विस्थापन से गाँव रातों-रात गायब हो जाते हैं। कस्बे दिन-दोपहर मरते हैं, बेआवाज। आज़ादी के बाद बड़े बाँधों ने अकेले भारत में ही साढे़ तीन करोड़ लोगों को उजाड़ दिया है। आखिर राष्ट्र को लेकर वह कौन-सी अवधारणा है जो सरकारों को अपने ही देशवासियों को कुचलने की इज़ाजत देती है, 'प्रगति ' व 'राष्ट्रहित' की वह कौन-सी समझ है जो इतने बड़े पैमाने पर लोगों के अधिकारों के उल्लंघन करने की इज़ाजत देती है जिससे वह रोजमर्रा की जिंदगी का एक हिस्सा-सा बन जाते हैं और आँखों से ओझल हो जाते हैं। - अरुंधति राय ' हरसूद, 30 जून ' से
विकास के क्रम में मनुष्य ने जिन उपादानों को विकसित किया था, आधुनिक औद्योगिक विकास ने पिछली तीन शताब्दियों में न सबको समेट कर एक ऐसी दिशा दे दी जिसमें कि सिर्फ शक्तिशाली मनुष्य ही सुकून से रह सकता है। विकास की सीढ़ी चढ़ते मनुष्य ने अपने सामने आई हर वस्तु को अपना दुश्मन समझा और थोड़े से लोगों के आराम व मनोरंजन के निमित्त उसने जंगलों, पहाड़ों को नष्ट किया, जीव-जंतुओं का संहार किया। धरती, आकाश व समुद्र तक को इस हद तक प्रदूषित कर डाला है कि अब उनके पूर्व स्थिति में आने की संभावनाएँ नित्य प्रति धूमिल होती जा रही है। विकास की इस अंधी दौड़ में हमने भस्मासुर को अपना लिया और अपने ही विनाश में लग गए।
1947 और 2004 के बीच लगभग 6 करोड़ लोग विस्थापित हुए जिनमें 40 फीसदी आदिवासी और 20 फीसदी अनुसूचित जातियों के थे। इन विस्थापित लोगों में से 18 से भी कम फीसदी का पुनर्वास हुआ। बाँध, कारखानों, रेल, हवाई जहाज, औद्योगिक क्षेत्र, शहरी बसाहट, सुरक्षित वन, बाघ अभ्यारण्य, सड़क निर्माण, परमाणु एवं ताप विद्युतगृह, खेल के स्टेडियम से लेकर श्मशान बनाने तक के लिए एक मोटे अनुमान के अनुसार आज़ादी के बाद से करीब 10 करोड़ नागरिक विस्थापित हुए हैं। विस्थापन ने लाखों स्वतंत्र उत्पादकों को धनविहीन श्रमिकों में तबदील कर दिया। पुस्तैनी घर को उजरते देखना भयावह मंजर जैसा होता है। सरकार कहती है कि हम विस्थापितों को आश्रय दे रहे हैं पर उसे क्या पता कि, जिस पेड़-पौधों को पुत्र के जैसा पाला-पोषा है उसका क्या, जिन पक्षियों की कोलाहल से सुबह-शाम होती, क्या पुनर्वास के जगह पर वह मिल पाएगा, क्या भावनाओं को किसी पैसे की तराजू पर तौला जा सकता है. या यों कहें कि विकास के लिए लोगों के दर्द को क्या किसी रिक्टर पैमाने पर मापा जा सकता है।
पश्चिमी देशों द्वारा तथाकथित आधुनिक सुनियोजित विकास ने अपनी परिधि में पूरी दुनिया को समेट लिया। यूरोप को अपने कल-कारखानों के लिए कच्चे माल की आवश्यकता थी अतएव सारी दुनिया की खनिज संपदा पर उनकी निगाह पड़ी। इस तरह जमीन के नीचे दबे खनिजों को बड़े पैमाने पर निकालने के लिए उन पर बसे आदिवासियों को खदेड़ने की जो शुरुआत तीन शताब्दियों पूर्व हुई थी वह आज भी निरंतर जारी है। सिर्फ नाम बदल गए हैं पहले उनमें से एक ईस्ट इंडिया कंपनी थी, अब वेदांता है और यह अजीब सा दुर्योग है कि दोनों के मुख्यालय लंदन में ही हैं।
अध्ययन के दौरान पाया कि वेदांता जो उड़ीसा की नियमगिरि पहाड़ी से एल्यूमिनियम निकालने के लिए एक पैर पर खड़ी है और कुछ हिस्सों में उसने यह कार्य आरंभ भी कर दिया है, में निवास करने वाली व विस्थापन की विभीषिका झेलने वाली डोंगरिया कोंध जनजाति के कृष्णा वडाका का कथन सचमुच में आँखे खोल देता है। कृष्णा का कहना है, 'वे (वेदांता) कहते हैं कि हमारी नियमगिरि पहाड़ियों की चट्टानों में एल्यूमिनियम नाम का बहुत मूल्यवान खनिज है। मेरे पूर्वजों ने कभी इसकी परवाह नहीं की। क्योंकि जब हमारे देवता 'नियमराजा' ने हमें जमीन के ऊपर सब कुछ दे रखा है तो हम अपने पैरों के नीचे की जमीन से कुछ भी निकाल कर क्यों खाएँ? क्या एल्यूमिनियम हमारे जीवन, हमारी पहाड़ियों और हमारे जंगलों से भी अधिक महत्वपूर्ण है? वे कहते हैं कि एक युद्ध लड़ा जाएगा, बहुत बड़ा युद्ध। इसके लिए बहुत सारे हथियारों की आवश्यकता पड़ेगी। एल्यूमिनियम ऐसी धातु है जिससे ऐसे हथियार बनाए जाएँगे जो लाखों लोगों को मार सकते हैं। वे लाखों लोगों को क्यों मरना चाहते हैं? क्या वे हम लोगों जैसे बैठकर आपस में निपटारा नहीं कर सकते? कृष्णा का दर्द पूरी मानवता का दर्द है और उसका प्रश्न किसी एक व्यक्ति से नहीं बल्कि पूरी आधुनिक विकास प्रणाली से है।
गौरतलब है कि लोगों को उनके संसाधनों से अलग करने की प्रक्रिया औपनिवेशिक काल में ही शुरू हो गई थी और 1947 के बाद योजनाबद्ध विकास में यह और भी ज्यादा बढ़ी। आजादी के बाद होने वाले विस्थापन की जड़ें दरअसल आजादी के पहले से जारी प्रक्रिया से जुड़ी हुई है, खासतौर पर भूमि अधिग्रहण कानून 1894 (एलएक्यू) से। यह राज्य को अधिकार देता है कि वह लोगों से बिना पूछे उन्हें उनकी जमीन से विस्थापित कर दे। लेकिन इस कानून के लागू होने के सौ साल बाद भी आज तक यह परिभाषित नहीं हो पाया है कि जिस जनहित के नाम पर लोगों को बेदखल किया जाता है वह जनहित आखिर है क्या। यही वजह है कि विस्थापन की प्रक्रिया आज भी उसी तरह बदस्तूर जारी है जिस तरह 1947 से पहले के दौर में होती थी, इसका कारण यह है कि आज भी विकास के प्रतिमानों में कोई बदलाव नहीं आया है। यही नहीं, विस्थापन और अभाव की प्रकृति में भी बदलाव आया, पहले महज प्रक्रिया आधारित दखल से बढ़कर यह भूमि और उनकी आजीविका के सीधे नुकसान तक पहुँच गई। धीरे-धीरे इसकी तीव्रता बढ़ी लेकिन जागरूकता और पुनर्वास दोनों ही क्षेत्रों में कमजोरी रही। इसका मुख्य कारण यह है कि विकास के प्रतिमान औपनिवेशिक देशों से लिए गए और स्वतंत्र भारत के निर्णयकारी लोगों द्वारा जस के तस लागू कर दिए गए। योजनकारों ने सारे अहम निर्णय 'राष्ट्र निर्माण' के सिद्धांत के आधार पर लिए। इसमें यह माना गया कि कुछ लोगों को विकास की कीमत जरूर चुकानी होगी लेकिन यह इस मायने में लाभप्रद भी होगा कि विकास के फायदे सभी तक पहुँच जाएँगें। जब विकास के फायदे बहुसंख्यक तक पहुँचने में नाकाम रहे तो यह नजरिया बदलकर 'राष्ट्रीय विकास' का हो गया। जवाहरलाल नेहरू तथा पीसी महलनोबिस सरीखे लोग जिन्हें देश की मिश्रित अर्थव्यवस्था के पीछे का मुख्य दिमाग माना जाता है, ने भारत की समस्याओं के निदान के लिए तकनीक को ही मुख्य समाधान के तौर पर लिया। 'भारत एक खोज' में नेहरू इस बात पर जोर देते हैं कि औद्योगिकीकरण एक लोकतांत्रिक ढाँचे के तहत ही किया जाए। इसमें साम्यवादी तानाशाही और पूँजीवादी शोषण के लिए कोई जगह नहीं होनी चाहिए। ऐसा करने के लिए भारत को उसके अंधविश्वासों और रूढ़िवादी से बाहर निकलना होगा, परंपराएँ बदलनी होंगी और खुद को आधुनिक बनाना होगा। इसी विचारधारा ने उन्हें बड़े बाँधों और उद्योगों को आधुनिक भारत के तीर्थ घोषित करने के लिए प्रेरित किया। आधुनिकीकरण के नाम पर पूँजीपतियों ने अपना निवेश किया और यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए जोर आजमाई। बहुत ही कम लोग, जैसे महात्मा गांधी (1948) ने महसूस किया था कि उपनिवेशवादी देश अपने उपनिवेशों का शोषण कर अमीर बनते जा रहे हैं। इसी वजह से महात्मा गांधी ने स्वतंत्र भारत को पश्चिमी राह का अंधानुकरण करने से आगाह किया था। उन्होंने औद्योगिकीकरण का नहीं, उद्योगवाद का विरोध किया था। वे ऐसे विकास के विरोधी थे जो उस तकनीक और उपभोग की राह पर चलता था जो बहुमत की पहुँच से बहुत दूर था। इंग्लैंड सरीखे छोटे से देश ने दुनिया के आधे देशों को महज इसलिए वंचित बना रखा था ताकि उसके नागरिक अमीरों की तरह जी सकें। यहाँ हमें यह कहने में गुरेज नहीं कि, पूँजीपति तबका गरीबों को धरती पर बोझ के समान समझते हैं और वे मानते हैं कि नैसर्गिक संसाधनों पर उनका मालिकाना हक हो। एक सरकारी अध्ययन के अनुसार भारत की 60 प्रतिशत आबादी का देश की कुल भूमि के 5 प्रतिशत पर अधिकार है जबकि 10 प्रतिशत जनसंख्या का 55 फीसदी जमीन पर नियंत्रण है। इसी प्रकार भारत की सकल घरेलू उत्पाद का 70 फीसदी हिस्सा मात्र 8200 लोगों के पास एकत्र हो चुका है। इन परिस्थितियों में भूमि और आजीविका के मुद्दे पर गंभीरता से विचार करना जन-संगठनों के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण हो गया है।
प्रश्न उठता है कि विस्थापन करते समय उनके जीविकोपार्जन के विकल्प की तलाश क्यों नहीं की जाती? समतामूलक समाज के नाम पर किए जा रहे तथाकथित विकास के मॉडल में आखिर क्या खामी रह जाती है कि विस्थापित लोग बद से बदतर जिंदगी गुजारने को विवश हो जाते हैं? क्या यह सच नहीं है कि आज से नैसर्गिक संसाधनों को लूटने की होड़ लगी है, 'प्रभु देश' येन-केन-प्रकारेण हमारे संसाधनों पर कब्जा करने की साजिश में लगे हैं। आज विस्थापन ऐसे राज्यों (झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा आदि) से हो रहे हैं, जहाँ कि नैसर्गिक संसाधन बहुतायत में है। उड़ीशा, छत्तीसगढ़ और झारखंड में देश के कोयला-भंडार का 70 प्रतिशत हिस्सा मौजूद है। देश के लौह-अयस्क का 80% हिस्सा, बॉक्साइट का 60% तथा क्रोमाइट का तकरीबन 100% हिस्सा इन्हीं तीन राज्यों में है। अरुंधती रॉय आउटलुक में मिस्टर चिदंबरम वार लेख में लिखती हैं, झारखंड और उड़ीसा आदि की पहाडि़यों में जितनी बाक्साइट भरी पड़ी है, उसकी कीमत आँकी जाए तो उसमें 12 शून्य आता है। वह पूछती हैं, इसके क्या मायने हैं, कहती हैं, झारखंड में पिछले दिनों मधु कोड़ा की अवैध 4,500 करोड़ की संपत्ति का मामला काफी गरमाया था। झारखंड खनिजों का भंडार है। वहाँ भी आदिवासी हैं। वहाँ भी सरकार 'विकास' कर रही है और माओवादी तो वहाँ हैं ही। जाहिर है, जो पैसे मधु कोड़ा एंड कंपनी ने कमाए, वे खनिज और कोयले से ही आए हैं। कंपनियों की जहाँ तक बात है, आर्सेलर मित्तल-जिंदल से लेकर कौन है,जो झारखंड में मौजूद नहीं। यानी, खनिज, आदिवासी, माओवाद,धन, विकास, जंगल, जमीन, निजी पूँजी, आतंरिक सुरक्षा - ये तमाम शब्द दरअसल एक ही संदर्भ से ताल्लुक रखते हैं, जो एक ही किस्म के भौगोलिक परिक्षेत्रों पर लागू होते हैं। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी लोककल्याणकारी राज्य में आज भी औपनिवेशिक शक्तियों द्वारा कुटिल नीति के तहत देश में विकास के नाम पर लोगों को उनकी आजीविका से वंचित किया जा रहा है, वे हाशिए पर धकेले जा रहे हैं और उनकी विपन्नता बढ़ती ही जा रही है। यह मुद्दा पश्चिम बंगाल के सिंगूर व नंदीग्राम, उड़ीशा के नियामगिरि और काशीपुर, उत्तर प्रदेश व हरियाणा में हाइवे के खिलाफ जनांदोलन, मैंगलोर व नवी मुंबई में सेज के खिलाफ आंदोलन व ऐसे ही अन्य जन संघर्षों के चलते राष्ट्रीय स्तर पर उभरा है। ऐसे आंदोलनों ने कानूनों, निर्णय प्रक्रिया व ऐसी ही अन्य गलत प्रक्रियाओं पर सवाल खड़े किए हैं।
मध्य प्रदेश के हरसूद के विस्थापन को मीडिया ने चिन्ता व जिम्मेदारी से उजागर किया था जिससे पता चलता है कि सत्ता, नौकरशाह और परिस्थिति के फायदे से उतपन्न दलाल किस तरह जनता को गुमराह कर सत्ता के निर्णयों का मूक अनुकर्ता बनाने की कवायद में लगे रहते हैं| सिर्फ मनुष्य के विकास और उसकी सुविधा के इंतजाम करना दरअसल एकांगी विचार और मनुष्यता विरोधी मुहिम है| जानवर, पेड़-पौधे, उर्वर भूमि को नजरंदाज कर आप तथाकथित विकास की नाँव कब तक चला पाएँगे? बाँध की ऊँचाई और अन्य विकासजन्य वजहों के लिए विस्थापन प्रक्रिया की जल्दबाजी से किसी का विकास हो न हो, विस्थापन का जरूर विकास हो रहा है|
ऐसे में हमें सोचने की जरूरत है कि क्या तथाकथित विकास विस्थापन के बगैर नहीं हो सकता? क्या बड़े उद्योगों से ही विकास और खुशहाली का सूर्योदय होगा? और क्या उन वनवासियों और किसानों की जमीन पर ही विकास का पहिया दौड़ेगा, जो सदियों से संपूर्ण आजीविका के साधन रहे हैं? इन सवालों का जवाब जब तक राज्य और केंद्र सरकार के पास नहीं होगा तब तक विस्थापन और तथाकथित विकास, एक-दूसरे के विरोधी बने रहेंगे।
संदर्भ (References):
1. http://hindi.indiawaterportal.org/node/47813
2. http://hindi.indiawaterportal.org/node/46090
3. http://gadyakosh.org/index.php?title=विकास
, _विस्थापन_और_आदिवासी_/_संजय_कृष्ण&oldid-28136