झूमर को कोर्ट के फैसले की कॉपी बड़ी दौड़-धूप के बाद शाम करीब चार बजे मिल पाई
	थी। उसने अपने वकील श्यामल कांत श्रीवास्तव को तब धन्यवाद दिया था। साथ ही
	वकील साहब की घुमा-फिरा कर कही जा रही तमाम बातों का आशय समझते हुए पहले से तय
	फीस के अलावा पाँच हजार रुपये और दिए थे। रुपये मिलने की खुशी वकील साहब के
	चेहरे पर दिख रही थी। मुँह में पान भरे उनका मुंशी अजीब सी आवाज में यह कहना
	ना भूला कि 'अरे! जिन मामलों का फैसला आने में आठ-दस वर्ष लग जाते हैं हमारे
	वकील साहब ने चार वर्ष में ही करा लिया।' झूमर भी इस बात से सहमत थी। क्योंकि
	शुरू में ही जिसने भी इस केस के बारे में जाना उसने यही कहा 'यह तो शायद अपनी
	तरह का पहला केस है। इसका फैसला आना आसान नहीं होगा। दस-पंद्रह वर्ष लग जाएँ
	तो आश्चर्य नहीं।'
	फैसले की कॉपी लेकर जब वह घर चलने को हुई तो वकील ने यह कहकर केस जीतने की
	उसकी खुशी को ठंडा कर दिया कि 'सारे पेपर्स बहुत सँभालकर रखिएगा। हो सकता है
	अगेंस्ट पार्टी अपर-कोर्ट में अपील करे। लेकिन आपको परेशान होने की जरूरत नहीं
	है। आपका केस तो लोअर-कोर्ट में जीतने के बाद और भी स्ट्रॉन्ग हो गया है। अब
	वो किसी भी कोर्ट में जाए जीतने का तो सवाल ही नहीं उठता।'
	झूमर ने कहा 'जी ठीक है, पेपर्स सँभालकर रखूँगी।' इसके बाद वह उन्हें नमस्कार
	कर अपना बैग उठाकर चल दी। स्टैंड पर अपनी एक्टिवा स्कूटर के पास पहुँच कर सीट
	खोली, उसमें से हेलमेट निकालकर पहना और बैग, फाइलें उसी में रख दीं। स्टैंड
	वाले को टोकन और पैसा देकर घर को चल दी। कोर्ट से घर वृंदावन कॉलोनी पहुँचने
	में उसे बीस-पचीस मिनट लग गए। उसने गेट खोला तो सामने ही कुछ लेटर्स पड़े हुए
	थे। जो इंश्योरेंस कंपनी के थे और अकसर आते रहते हैं। उन्हें उठाकर उसने कमरे
	का दरवाजा खोला और ड्राइंगरूम में पहुँची, फिर कूलर, पंखा दोनों ऑन करके सोफे
	पर आराम से बैठ गई। दुपट्टे को चेहरे से खोल कर अलग रख दिया।
	स्कूटर चलाते समय वह दुपट्टे से चेहरे को ढक कर इस तरह बाँध लेती थी कि सिर्फ
	आँखें ही दिखती थीं। इससे धूल-धूप दोनों से बच जाती थी। चेहरे को दुपट्टे से
	इस तरह बाँधने का चलन शुरू तो हुआ फैशन के तौर पर लेकिन इससे चेहरे की सुरक्षा
	बड़े अच्छे से होती है। झूमर जब रास्ते में थी तभी उसकी बेटी अंशिका का फोन आया
	था कि वह कोचिंग जा रही है। वह इंटर के बाद से ही कंपटीशन की तैयारी में लग गई
	थी। साथ ही लखनऊ युनिवर्सिटी में बी.एस.सी. में उसका ऐडमिशन भी हो गया था।
	कोचिंग, युनिवर्सिटी वह टाइम से पहुँच सके इसके लिए उसने अंशिका को भी ऐक्टिवा
	स्कूटर ही दिला दी थी। लड़कियों और महिलाओं की पसंदीदा स्कूटरों में इसकी गिनती
	होती है।
	माँ-बेटी दोनों एक-दूसरे को जी-जान से प्यार करती हैं, इसलिए हमेशा मोबाइल के
	जरिए संपर्क में बनी रहती हैं। अंशिका ने फोन पर झूमर को यह भी बताया था कि
	उसने उनके लिए नाश्ता बना कर फ्रिज में रख दिया है। उसे वह खा लेंगी। सोफे पर
	सिर पीछे टिकाए झूमर सुस्ताने लगी थी। कूलर की ठंडी हवा उसे बड़ी राहत दे रही
	थी। उसने आँखें बंद कर रखी थीं। दिनभर कोर्ट में दौड़ धूप करते-करते वह पस्त हो
	चुकी थी। प्यास से गला सूख रहा था लेकिन फ्रिज से पानी लेकर पीने की हिम्मत
	नहीं कर पा रही थी।
	उसकी आँखों के सामने से पूर्व पति वैभव का चेहरा हट नहीं रहा था। वह पति जिसे
	वह प्राणों से ज्यादा चाहती थी। जिसके लिए दिल में अब भी कहीं एक कोना बना हुआ
	है। चाह कर भी उसे हटा नहीं पा रही थी। जब कि उसने कोर्ट में उसे बदचलन,
	आवारा, बदमाश साबित करने के लिए क्या-क्या जतन नहीं किए। कैसे-कैसे घिनौने
	आरोप लगाए और उन्हें साबित करने के लिए ऊल-जलूल प्रमाण पेश किए। कैसे एक से बढ़
	कर एक जलील, शर्मसार कर देने वाले प्रश्न खड़े किए। जिससे कई बार महिला जज भी
	नाराज हो जाती थी।
	यह सब सिर्फ इस लिए किया जिससे उसे झूमर को गुजारा भत्ता या उसके जो हक हैं वह
	ना देने पड़ें। इस स्वार्थ में नीचता की इस हद तक गिर गया कि अपनी बेटी को ही
	अपनी मानने से इनकार कर दिया। केस को उलझा कर और लंबा खींचने की गरज से बेटी
	के डी.एन.ए. टेस्ट की माँग कर दी। लेकिन भला हो जज का जिसने यह कहते हुए इस
	माँग को ठुकरा दिया कि इसका कोई औचित्य नहीं बनता। क्योंकि पति-पत्नी के अलगाव
	के चार-पाँच महीने बाद ही बच्चे का जन्म हुआ। उसके पहले दोनों पति-पत्नी साथ
	रहते थे। उनके बीच शारीरिक संबंध कायम थे। फैसले के बाद जब वह अपने वकील के
	साथ बाहर निकली थी तो सामने से ही निकल रहे वैभव से उसकी आँखें मिल गई थीं।
	जहाँ उसे अपने लिए घृणा की ज्वाला दिख रही थी।
	कूलर की ठंडी हवा से उसके तन का पसीना जरूर सूख रहा था। लेकिन उसकी आँखें भर
	रही थीं। इसलिए बंद आँखों की कोरों से आँसू की लकीरें गालों से नीचे तक बनती
	जा रही थीं। चार साल कोर्ट के चक्कर लगाने में उसने जो जलालत, तकलीफ झेली वह
	उसे एक-एक कर याद आ रही थीं। वकील की आखिर में कही यह बात उसे बेचैन किए जा
	रही थी कि 'अगेंस्ट पार्टी अपील कर सकती है।'
	वैभव ने यदि अपील कर दी तो ना जाने कितने बरस फिर धक्के खाने पड़ेंगे। कितनी
	जलालत, तकलीफ फिर झेलनी पड़ेगी। ऐसे में एक बार फिर उसे अपने एक रिश्तेदार का
	बार-बार कहा जाने वाला एक जुमला याद आ गया। जो शुरुआती दिनों में उसके और वैभव
	के बीच समस्या के समाधान के लिए मध्यस्थता कर रहे थे। और मामले को कोर्ट में
	ले जाने से मना करते हुए कहते थे कि 'अदालत कहती घुस के देख, मकान कहता छू के
	देख।' फिर कैलाश गौतम की 'कचेहरी' कविता की यह लाइन कोट करते कि 'कचेहरी बेवा
	का तन देखती है, खुलेगी कहाँ से वह बटन देखती है।'
	झूमर के मन में आया कि इन बातों में सच ही सच तो है। जब उसने यह मकान बनवाना
	शुरू किया था तो काम खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। और कोर्ट में वकील
	से लेकर पेशकार, बाबू, टाइपिस्ट, चपरासी ऐसा कौन था जो एक-एक पैसा निचोड़ लेने
	में नहीं लगा था। और वकील! वह तो सबसे चार कदम और आगे था। वह कितनी सख्त बनी
	रहती थी तो भी कुछ ना कुछ अश्लील बातें कर ही देता था। आए दिन घर तक छोड़ देने
	की बात कहना नहीं भूलता था। हर बार रूखा जवाब मिलने के बाद ही उसने यह सब बंद
	किया था।
	यह मुश्किलें उसे कई बार तोड़ कर रख देती थीं। मगर अंततः वह अपने को बचा पाने
	में सफल रही। उसने अपनी बटन तक कचेहरी के हाथों को पहुँचने से रोक दिया था। वह
	बेवा नहीं थी लेकिन परित्यकता तो थी ही, अकेली। इसके चलते कचेहरी ने अपनी
	आँखें, हाथ उसके तन तक पहुँचाने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी।
	प्यास से गला जब ज्यादा ही सूखने लगा तो उसने उठकर फ्रिज से ठंडी बोतल निकाली।
	अंशिका द्वारा बनाया गया बेसन का चिला, टोमेटो केचप और चिली सॉस लेकर फिर सोफे
	पर बैठ गई। चिला को गर्म करने की उसकी हिम्मत नहीं हुई। पहले उसने थोड़ा सा
	पानी पी कर गला तर किया। फिर नाश्ता किया। तभी अंशिका का फोन फिर आया कि वह
	कोचिंग से थोड़ा देर से निकलेगी। इसलिए आते-आते आठ बज जाएँगे। वह परेशान ना
	हों।
	झूमर ने जहाँ तक हो सका था अंशिका को कोर्ट के मामलों से दूर ही रखा था। पति
	अपने बीच की बातों से भी ज्यादा परिचित नहीं कराया था। अपने पिता के बारे में
	अंशिका के प्रश्नों का वह यही जवाब देती थी कि 'बेटा हम दोनों के नेचर जरा भी
	नहीं मिलते, इसीलिए एक नहीं रह सके। जिससे रोज-रोज के झगड़े से एक-दूसरे को
	परेशान ना करें, किसी को कोई नुकसान ना पहुँचाए।'
	नाश्ता करने के बाद झूमर ने सोफे पर कुशन को ही तकिए की तरह सिर के नीचे लगा
	लिया और लेट गई। अगेंस्ट पार्टी अपील कर सकती है वकील की यह बात अब भी उसे
	कानों में गूँजती लग रही थी। लेटने पर उसे आराम मिला तो उसकी आँख लग गई। वह
	सोती रही तब तक, जब तक कि कॉलबेल की तेज आवाज टिंगटांग ने उसकी नींद तोड़ नहीं
	दी। आँख खुलते ही उसने सामने दीवार पर लगी घड़ी पर नजर डाली तो साढ़े आठ बज रहे
	थे।
	झूमर जल्दी से उठकर बाहर गई और गेट खोला, सामने अंशिका थी। उसने देखते ही कहा
	'क्या मम्मी कितनी देर से घंटी बजा रही हूँ, आप हैं कि सुन ही नहीं रही हैं।'
	झूमर ने कहा 'हाँ बहुत थक गई थी। कब नींद आ गई पता ही नहीं चला।' माँ-बेटी
	दोनों अंदर आईं। झूमर अब भी बहुत थकान महसूस कर रही थी इसलिए अलसाई सी फिर
	सोफे पर बैठ गई। अंशिका ने अपना बैग, हेलमेट, मोबाइल टेबिल पर रखा।
	माँ की हालत देखकर वह जान गई थी कि आज फिर इनका मूड सही नहीं है। और खाना-पीना
	कुछ नहीं बना है। आते वक्त वह चार समोसे खरीद कर ले आई थी। उसने चारों समोसे
	एक प्लेट में माँ के सामने रखे। कहा 'मम्मी खाइए, मैं चाय बना कर लाती हूँ।'
	एक समोसा खुद लेकर उसे खाते हुए चाय बनाने किचेन में चली गई। माँ-बेटी ने
	समोसा, चाय खाने-पीने के बाद करीब घंटे भर तक टी.वी. देखा। इसके बाद अंशिका ने
	कपड़े चेंज किए और खाना बनाया। माँ-बेटी खा-पीकर ग्यारह बजे तक बेड पर पहुँच
	गईं।
	अंशिका ने कुछ देर मोबाइल पर मेल वगैरह चेक की, व्हाट्सएप पर मित्रों को कुछ
	मैसेज वगैरह भेजे फिर मोबाइल ऑफ कर सो गई। माँ-बेटी दोनों सोते समय मोबाइल ऑफ
	कर देती हैं। रात में अक्सर आने वाली अंड-बंड कॉलों के कारण ही दोनों ऐसा करती
	थीं। झूमर कुछ देर तो आँखें बंद किए पड़ी रही, लेकिन नींद नहीं आई तो उठकर बेड
	के सिरहाने की ऊँची पुश्त का सहारा लेकर बैठ गई। पीछे तकिया लगा ली थी।
	शाम को करीब तीन घंटे सो लेने के कारण उसकी आँखों से नींद कोशों दूर हो गई थी।
	कोर्ट का फैसला उसे और उलझाए था। जबकि फैसला पूरी तरह उसके पक्ष में था कि
	बेटी अंशिका का डी.एन.ए. टेस्ट नहीं होगा। पति को गुजारा भत्ता देना होगा।
	उसकी प्रापर्टी में भी झूमर का आधा हिस्सा होगा।
	झूमर सोचने लगी कि उसने वकील के कहने पर डी.एन.ए. टेस्ट से इनकार करके गलती की
	है। टेस्ट कराना ही अच्छा था। इससे वैभव के दोस्तों और रिश्तेदारों में जो
	उसके बदचलन होने, अंशिका को अपनी संतान मानने से इनकार कर, उसे जो झूठा बदनाम
	कर रखा है, इससे उसका झूठ सबके सामने आ जाता। इनकार करके तो वैभव के झूठ को
	उसने सब के सामने सच बना दिया। ना जाने इस वकील ने ऐसा क्यों किया? उसे पिछले
	दिनों मीडिया में छाए उस केस की याद आ गई जिसमें एक महिला दो-ढाई दशक बाद एक
	नामचीन बड़े राजनेता का डी.एन.ए. टेस्ट कराकर यह प्रमाणित कर देती है कि वह
	नेता ही उसके बेटे का पिता है। जो कई प्रदेशों के राज्यपाल, मुख्यमंत्री रह
	चुके हैं। सच सामने आने के बाद उस नेता ने बुढ़ापे में अंततः उससे विधिवत शादी
	भी की।
	झूमर के मन में यह कुलबुलाहट बढ़ने लगी कि काश टेस्ट कराती। लेकिन अब वह क्या
	कर सकती है। बाजी तो हाथ से निकल चुकी है। बड़ी देर तक उलझन में पड़ी वह बैठी
	रही। उसे प्यास लगी तो उसने साइड स्टूल की तरफ देखा वहाँ गिलास, पानी की बोतल
	दोनों ही नहीं थे। अंशिका रखना भूल गई थी। वह उठकर किचेन में गई, फ्रिज से
	पानी निकालकर पिया। लाकर स्टूल पर भी रखा फिर पूर्ववत अपनी जगह पर बैठ गई।
	उसने एक नजर अंशिका पर डाली, वह गहरी नींद में सो रही थी। स्लीपिंग ड्रेस पहने
	सो रही अपनी बेटी पर उसकी नजर ठहर सी गई। देखते-देखते वह अठारह की हो चुकी थी।
	लंबाई में अपनी माँ से भी दो-ढाई इंच ऊपर निकल पाँच फिट सात इंच की हो गई थी।
	चेहरा-मोहरा बनावट बिल्कुल माँ पर गई थी। मगर रंग पूरी तरह से पिता पर। एकदम
	दुधिया गोरा। माँ की तरह गेंहुआ नहीं। हाँ बाल माँ की तरह खूब घने काले, लंबे
	थे। कमर से नीचे तक लंबे बालों की वह सँभालकर देख-भाल करती थी। झूमर ने कई बार
	कहा भी कि कॉलेज, कोचिंग पढ़ाई के लिए इधर-उधर जाना रहता है। बालों को सँवारने
	में टाइम लगता है, इन्हें कटवा कर छोटा करा लो तो आसानी रहेगी। लेकिन उसने हर
	बार मना कर दिया तो झूमर ने उससे कहना बंद कर दिया था।
	झूमर ने बगल में सो रही बेटी के सिर पर बड़े प्यार, स्नेह से हाथ फेरा और सिर
	झुका कर माथे और बालों की मिलन रेखा पर हौले से चूम लिया। उसकी आँखें भर आई
	थीं। उसने मन ही मन कहा वैभव सच में तुमसा अभागा बाप दूसरा नहीं होगा। इतनी
	होनहार प्यारी सी बिटिया को तुमने बचपन से ही दुत्कार दिया। हद तो यह कर दी कि
	अपनी संतान को संतान कहने से मना कर दिया, महज एक औरत और प्रापर्टी के लिए
	मेरी और मेरी बच्ची की जिंदगी बरबाद कर दी।
	जीवन से अलग किया भी तो अन्य तमाम घिनौने विचारों वाले लोगों की तरह मुझे
	बदचलन कहकर। जबकि अच्छी तरह जानते हो कि बदचलनी के रास्ते पर मैं अब तक कभी
	चली ही नहीं। तुमने एक मासूम बच्ची से जिस तरह उसके पिता का सुख छीना है।
	लोगों के सामने आए दिन उसे, मुझे जिस तरह अपमान झेलना पड़ता है उसके लिए कभी
	ईश्वर तुम्हें माफ नहीं करेगा। मैं शुरू के दिनों में अपने भाग्य पर गर्व करती
	थी, इठलाती थी कि मैंने तुम जैसा आइडियल हसबैंड पाया है। मगर तुम्हारा असली
	रूप चार साल बाद दिखा। तब तक मैं ना इधर की रही ना उधर की। झूमर के मन में
	बीती बातें एक-एक कर उमड़ती जा रही थीं। उसका मन कसैला होता जा रहा था। पति के
	लिए अप्रिय शब्द मन में चल रहे थे।
	मन ही मन उसने कहा 'वैभव वास्तव में तुम्हारे जैसे शातिर आदमी को सिर्फ मेरी
	दीदी ही पहचान पाई थीं। उन्होंने सगाई से एक दिन पहले ही दबे मन ही से सही साफ
	कहा था कि ''झूमर पता नहीं क्यों मेरा मन कहता है कि यह ठीक नहीं है। यह अच्छा
	आदमी नहीं लग रहा।'' मगर तब तक मुझे देखने। बातचीत करने आदि के चलते तुम अपने
	परिवार के साथ चार-पाँच बार आ चुके थे।
	घर आने आदि के चलते चार-पाँच बार तुमसे मिल चुकी थी, बातचीत कर चुकी थी। ना
	जाने ऐसा क्या हो गया था कि मैं शादी से पहले ही तुम्हें टूट कर चाहने लगी थी।
	कैसे-कैसे रंगीन सपनों में खोई रहती थी। शादी की रस्म से पहले ही पति मान चुकी
	थी। तब यह नहीं मालूम था कि जिसे इतना चाह रही हूँ, इतना मान रही हूँ, वही एक
	दिन बदचलन कहकर दुत्कार भी देगा।
	तुम्हें दरअसल तब बड़ी बहन को छोड़कर माँ-बाबू, मँझली दीदी बाकी सबने भी ठीक कहा
	था। सब धोखे में आ गए थे कि लड़का बहुत सज्जन और सुंदर है। अच्छी नौकरी भी है।
	और इन सबसे पहले यह कि उस समय घर की आर्थिक हालत बुरी तरह डाँवाँडोल थी। एक
	तरह से घर मुझ पर ही निर्भर था। शादी के लिए सारा पैसा मेरी ही कमाई से इकट्ठा
	हुआ था।' झूमर को वह समय याद आ रहा था। जब दोनों बहनों की शादी में इतना कर्ज
	हो चुका था कि उसके बाबू जी बरसों तक उसे ही पूरा करते रहे।
	फिर यह सोचकर भाई की शादी की गई कि जो कैश मिलेगा उससे उसकी शादी में कुछ राहत
	मिलेगी। लेकिन शादी से पहले सीधा-सादा दिखने वाला भाई शादी के पहले दिन ही
	बीवी को देखकर ऐसे बदला कि पूरे घर को जैसे साँप-सूँघ गया। उसकी बीवी ने अगले
	ही दिन अपनी सत्ता का झंडा बुलंद कर दिया था। और भाई उसका सेनापति बन उसके
	पीछे-पीछे चल रहा था। स्थितियाँ इतनी बिगड़ीं कि एक हफ्ते बाद ही वह किराए का
	मकान लेकर अलग रहने लगा। उसके सहारे कर्ज से राहत पाने की जो बात सोची गई थी
	वह राहत मिलने की तो दूर कर्ज और बढ़ गया।
	उसके इस रुख से तब झूमर के माँ-बाबू के पैरों तले की जमीन खिसक गई थी। इसके
	बाद घर का खाना खर्च भी मुश्किल हो गया था। बाबू जी की तनख्वाह मिलने के हफ्ते
	भर पहले से ही तगादेदार दरवाजा खट-खटाने लगते थे। जब घर का चूल्हा जलना भी
	मुश्किल हो गया था तब झूमर ने खुद काम-धाम ढूँढ़ने की कोशिश की थी। ट्यूशन भी
	पढ़ाने की सोची मगर उससे कुछ खास बन नहीं पा रहा था।
	भाई की शादी के साल भर भी नहीं बीते थे कि उसके बाबू जी के रिटायरमेंट का वक्त
	आ गया। हालात और बदतर हो गए। कर्ज अब भी लाखों में बाकी था। भाई की शादी के
	बाद झूमर की शादी का जो सपना था उसके माँ-बाबू जी का वह चूर-चूर हो गया था।
	झूमर की शादी भी हो पाएगी, उन्हें इसकी कोई उम्मीद नहीं दिख रही थी।
	देखते-देखते उसके माँ-बाबू जी को तरह-तरह की बीमारियों ने जकड़ लिया। वह दोनों
	जरा-जरा सी बात पर रो पड़ते। अपने दामादों के हाथ जोड़ते कि हम लोगों के न रहने
	पर झूमर की शादी किसी तरह करा देंगे।
	कर्ज का बोझ जब असह्य हो गया। पेंशन ऊँट के मुँह में जीरा सी थी। ब्याज बढ़ता
	जा रहा था। तो अंततः उसके बाबू जी ने मकान बेचने का निर्णय ले लिया कि इससे
	कर्ज भी निपट जाएगा और झूमर की शादी भी किसी तरह हो जाएगी। और खुद पति-पत्नी
	पेंशन के सहारे किसी वृद्धाश्रम में जीवन बिताएँगे। लेकिन ऐसी कठिन स्थिति में
	दोनों बहनों और जीजा लोगों ने स्थिति सँभाल ली। इतना ही नहीं दोनों ने मिल कर
	झूमर की शादी का खर्च उठाने की बात भी कह दी।
	बदले में उसके बाबू जी ने अपनी सारी प्रापर्टी अपनी तीनों लड़कियों में ही
	बराबर-बराबर बाँटने की वसीयत करनी चाही। लड़के को उसकी बदतमीजी के कारण पूरी
	तरह से बेदखल कर देने का निश्चय किया। लेकिन फिर तीनों बहनों ने मिल कर उसका
	भी हिस्सा लगवा दिया। इस बीच एक काम और हुआ। ट्यूशन, काम की तलाश के बीच झूमर
	ने एम.कॉम कर लिया।
	जहाँ भी पता चलता नौकरी के लिए आवेदन करना ना भूलती। मगर हर जगह निराशा मिलती।
	इस बीच एक दिन उसकी मँझली दीदी के देवर आए और एल.आई.सी. एजेंट बनने की बात
	कही। झूमर ने कहा 'यह काम मुझसे नहीं हो पाएगा। लोगों से परिचित नहीं हूँ।'
	लेकिन वह ऐसे पीछे पड़ गए कि अंततः इसका एक्जाम दिलवा कर माने। झूमर उसमें पास
	हो गई। प्रशिक्षण भी पूरा कर लिया। जिसके बाद उसमें कान्फिडेंस बढ़ गया। दीदी
	के देवर रवीश के जरिए ही पहली पॉलिसी भी बेची। जल्दी ही यह काम उसको समझ में आ
	गया।
	रवीश के कारण काम आसान हो रहा था। जिसको पॉलिसी बेचती उसी से उसके मित्रों,
	रिश्तेदारों के नंबर लेकर वहाँ पहुँच जाती। छ सात में से एकाध कन्विंश हो ही
	जाता था। इस तरह उसकी एक अंतहीन चेन बन गई थी। साल भर में उसका बिजनेस इतना बढ़
	चुका था कि हर महीने उसका कमीशन पंद्रह से बीस हजार बनने लगा। घर की हालत काफी
	हद तक सुधर गई। माँ-बाबूजी की सेहत कुछ सुधर गई। इसका पूरा श्रेय झूमर रवीश को
	अब भी देती थी। साल बीतते-बीतते झूमर खुद इस फील्ड में इतना आगे निकल चुकी थी
	कि रवीश की मदद की जरुरत नहीं रह गई थी। लेकिन फिर भी बहुत सी जगह वह साथ जाता
	रहा।
	बहुत बातूनी हँसमुख रवीश रिश्ते के चलते हँसी मजाक भी कई बार खुले करता था। तो
	भी वह बुरा नहीं मानती थी। हँसी-मजाक में अक्सर हाथ वगैरह भी पकड़ लिया करता
	था। उसकी बाइक पर जब पीछे बैठकर चलती थी तो शुरू में तो कभी-कभी लेकिन फिर वह
	हमेशा ही दाहिने हाथ से बाइक की हैंडिल छोड़कर अपना हाथ पीछे कर उसका हाथ अपनी
	कमर के गिर्द पकड़ा देता था। वह मना करती तो कहता 'पकड़ लो यार नहीं तो बाइक
	भिड़ा दूँगा।' फिर कुछ दिनों बाद तो जैसे यह झूमर की आदत में आ गया था। बाइक
	चलते ही उसका हाथ स्वतः ही उसे जकड़ लेता था।
	जल्दी ही झूमर ने उसके साथ प्रयाग छान मारा था। वह उसका सीनियर था उसका
	व्यवसाय भी बढ़ रहा था। वह जिस भी कस्टमर के यहाँ उसे लेकर जाता उसको अपना
	जूनियर बताता। उसे इसमें बड़ा मजा आता था। बाद के दिनों में कस्टमर से बात शुरू
	कर आगे कहता कि 'पॉलिसी के बारे में झूमर जी आप को बताएँगी।' उसने उसे बहुत ही
	कम समय में पूरी तरह ट्रेंड कर दिया था।
	जिस दिन कोई भी पॉलिसी बिकती उस दिन वह सेलिब्रेट भी करता था। किसी होटल में
	चाय-नाश्ता से लेकर गंगा जी में साँझ ढलते वक्त नौका विहार भी करता। यह सब डेढ़
	साल तो बिना रुकावट के चला था। लेकिन फिर झूमर को लगने लगा कि वह अपनी हद पार
	करने लगा है। पहले एक बार नौका विहार के दौरान उसका हाथ अपने हाथों में लिए
	हौले-हौले सहलाता रहा। अपने स्वभाव के विपरीत बोल कम रहा था।
	कुछ देर ऐसा करने के बाद बोला था 'झूमर मैं बहुत दिनों से तुमसे कुछ कहना चाह
	रहा हूँ।' उसने उसको गंभीरता से देखते हुए कहा 'अच्छा! तो कहो ना। क्लाइंट के
	सामने तो चुप ही नहीं होते। मुझसे कुछ कहने में इतना समय ले रहे हो।' तब उसने
	उसकी हथेलियों को मजबूती से पकड़ लिया था। फिर उसकी आँखों में देखते हुए कहा
	था। 'झूमर मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ। तुमसे शादी करना चाहता हूँ।'
	अचानक उससे यह बात सुनकर वह सन्नाटे में आ गई थी।
	उसने अपना हाथ उससे छुड़ाना चाहा तो उसने और कस कर पकड़ लिया। वह एकदम चुप थी तो
	वह फिर बोला था। 'झूमर मैंने जब तुम्हारी दीदी की शादी में तुम्हें देखा था
	तभी से तुम्हें चाहने लगा था। तभी तुमसे ही शादी करने का मन बना लिया था।
	लेकिन मन की बात आज से पहले कभी किसी से कह नहीं पाया। पहले कई बार मन में आया
	कि तुम्हारी दीदी से कहूँ कि तुमसे मेरी शादी करा दें। लेकिन उनके सख्त स्वभाव
	के चलते कभी कुछ नहीं कह नहीं पाया।'
	तब झूमर सिर्फ इतना ही कह पाई थी कि 'रवीश हँसी-मजाक, फ्रैंकली बात या व्यवहार
	का यह मतलब कतई नहीं होता कि प्यार जैसा कुछ है। मैंने शादी के बारे में अभी
	कुछ सोचा ही नहीं है। और अगले कम से कम दो-चार साल भी कुछ नहीं सोचना चाहती।'
	इस पर उसने उसके हाथ को और जोर से पकड़ कर अपने चेहरे के पास ला कर कहा था
	'झूमर-झूमर मैंने पहले ही कहा कि दीदी की शादी में तुम्हें देखने के बाद से ही
	मैंने तुमसे शादी का मन बना लिया था। ऐसा नहीं है कि जब मिलना-जुलना शुरू हुआ
	तब मेरे मन में ऐसा आया।'
	इसके बाद दोनों ने कोई बात नहीं की। वापस लौटते समय उसकी जिद पर झूमर ने एक
	ठेले पर चाट खाई और घर आ गई। उस की इस बात से अगले कई दिन झूमर के बेचैनी भरे
	रहे। मगर रवीश ने अपने व्यवहार को बिल्कुल नार्मल रखा था। उसे देखकर लगता ही
	नहीं था कि इसके मन में ऐसा कुछ चल रहा है। वह ऐसी बात कर चुका है।
	मगर दो महीने बाद ही उसने रिश्ते की सीमा तोड़ दी तो झूमर ने भी उसे छोड़ दिया
	हमेशा के लिए। उस दिन उसके साथ सवेरे ही अलोपी बाग गई थी। एक बड़े क्लाइंट से
	मिलना था। उसे पॉलिसी बेचने के लिए कई हफ्तों से दोनों ट्राई कर रहे थे। सुबह
	जल्दी इसलिए निकले कि दस बजते-बजते चिलचिलाती धूप शुरू हो जाती थी। मई महिने
	का तीसरा हफ्ता चल रहा था और दोपहर होते-होते टेंपरेचर चौवालीस-पैंतालीस तक
	पहुँच जाता था।
	क्लाइंट के पास पहुँचने से पहले दोनों ने अलोपी देवी के मंदिर में पूजा-अर्चना
	की। फिर तय समय पर क्लाइंट के पास पहुँच गए। हफ्तों की मेहनत रंग लाई। क्लाइंट
	ने अपने छ सदस्यीय परिवार के लिए अलग-अलग पाँच पॉलिसियाँ लीं। फर्स्ट प्रीमियम
	की पाँच चेक्स दीं, जो करीब दो लाख रुपये की थीं। दोनों ने पहले प्रीमियम पर
	मिलने वाला सारा कमीशन उन्हें देने का वादा किया और वहाँ से निकल कर एक-दूसरे
	क्लाइंट के पास राजरूपपुर पहुँच गए। अब तक ग्यारह बज चुके थे।
	तेज धूप और लू में बाइक पर चलने पर उसे लगा जैसे गर्म हवा की आँधी के बीच से
	गुजर रही है। पसीने से पूरा बदन तर हो रहा था। पूरा मुँह ढके रहने के बावजूद
	चेहरा पसीने से तर-बतर लाल हो रहा था। लेकिन यह सारी तकतीफें उसे उड़नछू सी
	होती लगीं जब दूसरे क्लाइंट के यहाँ भी सक्सेस मिल गई। दोनों खुश थे। बारह
	बजते-बजते करीब तीन लाख का बिजनेस हो चुका था। तब झूमर ने रवीश से कहा 'अब
	सीधे घर चलो इतनी धूप में और नहीं चला जाता।' रवीश ने कहा 'अभी कैसे चल सकते
	हैं। अभी तो कई जगह चलना है।' झूमर ने कहा 'जो भी हो अभी घर चलो शाम को
	चलेंगे। सभी को फोन कर के बता दो। देख रहे हो गर्मी के मारे कोई बाहर नहीं
	निकल रहा। सड़क पर सन्नाटा छाया हुआ है। मानो कर्फ्यू लगा हुआ है।'
	रवीश ने कहा 'आना इधर ही है। बीस-बाइस किलोमीटर घर जा कर फिर इधर आना बड़ा
	मुश्किल होगा।' झूमर ने कहा 'जो भी हो और नहीं चल सकती। नहीं होगा तो
	क्लाइंट्स के यहाँ कल चलेंगे।'
	इस पर रवीश बोला 'यहीं पास में मेरे एक दोस्त का घर है। उसके यहाँ चलते हैं,
	वही रुकेंगे। फिर शाम को क्लाइंट्स के यहाँ हो कर घर चलेंगे।' रवीश काम को
	लेकर जुनूनी है यह सोचकर झूमर ने कह दिया 'ठीक है चलो दोस्त के यहाँ।' उस समय
	तक झूमर रवीश के साथ इतना घुलमिल चुकी थी कि उस पर पूरा यकीन करती थी। बाहर
	खुद को उसके साथ सुरक्षित महसूस करती थी। वह कभी भी किसी के सामने उससे कोई
	हलकी-फुलकी बात नहीं करता था। इन सबके चलते वह उसके साथ बहुत ईजी महसूस करती
	थी।
	क्लाइंट के यहाँ से मुश्किल से दस मिनट की दूरी पर वह रवीश के साथ उसके दोस्त
	के घर पहुँची। एक ठीक-ठाक सा दो मंजिला मकान था। रवीश ने कॉलबेल बजाई तो एक
	अधेड़ महिला ने गेट खोला। एल शेप में बने पोर्च में एक टू व्हीलर और एक लेडीज
	साइकिल खड़ी थी। महिला ने रवीश को देखते ही मुस्कुराते हुए कहा 'आओ रवीश कई दिन
	बाद आए।' रवीश ने भी नमस्ते करते हुए कहा 'आंटी टाइम नहीं मिल पाता।'
	उसने फिर झूमर का परिचय कराया 'आंटी ये झूमर मेरे साथ ही काम करती है। जिस
	क्लाइंट से मिलना था, वह अभी मिला नहीं, शाम को मिलेगा। इतनी धूप में घर जाकर
	आना मुश्किल है। तो सोचा तब तक यहाँ रेस्ट कर लेते हैं।' झूमर ने देखा कि आंटी
	रवीश के कामधाम के बारे में सब कुछ जानती हैं। लेकिन फिर भी दो मिनट हो गए एक
	बार भी अंदर चलने को नहीं कहा। ये रवीश के दोस्त की माँ हैं फिर भी यह व्यवहार
	है, तो ये चार घंटे क्या रुकने देंगी। मगर तभी रवीश बोला 'आंटी वो चाभी दे
	दीजिए।'
	यह सुनकर झूमर को अजीब सा लगा। वह जब तक कुछ समझती तब तक आंटी ने एक छ इंच
	लंबी चाभी अंदर से ला कर रवीश को थमा दी। रवीश पोर्च के बगल से ऊपर को जा रहे
	लंबे जीने से झूमर को लेकर ऊपर पहुँचा। लंबी चाभी से इंटरलॉक खोला, दरवाजे को
	अंदर धकेला। वो सीधे एक बड़े ड्राइंगरूम में दाखिल हो गए। ड्राइंगरूम बड़ा
	खूबसूरत था। बढ़िया सोफे थे। दो तरफ स्टाइलिश दीवान पड़े थे जिस पर मोटे मैट्रेस
	और गाव तकिए लगे हुए थे। टी.वी. एक बड़ा फ्रिज, कई कोनों पर स्टाइलिश तिपायों
	पर कलाकृतियाँ, खिड़कियों पर भारी महरून कलर का पर्दा था।
	छत के बीचो बीच बड़ा सा झूमर लगा था। चारों दीवारें और छत अलग-अलग कलर से पेंट
	की गई थीं। सभी कलर एक ही फैमिली के थे। कलर कॉबिनेशन बहुत ही खूबसूरत था। कई
	पेंटिंग भी थीं जो मैटफिनिश गोल्डेन कलर के फ्रेम में मढ़ी थीं। ये सभी पेंटिंग
	भारतीय कलाकारों की थीं। इनमें मुख्यतः राजा रवि वर्मा, मंजीत बावा, अमृता
	शेरगिल, जतिन दास थे। ड्राइंगरूम की एक-एक चीज कह रही थी कि इसका मालिक
	क्लासिक चीजों का शौकीन एक आर्ट प्रेमी व्यक्ति है।
	झूमर कुछ संशय के साथ सब देख ही रही थी कि रवीश ने ए.सी. चला दिया। फिर सोफे
	पर बैठते हुए उसे भी बैठने को कहा। वह बैठ गई। तभी रवीश ने टी.वी. के बगल में
	ही रखे सोनी के इंपोर्टेड म्युजिक सिस्टम को ऑन कर दिया। उसमें पहले से लगी
	कैसेट बजने लगी। जगजीत सिंह का गाया एक मशहूर गीत 'होंठों से छू लो तुम मेरा
	गीत अमर कर दो' चलने लगा था।
	तब सी.डी, डी.वी.डी, पेन ड्रॅाइव आदि का जमाना नहीं था। ए.सी. की ठंडक से इतनी
	राहत मिली कि झूमर को नींद आने लगी। तभी रवीश ने फ्रिज से पानी की ठंडी बोतल
	निकाली और किचेन से गिलास लेकर आया। झूमर ने उठकर पानी निकालना चाहा तो उसने
	मना कर दिया। खुद भी लिया और उसे भी दिया। वहाँ वह जिस तरह मूव कर रहा था।
	उससे यह साफ था कि वह फैमिली मेंबर की तरह है।
	झूमर ने जब पूछा तो उसने बताया कि यह उसके बिजनेसमैन दोस्त विवेक चंद्रा का घर
	है। उसकी पत्नी दिल्ली की रहने वाली है। उसके फादर भी बिजनेसमैन हैं। गर्मी की
	छुट्टी के चलते वह बच्चों संग वहीं गई हैं। विवेक बिजनेस के चलते ज्यादा कहीं
	जा नहीं पाता। इसके बाद दोनों के बीच ज्यादा बातचीत नहीं हुई। झूमर की तरह वह
	भी आलस्य में था जगजीत सिंह के गाए गीत कैसेट में एक के बाद एक चल रहे थे।
	सोफे पर ही सिर टिकाए झूमर ने आँखें बंद कर ली थीं। उसे नींद आ गई। बीस-पचीस
	मिनट बाद ही उसको लगा जैसे उसकी बाँह पकड़ कर कोई उसे खींच सा रहा है। उसकी
	आँखें खुल गईं। वह एकदम सकते में आ गई। रवीश दोनों हाथों से उसकी बाँहों को
	पकड़े हुए था। वह एकदम तड़प उठी। उसकी बाँहों से करीब-करीब छूट गई। लेकिन उसने
	उतनी ही फुर्ती से फिर पकड़ते हुए जल्दी-जल्दी कहा 'सुनो-सुनो झूमर पहले मेरी
	बात सुनो।' उसकी इस बात से छूटने की झूमर की कोशिश कमजोर जरूर पड़ी थी लेकिन
	बंद नहीं हुई थी।
	वह बोला 'मुझे गलत मत समझो झूमर।' फिर से उसने शादी की बात छेड़ते हुए ऐसी-ऐसी
	भावुकता भरी बातें शुरू कीं कि झूमर का विरोध कमजोर होता गया। मगर अचानक ही
	झूमर ध्यान का अपने दुपट्टे पर गया जो उसके कंधों पर ना हो कर सामने टेबिल पर
	पड़ा था। यह देखते ही उसका खून खौल उठा। वह चीख उठी 'हटो।' साथ ही उसे धकेला
	भी। फिर झपट कर दुपट्टा अपने कंधों पर डालते हुए सामने ठीक किया।
	तेज आवाज में बोली 'तुम इतने गिरे हुए इनसान होगे नहीं पता था। धोखेबाज साजिश
	कर यहाँ मुझे लूटने के लिए ले आया। मैं सो गई तो मेरे कपड़े उतार रहा है।' उसके
	चिल्लाने से रवीश एकदम घबड़ा गया था। बार-बार माफी माँगने लगा। धीरे बोलने को
	कहने लगा। तमाशा न बने यह सोचकर तब झूमर ने आवाज धीमें जरूर कर दी। लेकिन साथ
	ही यह भी कह दिया कि आइंदा मेरी छाया के करीब भी ना फटकना। उसने अपना बैग
	उठाया और चल दी तो वह बोला 'धूप कम हो जाने दो मैं छोड़ दूँगा।'
	उसने कहा 'धूप क्या अंगारे भी बरस रहे हों तो भी जाऊँगी। इसी वक्त जाऊँगी,
	अकेले जाऊँगी। तुम्हें एक भला इनसान समझा था। तुम्हारी मदद का एहसान कैसे
	चुकाऊँगी सोचती रहती थी, लेकिन तुम मदद नहीं मदद का खोल चढ़ा जाल फेंक कर मुझसे
	अपनी हवस मिटाने की कोशिश में थे। मुझे खुद पर गुस्सा आ रही है कि तुम्हारे इस
	चेहरे के पीछे छिपी मक्कारी, असली घिनौना चेहरा मैं देख क्यों नहीं पाई?
	याद रखना मैं उन लड़कियों में नहीं हूँ जो सेक्स की भूख में आसानी से बिछ जाती
	हैं। मेरे लिए सबसे पहले मेरी इज्जत और मेरे माँ-बाप का स्वाभिमान है।' यह
	कहकर वह दरवाजे की ओर बढ़ी तो रवीश एकदम से जमीन पर बैठ उसके पैर पकड़ कर
	गिड़गिड़ा उठा था कि 'ठीक है इसी समय चलते हैं। लेकिन अकेली मत जाओ आंटी ना जाने
	क्या शक कर बैठें। मेरे साथ चलो जहाँ कहोगी वहीं छोड़ दूँगा। मेरा यकीन करो
	मेरे मन में तुम्हारे लिए कोई गलत भावना नहीं थी।' उसका गला एकदम भर्राया हुआ
	था। झूमर को जाने क्या हुआ कि वह नम्र पड़ गई और ठहर गई। तो वह उठा जल्दी से
	अपना सामान समेटा और झूमर के साथ नीचे आ गया। नीचे आंटी ने टोका तो बोला 'आंटी
	जरूरी काम आ गया है जाना ही पड़ेगा।'
	बाहर झूमर को लगा वाकई अंगारे ही बरस रहे हैं। सड़क पर सन्नाटा छाया हुआ था।
	वहाँ से घर के लिए कौन सा साधन ले उसे कहीं कुछ नहीं दिख रहा था। झूमर को वहाँ
	के बारे में ज्यादा नहीं पता था। एक पेड़ के नीचे दो-तीन रिक्शे खड़े थे।
	रिक्शेवाले सब हुड उठाए उसी के नीचे बैठे थे। झूमर ने वहीं चलने को कहा तो
	रवीश अनमने ढंग से ले गया। मगर रिक्शेवाले कहीं भी जाने को तैयार नहीं थे। तब
	रवीश फिर मिन्नतें करने लगा था कि 'यहाँ से घर बहुत दूर है। कोई सीधा साधन
	नहीं है। मुझे माफ करो। इसे मेरा प्रायश्चित समझो और घर तक छोड़ने दो।' उसकी
	बार-बार की मिन्नतों, तन झुलसाती धूप और लू से परेशान हो कर तब झूमर उसी के
	साथ घर चली गई थी।
	घर के सामने गाड़ी खड़ी कर रवीश ने फिर हाथ जोड़ा था कि 'किसी से कहना मत नहीं
	मैं जीते-जी मर जाऊँगा।' वह कुछ बोली नहीं। दरवाजा माँ ने खोला चुपचाप अंदर
	चली गई। वह बाहर से ही जाने लगा तो उसकी माँ ने हमेशा की तरह रुकने को कहा।
	मगर वह रुका नहीं। वहीं से चला गया। माँ, रवीश के बीच क्या बात हुई उसने नहीं
	सुना।
	उसके कुछ हफ्ते बाद उसने फिर संपर्क साधने की कोशिश की थी। लेकिन झूमर ने
	सख्ती से मना कर दिया था। इस बीच उसने एक काम और किया, कि छद्म नाम से दो और
	कंपनियों की भी एजेंसी ले ली। इससे वह कस्टमर के सामने तीन कंपनियों और उसके
	प्रोडक्ट्स का विकल्प पेश कर और अच्छा बिजनेस करने लगी। वह अपने काम में पक्की
	हो चुकी थी। मेहनत पहले से दुगुना करने लगी। देखते-देखते उसका कमीशन कई गुना
	बढ़ गया।
	उसने लोन वगैरह सब चुकता करने के अलावा काफी पैसा जल्दी ही इकट्ठा कर लिया था।
	रवीश का साथ छूटने से उसे सिर्फ एक तकलीफ हो रही थी। कि क्लाइंट्स के पास जब
	जाती तो उनमें से बहुत की लपलपाती जबान से अपने लिए लार टपकती देखती। कई
	प्रोडक्ट् से ज्यादा उसमें रुचि लेने लगते थे। बड़ी मुश्किल से पीछा छुड़ाती थी
	ऐसे कामुक दरिंदों से। और अपना बिजनेस आगे बढ़ाती थी।
	कर्जा निपटने और पैसा इकट्ठा होने के बाद तो जैसे घर में खुशी आ गई। माँ-बाप,
	बहनें सब कोई उसकी तारीफ करने का कोई मौका नहीं छोड़ते थे। फिर वह मनहूस दिन
	आया जब झूमर की शादी वैभव से हुई। उसे अब झूमर अपने जीवन का सबसे मनहूस दिन ही
	कहती है। क्योंकि वह एक छली-कपटी, लालची को अपना मान बैठी। उसे पति मान कर
	सौंप दिया सब कुछ। पापी ने उसे सिर्फ अपनी देह की भूख शांत करने की मशीन समझा।
	उसकी कमाई को चूसता रहा।
	झूमर सोचती है तो उसे लगता है रवीश को ठुकराना भी उसकी जिंदगी का मनहूस दिन
	था। बेचारा कितना पीछे पड़ा हुआ था। बाद में दीदी जीजा सब से सिफारिश कराई थी।
	मगर तब उसकी उस हरकत के कारण उसके मन में इतना गुस्सा था कि उससे शादी के नाम
	पर ही एकदम भड़क उठती थी।
	उसने आखिर तक उसका इंतजार किया था। उसकी शादी के दो साल बाद शादी की थी। आज वह
	कितना खुशहाल है, उसके तीन बच्चे हैं। बीवी सरकारी नौकरी में है। क्लास टू
	अफसर है। खुद भी कितना आगे निकल गया है। एल.आई.सी. में ऊँचे पद पर बैठा है।
	कैसा खूबसूरत मकान है, दो-दो कारें हैं। क्या नहीं है? पिछले साल दीदी की लड़की
	की शादी में झूमर को मिला था। कितनी इज्जत से मिला था। उसकी आँखों से लग रहा
	था जैसे बहुत कुछ कह रही थीं।
	शायद यही कि 'तुमने मुझे ठुकरा कर बहुत बड़ी गलती की थी झूमर।' मगर सच यह भी था
	कि झूमर के मन से यह बात आज भी नहीं निकलती कि उस दिन वह उसे धोखे से ही अपने
	दोस्त के घर ले गया था। सोता पाकर धोखे से ही उसके दुपट्टे को हटा दिया था।
	उसके तन को झाँका था। यदि वह जरा भी कमजोर पड़ती तो उसकी इज्जत, उसका सम्मान सब
	लूट लिया होता।
	धोखा वहाँ भी मिला था और जिसे पति मान कर आई थी उसने भी दिया। झूमर मन ही मन
	दृढ़ होते हुए सोच रही थी कि वैभव मैं तुम्हें कैसे बख्श दूँ। मुकदमा को चलते
	दो साल हुए थे। तुम्हें अपनी हार निश्चित दिख रही थी तो तुमने साजिशन फिर मुझे
	अपने जाल में फँसाया। अंशिका को लेकर इमोशनली ब्लैकमेल किया। मुकदमा चल रहा
	था। फिर भी मैं तुम्हारे जाल में फँस गई। महीनों तुम्हें अपने ही घर में अपना
	तन-मन सौंपती रही। और तुम तब हर बार यही कहते थे झूमर मैं जल्दी तुम सब को
	लेकर पुराने जीवन में लौट चलूँगा। बस किसी तरह निशा से फुरसत पा लूँ।
	तुम मुकदमा वापस ले लो। मगर किस्मत का साथ रहा और वकील का दबाव कि ऐसा नहीं
	किया। सोचा थोड़ा और देख लूँ। मगर तुमने एक बार फिर पैरों तले जमीन खिसका दी थी
	कोर्ट में यह कहकर कि हम दोनों के शारीरिक संबंध तो अब भी बहाल हैं। यह
	तुम्हारा दुर्भाग्य रहा कि तुम अपना दावा साबित ना कर सके। कोर्ट में झूठे
	साबित हुए। तलाक न हो सके, जिससे तुम्हें कुछ देना ना पड़े इसके लिए तुम्हारी
	हर साजिश नाकाम हुई। बार-बार जज की फटकार सुनी।
	तुमने इतने दंश दिए हैं वैभव की मैं किसी सूरत में तुम्हें नहीं छोड़ूँगी।
	गुजारा भत्ता ना देने और जिस प्रॉपर्टी के लिए तुम मर रहे हो मैं उस प्रॉपर्टी
	में भी आधा हिस्सा लेकर रहूँगी। अपना, अपनी बेटी का एक-एक हक ले कर रहूँगी।
	निशा और उसके बच्चों को भी बताऊँगी तुम्हारी असली सूरत। चलो तुम सुप्रीम कोर्ट
	चलो वहाँ तक चलूँगी।
	अव्वल तो मैं निशा और तुम्हारे परिवार को ही ऐसा कर दूँगी कि तुम कोर्ट के
	बारे में सोच ही नहीं पाओगे, अपील करने की तो बात ही दूर रही। बैठे-बैठे झूमर
	बेचैन हो उठी। तभी अंशिका ने करवट ली और एक हाथ उसकी गोद में सीधा फैला दिया।
	उसे देखकर झूमर का प्यार एकदम उमड़ पड़ा। उसके गाल को हल्के से सहलाते हुए मन ही
	मन बोली 'इतनी बड़ी हो गई मगर बचपना नहीं गया।'
	फिर ना जाने उसके दिमाग में क्या आया कि बुद-बुदा उठी कि 'बेटा अब वक्त आ गया
	है कि तुझे भी जल्दी ही सब बता दूँ। जिससे इस दुनिया के स्याह पक्ष से तू
	सावधान रहे, बची रहे।' झूमर ने धीरे से बेटी को अलग किया। बेड से नीचे उतरी और
	ड्राइंगरूम में आ गई। सोफे पर बैठकर टी.वी. ऑन किया तो कोई न्यूज चैनल रहा था।
	सीरिया में आतंकवादी घटनाओं का समाचार आ रहा था। आतंकियों द्वारा बंधक बनाए गए
	एक पायलट की पिंजरे में बंदकर जलाए जाने का ब्लअर किया हुआ विडियो क्लिप
	दिखाया जा रहा था। झूमर वह वीभत्स दृश्य देख न पाई और चैनल बदल दिया।