'मेरा जीवन ही मेरा संदेश है', उक्ति को चरितार्थ करने वाले मोहनदास करमचंद
गांधी को महात्मा की संज्ञा दी गई और हम इन्हें राजनीतिज्ञ, समाज सुधारक,
संपादक आदि रूपों में जानते हैं। मीमांसकों और तत्व चिंतकों ने उन्हें
'प्रेगमैटिक फिलॉसफर' कहा। संचार सुविधा को लैपटाप में बंद करने वाले लोग शायद
गांधी को रुपये में कैद समझते हैं तथा उन्हें वैज्ञानिक के रूप में स्वीकार
नहीं करेंगे; किंतु उनके द्वारा चरखे का प्रयोग, पानी संग्रहण का तरीका, सफाई,
पर्यावरण प्रदूषण से निजात दिलाने के नुस्खे आदि उनके वैज्ञानिक सोच को
दर्शाती हैं। गांधी मूल रूप से पर्यावरणीय व्यावहारिक वैज्ञानिक थे।
गांधी और पर्यावरण पर विमर्श करते समय हमें यह बात जान लेनी पड़ेगी कि उनके
चिंतन या लेखन में 'पर्यावरण' शब्द का प्रयोग नहीं के बराबर मिलता है। इतना ही
नहीं, सच तो यह है कि प्राचीन काल से चले आ रहे हमारे संस्कृति-बोध या भारतीय
साहित्य-लेखन में भी यह शब्द नहीं मिलता। यह शब्द तो अँग्रेजी के
'एनवायरेंटमेंट' शब्द के हिंदी अनुवाद के रूप में पिछले चार-पाँच दशकों से
हमारे यहाँ प्रचलन में आया है। भारतीय चिंतन की प्रकृति प्रेमी प्रवृत्ति हमें
गांधी के चिंतन में दिखाई पड़ती है।
वर्तमान परिदृश्य में समूचा विश्व, चाहे वह समृद्ध 'उत्तर' हो या विकासशील
'दक्षिण' एक अंधी दौड़ में लगा हुआ है। विश्व के मानचित्र पर एक-दूसरे से
अनजान, दो अलग प्रकार की दौड़ हो रही है। एक दौड़ में वे लोग शामिल हैं जो
संपन्न हैं, पर कुछ और पाने की लालसा में लगे हैं। दूसरी दौड़ में वे लोग
हैं, जो दो जून की रोटी के लिए, अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए जद्दोजहद
कर रहे हैं। ऐसे में लोगों के लिए, गांधीजी के विचारों- 'स्वराज' और 'अहिंसा'
का महत्त्व बढ़ जाता है। आज वैश्वीकरण के तहत हम भोगवादी सभ्यता के करीब आते
जा रहे हैं और विज्ञापनी दुनिया की चकाचौंध में चौधियाँ गए हैं। अत्यधिक
उपभोग की अवधारणा के तहत हम पृथ्वी की पारिस्थितिकी और पर्यावरण के विनाश के
कगार पर आ खड़े हुए हैं। पर्यावरण का संकट विविध रूपों में हमारे अस्तित्व के
लिए सर्वाधिक महत्व का बन गया है।
आज की विकास प्रणाली में मशीन को मानव से, सीमेंटीकरण को पर्यावरण से और
औद्योगीकरण को प्रकृति के विनाश से ज्यादा महत्त्व दिया जा रहा है। इस तरह
विकास का मॉडल अपनाया जा रहा है, जो न सिर्फ प्रकृति विरोधी है बल्कि मानव
विरोधी भी, जिसमें प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्ण दोहन नहीं, नृशंस विनाश
किया जा रहा है। शोषण युक्त समाज का चलन बदस्तूर जारी है। शोषणमुक्त समाज
में पारिस्थितिक संतुलन बनाए रखने की क्षमता गैरबराबर समाज से अधिक होती है,
गैरबराबरी से ही दिखावे के लिए खर्च जरूरी हो जाता है। पूँजीवादी ताकतें बखूबी
जानती हैं कि कैसे बेजरूरी वस्तुओं के लिए आवश्यकताओं को पैदा किया जाए।
आवश्यकताओं की पूर्ति करने में ही हमने प्रकृति को निशाना बनाया। आँकड़े
बताते हैं कि भारत का हरित क्षेत्र चिंताजनक स्थिति तक गिर चुका है। पर्वतों
को डायनामाइट से उड़ाया जा रहा है। जो पर्वत लाखों साल में बने, उन्हें कुछ
महीनों में धूल-धूसरित किया किया जा रहा है। भू-जल का दोहन अविवेकपूर्ण तरीके
से किया जा रहा है। नतीजतन देश के हर हिस्से में पानी का संकट बढ़ता जा रहा
है। पर्यावरण के मुद्दे पर नीति और कार्यक्रम भी बनते हैं और लोगों में जागृति
भी फैलाई जाती है पर पर्यावरण के विनाश को रोकने का कोई कारगर प्रयास नहीं
किया जाता। प्राकृतिक संसाधन जल, जंगल और जमीन को बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने
मुनाफा का बाजार बना दिया है और आम लोगों से इसके हक छीनने की पुरजोर कोशिश की
जा रही है। गांधी की समावेशी विकास की अवधारणा को लोगों ने भुला दिया है।
वर्तमान विकास मॉडल के फलस्वरूप पूरे देश में साढ़े छह करोड़ लोग विभिन्न
विकास परियोजनाओं से विस्थापित हो चुके हैं। 24 करोड़ लोग भूमिहीन हैं और देश
के विविध भागों में किसान अपनी जमीन को बचाने को संघर्ष कर रहे हैं। पर्यावरण
के प्रति असंवदनशील होकर हम अपने लिए और आने वाली पीढ़ी के लिए क्रमशः कब्र
खोदते जा रहे हैं।
बेमौसम बारिश, कड़ाके की सर्दी और गर्मी की तपन से लोगों की मौत इस बात को
दर्शाती है कि पर्यावरण असंतुलन के कारण उत्पन्न खतरे से भूमंडल कितना
भयाक्रांत है, आज ग्लोब पर आतंकवाद से भी बड़ी समस्या जलवायु
परिवर्तन/ग्लोबल वार्मिंग है जिससे दुनिया चिंतित है। समाजवादी चिंतक
सच्चिदानंद सिन्हा कहते हैं कि ''ऊर्जा संकट और पर्यावरण के प्रभाव पर ई.एम.
शुमाखर के 'स्मॉल इज ब्यूटीफूल' और क्लब और रोम के अध्ययन 'द लिमिट्स ऑफ
ग्रोथ' के प्रकाशन के उपरांत ही पिछली शताब्दी में ही जलवायु परिवर्तन पर
चर्चा होने लगी पर 1992 में ब्राजील के रियोडीजेनेरो में संपन्न शिखर
सम्मेलन के उपरांत 1994 में क्योटो प्रोटोकॉल के द्वारा तय हुआ कि औद्योगिक
देश ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन घटा देंगे। दुनिया के ताकतवर राष्ट्र
अमेरिका ने इसपर अपनी सहमति नहीं दी। कार्बन-डाइ-ऑक्साइड का उत्सर्जन 1990
में 22.7 अरब टन था। क्योटो प्रोटोकॉल में इसे घटाकर 21.5 अरब टन करने का
लक्ष्य था लेकिन 2010 में यह बढ़कर 33 अरब टन हो गया। यानी घटने की बजाय डेढ़
गुणा बढ़ गया।'' दरअसल, औद्योगिक प्रगति के उन्माद में प्रदूषण फैलाने वाले
गैसों के उत्सर्जन को कम करने के लक्ष्य को सदा से ही नजरअंदाज किया गया।
यहाँ यह कहना समीचीन होगा कि पर्यावरण की रक्षा से पश्चिमी देशों के पीछे हटने
का मूल कारण है उत्तरी ध्रुव प्रदेश में बर्फ पिघलने से संसाधनों और यातायात
का मार्ग खुलेगा। अमेरिका और उत्तरी शीत कटिबंध में पड़ने वाले यूरोप के कुछ
संपन्न देश ध्रुव प्रदेश में बर्फ के पिघलने से खनिजों और प्राकृतिक गैसों का
नया खजाना हासिल करने की संभावना में लगे हैं इतना ही नहीं रूस सहित दूसरे देश
इस क्षेत्र में अपनी सामरिक उपस्थिति को बढ़ाने में लगे हैं। '2010 के अगस्त
महीने में रूस की एक प्राकृतिक गैस कंपनी 'नोवोटेक' ने एक लाख चौहत्तर हजार टन
के एक टैंकर 'बाल्टिका' को उतरी ध्रुव प्रदेश के सागर के रास्ते चीन भेजा।
उनका अनुमान है कि इस मार्ग के खुल जाने से यूरोपीय देशों के लिए एक छोटा और
सस्ता व्यापारिक मार्ग खुलेगा जो प्रायः शीत कटिबंधों से होकर गुजरेगा। यह पथ
मुरमास्क से शंघाई तक 10,600 कि.मी. लंबा है, जबकि स्वेज से होकर वहाँ पहुँचने
का मार्ग 17,700 कि.मी. है। उत्तरी मार्ग के खुल जाने से कनाडा, अमेरिका,
यूरोप के सभी देश चीन, जापान आदि भी यानी वे सभी देश जो आधुनिक व्यापार की
दृष्टि से महत्वपूर्ण है तात्कालिक रूप से ग्लोबल वार्मिंग से लाभान्वित
होंगे। आर्कटिक प्रदेश में खनिजों का विशाल भंडार होने का अंदाज है और इसलिए
आर्कटिक के पास के देशों यथा - रूस, नार्वे, डेनमार्क, कनाडा, अमेरिका आदि में
अभी ही इन खनिजों पर अधिकार जमाने के लिए राजनयिक होड़ शुरू हो गई है। उत्तर और
दक्षिण का जो विभाजन पहले ही से उजागर होता आया है अब अधिक गहराएगा और उत्तर
और दक्षिण के देश विकास की एक ही दिशा में आगे और पीछे, धीमे और तेज चलने वाले
नहीं रह पाएँगे। तथाकथित विकासशील देशों को बिल्कुल अलग राह अपनाने की मजबूरी
होगी। शीत और समशीतोष्ण कटिबंधों के देश नए संसाधनों के चुकने तक इस अंधी दौड़
में ही रहेंगे। एक अर्थ में फिलहाल ऊँचे अक्षांशों में बसे देश एक ही तरह की
'एस्कॉर्च्ड अर्थ पॉलिसी' में संलग्न हैं और बाकी दुनिया को जलता छोड़ शीतल
प्रदेशों की ओर पलायन की मुद्रा में हैं जहाँ से वे अपनी जरूरत के हिसाब से
बाकी जगहों पर पाँव पसारते रहेंगे। हम वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों के
उत्सर्जन और प्रदूषण पर कोई रोक नहीं लगा सकते और एक हद तक उससे प्रभावित होते
रहेंगे। लेकिन भारत और तथाकथित विकासशील देश अपने लिए एक अलग राह की तलाश तो
कर ही सकते हैं जो प्रकृति पर विजय पाने के बजाय प्राकृतिक शक्तियों और परिवेश
से सहयोग और प्रकृतिप्रदत्त जीवन की लय से जोड़ कर चलने के संकल्प पर आधारित
हो।' (सिन्हा, सच्चिदानंद, 2012) यहाँ यह कहना समीचीन होगा कि धरती के संसाधन
- चाहे वे कच्चे उद्भिज पदार्थ हों, खनिज हों या ऊर्जा देने वाले कोयला,
पेट्रोलियम या प्राकृतिक गैंसों के अतिदोहन से कुछ दिनों के बाद संकट
उत्पन्न होगा। पर्यावरण चिंतक बालसुब्रमण्यम अपने एक आलेख में कहते हैं कि
'कारखानों, बिजलीघरों और मोटरवाहनों में खनिज ईंधनों (डीजल, पेट्रोल, कोयला
आदि) का अंधाधुंध प्रयोग होता है। इनको जलाने पर कार्बन-डाइ-आक्साइड, मीथेन,
नाइट्रस आक्साइड आदि गैसें निकलती हैं। इन गैसों के चलते हरितगृह प्रभाव नामक
वायुमंडलीय प्रक्रिया को बल मिलता है, जो पृथ्वी के तापमान में वृद्धि करता
है' यही कारण है कि पृथ्वी इतनी गर्म हो गई है जितनी पहले कभी नहीं थी। तापमान
में परिवर्तन से मौसम में अवांछनीय बदलाव देखने को मिल रहे हैं - मानसून का
समय पर न आना, असमय बारिश, बेतहाश गर्मी पड़ना आदि। हमें यह जान लेना चाहिए कि
औद्योगिक गतिविधियों से क्लोरोफ्लोरोकार्बन (सीएफसी) नामक मानव-निर्मित गैस का
उत्सर्जन होता है जो उच्च वायुमंडल के ओजोन परत को नुकसान पहुँचाती है। यह परत
सूर्य के खतरनाक पराबैंगनी विकिरणों से हमें बचाती है। क्लोरो फ्लोरो कार्बन
(सीएफसी) हरितगृह प्रभाव में भी योगदान करते हैं। इन गैसों के उत्सर्जन से
पृथ्वी के वायुमंडल का तापमान लगातार बढ़ रहा है। साथ ही समुद्र का तापमान भी
बढ़ने लगा है। बालसुब्रमण्यम ने लिखा है कि 'पिछले सौ सालों में वायुमंडल का
तापमान 3 से 6 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है।' ग्लेशियर और ध्रुवों पर मौजूद बर्फ
पिघल रही है। अनुमान लगाया गया है कि इससे समुद्र का जल एक से तीन मिमी
प्रतिवर्ष की दर से बढ़ेगा। अगर समुद्र का जलस्तर दो मीटर बढ़ गया तो मालद्वीप
और बंग्लादेश जैसे निचाईवाले देश डूब जाएँगे। अपने देश के कई इलाके इसकी चपेट
में आ जाएँगें। इसके अलावा मौसम में बदलाव आ सकता है - कुछ क्षेत्रों में सूखा
पड़ेगा तो कुछ जगहों पर तूफान आएगा और कहीं भारी वर्षा होगी। प्रदूषक गैसें
मनुष्य और जीवधारियों में अनेक जानलेवा बीमारियों का कारण बन सकती हैं। एक शोध
अध्ययन के अनुसार वायु प्रदूषण से केवल 36 शहरों में प्रतिवर्ष 51,779 लोगों
की अकाल मृत्यु हो जाती है। कोलकाता, कानपुर तथा हैदराबाद में वायु प्रदूषण से
होने वाली मृत्युदर पिछले 3-4 सालों में दुगुनी हो गई है। एक अनुमान के
मुताबिक हमारे देश में प्रदूषण के कारण हर दिन करीब 150 लोग मरते हैं और
सैकड़ों लोगों को फेफड़े और हृदय की जानलेवा बीमारियाँ हो जाती हैं।
दुनिया ने विकास की गति के जिस रफ्तार को पकड़ा है उस रफ्तार से पीछे आना संभव
नहीं है। इसलिए पर्यावरण और विकास के मौलिक अवधारणा का अंतर्द्वंद्व अब स्पष्ट
रूप से सामने प्रस्तुत है। आज संपूर्ण उद्योग धंधों का विस्तार प्राकृतिक
संसाधनों के दोहन पर टिका है। विकास के इस मॉडल के कारण दुनिया के सामने
ग्लोबल वार्मिंग की समस्या खड़ी हो गई है। नासा के गोडार्ड इंस्टीट्यूट फॉर
स्पेश स्टडीज के निदेशक एवं जलवायु वैज्ञानिक जेम्स हैंसन का मानना है कि
भूमंडलीय ताप वृद्वि के संदर्भ में राष्ट्रों द्वारा तय की गई अधिकतम औसत दो
डिग्री सेंटीग्रेट की सीमा भूमंडलीय ताप वृद्धि के विनाशकारी प्रभावों को नहीं
रोक पाएगी। अतितीव्र गति से जनसंख्या वृद्धि के कारण तथा नई औद्योगिक
परियोजनाओं के लिए जंगलों को काटा जा रहा है। औद्योगीकरण की वर्तमान प्रक्रिया
के पूर्व भी कृषि योग्य भूमि का क्षेत्रफल बढ़ाने के लिए सदियों से वनों को
काटा जाता रहा है लेकिन अब यह कटान खतरनाक स्तर पर पहुँच गई है। इससे साबित
होता है कि इंसान की प्रकृति पर किसी भी तरह से निर्भरता उसे नकारात्मक रूप
में प्रभावित करने वाली है।
वैश्वीकरण के नाम पर अविकसित व विकासशील देशों में भी प्राकृतिक संसाधनों की
किल्लत होने लगी है। पर्यावरणीय प्रदूषण से उत्पन्न खतरे मनुष्य निर्मित हैं।
विकसित देशों में प्रदूषण न फैलने के लिए रासायनिक उद्योगों को न लगाए जाने की
हिदायत दी गई है। विकसित देश, अविकसित तथा विकासशील देशों में हथियार और
परमाणु ऊर्जा बेच रहे हैं। वे (पश्चिमी देश) तो जीवाश्म ईधनों का इस्तेमाल
करने लगे हैं - चाहे वह गाड़ियों में हो या फ्रीज, एयरकंडीशनर में। प्राकृतिक
संसाधनों पर कब्जा करने के उद्देश्य से वे दुनिया में लड़ाइयाँ लड़वा रहे हैं।
उन्होंने पानी तक का निजीकरण करवा दिया है। एक ओर वे अविकसित और विकासशील
देशों के पानी पर कब्जा कर लेना चाहते हैं दूसरी ओर वे 'सर्विस इंडस्ट्री' के
नाम पर जमीनों को भी हथियाना चाहते हैं।
आज विज्ञान और तकनीक के माध्यम से इंसानी जीवन की बेहतरी के बहाने विकास का जो
ताना-बाना बुना जा रहा है, दुर्भाग्य से उसका सबसे बुरा असर मानव सभ्यता की
मेरुदंड प्रकृति पर ही पड़ रहा है। सूचना तकनीक के मौजूदा दौर में दुनिया
ई-कचरे के ढ़ेर में तब्दील होता जा रहा है। जो पर्यावरण को लंबे समय तक और
गहरे तक प्रदूषित करने वाला है। यह ई-कचरा अक्षरणीय प्रदूषक है। लेकिन यह
चुनौतियाँ ऐसी हैं जो केवल मौजूदा व्यवस्था के साथ नहीं जुड़ी हैं। मसलन क्या
बाजार आधारित व्यवस्था खत्म होने से पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने वाले ई-कचरे
का निस्तारण हो जाएगा या यह पैदा ही नहीं होगा? यदि इससे निबटने के लिए हम
मोबाइल या अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का इस्तेमाल बंद कर देंगे तो क्या
पॉलीथीन या प्लास्टिक के अन्य कचरों की एक अन्य पर्यावरणीय समस्या खत्म हो
जाएगी। पर्यावरण हितैषी कल्पना करते हैं कि प्लास्टिक का प्रयोग बंद हो जाए और
फर्नीचर प्लास्टिक के बजाय लड़कियों का बनाया जाए तो क्या ऐसे में वनों पर
निर्भरता बढ़ नहीं जाएगी। यहीं पर मानवीय चेतना की भूमिका है जो मौजूदा
व्यवस्था में भी और बाजार से इतर ढाँचे में भी महत्वपूर्ण हो जाती है।
मानवशास्त्री जूलीइन स्टीवर्ट ने सांस्कृतिक विकास की चर्चा करते हुए कहा
है कि विकास का पैमाना यही होगा कि प्रति व्यक्ति ऊर्जा कितनी खपत करता है।
साथ ही, समाज में प्रति व्यक्ति के वेस्टेज से उसके विकास का आकलन किया
जाएगा। आज अपार्टमेंट कल्चर में हम इलेक्ट्रॉनिक्स सामान खरीदते चले जाते
हैं। इसके कई कारण हैं यथा : नए मॉडल का बाजार में आ जाना या फिर ऑफर मिलना।
चूँकि वेस्टेज को खपाने में इतनी दिक्कतें आ रही हैं, पृथ्वी सहन नहीं कर
पा रही है। विकसित देशों का मानना है कि तीसरी दुनिया के लोग पृथ्वी पर भार
के समान हैं। चूँकि विकसित देशों के लोग टेक्नोलोजिकली समृद्ध हैं अतएव उनका
कहना है कि लाइफ बोट में उतने ही लोग सवार हों जितने कि पृथ्वी सहन कर सकें।
पाकिस्तानी अर्थशास्त्री प्रो. नरिबुड हक का विकसित देशों के द्वारा पृथ्वी
पर कचरा फैलाने के संदर्भ में कहना है कि पहले उस लाइफ बोट से आप उतरिये
क्योंकि आप ही पृथ्वी पर सबसे ज्यादा कचरा फेंकते हैं। यहाँ यह कहना समीचीन
होगा कि दुनिया के 70 करोड़ धनाढ्य लोग (जो विश्व आबादी का दस प्रतिशत है)
सबसे ज्यादा प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग करते हैं। दुनिया के सबसे गरीब 40
प्रतिशत लोग विश्व के प्राकृतिक संसाधनों का पाँच प्रतिशत से भी कम उपयोग
करते हैं। इतना ही नहीं सबसे गरीब 20 प्रतिशत लोग दो प्रतिशत से भी कम
प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर पाते हैं।
भोगवादी सभ्यता यानी विकसित देशों के विकास का मॉडल यही रहा तो 27 पृथ्वियाँ
और लगेंगी। ऐसी स्थिति में गांधी के विकास मॉडल की सार्थकता पर हमें ध्यान
देने की जरूरत है। गांधी कहते हैं कि हमारी वसुंधरा सबका भरण-पोषण कर सकती
हैं, इसमें इतनी क्षमता है, लेकिन एक लोभी का भरण-पोषण करने में यह असमर्थ है।
इसके लिए आनेवाली पीढ़ियों के लिए नैसर्गिक संसाधनों को बचाकर रखने के लिए हमें
कुछ बचाना होगा। गांधी ने परिवर्तन की तुलना में स्थिरता को प्राथमिकता दी।
गांधी प्रयोगवादी वैज्ञानिक थे इसलिए वे संयम की बात पर बल देते हुए कहते हैं
कि हमें प्रकृति से उतना ही लेना चाहिए जितना कि हम उसे लौटा सकें। गांधी
इलाहाबाद में नेहरू के घर ठहरे हुए थे। गांधी ने सुबह हाथ-मुँह धोने के लिए एक
बाल्टी पानी के लिए कहा। नेहरू ने दो बाल्टियाँ भेजी। जिस पर गांधी ने एक
वापस भेज दी। नेहरू ने कहा कि यह वह शहर है जहाँ गंगा, यमुना का संगम होता है।
यहाँ पानी की कमी नहीं हो सकती। गांधी द्वारा पानी वापस किया जाना, उनकी
दूरदर्शिता परिलक्षित होती है। गांधी ने तीन 'ध' (धर्म, धंधा और धन) समाप्त
करने का प्रयास किए। बदले में तीन 'झ' (झंडा, झाड़ू और झोली) दे गए। वे
धर्मांधता, धनशक्ति और बाजारवाद को समाप्त करना चाहते थे। इसलिए वे चाहते थे
कि अंत्योदय से सर्वोदय हो। लोक कल्याणकारी राज्य को यह सुनिश्चित करना
चाहिए कि सबसे गरीब और कमजोर व्यक्ति का चेहरा, हमारे नियोजन और विकास के
केंद्र में बना रहे।
गांधीजी का मानना था कि 'हमारी जीवन पद्धति ऐसी हो कि पर्यावरण को कम से कम
ठेस पहुँचे।' पर्यावरणीय दृष्टिकोण से हमें टूथपेस्ट की बजाय मंजन का उपयोग
करना चाहिए। दरअसल टूथपेस्ट हमारी भोगवादी सभ्यता की देन है और मंजन हमारी
सांस्कृतिक परंपरा की। दाँतों को दातून, कोयले का मंजन, राख आदि से साफ करने
से मसूड़ों की भी मालिश हो जाती है। टूथपेस्ट और मंजन में तुलना करने पर हम
पाते हैं कि दो हजार जनसंख्या वाली बस्ती में 500 लोग भी दातून से दाँत साफ
करते हैं तो वह तीन माह पर एक ब्रश और टूथपेस्ट की तीन डब्बियां पृथ्वी पर
फेंकने से बचा रह जाएगा। टूथब्रश और पेस्ट की डब्बियाँ हजारों वर्षों तक नष्ट
नहीं होती हैं। इतना ही नहीं, अगर आप उसे पुनर्निर्माण करते हैं तो इसमें
अत्यधिक पानी व बिजली लगेगी और इसके लिए उद्योग खड़ा करना होगा, इससे प्रदूषण
फैलेगा और इसमें काम करने वाले समाज के अंतिम तबके के लोग प्रदूषण से उत्पन्न
संक्रामक बीमारियों के शिकार होंगे। प्लास्टिक पुर्ननिर्माण से जो प्रदूषित
गैसें उत्पन्न होगी उससे ग्रीन हाउस इफेक्ट और भी बढ़ेगा। टूथपेस्ट और टूथब्रश
का इस्तेमाल न करने से 500 व्यक्ति ही सालाना करीब डेढ़ लाख रुपये से ज्यादा
गाँव से बाहर जाने से रोक सकेंगे। इसलिए गांधी ग्रामोद्योग की बात करते हैं।
जिस ग्रामोद्योग में मंजन तैयार होगा। गाँव में मंजन के लिए पेड़ लगाने से वहाँ
का पर्यावरण बना रहेगा, रोजगार बढ़ेगा और यह स्वास्थ्य के लिए अधिक उपयुक्त
होगा। इस तरह से गांधी के ग्रामोद्योग के विचार पर्यावरण प्रदूषण को रोकने के
लिए प्रासंगिक है।
गांधी के चरखा द्वारा कपास से कपड़े तक के सफर को देखें तो हम पाते हैं कि खादी
के निर्माण में न बिजली का उपयोग होता है, न ही जल का प्रदूषण और न ही कम
लोगों के हाथों में अकूत संपत्ति संसाधन जमा होने का भय। इस तरह से खादी,
सत्ता के केंद्रीकरण के भय से भी हमें मुक्त रखती है जबकि आप मैन मेड फाइबर से
टेरीलीन, टेफ्लॉन, नॉयलन का इस्तेमाल करते हैं, ये पेट्रोलियम निर्मित हैं।
पर्यावरणविदों का कहना है कि पेट्रोलियम 50 साल अर्थात 2048 ई. में बहुत कम हो
जाएगी। इसमें बनने वाली कपड़ों में खादी की बनस्पित बिजली, पानी की खपत बहुत
होगी, उद्योग लगाने पड़ेंगे और इससे प्रदूषण फैलेगा। रासायनिक पदार्थों को पानी
में छोड़ने से पानी विषाक्त होगा। इससे पर्यावरण का संतुलन बिगड़ेगा। उदाहरण के
लिए खादी का एक मीटर कपड़ा बनने में जितना जल लगता है उसके एक हजार गुणा जल मिल
का कपड़ा बनाने में लगता है। आने वाली पीढ़ियों के लिए बिजली, पानी बचानी है तो
गांधी के विचारों को अपनाना ही पड़ेगा।
स्वास्थ्य प्रणाली की ओर ध्यान दें तो हम पाते हैं कि आज की स्वास्थ्य प्रणाली
न केवल मँहगी, मशीनों पर अवलंबित और साइड इफेक्ट वाली है बल्कि देहातों की
पहुँच से दूर भी। इससे डॉक्टर बनाने वाली संस्था व डॉक्टरों का तो फायदा हो ही
रहा है और आमजनों को दूरगामी नुकसान भुगतने पड़ेंगे। आज सभी बड़े शहरों में
मेडिकल वेस्ट को नष्ट करने में जो बिजली, पानी, भूमि आदि का खर्च हो रहा है,
यह सभी के सामने आर्थिक-सामाजिक दृष्टि से बहुत बड़ा मुद्दा बना हुआ है। इसलिए
तो गांधी स्थानीय स्वास्थ्य परंपराओं पर जोर देते हैं - चाहे वह निसर्ग उपचार
हो, योगासन हो, आहार शुद्धि हो, आयुर्वेद हो या फिर अन्य पद्धतियाँ। इन सबमें
स्थानिक संसाधनों का अधिकाधिक उपयोग होता है। आहार के नियंत्रण से हम अधिकतर
बीमारियों को दूर कर सकते हैं। आज हम अपने को अनावश्यक वस्तुओं का भंडार बना
रखे हैं। जिसमें पैकिंग किया हुआ, तला हुआ और फ्रीज के पदार्थों का इस्तेमाल
जोरों से कर रहे हैं। बाजार के लिए खाद्य पदार्थों को टिकाए रखना जरूरी होता
है, इसके लिए उसमें रासायनिक पदार्थों का इस्तेमाल होना लाजिमी है और इन सारे
खाद्य-पदार्थों ने आम आदमी के घरों में इतनी जगह बना ली है कि स्वास्थ्य के
लिए क्या लाभदायक है? ये भी वे भूलते जा रहे हैं। एक तरफ श्रम की कमी हो रही
है तो दूसरी तरफ ऐसे पदार्थों का इस्तेमाल बढ़ रहा है। परिणामतः अनेक अवांछित
रोग पिछली शताब्दी में बढ़े हैं, जैसे - स्वाइन फ्लू, कैंसर, मधुमेह, किडनी की
बीमारियाँ आदि। गांधी ने कहा है कि आहार में उतनी ही चीजें लेनी चाहिए जो कि
प्राकृतिक हो। प्राकृतिक पदार्थों के अधिक उपयोग से इन सारी बीमारियों से बचा
जा सकता है और इसे विज्ञान भी बखूबी मानने लगे हैं। कल तक विज्ञान कह रहा था
कि गाय का घी खाने से कोलेस्ट्राल बढ़ता है पर आज उसने स्वीकार कर लिया है कि
गाय का घी खाने से कोलेस्ट्राल नहीं बढ़ता है। ऐसी स्थिति में हम अपने जीवनशैली
को अधिकाधिक प्रकृति की ओर ले जाएँ तो अधिकतर बीमारियों तथा उनपर होने वाले
खर्चों से बचा जा सकता है।
शिक्षा के क्षेत्र में देखें तो आज की शिक्षा प्रणाली में हाथ-पाँव से कम काम
लिया जाता है। दिमागी श्रम बहुत ज्यादा करना पड़ रहा है। इससे जहाँ एक ओर
श्रमिकों का शोषण होता है वहीं दूसरी ओर श्रम न करने वाला समाज परावलंबी होता
जा रहा है। यही वजह है कि गाँवों से लोगों का पलायन हो रहा है क्योंकि गाँवों
में रोजगार नहीं हैं। आज की शिक्षा-प्रणाली गाँवों में रोजगार उपलब्ध नहीं
कराती है वह केंद्रित रोजगार के पक्ष में है जबकि गांधीजी विकेंद्रित उद्योग
आधारित तकनीकी शिक्षा पद्धति की बात करते हैं। वे सदैव 'हैंड, हेड और हर्ट' पर
आधारित समन्वित विकास की शिक्षा पद्धति पर जोर देते हैं जबकि आज की शिक्षा
प्रणाली में केवल दिमाग पर जोर दिए जाते हैं, इससे बच्चे परसेंट के शिकार होते
जा रहे हैं। स्पर्धा के युग में उनमें नीरस सा छा जाता है, तब ऐसे में लोग
गाँव से शहर में आ जाएँगे तो शहर में भी संसाधनों पर जोर पड़ेगा, जिससे
कानून-व्यवस्था का भी सवाल खड़ा होगा। गांधीजी चाहते थे कि शिक्षा पद्धति ऐसी
हो कि गाँव के लोग भी विकसित हो, इसलिए उसने नई तालीम पद्धति को न सिर्फ शुरू
किया बल्कि इसको सार्थक भी किया पर दुर्भाग्यवश पश्चिम की होड़ में लगी
शासनतंत्र ने इसे बंद करवा दिया। अब आने वाली पीढ़ियों को सोचना चाहिए कि वे
कौन सी शिक्षा पद्धति को बरकरार रखेंगे। अगर आने वाली पीढ़ियों के लिए पर्यावरण
(जल, जंगल, जमीन, हवा) को बचाए रखना है तो गांधी के बताए रास्तों के अलावा और
भी कोई दूसरा रास्ता नहीं हो सकता है।
इसके लिए हमें अपनाने होंगे ये रास्ते
- 1. ब्रह्माण्ड के सबसे बुद्धिजीवी मनुष्य को यह समझना चाहिए की प्रकृति की
रक्षा करना हमारा कर्तव्य है, न की इसका शोषण करना हमारा अधिकार। अपनी
आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक-संसाधनों का दोहन तो हम करें, लेकिन
प्रकृति के अंधाधुंध शोषण को रोकना होगा। 2. दैनंदिनी जीवन में स्वच्छता का
अधिकाधिक ध्यान रखें, वातावरण को प्रदूषित न करें। 3. हम अपने व्यक्तिगत तथा
सार्वजनिक जल-स्त्रोतों को शुद्ध रखें। कुएँ, तालाब, नदियाँ इत्यादि मेंस्नान
करते समय साबुन, शैंपू तथा अन्य रासायनिक तत्वों के प्रयोग से बचें, ताकि ये
जल-स्त्रोत अशुद्ध न हों। 4. प्लास्टिक तथा पौलीथीन के प्रयोग को कम से कम
करें। इनके स्थान पर कपड़े के सुंदर थैलों तथा कागज़ के आकर्षक लिफाफों का
प्रयोग किया जा सकता है। 5. जहाँ तक सम्भव हो, वातानुकूलन-यंत्रों
(Air-Conditioners) तथा रेफ्रीजरेटरों का प्रयोग कम से कम करना चाहिए, क्योकिं
इनसे भी वातावरण के तापमान में वृद्धि होती है। 6. निजी वाहनों के स्थान पर
सार्वजनिक परिवहन प्रणाली, रेल इत्यादि का प्रयोग अधिक करना चाहिए, ताकि इंधन
की खपत और प्रदूषण दोनों में कमी आए। इसी तरह जहाँ संभव हो, वहाँ साइकिल का भी
उपयोग किया जाना चाहिए। 7. हम अपने जीवन में शाकाहार को अपनाएँ तथा दूसरों को
भी इसके लिए प्रेरित करें। मांसाहार के लिए बड़े पैमाने पर पशु-पक्षियों की
हत्या की जाती है, जिससे पारिस्थितिकीय असंतुलन (Ecological Imbalance) बढ़ता
है। 8. वायु-प्रदूषण को कम करने में पेड़ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। अतः
हमें अपने आस-पास का वातावरण प्रदूषण-मुक्त तथा हरा-भरा रखने के लिए अधिक से
अधिक पेड़ लगाने चाहिए और उनकी रक्षा करनी चाहिए। यदि जगह की कमी हो, तो कम से
कम गमलों में छोटे-छोटे पौधे तो अवश्य ही लगाने चाहिए। 9. कृषि कार्यों में
यंत्रों की बजाय पशु-धन का अधिक प्रयोग करें। छोटे-छोटे खेत जोतने के लिए
ट्रैक्टर के स्थान पर बैलों का प्रयोग करना चाहिए। 10. खेतों में रासायनिक खाद
तथा कीटनाशकों की बजाय केंचुआ खाद, गोबर, गोमूत्र इत्यादि प्राकृतिक एवं जैविक
साधनों का प्रयोग किया जाना चाहिए। ये कुछ ऐसे उपाय हैं, जिन्हें कोई भी
व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में सरलता से अपनाकर प्रकृति की रक्षा में अपना
योगदान दे सकता है। इनके अलावा कुछ ऐसे उपाय हैं, जिन्हें क्रियान्वित करने के
लिए शासन-तंत्र तथा अन्य सामजिक संगठनों की सक्रिय भागीदारी आवश्यक है। यथा :
1. विद्युत-उत्पादन के लिए पवन-ऊर्जा तथा सौर-ऊर्जा के उपयोग को बढावा देना।
2. सार्वजनिक परिवहन प्रणाली को अधिक सक्षम, सुविधाजनक और सस्ता बनाना। 3.
वृक्षारोपण, जल-संवर्धन इत्यादि से जुड़े कार्यक्रम आयोजित करने तथा उनमें
सक्रिय सहभाग लेने के लिए सभी की प्रोत्साहित करना। 4. योग, आयुर्वेद तथा अन्य
प्राकृतिक चिकित्सा पद्धतियों को बढावा देना। 5. असीमित औद्योगिकीकरण की बजाय
प्रकृति-आधारित विकास की अवधारणा पर विचार करके, उसे लागू करने का प्रयास। ये
कुछ ऐसे उपाय हैं, जिन पर संपूर्ण विश्व के शासकों तथा सामजिक संगठनों को
विचार करना चाहिए। (स्रोत : http://youthkiawaazhindi.blogspot.in/)
अंत में कहा जा सकता है कि गांधी पारिस्थितिकीय रूप से सुदृढ़ विकास की
रूपरेखा खुद ही बना चुके थे। इतना ही नहीं, गांधी का जीवन व कार्य भारत में
समकालीन पर्यावरणीय आंदोलन पर विशेष महत्त्व रखता है। चिपको आंदोलन से नर्मदा
बचाओ आंदोलन तक पर्यावरणीय कार्यकर्ता अहिंसक प्रतिरोध की गांधीवादी तकनीकों
पर बहुत अधिक निर्भर है। इसलिए पर्यावरण के क्षेत्र में गांधीजी के प्रयोग
वैज्ञानिक प्रयोग ही थे। आज दुनिया पारिस्थितिकीय मानवता का सपना देख रही है।
भारत इस दिशा में बढ़ सकता है। दुनिया में भारतीय खान-पान तथा औषध के
क्षेत्र-आयुर्वेद आदि का आकर्षण बढ़ा है। आज जो पर्यावरण प्रदूषण की समस्या
विकराल रूप धारण करती जा रही है, भारत अगर महात्मा गांधी के पर्यावरणीय
वैज्ञानिक सोच को अपना रास्ता स्वयं बनाएँ तो स्वयं विनाश से बचेगा ही, दुनिया
के लिए आदर्शात्मक मॉडल भी बन सकेगा। आदमी धरती से बंधा है और वह तभी तक जीवित
रहेगा जब तक यह बंधन कायम है।