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कविता

पितर

अनुराधा सिंह


माँ कहती अभी किनकी है
भात ढक दो
पिता कहते सीमेंट गीला है
पैर नहीं छापना
खेत कहते बाली हरी है मत उघटो धूप कहती खून पसीना कहाँ हुआ अभी

चलती रहो, और बीहड़ करार हैं अभी
मैं समय के पहिये में लगी सबसे मंथर तीली
जब तक व्यथा की किनकी बाकी रही
किसी के सामने नहीं खोला मन
ठंडा गरम निबाह लिया
सुलह की थाली में परोसा देह का बासी भात
आँख के नमक से छुआ
सब्र के दो घूँट से निगल लिया

पत्थर हो गया मन का सीमेंट पिता
कहीं छाप नहीं छोड़ी अपनी
देह की बाली पकती रही
नहीं काटी हरे जख्मों की फसल
इतनी निबाही तुम सब पितरों की बातें
कि चुकती देह और आत्मा के पास नहीं बाकी
अपना खून पानी नमक अब जरा भी।


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