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आलोचना

सौंदर्यशास्त्र का मार्क्सवादी परिदृश्य और मुक्तिबोध

रवि रंजन


भारतीय काव्यशास्त्र में भरतमुनि से लेकर पंडितराज जगन्नाथ तक ने नाटक एवं काव्य के प्रसंग में 'सौंदर्य' और उसे परखने की योग्यता रखनेवाले 'सहृदय' पर गहराई से विचार किया है। अनेक अलंकारशास्त्रियों ने भी कविता में 'सौंदर्य' की अवस्थिति पर अपने ढंग से प्रकाश डाला है और उसके आस्वादन ले लिए सहृदयता पर बल दिया है। अभिनवगुप्त के अनुसार 'सहृदय' वह व्यक्ति है जिसके मन का दर्पण काव्य-कला के सतत अभ्यास-अनुशीलन से, अध्ययन-चिंतन से नितांत स्वच्छ और विशद हो गया है, जिसके कारण वह वर्णित-चित्रित वस्तु के साथ तन्मय होकर संवाद करने की योग्यता और क्षमता रखता है :

"येषां काव्यानुशीलनाभ्यासवशाद् विशदीभूते मनोमुकुरे वर्णनीयतन्मयीभवनयोग्यता ते हृदयसंवाद भाजः सहृदयः।"

प्रकारांतर से इसी बात को रेखांकित करते हुए मार्क्स ने 'दि इकोनोमिक एंड फिलॉसोफिक मैन्‍युस्क्रिप्‍ट्स ऑफ 1844' में लिखा है कि "यदि आप कला का आस्‍वादन करना चाहते हैं तो आपको कलात्‍मक दृष्टि से परिष्‍कृत व्‍यक्ति होना चाहिए, यदि आप दूसरे लोगों पर प्रभाव डालना चाहते हैं तो आपको दूसरे लोगों पर स्‍फूर्तिप्रद और उत्‍साहवर्द्धक प्रभाव डालने वाला व्‍यक्ति होना चाहिए। मनुष्‍य और प्रकृति के साथ, आपके प्रत्‍येक संबंध को, आपकी कामना की वस्‍तु के अनुरूप, आपके वास्‍तविक वैयक्तिक जीवन की एक विशिष्‍ट अभिव्‍यक्ति होनी चाहिए।"

प्रायः देखा गया है कि रचनाकारों में भी जो जितना ज्यादा संवेदनशील होता है, वह उतना ही बड़ा सौंदर्यपारखी भी। बावजूद इसके, कृती कवियों एवं आचार्यों में 'सौंदर्य' के स्वरूप को लेकर गहरे मतभेद रहे हैं। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने 'रस मीमांसा' में लिखा है : "मनुष्य के शरीर में जैसे दक्षिण और वाम दो पक्ष हैं, वैसे ही उसके हृदय के भी कोमल और कठोर, मधुर और तीक्ष्ण, दो पक्ष हैं और बराबर रहेंगे। काव्यकला की पूरी रमणीयता इन दोनों पक्षों के समन्वय के बीच मंगल या सौंदर्य के विकास में दिखायी पड़ती है।" ...सच्चे कवि राजाओं की सवारी, ऐश्वर्य की सामग्री में ही सौंदर्य नहीं ढूँढ़ा करते, वे फूस के झोपड़ों, धूल-मिट्टी में सने किसानों, बच्चों के मुँह में चारा डालते पक्षियों, दौड़ते हुए कुत्तों और चोरी करती हुई बिल्लियों में कभी-कभी ऐसे सौंदर्य का दर्शन करते हैं, जिसकी छाया महलों और दरबारों तक नहीं पहुँच सकती।"

मोटे तौर पर शुक्ल जी को भाववादी विचारक माना जाता है। किंतु, विचारों की दुनिया में उनका भाववाद विवेक के मेरुदंड का आधार लेकर खड़ा होने के कारण अंततः भौतिकवाद का सहयोगी सिद्ध होता है। अपने सौंदर्य-विषयक विवेचन के दौरान 'तदाकार परिणति' पद का प्रयोग करते हुए शुक्ल जी सिद्ध करते हैं कि "सौंदर्य न तो मात्र चेतना में होता है और न ही सिर्फ वस्तु में, दोनों के संबंध से ही सौंदर्यानुभूति होती है।" वे जड़ता के बजाय गति में सुंदरता को रेखांकित करने के आग्रही हैं। भले ही वह गति सफल हो या विफल। उनकी सौंदर्य-दृष्टि में निहित संघर्ष की चेतना तब और खुलकर सामने आती है, जब वे कहते हैं कि 'विफलता में भी एक निराला विषण्ण सौंदर्य होता है।'

जाहिर है कि भारत में पश्चिम की तरह 'सौंदर्यशास्त्र' (एस्थेटिक्स) पर स्वतंत्र एवं विस्तृत विवेचन नहीं मिलता। इतना ही नहीं, क्रोचे के 'एस्थेटिक्स' में भी समाज के दबे-कुचले लोगों की सौदार्यानुभूति को अभिव्यक्त करनेवाली रचनाओं के उदाहरण लगभग न के बराबर हैं। इसलिए कालांतर में समाज के इस वंचित तबके की वांछा एवं अपेक्षा के अनुकूल मार्क्स-एंगेल्स आदि के सौंदर्य-विषयक मंतव्यों के आधार पर मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र विकसित होता गया,जिसको सूत्रबद्ध करने के अनेक सफल-असफल प्रयास भी हुए हैं।

मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र साहिेत्य और कला में अभिव्यक्त सौंदर्यबोध के स्रोत तथा उनके स्वरूप के सामाजिक संदर्भों के मद्देनजर उन पर वस्तुपरक ढंग से प्रकाश डालता है। दूसरे शब्दों में, मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र का सारतत्व उसकी वस्तुपरकता तथा समाजवादी मानवता में निहित है। मार्क्स-एंगेल्स के लिए सौंदर्य की वस्तुगत सत्ता का दृढ़ता के साथ प्रतिपादन इसलिए भी जरूरी हो गया था क्योंकि उनके पहले के तमाम भाववादी विचारक सौंदर्य को हमेशा किसी अतींद्रिय लोक की सत्ता मानकर उसकी सामाजिक उपलब्धि को नजरअंदाज कर देने की प्रवृत्ति से परिचालित थे। यह अलग बात है कि आज भी कला, साहिेत्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय शुद्ध सौंदर्यवादी विचारकों की कमी नहीं है जो सौंदर्य की निरपेक्ष सत्ता में विश्वास रखते हैं।

मुक्तिबोध ने ऐसे लोगों की धारणा का खंडन करते हुए लिखा है कि "आदर्शवादी भाववादी सौंदर्यशास्त्री सौंदर्य को मनोवैज्ञानिक संवेदनाओं के ही रूप-रूपांतरों को मूलभत तथा चरम मानकर चलने वाले साधारण रूप से, उसको किसी अतींद्रिय सत्ता का आत्मप्रकाश भी मानते हैं। इन आदर्शवादी भाववादियों में अनेक पंथोपंथ है। वे मानव इतिहास की भी उसी ढंग से व्याख्या करते हैं जिस प्रकार वे जगत की आध्यात्मिक व्याख्या करते हैं। फलतः उनके लिए इतिहास, समाजशक्ति मनुष्य के परिवेश के रूप में उपस्थित होती है। वे उसे वह मूलभूत क्रिया नहीं मानते, जो मनुष्य को प्रारंभिक पाशव स्तर से उठाकर मानव स्तर तक तथा उससे भी लगातार उसकी उन्नति करती हुई आ रही है, जिसने उसकी आत्मा को वास्तविकता दी है।" मुक्तिबोध की इन पंक्तियों से गुजरते हुए याद आ सकते हैं अंतोनियो ग्राम्शी, जिन्होंने आधुनिक मनुष्य को प्रकृति के बजाय इतिहास की उपज माना है। इस संदर्भ में दो टूक निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं कि - "शुद्ध साहित्यिक सौंदर्य, मात्र सौंदर्य निरपेक्ष सत्ता स्वीकार करने वाले लोग या तो स्वयं धोखे में है, अथवा धोखा देना चाहते हैं।"

'मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र' मनुष्य को उसकी सामाजिक चेतना के ही अंग-अवयव के रूप में स्वीकार करता है। स्पष्ट ही मार्क्स-एंगेल्स की रचनाएँ अरस्तु के 'पोयटिक्स' या क्रोचे के 'एस्थेटिक्स' की तरह किसी सुव्यवस्थित 'सौंदर्यशास्त्र' का निर्माण नहीं करतीं। परवर्ती विचारकों ने अपने अकाट्य तर्कों से यह सिद्ध कर दिया है कि मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र मार्क्स-एंगेल्स के साहिेत्य एवं कला विषयक निष्कर्षों की प्रतिध्वनि के बजाय उनके द्वारा प्रवर्तित द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के आधार पर निर्मित है। 'ए कंट्रीब्यूशन टू द क्रिटीक ऑफ पोलिटिकल इकोनोमी' की प्रस्तावना में मार्क्स ने आधार-अधिरचना सिद्धांत का बीज विचार प्रस्तुत करते हुए लिखा है कि "अपने जीवन के सामाजिक उत्पादन में मनुष्य ऐसे निश्चित संबंधों में बंधते हैं जो अपरिहार्य एवं उनकी इच्छा से स्वतंत्र होते हैं। उत्पादन के ये संबंध, उत्पादन की भौतिक शक्तियों के विकास की एक निश्चित मंजिल के अनुरूप होते हैं। इन उत्पादन संबंध का पूर्ण समाहार ही समाज का आर्थिक ढाँचा है - वह असली बुनियाद है जिस पर कानून और राजनीति का ऊपरी ढाँचा खड़ा हो जाता है और जिसके अनुकूल ही सामाजिक चेतना के निश्चित रूप होते हैं। भौतिक जीवन की उत्पादन पद्धति जीवन की आम सामाजिक, राजनीतिक और बौद्धिक प्रक्रिया को निर्धारित करती है। मनुष्य की चेतना उसके अस्तित्व को निर्धारित नहीं करती, बल्कि उल्टे उसका सामाजिक अस्तित्व उसकी चेतना को निर्धारित करता है।"

मार्क्स के उपर्युक्त कथन को केंद्र में रख कर ही लुकाच, काडवेल, ब्रेख्त, रोजर गारोदी, फिशर आदि चिंतकों ने सौंदर्यशास्त्र की आधारभूत समस्याओं पर यथार्थवादी दृष्टि से विचार किया है। ये तमाम विचारक भाववादी विचारकों को कला-साहिेत्य के स्वायत्त एवं समाज निरपेक्ष अस्तित्व जैसी धारणा के विपरीत उसे श्रम की ऐतिहासिक प्रक्रिया के अंतर्गत विकसित हुआ मानते हैं, जिसके तहत कला-साहिेत्य और उसके मनोगत संघटकों का विकास होता रहा है। मार्क्स की धारणा रही है कि श्रम प्रक्रियाओं के अंतर्गत ही मनुष्य में सौंदर्यानुभूति के साथ-साथ 'संगीतधर्मा कान' तथा 'रूपद्रष्टा आँख' की चेतना जगी और इनका विकास हुआ। इसी प्रकार एंगेल्स ने भी 'वानर से नर' बनने की प्रक्रिया में 'हाथ' की भूमिका को अत्यधिक महत्वपूर्ण मानते हुए स्पष्ट किया है कि इसी की बदौलत "रफ़ायल की सी चित्रकारी, थोवल्दिसन की सी मूर्तिकारी तथा पागानीनी का-सा संगीत आविर्भूत हो सका।" एंगेल्स के इस वक्तव्य का विश्लेषण करते हुए डॉ. रमेश कुंतल मेघ अपनी पुस्तक - 'साक्षी है सौंदर्य प्राश्निक' - में लिखते हैं - "एंगेल्स ने सौंदर्य-सृजन को सबसे पहली समाजशास्त्रीय शर्त उस युग से मानी जब वनमानुषों के चौपाएपन का विकास होकर उनसे मनुष्यों का आविर्भाव हुआ और - जब हाथ स्वतंत्र हो गया। हाथ केवल परिश्रम का उपकरण ही नहीं, श्रम का परिणाम भी हुआ। मानवीय हाथों ने ही उत्कर्ष की भव्य ऊँचाइयाँ प्राप्त की और सुंदरतम सौंदर्य-सृजन किए, हाथों ने ही धनुष-बाण तथा स्पूतनिकों और अपोलो यानों का निर्माण किया, हाथों ने ही गोम्मटेश्वर की भीमकाय प्रतिमा गढ़ी, हाथों ने ही कांगड़ा के चित्र बनाए और हाथों ने ही 'राम की शक्तिपूजा' लिखी। अतः हाथों में सौंदर्य-सृजन की बाह्य प्रक्रिया, कौशल समेत प्रतीक बनी।"

मनुष्य एवं संसार के दूसरे प्राणियों के द्वारा किए जाने वाले उत्पादन की प्रक्रिया के बीच मूलभत अंतर को स्पष्ट करते हुए मार्क्स-एंगेल्स कहते हैं कि "अन्य जीवधारी अपनी आवश्यकताओं एवं माप के अनुरूप ही उत्पादन करते हैं किंतु मनुष्य अपने अतिरिक्त अन्य जीवजातियों के माप और आवश्यकता के अनुरूप उत्पादन करना जानता है। मनुष्य सौंदर्य नियमों के अनुसार ही सृजन करता है।" इसके अलावा मनुष्य द्वारा उत्पादन-प्रक्रिया की एक और विशेषता यह है कि वह सारा कुछ केवल उपयोगिता को ही ध्यान में रखकर नहीं करता, बल्कि वह उपयोगिता से परे जाकर अपने संतोष, सुख एवं आनंद के लिए भी काम करता है और कई बार उसका 'स्वांतः सुखाय' किया गया उसका कार्य 'बहुजन हिताय' भी सिद्ध होता है। 'रामचरितमानस' के आरंभ में गोस्वामी तुलसीदास जहाँ 'स्वांतः सुखाय' रघुनाथगाथा लिखने की बात करते हैं, वहाँ वे काव्य-सृजन के प्रसंग में उपयोगितावाद को नकारते प्रतीत होते हैं। उपयोगिता से परे जाकर कार्य करने की मनुष्य प्रवृत्ति के मूल में सौंदर्यतत्व की प्रेरणा को स्वीकारते हुए मार्क्स उसे मानवजाति का ऐसा क्रियाकलाप मानते हैं जिसे मनुष्य सामाजिक-ऐतिहासिक प्रक्रियाओं के अंतर्गत आत्मोपलब्धि की दिशा मे सदा प्रगति के रूप में संपन्न करता है।

मार्क्स के सौंदर्य-तत्व विषयक उपर्युक्त मंतव्य को और अधिक स्पष्ट रूप में समझने के लिए यहाँ मुक्तिबोध को उद्धृत करना अप्रासंगिक नहीं होगा जिन्होंने हिंदी में कदाचित पहली बार मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के संदर्भ में सूत्रवाक्य प्रस्तुत करते हुए 'एक साहित्यिक की डायरी' में लिखा था कि 'कला का पहला क्षण है जीवन का उत्कट तीव्र अनुभव क्षण। दूसरा क्षण है अनुभव का अपने कसकते दुखते हुए मूलों से पृथक हो जाना और एक फैंटेसी का रूप धारण कर लेना मानो वह फैंटेसी अपनी आँखों के सामने ही खड़ी हो। तीसरा और अंतिम क्षण है इस फैंटेसी के शब्द-बद्ध होने की प्रक्रिया का आरंभ और उस प्रक्रिया की परिपूर्णावस्था तक की गतिमानता।" कहना न होगा कि रचना-प्रक्रिया को लेकर भाववादी रचनाकारों व विचारकों द्वारा साहिेत्य-चिंतन के क्षेत्र में उहापोह पैदा करने वाले जो भारी-भरकम वक्तव्य दिए जाते हैं उनकी रहस्यमयता को तोड़ने में मुक्तिबोध का यह वक्तव्य कितना कारगर रहा है। इसी प्रकार सौंदर्यानुभूति के संदर्भ में भी उनकी धारणा भाववादी विचारकों के मुकाबले ज्यादा स्पष्ट और मानवीय मूल्यों से परिपूर्ण है। सौंदर्यानुभूति को वास्तविक जीवन की मनुष्यता बताते हुए मुक्तिबोध लिखते हैं... "अपने से परे उठने और परे जाने की यह जो प्रवृत्ति है, उसी की एक विशेष शाखा है सौंदर्यानुभूति। यह सौंदर्यानुभूति केवल कलाकार की विशेषता नहीं है, वरन वह उन सबकी विशेषता है जिन्हें हम मनुष्य कहते हैं। वह मनुष्यत्व का एक लक्षण है। ...घर में दिनभर मेहनत करने वाली माँ और पत्नी, मारा-मारा फिरने वाला नवयुवक, अपने माँ-बाप का बोझ हल्का करने के लिए नौकरी ढूँढ़नेवाली बेटी - इनको मानव जीवन का यह रस प्राप्त होता रहता है। इसीलिए वे जीते हैं, अपने लिए और दूसरों के लिए। सौंदर्यानुभूति केवल कलाकार की निधि नहीं है। वह वास्तविक जीवन में, वास्तविक भावना और कल्पना का उच्चतर स्तर पर ऐसा एकाएक उत्स्फूर्त और विकसित विस्तार है, जिसमें मनुष्य की व्यक्तिसत्ता का विलोपन हो जाता है। किंतु आत्मबद्ध दशा का यह परिहार वास्तविक जीवन में, वास्तविक जीवन ही का अंग है, जिसकी सहायता के बिना वास्तविक जीवन अधिक सुखकर तथा सुगम नहीं होगा, जिसके बिना यथार्थ मानव संबंध अधिक स्निग्ध और सार्थक नहीं होंगे, जिसके बिना हम दूसरों में घुलमिल सकने के आनंद को सघन नहीं करेंगे। संक्षेप में, सौंदर्यानुभूति की अधिकतमता और बारंबारता जिस व्यक्ति में अधिक होगी वह अधिक मनुष्य होगा। ...अपने से परे उठने और परे जाने की मनुष्य क्षमता से उसका पूरा और सीधा संबंध है। अपनी एक कविता में जब मुक्तिबोध कहते हैं कि -

समस्या एक
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों के
सभी मानव
सुखी, सुंदर व शोषणमुक्त
कब होंगे।

- तो स्पष्ट ही यह एक एसे मानवतावादी कवि की चिंता है जो आत्मबद्ध दशा का परिहार कर मनुष्य-मात्र को ऐसी स्थिति में देखना चाहता है जिसमें कि उसे मानवोचित जीवन जीने की तमाम अनिवार्य शर्तें उपलब्ध हों। रचनाकार का यह स्वप्न, उसकी यह उदात्त अनुभूति और कुछ नहीं, सौंदर्यानुभूति ही है। सौंदर्य की वस्तुगत सत्ता को स्वीकारते हुए मुक्तिबोध ने 'मानसिक द्रवण के क्षण को सौंदर्यानुभूति का क्षण' माना है। उनके अनुसार सौंदर्यानुभूति के दो लक्षण हैं - आत्मबद्ध दशा का परिहार तथा आनंदात्मक अनुभव।

जब 'नई कविता' के बुर्ज से एक जमाने में कला-संस्कृति के क्षेत्र में शोषक वर्ग की सौंदर्याभिरुचि के पोषक रचनाकारों द्वारा जनपक्षधर रचनाओं को सौंदर्यशास्त्रीय दृष्टि से विद्रूप करार दिया जाने लगा तो इसका प्रतिवाद करते हुए मुक्तिबोध ने लिखा था - "ये सौंदर्यवादी लोग भूल गए हैं कि बंजर काले स्याह पहाड़ में भी एक अजीब वीरान भव्यता होती है, गली के अँधेरे में उगे छोटे से जंगली पौधे में भी एक विचित्र संकेत होता है। विशाल व्यापक मानव-जीवन में पाए जाने वाले भयानक संघर्ष के रौद्र रूप तो उनकी सौंदर्याभिरुचि के फ्रेम से बाहर थे। आप मुझे क्षमा करेंगे अगर मैं यह कहूँ कि 'नई कविता' में आवेश के पंख काट दिए गए, कल्पना को अपने पिंजड़े में पालकर रखा गया। उसे मानव-जीवन को मूर्त और साक्षात करने वाली रचनात्मक-शक्ति के रूप में उपस्थित नहीं किया गया, क्योंकि वह एक विशेष प्रकार की भद्रजनोचित सौंदर्याभिरुचि के फ्रेम के खिलाफ जाती थी।"

कहना न होगा कि वह 'भद्रजनोचित सौंदर्याभिरुचि' और कुछ नहीं, सांस्कृतिक क्षेत्र में किसी युग विशेष में ऐतिहासिक तथा आर्थिक-राजनीतिक कारणों से वर्चस्व प्राप्त कर लेने वाले अभिजनों की वर्गाभिरुचि ही है, जो संस्कृतिकर्मियों को अपने विभिन्न हथकंडों द्वारा अनुकूलित करने की निरंतर चेष्टा करते रहते हैं। जो कवि-लेखक सत्ता-व्यवस्था के द्वारा प्रदान किए जाने वाले विभिन्न पुरस्कारों एवं सुविधाओं के प्रलोभन से अपने को बचाकर अनुकूलन से जूझते हैं, उन्हें अनेकानेक विपन्न परिस्थितियाँ झेलनी पड़ती हैं और जो रचनाकार इस सत्तानुकूल का शिकार हो जाते हैं, उनकी सौंदर्याभिरुचि प्रायः जड़ीभूत हो जाने को अभिशप्त होती है। अपनी कविताओं में ऐसे समझौतापरस्त शब्दकर्मियों की बखिया उघेरते हुए मुक्तिबोध कहते हैं -

1. राजनीति, साहिेत्य और कला के प्रतिष्ठित महासूर्य
बड़े-बड़े मसीहा
सरकस के जोकर से रिझाते हैं निरंतर
नाचते हैं कूदते हैं
शोषण में सिद्धहस्त स्वामियों के सामने।

2. दुनिया को हाट समझ
जन-जन के जीवन का मांस काट
रक्त-मांस विक्रय के
प्रदर्शन की प्रतिभा का
नया ठाठ,
शब्दों का अर्थ जब
नोच-खसोट लूट पाट।
(मुक्तिबोध रचनावली, भाग 2, पृ 44)

स्पष्ट ही कला, साहिेत्य, संस्कृति ही नहीं; मानव-सक्रियता के किसी भी क्षेत्र से जुड़ा मनुष्य जब व्यवस्थानुकूल के इस शैतानी ढाँचे में फिट होने से इनकार कर देता है तो भले ही यह कुछ लोगों के लिए सनकीपन हो किंतु उसका इनकार वस्तुतः व्यवस्था द्वारा निर्धारित एवं स्वीकृत तमाम मूल्यों एवं मानदंडों के सामने एक बहुत बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। ये मूल्य-मानदंड सामाजार्थिक और राजनैतिक ही नहीं, सांस्कृतिक एवं सौंदर्यशास्त्रीय भी होते हैं, जिन्हें प्रतिबद्ध कवि बेहिचक नकार देता है -

नामंजूर उसको
जिंदगी को शर्म की सी शर्त नामंजूर।
(मुक्तिबोध रचनावली, भाग 2, पृ 391)

अदोल्फो सांचेज वास्कवेस ने 'सौंदर्य बोध के स्रोत और स्वरूप के बारे में मार्क्स के विचार' का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि - "सौंदर्यशास्त्र को मार्क्स का महान योगदान मनुष्य और यथार्थ के बीच एक विशिष्ट संबंध के रूप में सौंदर्यबोध के बारे में उनकी वह धारणा है जिसके अनुसार सौंदर्यबोध प्रकृति का रूपांतरण करने और मानवीय वस्तुओं का जगत निर्मित करने की प्रक्रिया में ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से विकसित हुआ है।" अपने इसी निबंध में आगे वे मनुष्य की सौंदर्य-संवेदना तथा सौंदर्यपरक संबंध के सामाजिक स्वरूप पर प्रकाश डालते हुए उसे उपयोगितावाद से पृथक बताते हैं - "सौंदर्य-संवेदना तभी प्रकट होती है जब मानवीय संवेदना इस हद तक समृद्ध हो चुकी होती है कि वस्तुएँ प्रमुखतः और सारतः मानवीय यथार्थ, सारभूत मानवीय शक्तियों का यथार्थ बन जाती हैं। वस्तुओं के गुणों को सौंदर्यपरक गुणों के रूप में तभी देखा जाता है जब उन्हें प्रत्यक्ष उपयोगितावादी अर्थ में नहीं समझा जाता, जब वे खुद मनुष्य की अभिव्यक्ति और उसका सार हो जाते हैं। खास तौर पर कला-रचना आमतौर से वस्तुओं के साथ बनने वाले सौंदर्यपरक संबध मानवता के समूचे इतिहास के फल हैं और इसके साथ ही ये दोनों उन सर्वाधिक विकसित साधनों में हैं जिनसे मनुष्य वस्तु जगत में अपने को स्थापित करता है।" किंतु, इसका मतलब यह नहीं कि मार्क्सवादी विचारक साहिेत्य, कला आदि को अनुपयोगी मानते हैं। '1844 की आर्थिक एवं दार्शनिक पांडुलिपि' में मार्क्स ने लिखा है कि श्रम के किसी ऐसे उत्पाद की कल्पना भी नहीं की जा सकती जो भौतिक अर्थ में अनुपयोगी हो। भाववादी तथा यांत्रिक भौतिकवादी सौंदर्यशास्त्र से भिन्न मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र श्रम के उच्चतर रूप में कला साहिेत्य आदि को मनुष्य की सौंदर्यबोधात्मक क्रिया की अभिव्यक्ति के रूप में मान्यता देता है जिसकी मानवीय और सार्वभौम उपयोगिता होती है। दूसरे शब्दों में, मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र के अनुसार साहिेत्य एवं कला-सृजन मनुष्य द्वारा संपन्न ऐसा सांस्कृतिक क्रिया-व्यापार है जो कुदाल को कलम से ओछा मानने के बजाय श्रम में सौंदर्य की सत्ता देखता है। काव्य-क्षेत्र में उपलब्ध इस बात के अनेकानेक प्रमाणों में एक मुक्तिबोध एवं केदारनाथ अग्रवाल की नीचे उद्धृत काव्य पंक्तियाँ हैं, जिनमें शारीरिक श्रम एवं शब्दकर्म के बीच द्विभाजकता को साफ तौर पर नकारा गया है -

1. विचार आते हैं
लिखते समय नहीं बोझ ढोते वक्त पीठ पर
सिर पर उठाते समय भार
परिश्रम करते समय
चाँद उगता है व
पानी में झलमलाने लगता है
हृदय के पानी में। - मुक्तिबोध

2. छोटे हाथ परिश्रम करते,
र्इंटों पर ईटें धरते हैं
मधुमक्खी से तन्मय होकर
मधुकोषों से घर रचते हैं

* * *

छोटे हाथ गुनी-ज्ञानी हैं,
मौलिक ग्रंथों को रचते हैं

* * *

मानव की सुंदरतम कृतियाँ
मानव को अर्पित करते हैं। - केदारनाथ अग्रवाल

इस संदर्भ में अंततः जार्ज लुकाच को उद्धृत करना प्रासंगिक होगा जिन्होंने 'समाजवादी मानवता' को मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र का सार बताते हुए लिखा है - "समाजवादी मानवता ही प्रगतिवादी सौंदर्यशास्त्र एवं वस्तुवादी ऐतिहासिक चेतना का सार है। यह वस्तुवादी चेतना सामग्रिक भाव से मूलाधार का संधान करती है। किंतु, यह पुष्प के आह्लादकारी सौंदर्य की उपेक्षा नहीं करती, बल्कि ठीक इसके विपरीत इतिहास की वस्तुवादी चेतना एवं प्रगतिवादी सौंदर्यशास्त्र इस मूलाधार एवं फल के सजीव संपर्क को अविच्छेद मानने के पक्ष को मजबूत बनाता है।" एक अन्य स्थान पर लुकाच कहते हैं कि "मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र उस प्रश्न का हल ढूँढ़ लेता है, जिससे महान लोग एक अरसे से उलझे रहे हैं। (और जो प्रश्न छोटे लोगों की समझ में इसलिए नहीं आता था कि वे लोग छोटे थे।) यह प्रश्न है, किसी कलाकृति के स्थायी सौंदर्यमूल्य को उस ऐतिहासिक प्रक्रिया का अंग बनाना, जिससे वह कृति अपनी पूर्णता और सौंदर्यमूल्य में ही वस्तुतः अविभाज्य होती है। ...चूँकि महान कलाकार गतिहीन वस्तुओं और स्थितियों को नहीं प्रस्तुत करता, बल्कि प्रक्रिया की दिशा और रुझान को व्यक्त करने की कोशिश करता है, इसलिए उसे इस प्रक्रिया के स्वरूप की अच्छी समझ होनी चाहिए और इस प्रकार की समझ बिना पक्षधरता के नहीं आ सकती।"

समग्रतः यह कहा जा सकता है कि 'मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र' कला का विरोधी नहीं कलावाद का विरोधी है। वह 'शैलीवाद' का विरोधी तो है किंतु शैली के किसी प्रकार-विशेष से उसका विरोध नहीं है। इसी तरह 'प्रकृतवाद' से विरोध होने के बावजूद वह किसी प्रकृत-सत्य का विरोधी नहीं है। वह कला-साहिेत्य आदि के क्षेत्र रूपवादी रुझान का जितना विरोधी है, सौंदर्य की वस्तुगत सत्ता में विश्वास रखने के बावजूद 'वस्तुवाद' से उतना ही अलग है। सौंदर्य को लेकर वह किसी भी प्रकार के अमूर्तन या अतींद्रीयता की धारणा को स्वीकार भले न करता हो पर कला-साहिेत्य के लिए सौंदर्य तत्व को अपरिहार्य मानता है। निराला के एक काव्यांश से विचारसूत्र लेकर यदि कहें तो वैज्ञानिक यथार्थवादी लेखक की रचनादृष्टि में 'चारु चयन' (एस्थेटिक सिलेक्शन) की वही अनिवार्य भूमिका है जो हरे पत्ते में जल की, पुष्प में सुरभि की, फल में बीज की तथा उपवन में पक्षियों के कलरव को होती है :

"पल्लव में जल, सुरभि सुमन में
फल में दल, कलरव उपवन में
लाओ चारु चयन चितवन में।" - निराला

इस संदर्भ में यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि आज के बदलते माहौल में हम 'चारुता' की पुरानी धारणा से चिपक कर नहीं रह सकते। कालिदास की शब्दावली उधार लेकर कहें तो इस कड़वे सत्य से हम मुँह चुराने पर हमारी 'चारुता' कभी 'प्रियषुसौभाग्यफला' नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में, हम उसी 'जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि' के शिकार हो जाएँगे जिससे मुक्ति का आह्वान करते हुए सन 1936 में ही प्रेमचंद ने कहा था - 'हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी' क्योंकि - 'अभी तक उसकी कसौटी समृद्धि और विलासिता है।' इस क्रम में उन्होंने 'जीवन संग्राम में सौंदर्य का परमोत्कर्ष' देखने की जो राय दी थी वह आज भी हमारे लिए उतनी ही प्रासंगिक है।

यह सुखद है कि हमारे समय-समाज के लगभग सभी महत्वपूर्ण शब्दकर्मी अपने जमाने की 'हाइपर रियालिटी' से पूरी तरह वाकिफ हैं। ब्रेख्त की शब्दावली में कहें तो वे 'अंधकार के युग में भी अंधकार के बारे में कविता' लिख रहे हैं। इस स्रोत सामग्री से ही मार्क्सवादी सौंदर्यशास्त्र को अपने भावी विकास के लिए ऊर्जा प्राप्त होती रही है। इसको नजरअंदाज करके या इससे कटकर यदि कोई सौंदर्यशास्त्र विकसित होता है तो वह ब्रेख्त के शब्दों में कालांतर में 'उत्पादन का शत्रु' सिद्ध होने के लिए अभिशप्त होगा और उसकी भूमिका सृजन-विरोधी होगी।

'संस्कृति' को जयशंकर प्रसाद ने 'सौंदर्यबोध के विकसित होने की मौलिक चेष्टा' माना है। जाहिर है कि इस चेष्टा का सर्जनात्मक साक्ष्य आदिकवि वाल्मीकि से लेकर हमारे जमाने के सर्जनात्मक साहित्य में मात्रा-भेद एवं गुण-भेद के साथ विद्यमान है। इसी के साथ स्वीकार करना होगा कि कला और साहित्य के क्षेत्र में जड़ता के उदाहरण मार्क्सवादियों द्वारा 'बुर्जुआ' कहे जानेवाले साहित्य में ही नहीं, बल्कि विभिन्न विचारधाराओं के आतंक के तहत रचित अनेक कृतियों में भी मिलते हैं। प्रगतिवाद, जनवाद, नव्यजनवाद आदि के दौर से लेकर हमारे समय में लिखी जानेवाली रचनाएँ इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं कि मुक्तिबोध द्वारा बहुविध विवेचित 'जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि' के कई उदाहरण साहित्य-सृजन के क्षेत्र में जनपक्षधरता की पुरजोर वकालत करनेवाले रचनाकारों के यहाँ भी मौजूद हैं। इसलिए विचारधारा का दमामा पीटने से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण वह सृजन है, जिसे महज विचार के रूप में घटाकर देखा नहीं जा सकता।


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