भारतीय नौसेना सेवा की पनडुब्बी 'चक्र' एक आक्रमण पनडुब्बी है। भारत के पास
ऐसी केवल एक ही आक्रमण पनडुब्बी है। यह आक्रमण पनडुब्बी एसएसएन प्रकार की है
जिसका मतलब होता है परमाणु संचालित आक्रमण करने वाली सामान्य उद्देश्य वाली
जहाज पनडुब्बी। एसएसएन ऐसे जहाजों के लिए अमरीकी नौसेना पतवार वर्गीकरण द्वारा
दिया गया संक्षिप्त नाम है। 'एसएस' एक पनडुब्बी को इंगित करता है और 'एन'
परमाणु ऊर्जा को दर्शाता है। विश्व की पहली परमाणु संचालित आक्रमण पनडुब्बी,
अमरीकी नौसेना की युएसएस नॉटिलस थी जो 1954 में परिचालित हुई थी।
एसएसएन की सहनशक्ति, नाव की तुलना में चालक दल द्वारा अधिक सीमित होती है। एक
परमाणु पनडुब्बी महीनों तक डूबी रह सकती है और अपने 25 साल के जीवनकाल में उसे
ईंधन भरने की आवश्यकता नहीं लगती है। एसएसएन को समय-समय पर हवा के लिए सतह पर
आने की आवश्यकता नहीं होती है। इससे उनकी गोपनीयता बरकरार रहती है। लेकिन कुछ
नवीनतम पारंपरिक पनडुब्बियो में स्टर्लिंग इंजन लगने से, ऐसी नई पारंपरिक
पनडुब्बी, परमाणु संचालित एसएसएन पनडुब्बी जितने ही फायदे देती हैं। स्टर्लिंग
इंजन वाली यह पनडुब्बी 2 सप्ताह तक पानी के नीचे रह सकती है। परमाणु संचालित
पनडुब्बी की तुलना में स्टर्लिंग पनडुब्बी काफी शांत होती है। स्टर्लिंग
पनडुब्बी को ऐसे शक्तिशाली और शोर मचाने वाले पंपों की आवश्यकता नहीं होती है
जिनका इस्तेमाल परमाणु पनडुब्बी में दबाव वाले रिएक्टरों के लिए होता है।
एसएसएन को बनाने में बहुत तकनीकी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। उसमे लगे
परमाणु ऊर्जा संयंत्र के निर्माण और रखर-खाव का खर्च उठाना पड़ता है। परमाणु
पनडुब्बी का नकारात्मक पहलू उसका राजनीतिकरण है। हमारे देश की परमाणु नीति
सशक्त नहीं है। हम परमाणु संचालित जहाजों को स्वीकारते हैं, लेकिन परमाणु
संयत्र को लेकर आंदोलन करते हैं।
'चक्र' को हमने रूस से 5500 करोड़ रुपये की लागत पर 10 सालों के लिए किराए पर
लिया है। सन 2012 से सन 2022 तक भारत में रहने वाली इस परमाणु पनडुब्बी को रूस
में अकूला-2 श्रेणी की क-152 क्रमाँक 'नेर्पा' के नाम से जाना जाता है। रूस
द्वारा स्वयं के लिए बनाई गई अकूला-2 श्रेणी की परमाणु पनडुब्बी में, 3000
किलोमीटर की दूरी तक मार करने की क्षमता रखने वाली परमाणु सक्षम मिसाइल का
उपयोग होता है। लेकिन भारत को दी गई इसी अकूला-2 श्रेणी की पनडुब्बी 'नेर्पा'
में सिर्फ 300 किलोमीटर की दूरी तक मार कर सकने वाली मिसाइलों की क्षमता है।
300 किलोमीटर की मार से हम किस प्रकार का, और किस देश के विरुद्ध, निवारक
स्थापित कर सकते हैं, यह सोचने की बात है। चीनी पनडुब्बी 093 में 1500
किलोमीटर की दूरी तक मार करने वाली क्षमता की मिसाइलें लगी हुई थीं। अब चीन के
पास इस पनडुब्बी का नया रूप 093ग आ गया है जिसमे कितने दूरी तक मार करने वाली
मिसाइलें लगी हुई हैं, इसका पता नहीं चला है। 093 और 093ग चीन के खुद के
द्वारा बनाई गई पनडुब्बियाँ हैं, जबकि हमारी रूस की है।
नेर्पा का निर्माणकार्य 1993 में अमूर पोत कारखाने में शुरू हुआ था। लेकिन 90
के दशक के आर्थिक संकटकालीन दौर के चलते यह काम रुक गया था। 2004 में जब भारत
सरकार और रूस की उद्योग के लिए संघीय अभिकरण के बीच एक संधि का समझौता हुआ, तो
रूस ने अपनी इस बंद पड़ी हुई परियोजना को इस शर्त पर फिर से चालू करने की बात
कही कि भारत इसको 5500 करोड़ रुपये की लागत पर किराए से लेगा। 2004 में भारतीय
रक्षा विभाग ने किसी कारणवश इस मुद्दे पर कोई भी टिपण्णी करने से इनकार कर
दिया था। इस पनडुब्बी के निर्माण के मानकों की आलोचना कई रूसियों ने की थी।
1993 से 2008 तक पंद्रह सालों में, अमूर पोत कारखाने से केवल एक ही पनडुब्बी
निकली - वह थी नेर्पा। वह इसीलिए कि पनडुब्बी बनाने वाले पुराने दिग्गज छोड़ कर
चले गए थे और आर्थिक तंगी और राजनीतिक वातावरण के चलते इस कारखाने में सिर्फ
उन तकनीकी कामगारों को ही काम मिल रहा था जो हर कीमत पर कोई भी काम करने को
तैयार थे। 1936 में बने हुए इस पोत कारखाने में 270 जहाज बनाए जा चुके थे
जिनमे 55 परमाणु पनडुब्बी भी शामिल थीं। इन कामगारों ने उस धातु की गुणवत्ता
पर भी प्रश्न उठाये थे जो पनडुब्बी बनाने में लग रहे थे। 2009 तक इस पनडुब्बी
की सीवनों में से पानी रिस रहा था। 2009 के अंत तक इस पोत कारखाने की बिजली को
भी काट दिया गया था। उस समय, नेर्पा पर हुई 400 करोड़ रुपये की लागत का भुगतान
भी रूसी संघीय अभिकरण की ओर से उसके निर्माताओं और कामगारों पर बकाया था। रूसी
संघीय अभिकरण के अधिकारी यह रकम तब तक देने में अक्षम थे जब तक भारत की ओर से
यह पैसा नहीं आ जाता।
नवंबर 2008 में जापानी समुद्र में समुद्री परिक्षण के दौरान, अचानक ही नेर्पा
की अग्नि शमन प्रणाली स्वतः ही शुरू हो गई। बराबर एवं सुरक्षित ढंग से न बने
हुए होने के कारण इस प्रणाली से हुई दुर्घटना में 20 लोगों की मृत्यु हो गई।
27 अक्टूबर को समुद्री परिक्षण के लिए निकली इस पनडुब्बी में 12 दिन के पश्चात
ही 8 नवंबर को यह दुर्घटना हो गई। भारतीय नौसेना चालक दल का जत्था इसी समुद्री
परिक्षण के दौरान नेर्पा पर आने वाला था। हालाँकि इस हादसे से पनडुब्बी का
रिएक्टर सुरक्षित रहा और विकिरण स्तर सामान्य बना रहा, लेकिन पनडुब्बी में
विषैली गैसों से वातावरण विषैला हो गया। पनडुब्बी पर उस समय तकरीबन 200 लोग
मौजूद थे। सन 2000 में कर्स्क पनडुब्बी के डूब जाने के बाद यह रूस का पनडुब्बी
संबंधित दूसरा सबसे बड़ा हादसा है। इस हादसे के बाद पहले तो भारत ने रूस से यह
पनडुब्बी लेने से इनकार कर दिया, लेकिन जब रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर
प्यूटीन ने नेर्पा पनडुब्बी निर्माण कार्य में आए खर्चे का भुगतान करने का
एलान किया, तो भारत ने नेर्पा के हादसे और दोषपूर्ण निर्माण को अनदेखा कर
दिया। मई 2009 में भारतीय और रूसी रक्षा अधिकारियों की बैठक हुई जिसके तुरंत
बाद नेर्पा को रूसी नौसेना के साथ जोड़ दिया गया। 2010 की शुरुआत में
जल्दी-जल्दी नेर्पा में सुधार किए गए और उसी साल अगस्त के महीने में दोनों
देशों के बीच हुए समझौते के पूर्ती करने के लिए रूस ने भारतीय नौसेना के दल को
नेर्पा चलाने का परिक्षण देना शुरू कर दिया। 2012 में नेर्पा ने रूसी बंदरगाह
व्लादिवोस्टोक से भारतीय बंदरगाह विशाखापत्तनम की यात्रा की और 8 अप्रैल 2012
को नेर्पा भारतीय नौसेना में शामिल हो गई जहाँ इसका नाम बदलकर 'चक्र' रख दिया
गया।
या तो यह इस पनडुब्बी की जन्मजात दुर्गति है, या फिर उन 20 मरे हुए लोगों के
भूतों का कारनामा है कि 2017 की दिवाली के 2 हफ्ते पहले 'चक्र' ('नेर्पा')
दुर्घटनाग्रसित हो गई और इसके सोनार का गुंबद टूट गया। फेब्रुअरी 2018 में रूस
ने इसको सुधारने के लिए भारत से 125 करोड़ माँगे। इस दुर्घटना के फलस्वरूप
'चक्र' को सूखी गोदी में रख दिया गया है और हाल-फिलहाल इसके समुद्र में वापिस
जाने के कोई आसार नहीं हैं। भारत को इस पनडुब्बी को 2022 में रूस को फिर से
वापिस भी करना है। जाहिर है कि इस पनडुब्बी के इकरारनामे में सामान्य
जीर्ण-शीर्ण से हुई दुर्गति को छोड़कर किसी और नुकसान के होने से या तो भरपाई
के प्रावधान होंगे या खुद भारत के ऊपर इसको सुधारने की जिम्मेदारी होगी।
ये 5500 करोड़ रुपये हमने पनडुब्बी में डाले हैं या पानी में, ये साफ नहीं है।
इन 10 वर्षों में इस पनडुब्बी के होने से कौन-सा आक्रमण हमने बचा लिया या किस
देश के खिलाफ इसका इस्तेमाल कर दिया? प्रश्न यह है कि अगर ये 5500 करोड़ रुपये
हम भारतीय वैज्ञानिकों और अभियांत्रिकों को दे देते, तो हम क्या बनाने में
कामयाब हो जाते। हम किसी भी देश की रखी हुई, मुसीबतों से भरी, या जो उनकी
मुख्यधारा से निकल चुकी हों ऐसी वस्तुओं को पाने के लालायित क्यों हैं? ऐसा तो
नहीं है कि ये देश हमको ऐसी वस्तुएँ मुफ्त में दे रहे हैं। अगर ये मुफ्त में
भी देते हैं तो इसीलिए कि उस वस्तु के विघटन के खिलाफ सख्त अंतरराष्ट्रीय
कानून हैं।