निर्गुणवादी काव्यधारा के अनन्य कवि रैदास का जन्म काशी में सन 1398 (कुछ
विद्वान 1388 ई.भी बताते हैं) में चर्मकार कुल में हुआ था। उन्होंने अपने कई
पदों में अपने आप को चमार कहा था 'ऐसी मेरी जाति भिख्यात चमार', 'कह रैदास
खलास चमारा'। उनके पिता का नाम संतो़ख दास (रग्घु) और माता का नाम 'धुरबनिया'
बताया जाता है। कबीर के समकालीन रैदास उन महान संतों में अग्रणी थे जिन्होंने
अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में व्याप्त बुराइयों को दूर करने में
महत्वपूर्ण योगदान दिया। लोक-वाणी का अद्भुत प्रयोग इनकी रचनाओं की विशेषता
रही है, उनकी वाणी का इतना व्यापक प्रभाव पड़ा कि समाज के सभी वर्गों के लोग
उनके प्रति श्रद्धालु बन गए। मीराबाई उनकी भक्ति-भावना से प्रभावित होकर
शिष्या बन गयी थीं। कहा जाता है कि रैदास अनपढ़ थे लेकिन उनकी कुछ रचनाएँ (40
पद) श्री गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित की गई हैं।
संत रैदास न तो स्वयं ईश्वरवादी थे और न उनकी भक्ति किसी ईश्वर के लिए थी।
उन्होंने ईश्वर को कर्मकांडों, सामंती मूल्य-मान्यताओं, ब्राह्मणवादी
वेदों की सीमाओं को पार बताया है। जो सबका हित साधक है, करूणामय और मुक्तिदाता
है। उसे राम या हरि किसी भी नाम से पुकारा जा सकता है। उनका ईश्वर
व्यक्तिवादी धारणा या अवतावादी की धारणा से मुक्त है। उनके लिए
पंडित-पुरोहितों या मुल्लाओं और मंदिर, मस्जिदों की आवश्यकता नहीं। दलित
समुदाय धर्म और ईश्वर के नाम पर इन्हीं शोषकों के प्रपंचों का शिकार रहा है।
इन प्रपंचों से मुक्ति के लिए रैदास ने ईश्वर की व्यक्तिवाची धारणा के
विरूद्ध निर्गुणवाद का प्रचार किया। उन्होंने बताया कि परमात्मा ऊपर नहीं
है। वह तो हम सबमें मौजूद हैं। अपने अंदर के परमात्मा को ही खोजने की जरूरत
है। इसके लिए प्रार्थनाओं की नहीं, पूजा-अर्चना की नहीं बल्कि ध्यान की जरूरत
है।
रैदास गुफा में बैठकर साधनादि करके केवल अपने मोक्ष का प्रबंध करने वाले
एकांगी संत न थे, वरन उनकी साधना की मूलभूत मान्यता ही लोक का कल्याण थी। वे
उस व्यक्ति को ही साधु मानने को तत्पर थे जिनके कार्यों के द्वारा लोक का
कल्याण हो, वे कहते हैं -
सब सुख पावैं जासु ते, सो हरि जू के दास।
कोऊ दुख पावै जासु ते सो न दास हरिदास।।
रैदास ने ऊँच-नीच की भावना तथा ईश्वर-भक्ति के नाम पर किये जाने वाले विवाद को
सारहीन तथा निरर्थक बताया और सबको परस्पर मिलजुल कर प्रेमपूर्वक रहने का उपदेश
दिया। उन्होंने कर्मकांड, मूर्तिपूजा, वेद पूजा, जातिगत भेद-भाव आदि पर करारी
चोट की है। कहते हैं,
जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात।
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।।
तत्कालीन समाज में चले आ रहे हिंदु-मुस्लिम सांस्कृतिक संघर्ष को भी रैदास
अच्छी दृष्टि से नहीं देखते थे। उन्होंने उन दोनों ही धर्मों, उनके इष्ट
में एक मूलभूत समता मानकर पारस्परिक सौहार्द का संदेश दिया। उन्होंने
स्पष्ट कहा -
'कृष्ण, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेषा।
वेद कतेब क़ुरान, पुरानन, सहज एक करि भेषा।।'
(वस्तुतः उस सामाजिक तनाव के युग में यह एकता का अभूतपूर्व संदेश था)
उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति के लिए सदाचार, परहित - भावना तथा
सद्व्यवहार का पालन करना अत्यावश्यक है। अभिमान त्याग कर दूसरों के साथ
व्यवहार करने और विनम्रता तथा शिष्टता के गुणों का विकास करने पर उन्होंने
बहुत बल दिया। अपने एक भजन में उन्होंने कहा है -
'कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।'
आशय है कि ईश्वर की भक्ति बड़े भाग्य से प्राप्त होती है। अभिमान शून्य रहकर
काम करने वाला व्यक्ति जीवन में सफल रहता है जैसे कि विशालकाय हाथी शक्कर के
कणों को चुनने में असमर्थ रहता है, जबकि लघु शरीर की चींटी इन कणों को
सरलतापूर्वक चुन लेती है। इसी प्रकार अभिमान तथा बड़प्पन का भाव त्याग कर
विनम्रतापूर्वक आचरण करने वाला मनुष्य ही ईश्वर का भक्त हो सकता है।
रैदास के पद
अब कैसे छूटै राम नाम रट लागी।
प्रभु जी, तुम चंदन हम पानी, जाकी अँग-अँग बास समानी।
प्रभु जी, तुम घन बन हम मोरा, जैसे चितवत चंद चकोरा।
प्रभु जी, तुम दीपक हम बाती, जाकी जोति बरै दिन राती।
प्रभु जी, तुम मोती हम धागा, जैसे सोनहिं मिलत सुहागा।
प्रभु जी, तुम तुम स्वामी हम दासा, ऐसी भक्ति करै रैदासा।
प्रभु! हमारे मन में जो आपके नाम की रट लग गई है, वह कैसे छूट सकती है? अब मै
आपका परम भक्त हो गया हूँ। जिस तरह चंदन के संपर्क में रहने से पानी में उसकी
सुगंध फैल जाती है, उसी प्रकार मेरे तन मन में आपके प्रेम की सुगंध व्याप्त हो
गई है। आप आकाश में छाए काले बादल के समान हो, मैं जंगल में नाचने वाला मोर
हूँ। जैसे बरसात में घुमड़ते बादलों को देखकर मोर खुशी से नाचता है, उसी भाँति
मैं आपके दर्शन को पा कर खुशी से भावमुग्ध हो जाता हूँ। जैसे चकोर पक्षी सदा
अपने चंद्रमा की ओर ताकता रहता है उसी भाँति मैं भी सदा आपका प्रेम पाने के
लिए तरसता रहता हूँ।
हे प्रभु! आप दीपक हो और मैं उस दिए की बाती जो सदा आपके प्रेम में जलता है।
प्रभु आप मोती के समान उज्ज्वल, पवित्र और सुंदर हो और मैं उसमें पिरोया हुआ
धागा हूँ। आपका और मेरा मिलन सोने और सुहागे के मिलन के समान पवित्र है। जैसे
सुहागे के संपर्क से सोना खरा हो जाता है, उसी तरह मैं आपके संपर्क से शुद्ध
हो जाता हूँ। हे प्रभु! आप स्वामी हो मैं आपका दास हूँ।
ऐसी लाल तुझ बिनु कउनु करै।
गरीब निवाजु गुसाईआ मेरा माथै छत्रु धरै॥
जाकी छोति जगत कउ लागै ता पर तुहीं ढरै।
नीचउ ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै॥
नामदेव कबीरू तिलोचनु सधना सैनु तरै।
कहि रविदासु सुनहु रे संतहु हरिजीउ ते सभै सरै॥
हे प्रभु! आपके बिना कौन कृपालु है। आप गरीब तथा दिन-दुखियों पर दया करने वाले
हैं। आप ही ऐसे कृपालु स्वामी हैं जो मुझ जैसे अछूत और नीच के माथे पर राजाओं
जैसा छत्र रख दिया। आपने मुझे राजाओं जैसा सम्मान प्रदान किया। मैं अभागा हूँ।
मुझ पर आपकी असीम कृपा है। आप मुझ पर द्रवित हो गए। हे स्वामी आपने मुझ जैसे
नीच प्राणी को इतना उच्च सम्मान प्रदान किया। आपकी दया से नामदेव, कबीर जैसे
जुलाहे, त्रिलोचन जैसे सामान्य, सधना जैसे कसाई और सैन जैसे नाई संसार से तर
गए। उन्हें ज्ञान प्राप्त हो गया। अंतिम पंक्ति में रैदास कहते हैं - हे
संतों, सुनो! हरि जी सब कुछ करने में समर्थ हैं। वे कुछ भी सकते हैं।
आज आमजनों को लोग राह से भटकाकर स्वार्थवश उनका उपयोग करते हैं, इसलिए हमें
विवेकवान बनना चाहिए। रैदास कहते हैं -
तू खुद रहबर है, खुद बाँगे-जरस है, खुद ही मंजिल है।
मुसाफिर! फिर यह तकलीदे-अमीरे-कारवाँ कब तक।।
आशय है कि, कब तक तुम दूसरों के पीछे चलते रहोगे? यह कारवाँ को राह दिखाने
वाले लोगों के पीछे तुम कब तक चलते रहोगे? इन्हें खुद भी पता नहीं ये कहाँ जा
रहे हैं। इनकी आँखों में झाँको, कोई दीये वहाँ जलते हुए नहीं। इनके प्राणों
में तलाशो, कोई गंध वहाँ उठती हुई नहीं, कोई सुगंध नहीं। ये खुद ही नहीं खिले।
इनके आश्वासनों में मत पड़ो। ये आश्वासन देने में कुशल हैं।
रैदास की साखियाँ
हरि सा हीरा छाड़ि कै, करै आन की आस ।
ते नर जमपुर जाहिँगे, सत भाषै रैदास ।।1।।
अंतरगति रार्चैँ नहीं, बाहर कथैं उदास ।
ते नर जम पुर जाहिँगे, सत भाषै रैदास ।।2।।
नीचहु ऊच करै मेरा गोबिंदु काहू ते न डरै
कवि का कहना है कि ईश्वर हर कार्य को करने में समर्थ हैं। वे नीच को भी ऊँचा
बना लेता है। उनकी कृपा से निम्न जाति में जन्म लेने के उपरांत भी उच्च जाति
जैसा सम्मान मिल जाता है।
प्रभुजी तुम संगति सरन तिहारी। जग
-जीवन राम मुरारी।
ऐसे तो तुम सब जगह व्याप्त हो, सारे जग का जीवन हो। तुम्हीं हो राम, तुम्हीं
हो कृष्ण। तुम्हारे ही सारे रूप हैं। लेकिन उसी को दिखाई पड़ते हो तुम, जो अपने
को मिटा लेता है - जो शरणागति का सार समझ लेता है।
गली-गली को जल बहि आयो, सुरसरी जाय समायो।
संगति के परताप महातम, नाम गंगोदक पायो।।
नाली का जल भी जब गंगा में मिलता है तो कुछ भेद नहीं रह जाता, गंगा उसे पवित्र
कर लेती है। संगति का महातम! संगति का महत्व! जिसके साथ जुड़ जाओगे वही हो
जाओगे। सदगुरु के पास बैठते-बैठते तुम्हारे भीतर रोशनी हो जाएगी।
रैदास के जीवन की छोटी-छोटी घटनाओं से समय तथा वचन के पालन संबंधी गुणों का
ज्ञान होता है। एक बार एक पर्व के अवसर पर पड़ोस के लोग गंगा-स्नान के लिए जा
रहे थे। रैदास के शिष्यों में से एक ने उनसे भी चलने का आग्रह किया तो वे
बोले, 'गंगा-स्नान के लिए मैं अवश्य चलता किंतु एक व्यक्ति को आज ही जूते
बनाकर देने का मैंने वचन दे रखा है। यदि आज मैं जूते नहीं दे सका तो वचन भंग
होगा। गंगा स्नान के लिए जाने पर मन यहाँ लगा रहेगा तो पुण्य कैसे प्राप्त
होगा? मन जो काम करने के लिए अंतःकरण से तैयार हो वही काम करना उचित है। मन
सही है तो इस कठौती के जल में ही गंगास्नान का पुण्य प्राप्त हो सकता है।' कहा
जाता है कि इस प्रकार के व्यवहार के बाद से ही कहावत प्रचलित हो गई कि - 'मन
चंगा तो कठौती में गंगा।'
रैदास का जीवन और काव्य इस तरह घुला-मिला है, जैसे चंदन और पानी मिल जाता है।
'प्रभु जी तुम चंदन हम पानी' गानेवाले रैदास का व्यक्तित्व भले ही कबीर की
तुलना में विनम्र और साधु लगता हो पर वैचारिक दृढ़ता में सिर्फ रैदास हैं जो
कबीर से होड़ लेते हैं। रैदास अपनी साधना में मन के चंगा होने की बात करते
हैं। यदि मन पवित्र है तो सामने की कठवत का पानी गंगा की तरह पवित्र है। रैदास
जिस समय और समाज में हुए थे उसमें मनुष्य के श्रम को अवमानित किया जाता था जो
जितना ही उपयोगी श्रम करता, वह सामाजिक ढाँचे में उतना ही हीन माना जाता था।
उन्होंने अपनी मानसिक और वैचारिक दृढ़ता से श्रम को प्रतिष्ठा दी। 'जहं-जहं
दोलउ सोई परिकरमा जो कुछ करौं सो पूजा'।
वह अपने भक्तों को श्रम करके अपना पालन-पोषण करने का संदेश देते हैं। हमारे
समाज में अकर्मण्य साधुता का प्रचलन रहा है इसके बरक्स रैदास श्रमशील साधुता
का आह्वान करते हैं। वह कहते हैं कि "ईश्वर ने इंसान बनाया है ना कि इंसान ने
ईश्वर बनाया है" अर्थात इस धरती पर सभी को भगवान ने बनाया है और सभी के अधिकार
समान हैं। इस सामाजिक परिस्थिति के संदर्भ में, संत रविदास ने लोगों को
वैश्विक भाईचारा और सहिष्णुता का ज्ञान दिया। उनका साहित्य वर्ण आधारित
श्रेष्ठताक्रम को चुनौती देता है। वर्ण व्यवस्था सामाजिक श्रम के अपहरण का
एक रूप है इसलिए श्रम की सामाजिक प्रतिष्ठा का जो संदेश रैदास की कविता और
जीवन से मिलता है, वह आज भी हमारे समाज की परम कामना है। हमारी अविकसित
सामाजिक चेतना मानवीय श्रम और श्रमशील जनता को गरिमा और सम्मान देने के लिए
तैयार नहीं है।
अंत में कहा जा सकता है कि, संत रैदास की विचारधारा आज भी प्रचलित सामाजिक
अंतर्विरोधों एवं समस्याओं का समाधान निकालने में एक सीमा तक सहयोग दे सकती
है। उनकी वाणी में दीन हीन और शोषितों के प्रति एक विकल पीड़ा, अपमान के
विरूद्ध समाधान में प्रतिपल घुटन तथा समस्याओं के प्रति एक जागरूक दृष्टि थी
तथा वे वह यह भली प्रकार जानते थे कि पुरातनता से किस प्रकार ग्रहण किया जाये,
परंपरा को किस स्थान तक सुरक्षित रखा जाये और नवीन परिस्थितियों के अनुरूप
किस प्रकार मार्ग बनाया जाए। उनके काव्य में वर्ण-व्यवस्था से उत्पन्न
भेदभाव तथा कर्मकांड के प्रति गहरा क्षोभ अभिव्यक्त हुआ है। उन्होंने तमाम
तरह का वैषम्य और दुख-दर्द स्वयं भोगा था इसीलिए उनकी अभिव्यक्ति में सत्य
और अनुभूति का बल है। सामाजिक जीवन में हर प्रकार के द्वैत को अस्वीकार करने
वाले कवि के अनुसार भक्ति का धरातल प्रेम का धरातल है। उन्होंने अपने आचरण तथा
व्यवहार से यह प्रमाणित कर दिया है कि मनुष्य अपने जन्म तथा व्यवसाय के आधार
पर महान नहीं होता है। विचारों की श्रेष्ठता, समाज के हित की भावना से प्रेरित
कार्य तथा सदव्यवहार जैसे गुण ही मनुष्य को महान बनाने में सहायक होते हैं।
उनका जीवन और साहित्य अपने युग का ही नहीं, सदा-सर्वदा के लिए एक महन
विचारक, चिंतक तथा समाज सुधार के रूप में आज की मनुष्यता के विकास के लिए
मार्गदर्शक हैं। वर्तमान समय में समाज में व्याप्त विसंगतियों को देखते हुए
कहा जा सकता है कि रैदास के साहित्य का पुनर्पाठ किया जाना चाहिए और शोध के
माध्यम से अनछुए पहलुओं को उजागर किया जाना चाहिए।