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कविता

नट रस्सी पर नहीं भरोसे पर चलता है

अनुराधा सिंह


तुम जानते थे न भाषा बहुत है मेरे पास
उससे खेलना नहीं जानती मैं
तुमसे बरतते समय खो देना चाहती थी पूरा शब्दकोष
कि भाषा के एकाधिक अर्थ प्रेम की हत्या कर देते हैं
फिर भी शब्दों को ढाल बनाया तुमने
मौन को हथियार
तुम जानते थे न टूटी हुई चीजें बस बाँधी जा सकती हैं या चिपकाई
फिर भी तुम तोड़ते गए
फिर भी मैं बाँधती गई
सो नाते में गाँठ डाल देने का अभियोग है मुझ पर
तुम जानते थे न बाँधना और चिपकाना
संशय का सूत्र है
क्या किसी नट को गाँठ लगी रस्सी पर चलते देखा है ?

नट रस्सी पर नहीं भरोसे पर चलता है
मुझे तो तुम्हारी सड़कों पर चलने का अभ्यास तक नहीं
फिर भी चली न दोधारी पर
किसी दिन गिनना तुमने कितनी बार तोड़ा
मैं खोलूँगी जितनी बार बाँधा था मैंने
इस आखिरी खोलने से पहले ।


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