद सिंह की कहानियों में बार-बार आती है। 'रेती' में बच्चा न होने का सारा दोष स्त्री पर मढ़ देने की सामाजिक प्रवृत्ति को दर्शाया गया है।
शिवप्रसाद सिंह सामाजिक संकीर्णताओं को दर्शाने के साथ ही समाज में मौजूद करुणा-दया को भी सामने लाते हैं। 'दादी माँ' में दादी माँ का स्नेहमयी चेहरा है, तो 'उपधइन मैया' में उपधइन मैया लांछन सहकर भी मानवतापूर्ण चेहरा बनाए हुई है। 'बिंदा महाराज' में एक हिजड़े के माध्यम से समाज का क्रूर चेहरा दिखाया गया है। 'नपुसंक शरीर में आत्मा भी हो सकती है, इसे और लोग तो नहीं समझते, भाई-भतीजे भी नहीं समझना चाहते। इसलिए बिंदा महाराज को आखिरकार अकेला हो जाना पड़ता है।'19 बिंदा महाराज को दीपू मिसर के बेटे मुन्ना से लगाव हो जाता है, मुन्ना के बीमार पड़ने पर वह मंदिर जाकर पूजा करता है, लेकिन लोग उसे ही इसका जिम्मेदार ठहराते हैं :
'हिजड़े के साथ का असर है भाई... सोने जैसा लड़का सो गया। हवा में सहानुभूति एवं आक्रोश के शब्द टकराने लगे।
'डायन' औरतों की आवाज नागिन की सिसकारी की तरह काँपती हुई सुनाई पड़ती, लड़के को छाती से लगा लिया था।'20
'आर-पार की माला' एवं 'मुर्गे ने बाँग दी' में शिवप्रसाद सिंह ने कटु ग्रामीण यथार्थ एवं सामंती शोषण के दुष्चक्र को दर्शाया है। 'आर-पार की माला' में ठाकुर षड्यंत्र कर मटरू की बेटी को रखैल बना लेता है। वह मटरू को अपने वश में कर लेता है तथा नीरू के मंगेतर रज्जब एवं उसके पिता जुम्मन पर चोरी का इल्जाम मढ़ देता है और नीरू को खुलेआम रखैल बना लेता है। सामंती शोषण का ही दूसरा रूप 'मुर्गे ने बाँग दी' में दिखाई देता है। कहानी में मंगरू भूखे पेट काम करने को विवश है, क्योंकि ठाकुर बुआई के बाद हिसाब देने की परंपरा नहीं तोड़ना चाहता। शोषण का चित्र 'पापजीवी' एवं 'माटी की औलाद' में भी है। शिवप्रसाद सिंह की कहानी 'उस दिन तारीख थी' में कोर्ट-कचहरी के चक्कर में परेशान आदमी की व्यथा रखी गई है।
अपनी कहानियों में शिवप्रसाद सिंह ने औरत की पीड़ादायक सामाजिक स्थिति का बड़ी शिद्दत से चित्रण किया है। गाँवों में औरत की स्थिति और ज्यादा करुण है। नारी का शोषण हर वर्ग में एक सा है। शिवप्रसाद सिंह के अनुसार, 'मैं नारी को अलग-थलग सत्ता मानकर नहीं, समाज की क्रियाशक्ति मानकर उसके बारे में विचार करता हूँ। अतिसामान्य नारी ही मेरे लेखन में चित्रित है, मैं उसमें वर्ग भेद नहीं करता, क्योंकि नारी में मुझे वर्गगत भेद कम नजर आए।'21 इस दृष्टि से उनकी 'गंगा-तुलसी', 'केवड़े के फूल', 'अंरुधती', 'धरातल', 'रेती' आदि महत्वपूर्ण कहानियाँ है। इन कहानियों स्त्री के शोषित-लांछित जीवन को दर्शाया गया है। 'अरुंधती' में बड़की बहू पर नौकर से संबंध होने का शक पूरा परिवार करता है, उसे गर्भपात के लिए काली दवा पीने पर बाध्य किया जाता है। 'केवड़े के फूल' में भी इसी पुरुष मानसिकता का पैटर्न दिखाई देता है। एक ओर स्त्री का पति है जो उसे मनोरंजन की वस्तु से अधिक नहीं समझता :
'...तुम्हें वह सब करना पड़ेगा, जो मैं कहूँगा। तुम्हें अपने को मेरे समाज के लिए बदलना होगा... तुम मेरी ही नहीं, मेरे मित्रों तक के लिए मनोरंजन की साधन हो... मेरा सारा मतलब तुम समझती होगी... सती धर्म की दुहाई देकर तुम मेरी इच्छाओं को रोक नहीं सकती।'22
दूसरी ओर उसका बाप है जो रूढ़ सामाजिक मर्यादा के नाम पर बेटी को पति से समझौता करने को कहता है :
'...दूसरी शादी करने वाला है तो इसमें भी क्या हुआ, बड़े घरों के लड़के ऐसा करते ही हैं। जो दूसरी शादी नहीं करते, वे रखैल रखते हैं। इसके लिए क्या घर-बार छोड़ देना चाहिए।'23
शिवप्रसाद सिंह की प्रसिद्ध कहानी 'नन्हों' प्रेम के द्वंद्व को दर्शाती है। नन्हों की शादी मेवालाल से हुई। उस समय लड़के के रूप में रामसुभग को ही दिखाया गया था। बाद में मेवालाल की मृत्यु के बाद रामसुभग के प्रति नन्हों में आकर्षण तो है, पर वह अपने अंतर्द्वंद्व से नहीं निकल पाती। वह अंत में रामसुभग का रूमाल भी लौटा देती है, हालाँकि वह अंदर के प्रेम के कपाट को बंद नहीं कर पाती :
'...पर आज तो मैं अपने पैरों पर खड़ी हूँ, आज मुझे हारने मत दो। तुम्हारा रूमाल मेरे पाँव बाँध देता है लाला, इसी से लौटा रही हूँ, बुरा न मानना...।
रामसुभग ने धीरे से रूमाल ले लिया। नन्हों उसका जाना भी देख न सकी। आँखें जल में तैर रही थीं। दीये की लौ जटामासी के फूल की तरह कई फाँकों में बँट गई। नन्हों ने किवाड़ तो बंद कर लिया, पर साँकल न चढ़ा सकी।'24
कुल मिलाकर शिवप्रसाद सिंह की कहानियाँ ग्रामीण जीवन के सकारात्मक पक्ष के साथ उसके कटु यथार्थ को रखती हैं। उनकी कहानियों पर अस्तित्ववादी प्रभाव भी देखा गया है। ऐसी कहानियों में 'सुनो परीक्षित सुनो', 'उस दिन तारीख थी', आदि का नाम लिया जाता है।' यह विश्लेषण का एक आधार हो सकता है, पर ज्यादा महत्वपूर्ण है उनके द्वारा ग्रामीण यथार्थ चित्रण।
ग्रामीण भावबोध की कहानी लिखने वालों में फणीश्वरनाथ रेणु का अपना विशिष्ट स्थान है। उनकी पहचान आंचलिक कथाकार के रूप में है। वस्तु के साथ ही उनका शिल्प भी विशिष्ट है। आंचलिक कथा में क्षेत्र-विशेष की भाषा, संस्कृति, बोली-बानी, विकास-पिछड़ापन आदि को विशेष रूप से उभारा जाता है। रेणु की कहानियों में मिथिला अंचल का जन-जीवन एवं उसकी आंचलिक विशिष्टताएँ प्रतिध्वनित होती हैं। रेणु की कहानियों में ग्रामीण एवं क्षेत्रीय यथार्थ के साथ ही जीवन के रागात्मक पक्ष का भी चित्रण भी मिलता है। हर प्रतिकूलता के बावजूद रेणु के पात्र जीवन के राग-रंग से मुख नहीं मोड़ते। 'रेणु जीवन के प्रति उद्दाम अनुराग के कहानीकार हैं। जीवन से एक अव्याहत लगाव तो है ही, उल्लास, आनंद, उर्जा और ऊष्मा देने की अपूर्व क्षमता भी है रेणु के कहानीकार में। ...मानव हृदय के अज्ञात कोमल स्थलों और उनपर पड़ने वाले घात-प्रतिघात का मार्मिक आत्मीय रूपायन हुआ है।'26 रेणु अपनी कहानियों में कथा की विशिष्टता बनाए रखते हैं। सुरेंद्र चौधरी के अनुसार, 'प्रेमचंद के बाद रेणु अकेले लेखक हैं, जिनमें कथा-रस भी है और बदलते हुए यथार्थ से उत्पन्न तनाव की नाटकीयता भी है।'27 यद्यपि रेणु में ग्रामीण जीवन के रागात्मक पक्ष का अंकन हुआ है, परंतु ऐसा नहीं है कि यथार्थ उनसे ओझल है। 'आभिजात्य वर्ग के प्रति मोह रेणु में नहीं मिलता है। गाँवों में इन निम्न स्तरीय पात्रों के हृदय की संवेदना को ही उन्होंने विशेषकर मार्मिक रूप में रखा है। सारा समाज जो ऊपर से संभ्रांत दिखता है भीतर से काला और कुरूप है। रेणु ने इस कालेपन को उसकी समस्त विसंगतियों में उभारा है।'28 'पंचलाइट' कहानी का एक प्रसंग है - महतो टोली के लोग अपने पंचायत के लिए पेट्रोमेक्स खरीद के ला रहे हैं, जो गाँव के सवर्णों को नागवार गुजरता है। ब्राह्मण टोले के फुटंगी झा व्यंग्य करते हुए पूछते हैं :
'कितने में लालटेन खरीद हुआ महतो?'
प्रत्युत्तर में महतो पंचायत का छड़ीदार जवाब देता है :
'देखते नहीं हैं, पंचलैट है! बामनटोली के लोग ऐसे ही ताब करते हैं। अपने घर की ढिबरी को भी बिजली-बत्ती कहेंगे और दूसरे के पंचलैट को लालटेन।'29
फुटंगी झा का यह प्रश्न उच्च जाति के लोगों के मन के कालेपन को दर्शाता है। रेणु इसी कहानी में गाँव में हर जाति के अलग-अलग पंचायत होने की वस्तुस्थिति का जिक्र कर गाँव के अंदर की फूट एवं टकराहट को भी उजागर करते हैं।
रेणु की कहानियों में मुख्य रूप से राजनीति के प्रति मोहभंग, विस्थापन का कष्ट, प्रेम की पीड़ा एवं स्थानीय समस्याओं की झलक मिलती है, साथ ही जीवन एवं परिवेश के प्रति स्थायी आकर्षण का भाव भी वहाँ मौजूद है। उनकी 'जलवा', 'आत्म-साक्षी' आदि राजनीतिक चेतना की कहानियाँ हैं। 'आत्म-साक्षी' 'मात्र पार्टी-विभाजन की व्यथा-कथा न होकर, एक विश्वासी कार्यकर्ता के उपराम होने के दुख की कहानी मात्र न होकर, मजदूर वर्ग के हिरावल के आत्मविभाजन की पीड़ा की ऐतिहासिक कहानी है।'30 कहानी में गनपत वर्षों पार्टी की सेवा करने के बाद उपेक्षा महसूस करता है। 'जलवा' कहानी में फातिमादि में निराशा है :
'...कल तक गाँधी-जवाहर-पटेल को सरेआम गालियाँ देनेवाले, कौमी झंडे को जलाने वाले फिरकापरस्त लीगियों की इज्जत अफजाई की गई और मुल्क के लिए मरने-मिटनेवालों को दूध की मक्खियों की तरह निकाल फेंका।'31
'पुरानी कहानी: नया पाठ' में राजनीति के कुचक्रों को स्थानीय समस्या के संदर्भ में देखा गया है। इनके अतिरिक्त 'तबे एकला चलो रे', बीमारों की दुनिया में' आदि में भी राजनीतिक संदर्भ हैं।
गाँवों से होने वाला विस्थापन रेणु की प्रमुख चिंताओं में है। 'रेणु की कहानियों में भारतीय इतिहास के उस कालखंड की कथा कही गयी है जब मरणशील सामंतवाद उभरते पूँजीवाद के चपेटों के आगे अपने को असमर्थ पाता है। गाँवों का टूटना इसी ऐतिहासिक परिवर्तन का लक्षण है।'32 'विघटन के क्षण', भित्तिचित्र की मयूरी', 'उच्चाटन' आदि कहानियों में इसे देखा जा सकता है। 'भित्तिचित्र की मयूरी' में फूलपत्ती गाँव छोड़कर कहीं जाना नहीं चाहती। 'विघटन के क्षण' में युवाओं में शहर का आकर्षण दिखाई देता है, लेकिन विजया एवं चुरमुनियाँ में गाँव के प्रति ललक शेष है। 'उच्चाटन' के रामविलसा को भी पटना दिल्ली से ज्यादा अपना गाँव ही भाता है।
रेणु ने अनेक महत्वपूर्ण प्रेम कथाएँ लिखी है। 'तीसरी कसम' अर्थात मारे गए गुलफाम', 'रसप्रिया' 'एक आदिम रात्रि की महक', 'तीन बिंदियाँ' आदि। 'रसप्रिया' में पँचकौड़ी मिरदंगिया जोधन गुरू से संगीत सीखता था, पर अपनी जात छुपाकर। रमपतिया से शादी की बात पर भाग जाता है। बाद में उसकी भेंट रमपतिया के बेटे मोहना से होती है। मोहना से हेल-मेल होता है, वह मोहना का इलाज करना चाहता है। पर रमपतिया मोहना को बरजती है। हालाँकि दबा प्रेम अभी रमपतिया में भी हैं। 'तीसरी कसम' अर्थात मारे गए गुलफाम' में गाड़ीवान हिरामन को नौटंकी की हीराबाई से प्रेम एवं बिछोह मिलता है। 'एक आदिम रात्रि की महक' में करमा सरसतिया के देहगंध में डूबा रहता है। रेणु की प्रेम कहानियों में टूटन है। इस टूटन के पीछे सामाजिक संदर्भ है। चूँकि हीराबाई नौटंकी वाली है, इस कारण हिरामन उसे अपनाने की सोच नहीं सकता। पँचकौड़ी मिरदंगिया अपनी जाति के कारण रमपतिया से शादी की बात उठने पर भाग जाता है। 'एक श्रावणी दोपहरी की धूप' भी अच्छी प्रेम कहानी है, जिसमें संदर्भ दांपत्य का है।
रेणु ने अपनी कहानियों में समाज में मौजूद विकृत सामाजिक प्रथाओं को भी दर्शाया है। 'नैना जोगिन' में स्त्री की पीड़ा, नैतिकता के प्रश्न को रतनी के माध्यम से उठाया गया है।
रेणु ने जहाँ गाँव के अंदर मौजूद नकारात्मक पक्ष को दिखाया है, वहीं सकारात्मक पक्ष को भी। 'लाल पान की बेगम' में बिरजू की माँ एवं जंगी की पतोहू में नोक-झोंक, तकरार है, लेकिन जब बिरजू की माँ मेले के लिए जाती है, वह जंगी की पतोहू को भी साथ कर लेती है। इस कहानी में सामाजिक राग-विराग का सुंदर वर्णन हुआ है।
मार्कण्डेय, शिवप्रसाद सिंह एवं रेणु ग्रामीण यथार्थ के उन पहलुओं को सामने लाए, जो प्रेमचंद के बाद की कहानियों में अनदेखा रह गया था। इस सामाजिक यथार्थ में सरकारी योजनाओं का हश्र, भूमि-संबंध का स्वरूप, गाँवों के हाशिए के लोगों का जीवन, प्रेम-संबंध एवं व्यक्तिगत जीवन की पीड़ा शामिल है। इसमें टकराहट, कटुता एवं संघर्ष है तो आदर्श, प्रेम एवं रागात्मकता भी है।
अभिव्यंजनात्मक विशिष्टता
शिल्प के स्तर पर रेणु की अपनी खास पहचान है। उन्होंने कथ्य की प्रस्तुति को भी बदल दिया है लेकिन मार्कण्डेय एवं शिवप्रसाद सिंह के यहाँ कथानक का पुराना ढाँचा ही है। इनमें अलग से कोई परिवर्तन नहीं दिखाई देता है। इसका मुख्य कारण था कि इन्होंने जिस परंपरा से अपने को जोड़ा एवं जिस समाज की इन्होंने कहानियाँ लिखीं, उनकी जो समस्याएँ थी, उसका कारण स्पष्ट था। उसमें शहरी कहानीकारों की तरह निजी संवेदनात्मक जटिलता नहीं आई थी। इस कारण से अलग से प्रयोग नहीं करना पड़ा। संवेदनात्मक जटिलता किस प्रकार से संकेतात्मक विधान की ओर कहानी को अग्रसर करती है इसे शिवप्रसाद सिंह की कहानी 'नन्हों' के संदर्भ से समझा जा सकता है। 'नन्हों' में प्रेम के स्वीकार-अस्वीकार, व्यक्त-अव्यक्त की जो जटिलता आती है, अंततः कुछ अनकहा रह जाता है, उसे कहानीकार संकेत से पूरा करता है - '...नन्हों ने किवाड़ तो बंद कर लिया, पर साँकल न चढ़ा सकी।'33 'नन्हों' में निजी संबंधों का व्यक्त-अव्यक्त रूप है, लेकिन इससे इतर प्रायः ग्रामीण जीवन से संबंधित कहानियों में इस किस्म की जटिलताएँ नहीं है। कथानक के स्तर पर मार्कण्डेय छोटी घटना-अवधि को चुनते है। 'पान-फूल', 'माई', 'महुए के पेड़' आदि कहानियों में ऐसा ही दिखाई देता है। स्वयं मार्कण्डेय के अनुसार, 'मैंने निश्चय किया कि कहानी की कालसीमा निश्चय ही बहुत छोटी होनी चाहिए।'34 अपनी अनेक कहानियों में मार्कण्डेय ने सांकेतिकता का सुंदर उपयोग किया है। इस संदर्भ में 'जूते', 'आदर्श कुक्कुट-गृह' 'गुलरा के बाबा', 'नौ सौ रुपये और एक ऊँट दाना' आदि कहानियों को देखा जा सकता है। 'गुलरा के बाबा' में चैतू अहीर का सरपत काटना वर्चस्वशाली वर्ग को चुनौती देने का संकेत है। यह घटना गाँव में जातिगत टकराहट एवं बदलाव का संकेत देता है। 'नौ सौ रुपये और एक ऊँट दाना' में दस रुपये का खुदरा भी न होना गाँव की बदहाली का संकेत करता है। 'आदर्श कुक्कुट-गृह' नौकरशाही की वास्तविक स्थिति का संकेत करती है। खगेंद्र ठाकुर के अनुसार, 'मार्कण्डेय अपनी यथार्थवादी कहानियों के कथ्य को सांकेतिक ढंग से व्यक्त करते हैं। बिलकुल स्पष्ट निष्कर्ष नहीं निकालते...।'35
अमरकांत की तरह मार्कण्डेय की अनेक कहानियों में व्यंग्य की प्रच्छन्न धारा रहती है। 'आदर्श कुक्कुट-गृह', 'भूदान' आदि कहानियाँ इसका उदाहरण है। शिल्प के स्तर पर मार्कण्डेय की विशिष्टता स्थानीय बोली एवं कहावतों का प्रयोग है :
'भाई हम कैसे जानें कि आजाद हो गए... अँगरेज चले गए... हो ही नहीं सकता। भईया, सुई की नोक भर के लिए तो महाभारत भवा, और ई सोने की चिड़िया छोड़ कर जाएगा, अँगरेज... ना... ना... बुचऊ सिंह कहें तो माने। वही कहेंगे तो दिया बत्ती होगी। नहीं तो कौन खरचे तेल-बाती? घर की उरदी जेगरे में डाले।'36
मार्कण्डेय की कहानियों में चरित्र मजबूत होता दिखाई देता है। उदाहरणस्वरूप 'हंसा जाई अकेला' का हंसा, भूदान का रामजतन आदि। अनेक कहानियों में प्रतीक का सुंदर प्रयोग है। जैसे गांधीवादी आदर्श के रूप में सुशीला जी; (हंसा जाई अकेला)। शंभुनाथ के अनुसार, 'सुशीला जी की मृत्यु एक तरह से गांधीवादी आदर्शवाद के अंत की सूचना है।'37 'साबुन' कहानी में साबुन जीवन-पद्धति का प्रतीक बन जाता है। 'पान-फूल' में पान-फूल प्रेम का, लगाव का प्रतीक है। लेकिन कुल मिलाकर मार्कण्डेय संवेदना के कहानीकार हैं, शिल्प के नहीं। शंभुनाथ के अनुसार, 'नई कहानी की शिल्पगत उपलब्धियों उसकी सांकेतिकता के विकास आदि की दृष्टि से भी मार्कण्डेय की कहानियों पर विचार करना निरर्थक है, इसलिए नहीं कि बकौल मार्कण्डेय, 'कला और शिल्प की बारीकियों में डूबे रहना कलाकार के शैशव का सबसे बड़ा मोह है', बल्कि मार्कण्डेय में न तो शिल्प की वह बारीकी कभी रही है और न उसका निर्वाह कलात्मक।'38
कथानक का ढाँचा शिवप्रसाद सिंह का भी मार्कण्डेय के तरह ही है। उनका मुख्य जोर चरित्र विधान पर रहा। शिवप्रसाद सिंह के अनुसार, 'मुझे कहानी लिखने के लिए जो चीज सबसे अधिक विवश करती है, वह है मनुष्य का चरित्र...। ये पात्र क्या हैं, मेरी कहानियों के अधिकतर पात्र उपेक्षित-तिरस्कृत माटी के ढेले ही तो हैं अथवा बबूल के सूखे पेड़ जो किसी राह चलते पंथी को अपनी ओर आकृष्ट नहीं कर पाते...।'39 शिवप्रसाद सिंह की 'नन्हों' की नन्हों, 'दादी माँ' की दादी माँ, 'कर्मनाशा की हार' के भैरो पाँड़े, 'आर-पार की माला' की नीरू, 'धरातल' की मुसम्मात नैना आदि अनेक; (सशक्त चरित्र विधान की दृष्टि से) पात्र याद रह जाते हैं।
प्रायः कथानक का ढाँचा सामान्य रखते हुए शिवप्रसाद सिंह ने शिल्प के स्तर पर अन्य प्रयोग किए हैं। 'बरगद का पेड़' में दुहरी कहानी का शिल्प है। प्रतीक का प्रयोग शिवप्रसाद सिंह में बहुत है। अनेक शीर्षक प्रतीकात्मक है। उदाहरणस्वरूप - 'कर्मनाशा की हार', 'रेती', 'केवड़े का फूल' 'मुरदासराय' आदि। 'केवड़े का फूल' उस नारी का प्रतीक है जिसे कोई भी सुगंध; इच्छापूर्ति के लिए इस्तेमाल कर ले। 'रेती' स्त्री जीवन के दुख का प्रतीक है। भाषा के स्तर पर शिवप्रसाद सिंह ने भोजपुरी एव गँवई अंदाज का प्रयोग किया है। साथ ही गँवई उपमान का भी उन्होंने खूब प्रयोग किया है। नामवर सिंह ने इसकी आलोचना करते हुए लिखा है, 'जिस प्रकार कहानियों में शिवप्रसाद सिंह जैसे लेखक कदम-कदम पर उपमाओं का कोष लुटाते चल रहे हैं, उससे एक दिन कहानी के ही लुट जाने का खतरा है।'40
शिल्प के स्तर पर रेणु का प्रयोग हिंदी कथा साहित्य में विशिष्ट है। रेणु को आंचलिक कथाकार कहा गया है। 'आंचलिक कहानी की कथानकगत मुख्य विशेषता यह है कि अंचल ही नायक होता है। उसको अपने परिवेश, जीवन पद्धति सहित उभारना होता है। यह जीवन सामान्य देशीय जीवन से भिन्न एवं अपने आप में विशिष्ट होता है।'41 रेणु ने आंचलिकता की तमाम विशिष्टता को साकार कर दिया है।
रेणु की कहानियों में कथानक का ढाँचा इकहरा नहीं होता। यहाँ कथानक का कार्य-कारण संबंध वाला स्थिर ढाँचा नहीं होता। उसमें वे विभिन्न स्तर पर जोड़-तोड़ करते हैं। उनकी कहानियों में अनेक प्रसंग, संदर्भ, सहायक घटनाएँ मिली-जुली होती हैं। उनकी कहानियों में केंद्रीयता की बजाय संश्लिष्टता होती है।
कहानियों में 'वे किसी व्यक्ति, या किन्ही व्यक्तियों से संबंधित प्रसंगों को काट-कूटकर तथा ऊपरी कार्य कारण संबंध को तोड़कर उन्हें भाव साहचर्य या अन्य किसी सूत्र के सहारे फिर से जोड़कर एक स्ट्रक्चर खड़ा करते हैं।'42 'रसप्रिया' कहानी में पँचकौड़ी मिरदंगिया की रमपतिया के साथ प्रेम की दुखद कथा के साथ-साथ कई अन्य घटनाएँ हैं। पँचकौड़ी मिरदंगिया की भटकन भरी जिंदगी, कमलपुर के नंदू बाबू से उसका संबंध, शोभा मिसिर के बेटे द्वारा यह कहना कि 'तुम जी रहे हो या थेथरई कर रहे हो मिरदंगिया' आदि। रेणु कथा के सभी सूत्रों को नहीं मिलाते। 'तीसरी कसम अर्थात मारे गए गुलपफाम' में भी अनेक कथा एवं प्रसंग मिले-गुँथे हुए हैं।
रेणु की कहानियों में वातावरण के निर्माण की अपनी भूमिका है। 'अन्य लेखकों की तुलना में रेणु का वातावरण अपेक्षाकृत अधिक संवेद्य, सहज और स्पर्शयुक्त है। प्रतीक स्थितियों एवं अन्यापदेश के प्रयोग के बिना भी उनकी कहानियों के वातावरण को पहचाना जा सकता है।'43 वातावरण के निर्माण में रेणु स्थानीय जीवन के सभी तत्वों को लेते हैं। 'रेणु की कहानियों में अनेक कथाओं, उपकथाओं, परिकथाओं, उपाख्यानों, अफवाहों, विविध् प्रसंगों, नाना प्रकार के अप्रासंगिक विवरणों का ही नहीं, रूप, रस, गंध, और नाद का भी मिश्रण मिलता है।'44
रेणु की कहानियों में वातावरण के निर्माण में रूप, रस, गंध सब संश्लिष्ट रूप से आते हैं। 'लाल पान की बेगम' में बिरजू की माँ का रूप-सौंदर्य इस प्रकार निखरता है :
'पूर्णिमा का चाँद सिर पर आ गया है। बिरजू की माँ ने असली रूपा का मँगटीका पहना है आज, पहली बार। बिरजू के बप्पा को हो क्या गया है, गाड़ी जोतता क्यों नहीं, मुँह की ओर एकटक देख रहा है, मानो नाच की लाल पान की...।'45
रेणु की कहानियों के परिवेश में प्रकृति के साथ रूप, रस, रंग संश्लिष्ट होकर आते हैं :
'आसिन-कातिक के भोर में छा जानेवाले कुहासे से हिरामन को पुरानी चिढ़ है। बहुत बार वह सड़क भूलकर भटक चुका है। किंतु आज के भोर में इस घने कुहासे में भी वह मगन है। नदी के किनारे धान-खेतों से फूले हुए धान के पौधों की पवनिया गंध आती है। पर्वपावन के दिन गाँव में ऐसी सुगंध फैली रहती है। उसकी गाड़ी में फिर चंपा का फूल खिला। उस फूल में एक परी बैठी है। ...जै भगवती।'46
रेणु कहानियों में भाषा से शब्दचित्र गढ़ देते हैं। रेणु अपनी कहानियों में ध्वनि एवं सुर के प्रति काफी सचेष्ट दिखाई देते हैं। 'रसप्रिया' में मिरदंगिया की विकृत आवाजों की चर्चा करते हुए वर्णन करते हैं :
'...चालीस वर्ष का अधपागल युगों के बाद भावावेश में नाचने लगा। ...रह-रह कर वह अपनी विकृत आवाज में पदों की कड़ी धड़ता - फोंय-फोंय, सोंय-सोंय!
धिरिनागि-धिनता!
'दुहु रस...म...य तनु-गुने नहीं ओर।
लागल दुहुक न भाँगय जो-र।'47
रेणु की कहानियों में मिथक एवं मोटिफ का प्रयोग भी खूब हुआ है। तीसरी कसम में महुआ घटवारिन की मिथ कथा हिरामन सुनाता है। 'किसी कृति का अथवा कृतिकार की अनेक कृतियों का प्रमुख या आवर्तक भाव अथवा विषय ही मोटिफ कहलाता है। रेणु की कहानियों में कुछ बिंब, दृश्य, प्रसंग या विषय बार-बार आते हैं, जैसे मेला, नाच, रेल, रेलयात्रा आदि।'48 उदाहरणस्वरूप मेला 'लाल पान की बेगम' 'तीसरी कसम अर्थात् मारे गए गुलफाम' आदि कहानियों में आया है। 'रसप्रिया' में भी मेला का प्रसंग है। इनकी कहानियों में पक्षियों की आवाज भी मोटिफ की तरह आई है।
भाषा के प्रयोग में रेणु के यहाँ स्थानीय बोली-बानी एवं मुहावरों का खूब प्रयोग मिलता है :
'पाँच बीघा जमीन क्या हासिल की है बिरजू के बप्पा ने, गाँव की भाईखौकियों की आँखें में किरकिरी पड़ गई है।'49
रेणु टोन एवं लहजे को भी कहानी में पिरोते हैं :
'अघ्-र्रे-हाँ हाँ! बि-र्-र-ज्जू की मै...या के आगे नाथ और-र्र पीछे पगहिया ना हो, तब्ब ना-आ-आ!'50
रेणु भाषा में अंग्रेजी एवं मानक हिंदी से बिगड़े शब्दों का, जो आम बोल-चाल में मौजूद हैं, उसका खूब प्रयोग करते हैं। रामायण की जगह 'रमैन', ब्राह्मण की जगह 'बामन', प्लेटफार्म की बजाय 'लाटफारम', टाइम की बजाय 'टैम' आदि। गाँवों में पाए जाने वाले कुछ विशिष्ट शब्द जो मानक शब्दकोश में शायद ही मिलें, ऐसे प्रयोग भी रेणु के यहाँ खूब हैं, जैसे 'इंरिंग-विरंग'। उनकी कहानियों में बिल्कुल नए उपमान भी मिलते हैं। उदाहरणस्वरूप - 'बिरजू की माँ के आँगन में जंगी के पतोहू की गला-खोल बोली गुलेल की गोलियों की तरह दनदनाती हुई आई थी।'51 भाषा के स्तर पर व्यंग्योक्तियों का भी खूब प्रयोग हुआ है। इसे 'पंचलाइट' 'लाल पान की बेगम' 'ठेस' आदि अनेक कहानियों में देखा जा सकता है। रेणु अपने शिल्पगत प्रयोग से कहानी को पूरी तरह जीवंत बना देते हैं। रेणु की शिल्पगत विशिष्टता पर उनकी निजी छाप है।
इस प्रकार नई कहानी का ग्रामीण पक्ष संवेदना एवं शिल्प - दोनों ही स्तरों पर पर्याप्त विविधताओं एवं विशिष्टताओं से भरा है।
संदर्भ :
1. पवन कुमार वर्मा, भारत के मध्यवर्ग की अजीब दास्तान, राजकमल प्रकाशन, नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली, 2009; पेपरबैक्स, पृष्ठ 93
2. वही, पृष्ठ 61
3. नमिता सिंह, कथा, मार्कण्डेय स्मृति अंक, अंक-15, मार्च 2011, संपादक - सस्या, कथा प्रकाशन, थर्नहिल रोड, इलाहाबाद, पृष्ठ 315
4. वही, पृष्ठ 282
5. बलभद्र, कथा, मार्कण्डेय स्मृति अंक, पृष्ठ 277
6. कृष्णा अग्निहोत्री, स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी, इंद्रप्रस्थ प्रकाशन, कृष्णानगर, दिल्ली 1993, पृष्ठ 185
7 . मार्कंडेय, मेरी कथा यात्रा; लेख, कथा, अंक-15, पृष्ठ 221
8. कथा, अंक-15, पृष्ठ 246
9. नई कहानी पुनर्विचार, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, 2ए अंसारी रोड, दरियागंज, दिल्ली, 1999, पृष्ठ 163
10. मार्कण्डेय की कहानियाँ, लोकभारती प्रकाशन, महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद, 2002, पृष्ठ 216
11. वही, पृष्ठ 267
12. वही, पृष्ठ 278
13. वही, पृष्ठ 4
14. कथा, अंक-15, पृष्ठ 254
15. डॉ. एस.टी. नरसिंहाचारी, शिवप्रसाद सिंह : स्रष्टा और सृष्टि, संपादक - पांडेय शशिभूषण शीतांशु, वाणी प्रकाशन, 21 ए, दरियागंज, नई दिल्ली, 1995, पृष्ठ 274
16. शिवप्रसाद सिंह: स्रष्टा एवं सृष्टि, पृष्ठ 278, उद्धृत
17. अंधकूप; कहानी-संग्रह, शिव प्रसाद सिंह, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, 2003, पृष्ठ 61
18. शिवप्रसाद सिंह, मेरे साक्षात्कार, किताबघर, 24 अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली, 1992, पृष्ठ 22
19. डॉ. सत्यदेव त्रिपाठी, शिवप्रसाद सिंह का कथा साहित्य, लोकभारती प्रकाशन, महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद, पृष्ठ 121
20. अंधकूप, पृष्ठ 266
21. शिवप्रसाद सिंह, मेरे साक्षात्कार, किताबघर प्रकाशन, नई दिल्ली, 1995, पृष्ठ 23
22. अंधकूप, पृष्ठ 179
23. वही, पृष्ठ 178
24. एक यात्रा सतह के नीचे; कहानी-संग्रह, वाणी प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली, 2005, पृष्ठ 31
25. संदर्भ-लेख - कहानियों का अस्तित्ववादी संदर्भ - डॉ. मधु संधु, शिव प्रसाद सिंह : सृष्टा एवं सृष्टि में संकलित, पृष्ठ 284-90
26. चंद्रेश्वर कर्ण, चंद्रेश्वर कर्ण रचनावली, खंड-1; संपादक - श्रीधरम, अंतिका प्रकाशन, शालीमार गार्डेन, गाजियाबाद, 2012, पृष्ठ 128
27. सुरेंद्र चौधरी, हिंदी कहानी: रचना और परिस्थिति; संपादक - उदयशंकर, अंतिका प्रकशन, शालीमार गार्डेन, गाजियाबाद, 2009, पृष्ठ 202
28. डॉ. रेणु शाह, फणीश्वर नाथ रेणु का कथा शिल्प, राजस्थानी ग्रंथागार, जोधपुर, 1992, पृष्ठ 195
29. रेणु, संपूर्ण कहानियाँ, राजकमल प्रकाशन, 1बी नेताजी सुभाष मार्ग, नई दिल्ली, 2010, पृष्ठ 182
30. सुरेंद्र चौधरी, हिंदी कहानी: रचना और परिस्थिति, अंतिका प्रकाशन, सी 56, यूजीएफ 4, शालीमार गार्डन, एक्सटेंशन 2, गाजिआबाद, 2009, पृष्ठ 209
31. रेणु, संपूर्ण कहानियाँ, पृष्ठ 462
32. हरिकृष्ण कौल, फणीश्वर नाथ 'रेणु' की कहानियाँ: शिल्प और सार्थकता, पराग प्रकाशन, 3/114, कर्ण गली, विश्वास नगर, शाहदरा, दिल्ली, 1989, पृष्ठ 27
33. एक यात्रा सतह के नीचे; कहानी-संग्रह, पृष्ठ 31
34. कथा, अंक-15, पृष्ठ 220
35. वही, पृष्ठ 246
36. मार्कण्डेय की कहानियाँ, पृष्ठ 110
37. कथा, अंक-15, पृष्ठ 329
38. वही, पृष्ठ 340
39. शिवप्रसाद सिंह का कथा साहित्य, पृष्ठ 157 पर उद्धृत
40. कहानी: नई कहानी, लोकभारती प्रकाशन, 15 ए, महात्मा गांधी मार्ग, इलाहाबाद, 1999, पृष्ठ 36
41. रेखा सेठी, कथांदोलन: समकालीन हिंदी कहानी, प्रकाशन विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, 1990, पृष्ठ 224
42. हरिकृष्ण कौल, रेणु की कहानियाँ: शिल्प और सार्थकता, पृष्ठ 46
43. सुरेंद्र चौधरी, हिंदी कहानी: रचना और परिस्थिति, पृष्ठ 198-99
44. हरिकृष्ण कौल, रेणु की कहानियाँ: शिल्प और सार्थकता, पृष्ठ 52
45. संपूर्ण कहानियाँ, रेणु, पृष्ठ 161
46. वही, पृष्ठ 130
47. संपूर्ण कहानियाँ, रेणु, पृष्ठ 122
48. हरिकृष्ण कौल, रेणु की कहानियाँ शिल्प और सार्थकता, पृष्ठ 62
49. रेणु, संपूर्ण कहानियाँ, पृष्ठ 157
50. वही, पृष्ठ 154
51. वही, पृष्ठ 154