आजाद भारत में बाँध परियोजनाएँ, राष्ट्रीय उच्च मार्ग, रेलवे लाईन, खनन
व्यवसाय, स्पेशल इकोनॉमिक जोन, रियल इस्टेट, औद्योगीकरण, अभ्यारण्य एवं
अन्य कारणों से हो रहे किसानों/गरीबों के विस्थापन की समस्या आज विमर्श के
केंद्र में है। व्यक्ति की इच्छा के बगैर अपने रहने के स्थान से हटाकर कहीं
अन्यत्र ले जाकर बसाना विस्थापन कहलाता है। विस्थापन से लोगों को पारंपरिक
जमीन व परिवेश से विस्थापित होकर जीविका की तलाश में अन्यत्र पलायन करने को
विवश हो जाना पड़ता है, क्योंकि उनकी जीविका का एक मात्र आधार ही समाप्त हो
जाता है। 1947 और 2004 के बीच लगभग 6 करोड़ लोग विस्थापित हुए जिनमें 40 फीसदी
आदिवासी और 20 फीसदी अनुसूचित जातियों के थे। इन विस्थापित लोगों में से 18 से
भी कम फीसदी का पुनर्वास हुआ। विस्थापन ने लाखों स्वतंत्र उत्पादकों को
धनविहीन श्रमिकों में तबदील कर दिया। पुस्तैनी घर को उजरते देखना भयावह मंजर
जैसा होता है। सरकार कहती है कि हम विस्थापितों को आश्रय दे रहे हैं पर उसे
क्या पता कि, जिस पेड़-पौधों को पुत्र के जैसा पाला-पोषा है उसका क्या, जिन
पक्षियों की कोलाहल से सुबह-शाम होती, क्या पुनर्वास के जगह पर वह मिल पाएगाॽ
क्या भावनाओं को किसी पैसे की तराजू पर तौला जा सकता हैॽ
विकास के नाम पर चौड़ी सड़कें, औद्योगिक संयंत्र आदि के लिए किसानों से उर्वर
जमीन लेने की अनेक विसंगतियों के साथ ही बाँधों की ऊँचाई बढ़ाने के तत्पर
निर्णय भी हैरत में डालते हैं। अनेक पूरे-के-पूरे गाँव-नगर निर्वासन की पीड़ा
भोगने को अभिशप्त होते हैं। हजारों मनुष्य, मुश्किल से निर्मित हुए उनके घर,
स्कूल, अस्पताल, उपजाऊ जमीन, धार्मिक स्थल, जानवर और उनकी सुरक्षित जगहें,
बेघर और समयानुकूल बने उनके ठौर-ठिकाने सब कुछ थोड़े से समय में
महत्त्वाकांक्षी-असंवेदनशील लोगों द्वारा लिए निर्णयों की बलि चढ़ जाते हैं।
स्वतंत्रता के उपरांत पलायन विकास के नाम पर उजाड़े गए लोगों का, पलायन
आतंकवाद के भय से, पलायन रोजी-रोटी की तलाश में और पलायन पारस्परिक दक्षता या
वृति के बाजारवाद की भेंट चढ़ जाने के कारण से बड़ी कोई त्रासदी और क्या हो
सकती हैॽ
प्रश्न उठता है कि विस्थापन करते समय उनके जीविकोपार्जन के विकल्प की तलाश
क्यों नही की जाती? समतामूलक समाज के नाम पर किए जा रहे तथाकथित विकास के मॉडल
में आखिर क्या खामी रह जाती है कि विस्थापित लोग बद से बद्तर जिंदगी गुजारने
को विवश हो जाते हैं? क्या यह सच नहीं है कि आज से नैसर्गिक संसाधनों को
लूटने की होड़ लगी है, 'प्रभु देश' येन-केन-प्रकारेण' से हमारे संसाधनों पर
कब्जा करने की साजिश में लगे हैं। आज विस्थापन ऐसे राज्यों (झारखंड,
छत्तीसगढ़, उड़ीसा आदि) से हो रहे हैं, जहाँ कि नैसर्गिक संसाधन बहुतायत में
है। ओडि़शा, छत्तीसगढ़ और झारखंड में देश के कोयला-भंडार का 70 प्रतिशत हिस्सा
मौजूद है। देश के लौह-अयस्क का 80% हिस्सा, बाक्साइट का 60% तथा क्रोमाइट का
तकरीबन 100% हिस्सा इन्हीं तीन राज्यों में है। औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा
कुटिल नीति के तहत देश में विकास के नाम पर लोगों को उनकी आजीविका से वंचित
किया जा रहा है, वे हाशिए पर धकेले जा रहे हैं और उनकी विपन्नता बढ़ती ही जा
रही है। यह मुद्दा पश्चिम बंगाल के सिंगूर व नंदीग्राम, उड़ीशा के नियामगिरि
और काशीपुर, उत्तर प्रदेश व हरियाणा में हाइवे के खिलाफ जनांदोलन, मैंगलोर व
नवी मुंबई में सेज के खिलाफ आंदोलन व ऐसे ही अन्य जन संघर्षों के चलते
राष्ट्रीय स्तर पर उभरा है। ऐसे आंदोलनों ने कानूनों, निर्णय प्रक्रिया व ऐसी
ही अन्य गलत प्रक्रियाओं पर सवाल खड़े किए हैं।
आज विकास मॉडल में मानवीय विकास की जगह आर्थिक विकास को ज्यादा तवज्जो दी जाती
है। अध्ययन बताते हैं कि विस्थापन तथा आजीविका से बेदखली व विकास की वर्तमान
सोच का ही नतीजा है कि ताकतवर और भी ज्यादा ताकतवर बनते जाते हैं तथा कमजोर
पहले से कहीं ज्यादा अभावग्रस्त होकर और भी हाशिए पर चले जाते हैं। यही वजह है
कि विस्थापन के अध्ययन में 'विकास के प्रतिमान' केंद्र में आ जाते हैं। लोगों
को उनके संसाधनों से अलग करने की प्रक्रिया औपनिवेशिक काल में ही शुरू हो गई
थी और 1947 के बाद योजनाबद्ध विकास में यह और भी ज्यादा बढ़ी। यही नहीं,
विस्थापन और अभाव की प्रकृति में भी बदलाव आया, पहले महज प्रक्रिया आधारित दखल
से बढ़कर यह भूमि और उनकी आजीविका के सीधे नुकसान तक पहुँच गई। धीरे-धीरे इसकी
तीव्रता बढ़ी लेकिन जागरूकता और पुनर्वास दोनों ही क्षेत्रों में कमजोरी रही।
इसका मुख्य कारण यह है कि विकास के प्रतिमान औपनिवेशिक देशों से लिए गए और
स्वतंत्र भारत के निर्णयकारी लोगों द्वारा जस के तस लागू कर दिए गए। योजनकारों
ने सारे अहम निर्णय 'राष्ट्र निर्माण' के सिद्धांत के आधार पर लिए। इसमें यह
माना गया कि कुछ लोगों को विकास की कीमत जरूर चुकानी होगी लेकिन यह इस मायने
में लाभप्रद भी होगा कि विकास के फायदे सभी तक पहुँच जाएँगें। जब विकास के
फायदे बहुसंख्यक तक पहुँचने में नाकाम रहे तो यह नजरिया बदलकर 'राष्ट्रीय
विकास' का हो गया। जवाहरलाल नेहरू तथा पीसी महलनोबिस सरीखे लोग जिन्हें देश की
मिश्रित अर्थव्यवस्था के पीछे का मुख्य दिमाग माना जाता है, ने भारत की
समस्याओं के निदान के लिए तकनीक को ही मुख्य समाधान के तौर पर लिया। 'भारत एक
खोज' में नेहरू इस बात की जरूरत पर जोर दिया था कि औद्योगिकीकरण एक
लोकतांत्रिक ढाँचे के तहत ही किया जाए। इसमें साम्यवादी तानाशाही और पूँजीवादी
शोषण के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। ऐसा करने के लिए भारत को उसके
अंधविश्वासों और रूढ़िवादी से बाहर निकलना होगा, परंपराएँ बदलनी होंगी और खुद
को आधुनिक बनाना होगा। इसी विचारधारा ने उन्हें बड़े बाँधों और उद्योगों को
आधुनिक भारत के तीर्थ घोषित करने के लिए प्रेरित किया। आधुनिकीकरण के नाम पर
पूँजीपतियों ने अपना निवेश किया और यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों पर जोर आजमाई।
बहुत ही कम लोग, जैसे महात्मा गांधी (1948) ने महसूस किया था कि उपनिवेशवादी
देश अपने उपनिवेशों का शोषण कर अमीर बनते जा रहे हैं। इसी वजह से महात्मा
गांधी ने स्वतंत्र भारत को पश्चिमी राह का अंधानुकरण करने से आगाह किया था।
उन्होंने औद्योगिकीकरण का नहीं, उद्योगवाद का विरोध किया था। वे ऐसे विकास के
विरोधी थे जो उस तकनीक और उपभोग की राह पर चलता था जो बहुमत की पहुँच से बहुत
दूर था। इंग्लैंड सरीखे छोटे से देश ने दुनिया के आधे देशों को महज इसलिए
वंचित बना रखा था ताकि उसके नागरिक अमीरों की तरह जी सकें।
विस्थापन और आदिवासी
: परंपरागत रूप से आदिवासी-जीवन जंगलों पर आधारित रहता आया है। जंगल और
आदिवासी सह-अस्तित्व के सिद्धांत पर फलते-फूलते रहते आए हैं। देश की आबादी
में अनुसूचित जनजाति के लोगों की तादाद 8.6% है लेकिन विकास परियोजनाओं के
कारण विस्थापित होने वाले लोगों कुल संख्या में अनुसूचित जनजाति के लोगों की
तादाद 40 प्रतिशत है। रिपोर्ट ऑफ द हाई लेवल कमिटी ऑन सोश्यो इकॉनॉमिक, हैल्थ
एंड एजुकेशनल स्टेटस ऑफ ट्राइब्ल कम्युनिटीज ऑफ इंडिया नामक रिपोर्ट में कहा
गया है कि तकरीबन 25 प्रतिशत आदिवासी अपने जीवन में कम से कम एक दफे
विकास-परियोजनाओं के कारण विस्थापन के शिकार होते हैं।
आदिवासी आबादी के पुनर्वास से संबंधित सरकार द्वारा नियुक्त एक विशेषज्ञ समिति
ने कुछ दिनों पहले कहा था कि विकास परियोजनाओं के कारण विस्थापित होने वाले
लोगों में जनजातीय समुदाय के लोगों की संख्या 47 प्रतिशत है। भूमि अधिग्रहण
संबंधी अध्यादेश के जारी होने के साथ उपजे विवाद के बीच आई एक नई रिपोर्ट में
विस्थापन और विकास के संदर्भ में आदिवासी समुदाय के लोगों से संबंधित ऐसे कई
महत्वपूर्ण तथ्यों का उल्लेख है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भूमि अधिग्रहण,
विस्थापन और जबरिया पलायन के लिहाज से देखें तो इस इन प्रक्रियाओं का सर्वाधिक
शिकार आदिवासी समुदाय के लोग हुए हैं। विकास के नाम पर आदिवासियों का पलायन और
विस्थापन सदियों से होता रहा है और ये आज भी बदस्तूर जारी है। आदिवासियों के
जंगलों, जमीनों, गाँवों, संसाधनों पर कब्जा कर उन्हें दर-दर भटकने के लिए
मजबूर करने के पीछे मुख्य कारण हमारी सरकारी व्यवस्था भी रही है। आदिवासी केवल
अपने जंगलों, संसाधनों या गाँवों से ही बेदखल नहीं हुए बल्कि मूल्यों, नैतिक
अवधारणाओं, जीवन-शैलियों, भाषाओं एवं संस्कृति से भी वे बेदखल कर दिए गए हैं।
हमारे मौलिक सिद्वांतों के अंतर्गत सभी को विकास का समान अधिकार है। लेकिन
आजादी के बाद के पहले पाँच वर्षों में लगभग ढाई-लाख लोगों में से 25 प्रतिशत
आदिवासियों को मजबूरन विस्थापित होना पड़ा। विकास के नाम पर लाखों लोगों को
अपनी रोज़ी-रोटी, काम-धंधों तथा जमीनों से हाथ धोना पड़ा। उनको मिलने वाले
मूलभूत अधिकार जो उनकी जमीनों से जुड़े थे वे भी उन्हें प्राप्त नहीं हुए।
आदिवासियों के प्रति सरकार तथा तथाकथित मुख्यधारा के समाज के लोगों का नजरिया
कभी संतोषजनक नहीं रहा। आदिवासियों को सरकार द्वारा पुनर्वसित करने का प्रयास
भी पूर्ण रूप से सार्थक नहीं हो सका। अंततः अपनी ही जमीनों व संसाधनों से विलग
हुए आदिवासियों का जीवन मरणासन्न अवस्था में पहुँच गया। एक आँकड़े के मुताबिक
आजादी से लेकर अब तक 3,81,500 लोग और 76300 परिवार विकास की पहिया के नीचे
बेरहमी से कुचल दिए गए। सबसे ताज्जुब की बात यह है कि इसमें वे राज्य सबसे
ज्यादा हैं जहाँ वनवासी सदियों से रहते चले आए हैं। आँकड़ा बताता है कि
झारखंड, जो प्राकृतिक संपदा से सबसे ज्यादा माला-माल है, वहाँ विस्थापन सबसे
ज्यादा हुआ। यानी वनवासियों को उनके वसाहट से विस्थापित करने का कार्य सबसे
ज्यादा किए गए। सोचने वाली बात यह है कि इनको खदेड़ने का पराक्रम उन
मुख्यमंत्रियों के समय में ज्यादा हुआ जो खुद को आदिवासी परिवार से होने और
आदिवासियों के हितुआ बताते रहे हैं। हलकू उरांव कहते हैं कि उन्हें पुनर्वास
का लाभ इसलिए नहीं मिल पाया क्योंकि उनके पास जमीन से संबंधित कोई दस्तावेज
उपलब्ध नहीं है, सामाजिक संगठनों का कहना है कि पुनर्वास के मसले पर सरकारी
हलके में व्याप्त सोच इस बात की कतई फिक्र नहीं करती कि जिसके पास प्राकृतिक
संसाधनों पर अपने मालिकाना हक को साबित करने के लिए दस्तावेज नहीं है उसका
क्या होगा जबकि कुछेक समुदाय सदा से अपनी आजीविका के लिए उसी पर निर्भर रहे
हैं और परंपरा से इन समुदायों का अधिकार प्राकृतिक संसाधनों पर स्वीकार किया
जाता रहा है। निम्न तबकों को सरकारी पुनर्वास नीति में कभी भी जगह नहीं मिली
है। अधिकांश आदिवासी तथा दलित न तो मुआवजे के पात्र बने और ना ही उनका
पुनर्वास हो सका। ऐसे में, उनकी आर्थिक, सामाजिक तथा सांस्कृतिक हालत में काफी
गिरावट आ गई। उदाहरण के तौर पर सुप्रीमकोर्ट ने यह जानने के लिए 'ओम्बड्समैन'
की नियुक्ति की कि 1982 में दिल्ली में आयोजित एशियन गेम्स की सुविधाओं के लिए
बन रहे ढांचों का काम कर रहे 150,000 निर्माण मजदूरों में से तीस-चालीस हजार
बंधुआ मजदूर थे। इन्हें ठेकेदारों द्वारा यह लालच देकर दिल्ली लाया गया था कि
उन्हें बगदाद भेजा जाएगा। दिल्ली में दासों जैसी हालत में रहने के बाद उन्हें
इस बात की भी कोई उम्मीद नहीं रह गई थी कि वे अपने परिवारों के पास लौट
पाएँगे। जब उनसे यह पूछा गया कि उन्होंने ठेकेदारों की बात क्यों मानी तो
उन्होंने अपना बचपन हीराकुंड व ऐसी ही अन्य परियोजनाओं, औद्योगिकीकरण की वजह
से हुए निर्वनीकरण तथा विस्थापन की भेंट चढ़ा दिया था। ऐसे में बेहतर नौकरी की
बातों के कारण वे आसानी से ठेकेदार के जाल में फँस गए। आज 21वीं सदी में
पहुँचकर भी हमारे देश का आदिवासी समाज जहाँ विकास की बाट जोह रहा है। वहीं
दूसरी तरफ सरकार की उदासीन नीतियों के कारण उनकी स्थिति ज्यों की त्यों ही है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ और विस्थापन
: जनजाति क्षेत्रों में मल्टीनेशनल कॉपोरेशनों को राष्ट्रीय संसाधनों के खनन
का अधिकार दे दिया गया है। जैसा कि गौतम नवलखा (2006) ने कहा था केंद्र सरकार
जब यह कहती है कि माओवादी जनजातीय क्षेत्रों में विकास का विरोध कर रहे हैं तो
इसका मतलब यह है कि वस्तुतः माओवादी, आदिवासी क्षेत्रों में कॉरपोरेट शोषण,
जो कि खनिज पदार्थों, जंगल और भूमि-संसाधनों के दोहन पर आधारित है, को रोकने
का प्रयास करते हैं। बहुराष्ट्रीय निगम आमतौर पर पूँजी आधारित निवेश करते हैं
जिसमें रोजगार के अवसर कम होते हैं जिसके कारण कुशल श्रमिक को बाहर से आयातित
करने के साथ ही अकुशल श्रमिक के नाम पर स्थानीय श्रम का उपयोग अत्यंत कम
मूल्य पर करने की कोशिश की जाती है। उदाहरण के तौर पर 'दी नेशनल मिनरल
डेवलपमेंट कॉरपोरेशन' की किरान्डूल और बचेली की खदानें जो कि मध्य प्रदेश के
दांतेवाड़ा जिले में हैं, स्थानीय लोगों को रोजगार नहीं देती है। यहाँ से
प्राप्त लौह अयस्कों को एक विशिष्ट रेल मार्ग से विशाखापत्तनम और अत्यंत
अल्प मूल्य पर जापान को बेचा जाता है। यह तथाकथित 'रेड कॉरीडोर', जहाँ
सदियों से आदिवासी निवास करते हैं, खनिजों से भरा पड़ा है। इन संरक्षित
भंडारों पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों की निगाहें हैं, सरकार इसे बेचने पर आमदा
है। इसी कारण सैकड़ों की संख्या में 'मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग' इन
बहुराष्ट्रीय कंपनियों के साथ हस्ताक्षरित किए जा चुके हैं। यही कारण है कि
इन क्षेत्रों की जनजाति जनसंख्या खुद को छला हुआ महसूस कर रही है, नजरअंदाज
और उपयोग कर फेंकी गई वस्तु जैसा - कभी विकास के नाम पर, कभी औद्योगिकीकरण के
नाम पर, कभी राष्ट्रहित में वस्तुतः उनका प्रतिरोध इस अन्यायपूर्ण
विस्थापन के विरोध में है। वे इस बात को मानते हैं कि माओवादी विद्रोह को
कुचलने के नाम पर सरकार जमीन अधिग्रहण कर इसे बहुराष्ट्रीय कंपनियों को देना
चाहती है। न्याय की माँग यह है कि भूमि अधिग्रहण एक्ट को राष्ट्रीय सुरक्षा
और जन-कल्याण की सीमा में लाया जाय न कि इसका उपयोग कंपनी, उद्योगों और
रजिस्टर्ड फर्म को देने हेतु किया जाए। इस एक्ट में सुधार की जरूरत है ताकि
विस्थापन को लगाम दिया जा सके और विस्थापित के अधिकारों को सुरक्षित किया जा
सके।
सांस्कृतिक क्षरण :
विस्थापन से सांस्कृतिक बदलाव भी जुड़ जाता है। भारत की मौजूदा औद्योगीकरण की
प्रक्रिया उसकी विकास दर को तो बढ़ा सकती है मगर इसका आदिवासियों पर प्रभाव
किसी सांस्कृतिक जनसंहार से कम नहीं है। आदिवासी संस्कृति उनकी सामाजिक
संस्थाओं द्वारा कायम संबंधों के आधार पर जीवन्त बनी रहती है और विस्थापन इसी
पारस्परिक बंधन के चिथड़े उड़ा देता है। धार्मिक व्यवस्था दरक जाती है क्योंकि
गाँव के पवित्र पूजा स्थल हटा दिए जाते हैं और वे पहाड़ जिन्हें लोग सम्मान से
देखते थे, उनकी खुदाई हो जाती है। लाजीगढ़ रिफाइनरी के निर्माण का रास्ता आसान
करने के लिए किनारी गाँव के बाशिंदों को वेदांतानगर ले जाया गया। उनमें से एक
महिला ने गाँव में बुलडोजर चलते देखा, जिसने गाँव के सामूहिक पृथ्वी मंदिर को
सपाट कर दिया। उसने इस जबरन विस्थापन की घटना के कुछ दिन बाद हम लोगों को
बताया कि, 'हमारे देवता तक नष्ट हो गए।' उसके लिए उसके पास जमीन न होने का
मतलब था कि वह अब अपने लिए कभी भी अन्न का उत्पादन नहीं कर पाएगी। पारंपरिक
जीवन शैली की सारी मान्यताएँ जिनसे लोग ऊर्जा पाते थे वे सब ध्वस्त हो गईं।
बहुविस्थापन
: विस्थापन की वजह से पहले से ही गरीब तबके को ऐसे नए समाज में धकेल दिया जाता
है जिसमें उनके लिए आपस में जुड़ाव की कोई तैयारी नहीं होती। इसीलिए, भले ही
उनका पुनर्बसाहट कर दिया जाए वे नए समाज और आर्थिक स्थिति में खुद को ढालने के
लिए कतई तैयार नहीं होते। जैसे, ओड़ीशा के राउरकेला स्टील प्लांट में नौकरी पर
रखे गए कई विस्थापित लोगों को यह कहते हुए नौकरी से बाहर कर दिया गया कि वे
अनुशासनहीन हैं, शराब पीते हैं तथा अनियमित हैं। एक अध्ययन से पता चलता है कि
इसका असल कारण यह है कि उन्हें अनौपचारिक खेतिहर पृष्ठभूमि से औद्योगिक
परिदृश्य में धकेल दिया गया। ऐसे में काम करने के लिए उनकी समय संबंधी समझ में
भिन्नता आ गई। 'सरवाइव' नहीं करने पर उन्हें पुनः विस्थापित किए गए। रिहंद
बाँध के ज्यादातर विस्थापित बीते तीस वर्षों में तीन बार उजाड़े गए। कर्नाटक
के काबिनी बाँध से 1970 में विस्थापित हुए सोलिगा आदिवासियों को राजीव गांधी
नेशनल पार्क (चेरिया 1996) से एक बार फिर विस्थापन का खतरा झेलना पड़ा।
मैंगलोर पोर्ट से 1960 में विस्थापित हुए कई मछुआरे परिवार 1980 के दशक में
कोंकण रेलवे की वजह से फिर से उजाड़े गए। जबकि उस वक्त उन्होंने मछली पालन की
जगह खेती करने की आदत अपना ली थी। मिजोरम के आदिवासी परिवार जिन्होंने अपनी
जमीन आईजॉल के लेंगपुई एअरपोर्ट के बनने में गँवा दी थी, 1990 के एक दशक में
तीन बार विस्थापित हुए। पहली बार एअरपोर्ट के लिए, फिर जहाँ उन्हें बसाया गया
वहाँ की जमीन सड़क बनाने के लिए अधिग्रहीत कर ली गई, और तीसरी बार वे स्टाफ
क्वार्टर के लिए जमीन की जरूरत की वजह से उजाड़े गए। संभलपुर के पास बसा
बुरलाशहर हीराकुंड बाँध के लिए अधिग्रहीत अतिरिक्त जमीन पर बसाया गया है।
आंध्र प्रदेश के मेदक जिले में भेल ने अपनी अतिरिक्त जमीन अनुसंधान संस्थान
'आईसीआरआईएसएटी' को दे दी। ओड़ीशा के कोरापुट जिले के एमआईजी-एचएल प्लांट
सुनाबेदा में 1966 में अधिग्रहीत जमीन का करीब दो तिहाई हिस्सा तीन दशक तक
बिना किसी उपयोग के पड़ा रहा। यहाँ 468 परिवार बेदखल किए गए जो न तो बसाए गए
और ना ही इस जमीन पर वनीकरण हुआ। एक रिपोर्ट के मुताबिक इसका एक हिस्सा एक
निजी कंपनी को भारी मुनाफे में बेच दिया गया।
बाँध
,
विस्थापन और विकास :
भारत दुनिया में बाँध बनाने में तीसरे नंबर पर है। यहाँ आजादी के 65 वर्षों
में लगभग 3500 बाँधों (जिनमें प्रमुख हैं - नर्मदा बाँध, रिहंद बाँध, हीराकुंड
बाँध, सरदार सरोवर बाँध, नागार्जुन बाँध, मयूराक्षी बाँध आदि) ने करोड़ों
लोगों को विस्थापितों की श्रेणी में ला दिया। 21वीं सदी तक पहुचाने और विकास
की गति को रथ देने में नदियों पर बनाये गए बाँधों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई
है। बाँधों से बिजली, सिंचाई का पानी, पीने का पानी मुहैया होता है साथ ही
बाँध नियंत्रण भी होता है। बिजली पैदा करने के उद्देश्य से विकास पुरूष पं.
नेहरू ने 1940 में नर्मदा नदी पर बाँध बनाने की अवधारणा रखी और 1978 में काम
शुरू हुआ नतीजतन नर्मदा घाटी में बसे लोगो को उजाड़ा जाने लगा। उजड़े हुए
गाँवों और परिवारों के पुनर्वास की संपूर्ण व्यवस्था किए बिना ही उनके
विस्थापन की प्रक्रिया जारी रही। यही कारण है कि मेधा पाटकर, बी.डी.शर्मा जैसे
सामाजिक कार्यकर्ता विस्थापित परिवारों के हक-हकूक के लिए आंदोलनरत हैं। यहाँ
हम बड़े बाधों से होने वाले विस्थापितों पर नजर डालते हैं तो पाएँगें कि -
बड़े बाँधों से विस्थापित आबादी
परियोजना
|
राज्य
|
विस्थापित लोग
|
विस्थापित जनजाति फीसद में
|
कर्जन
|
गुजरात
|
11,600
|
100
|
सरदार सरोवर
|
गुजरात
|
2,00,000
|
57.6
|
महेश्वर
|
मध्य प्रदेश
|
20,000
|
60
|
बोधघाट
|
मध्य प्रदेश
|
12,700
|
73.91
|
इचा
|
झारखंड
|
30,800
|
80
|
चांडिल
|
बिहार
|
37,600
|
87.92
|
कोयल कारो
|
बिहार
|
66,000
|
88
|
माही बजाज सागर
|
राजस्थान
|
38,400
|
76.28
|
पोलावरम
|
आंध्र प्रदेश
|
1,50,000
|
52.90
|
मैथॉन और पांचेत
|
बिहार
|
93,874
|
56.46
|
ऊपरी इद्रावती
|
ओडिशा
|
18,500
|
89.20
|
पोंग
|
हिमाचल प्रदेश
|
80,000
|
56.25
|
इचमपल्ली
|
आंध्र-महाराष्ट्र
|
38,100
|
76.28
|
तुलतुली
|
महाराष्ट्र
|
13,600
|
51.61
|
दमन गंगा
|
गुजरात
|
8,700
|
48.70
|
भाखड़ा
|
हिमाचल
|
36,000
|
31
|
मसन जलाशय
|
बिहार
|
3,700
|
31
|
उकई जलाशय
|
गुजरात
|
52,000
|
18.92
|
1950
के बाद से विकास परियोजनाओं के चलते विस्थापित लोग (लाख में)
परियोजना
|
कुल विस्थापित लोग
|
विस्थापन प्रतिशत में
|
पुनर्वास हुआ
|
पुनर्वास प्रतिशत में
|
गैर पुनर्वासित लोग
|
प्रतिशत में
|
विस्थापित जनजाति
|
कुल विस्थापन का प्रतिशत
|
जनजातियों का पुनर्वास
|
प्रतिशत में
|
गैर पुनर्वासित जनजाति
|
प्रतिशत में
|
बाँध
|
164.0
|
77.0
|
41.00
|
25.0
|
123.00
|
75.0
|
63.21
|
38.5
|
15.81
|
25.00
|
47.40
|
75.0
|
खनन
|
25.5
|
12.0
|
6.30
|
24.7
|
19.20
|
75.3
|
13.30
|
52.20
|
3.30
|
25.00
|
10.00
|
75.0
|
उद्योग
|
12.5
|
5.9
|
3.75
|
30.0
|
8.75
|
70.0
|
3.13
|
25.0
|
0.80
|
25.0
|
2.33
|
75.0
|
वन्यजीव
|
6.0
|
2.8
|
1.25
|
20.8
|
4.75
|
79.2
|
4.5
|
75.0
|
1.00
|
22.0
|
3.50
|
78.0
|
अन्य
|
5.0
|
2.3
|
1.5
|
30.0
|
3.50
|
70.0
|
1.25
|
25.0
|
0.25
|
20.2
|
1.00
|
80.0
|
कुल
|
213.0
|
100
|
53.80
|
25.0
|
159.20
|
75.0
|
85.39
|
40.9
|
21.16
|
25.0
|
64.23
|
79.0
|
हमारे देश में विकास के मौजूदा दौर में विस्थापन की समस्या बहुत विकट हो गई
है। एक ओर पहले हुए विस्थापन से त्रस्त लोगों को अभी न्याय नहीं मिल पाया है,
तो दूसरी ओर उससे भी बड़े पैमाने पर किसान और विशेषकर आदिवासी किसान नए सिरे से
विस्थापित हो रहे हैं।
विस्थापन का दंश झेलती महिलाएँ
: विस्थापन की स्थिति में महिलाओं पर अत्याचार और हिंसा बढ़ जाते हैं। हमारे
समाज में आर्थिक तथा सामाजिक सत्ता पुरुषों को हस्तांरित
होती है, महिलाओं की पारंपरिक भूमिका में कोई बदलाव नहीं आता। विस्थापन के
मुआवजे के तौर पर पुरुष को तो नौकरी मिल जाती है लेकिन महिला को पहले की ही
तरह अपने परिवार की देखभाल करनी होती है। पूर्वोत्तर सहित जम्मू-कश्मीर जैसे
राज्यों में महिलाओं को यह महसूस हो गया है कि भारत में विकास के तौर-तरीके
असंतुलित हैं और कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जिनका खनिज, ऊर्जा संसाधन, पर्यटन आदि के
लिए दोहन किया जाएगा ताकि केंद्र सरकार और साम्राज्यवाद समर्थित औद्योगिक गुट
को लाभ मिल सके; कि भारत सरकार उनको स्वायत्तता के किए गए वायदों को भूल गई है
और इसलिए वे अलग होने के लिए लड़ रहे हैं।
विशेष आर्थिक क्षेत्र और विस्थापन :
भारत ने तेज आर्थिक विकास के लिए विशेष आर्थिक क्षेत्रों (SEZs) को बढ़ावा
देने की नीति अपनाई है। वह क्षेत्र जो संसाधन संपन्न हैं, उनकी औद्योगिक
संस्थाओं का उपयोग बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने लाभ के लिए कर लेती हैं। इन
क्षेत्रों के लिए करीब 50,000 हेक्टेयर कृषि भूमि की जरूरत होगी। औद्योगिक,
खनन, सिंचाई और बुनियादी ढाँचे से जुड़ी सभी परियोजनाओं के लिए 1 लाख 49 हजार
हेक्टेयर जमीन की जरूरत होगी। पूरे भारत में कुल 1,50,000 हेक्टेयर जमीन
(राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के बराबर के इलाके) का अधिग्रहण होना है। यह मुख्य
रूप से खेती की और खासकर साल में अनेक फसल पैदा करने वाली जमीन है। इन पर दस
लाख टन अनाज की पैदावार हो सकती है। अगर SEZs को सफल होना है, तो भविष्य में
और भी ज्यादा खेती की जमीन का अधिग्रहण होगा और उससे विस्थापन की समस्या और
देश की खाद्य सुरक्षा खतरे में पड़ेगी। उड़ीसा में बनने वाले अल्युमिनियम
कारखानों के लिए वेदान्त और हिन्डाल्को के प्रस्तावित स्मेल्टर्स एसईजेड में
स्थापित होने वाले हैं। खुल्लमखुल्ला जमीन हड़पने की सबसे ज्यादा घटनाएँ आंध्र
प्रदेश में हो रही हैं, जहाँ सबसे ज्यादा संख्या में SEZs को मंजूरी मिली है।
वहाँ दलितों और आदिवासियों को आवंटित की गई जमीन अब SEZs को दी जा रही है।
पोलेपल्ली, काकीनाडा, चित्तूर और अनंतपुर में ऐसी घटनाएँ देखने को मिली हैं।
विस्थापन का विकास
: मध्यप्रदेश के हरसूद के विस्थापन को मीडिया ने चिंता व जिम्मेदारी से उजागर
किया था जिससे पता चलता है कि सत्ता, नौकरशाह और परिस्थिति के फायदे से
उत्पन्न दलाल किस तरह जनता को गुमराह कर सत्ता के निर्णयों का मूक अनुकर्ता
बनाने की कवायद में लगे रहते हैं। सिर्फ मनुष्य के विकास और उसकी सुविधा के
इंतजाम करना दरअसल एकांगी विचार और मनुष्यता विरोधी मुहिम है। जानवर,
पेड़-पौधे, उर्वर भूमि को नजरंदाज कर आप तथाकथित विकास की नांव कब तक चला
पायेंगे? बाँध की ऊँचाई और अन्य विकासजन्य वजहों के लिए विस्थापन प्रक्रिया की
जल्दबाजी से किसी का विकास हो न हो, विस्थापन का जरूर विकास हो रहा है।
प्रतिरोधी तेवर के रूप में जल सत्याग्रह
: मध्य प्रदेश के खंडवा जिले के घोघलगाँव में नर्मदा नदी के ओंकारेश्वर बाँध
क्षेत्र के डूब प्रभावित किसान (51 पुरुष और महिलाएँ) पिछले दिनों नर्मदा की
पानी में अपना शरीर गलाते हुए प्रतिरोध कर रहे थे और सैकड़ों लोग पानी से बाहर
से उनका साथ दे रहे थे। जल सत्याग्रही मध्य प्रदेश सरकार द्वारा ओंकारेश्वर
बाँध के जलस्तर को 189 मीटर से बढ़ाकर 191 मीटर कर देने पर प्रतिरोध स्वरूप
आंदोलनरत थे क्योंकि उस क्षेत्र में आने वाले किसानों की कई एकड़ उपजाऊ जमीन
डूब क्षेत्र में आ गई। किसानों का कहना है कि सरकार ने अपनी मनमर्जी से बाँध
का जलस्तर बढ़ा दिया है, इसके बदले सरकार द्वारा जो जमीन दी गयी है वह किसी
काम की नहीं है। जल सत्याग्रही का कहना था कि लड़ेंगे, मरेंगे लेकिन जमीन नहीं
छोड़ेंगे, हक लेंगे या जल समाधि दे देंगे। यह आंदोलन 17 दिनों तक चला और सरकार
द्वारा जमीन के बदले जमीन देने और ओंकारेश्वर बाँध के जल स्तर को 189 मीटर पर
नियंत्रित रखने के आदेश के बाद समाप्त हुआ था।
विस्थापन की समस्या पर बात करते समय चार बुनियादी सवाल मन में उभरता है,
जिनके जवाब सरकार को देने चाहिए। पहला, भूमि अधिग्रहण पर तभी बात हो सकती है,
जब जमीन होगी। गौरतलब है कि प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून में भूमिहीनों का
सवाल ही नहीं है, बल्कि सार्वजनिक जमीनों को ही बेचा जा रहा है, जो सामंतों के
कब्ज़े में हैं। दूसरा, सरकार ने जो जमीन अभी तक ली है, उसका क्या किया है।
चूंकि जो जमीनें सार्वजनिक उद्योगों और राष्ट्रहित के लिए अधिग्रहीत की गईं,
उन्हें भी निजी हाथों में बेच दिया गया। तीसरा, राष्ट्रहित के नाम पर देश में
बनाए गए विभिन्न बाँधों से जो करोड़ों लोग विस्थापित हुए, उनकी स्थिति क्या
है। चौथा, क्या यह प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून हमारे संविधान के अनुरूप
जल, जंगल व जमीन के पर्यावरणीय संदर्भ के बारे में ध्यान रखता है? अचंभित करने
वाली बात यह है कि प्रस्तावित भूमि अधिग्रहण कानून की समीक्षा के लिए बनाई गई
संसदीय समिति की सिफारिशों को भी मौजूदा सरकार सिरे से नकार रही है। पिछले दस
वर्षों में लगभग 18 लाख हेक्टेयर कृषि लायक भूमि को गैर कृषि कार्यों में
तबदील किया गया है। और जब तक नया कानून बन नहीं जाता, तब तक पुराने कानूनों के
तहत कृषि एवं जंगलों की भूमि का अधिग्रहण जारी रहेगा, और बड़े औद्योगिक घरानों
द्वारा प्रशासन और राज्य सरकारों से मिलकर भूमि रिकॉर्ड की हेराफेरी कर भूमि
की किस्मों को बदलने का आपराधिक कार्य भी जारी रहेगा। इसलिए समय की माँग है कि
नव उदारवादी नीतियों के खिलाफ आम नागरिक समाज प्रगतिशील ताकत, वाम दल, मजदूर
संगठन आदि प्राकृतिक संपदा को कॉरपोरेट लूट से बचाने के लिए लामबंद हो। आज
मुद्दा पर्यावरणीय न्याय का भी है। अगर पर्यावरणीय न्याय को सामाजिक समानता का
हिस्सा नहीं बनाया जाएगा, तो इससे सबसे ज्यादा नुकसान हमें ही होगा।
औपनिवेशिक ताकतें (पूँजीपति तबके) गरीबों को धरती पर बोझ के समान मानते हैं।
सरकारी अध्ययन बताते हैं कि भारत की 60 प्रतिशत आबादी का देश की कुल भूमि के 5
प्रतिशत पर अधिकार है जबकि 10 प्रतिशत जनसंख्या का 55 फीसदी जमीन पर नियंत्रण
है। इसी प्रकार भारत की सकल घरेलू उत्पाद का 70 फीसदी हिस्सा मात्र 8200 लोगों
के पास एकत्र हो चुका है। इन परिस्थितियों में भूमि और आजीविका के मुद्दे पर
गंभीरता से विचार करना जन-संगठनों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गया है। कुछ
लोगों की जिंदगी के भयावह संकटों से बहुतों की सुविधाओं के रास्ते बनते हैं|
सुविधाओं का निर्णय लेनेवाले और लाभ पानेवाले अक्सर संकटग्रस्त लोगों को
विस्मृत ही करते हैं| जैसे-तैसे चल रहे जीवन की गति अचानक उस समय एक नए चाक पर
घूमने लगती है जब बिना वाजिब इंतजाम के नियत स्थिति से ठेलने की कवायद की जाती
है| अँधेरे को दूर करने, विकास के पथ पर चलने, संसार को अपनी तरक्की का ग्राफ
ऊँचा दिखाने की बिना सुविचारित योजनाओं के हमारे देश में ऐसे निर्णय लिए जाते
हैं जैसे कोई शत्रु विध्वंस का ही कोई नया व्यूह रच रहा हो|
अंत में कहा जा सकता है कि वर्किंग ग्रुप ऑन ह्यूमन राइट्स इन इंडिया एंड यूएन
(डब्ल्यूजीएचआर) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक आजादी के बाद से विकास परियोजनाओं
के चलते देश में छह से साढ़े छह करोड़ लोगों को विस्थापन झेलने पर मजबूर होना
पड़ा है। यानी औसतन हर साल दस लाख लोगों को विस्थापन के रूप में विकास की कीमत
चुकानी पड़ी है। इनके विस्थापन से एक खास वर्ग को तो लाभ मिला, लेकिन घर-बार
उजड़ जाने से इनकी हालत और दयनीय होती गई। ऐसे एकतरफा विकास तो देश को निसंदेह
पीछे ले जाने वाले साबित हो सकते हैं। ऐसे में विस्थापन की इतनी बड़ी कीमत
चुकाकर हासिल होने वाला विकास? हम सबके लिए बड़ा मुद्दा है। अब सवाल यह उठता है
कि क्या तथाकथित विकास विस्थापन के बगैर नहीं हो सकता? क्या बड़े उद्योगों से
ही विकास और खुशहाली का सूर्योदय होगा? और क्या उन वनवासियों और किसानों की
जमीन पर ही विकास का पहिया दौड़ता है, जो सदियों से संपूर्ण आजीविका के साधन
रहे हैं? इन सवालों का जवाब जब तक राज्य और केंद्र सरकार के पास नहीं होगा तब
तक विस्थापन और तथाकथित विकास, एक-दूसरे के विरोधी बने रहेंगे।
संदर्भ
1.http://hindi.indiawaterportal.org/node/47813
2. http://www.mediaforrights.org/reports/hindi-reports/2251
3. http://www.jagran.com/editorial/apnibaat-9353790.html
4. http://www.im4change.org.previewdns.com/hindi
5. Srivastava, Ravi & Sasikumar, S.K. (2003) : An Overview of Migration
in India, its impacts and key issues, Migration Development & Pro-Poor
Policy Choices in Asia.
6. Kundu, Amitabh () : Migration and Urbanisation in India in the Context
of Poverty Alleviation, Refugee and Migratory Movement Research Unit, DFID,
Dhaka, Bangladesh.
7. बहुवचन (सं. ए.अरविंदाक्षन), अंक-28, पृ.11, वर्धा :
म.गा.अं.हिंदी विश्वविद्यालय
8. http://www.sacw.net/IMG/pdf/CITIZENSREPORTONSEZs.pdf