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कविता

अनुत्तरित

दिनेश कुशवाह


अनुबंधों की शर्त लगाकर
लौट गईं तुम घर तक आकर
तब तो बहुत अकेली थीं तुम
अब कैसे रह पाती होंगी?

कभी आँख भर आती होगी
मन की व्यथा सताती होगी
पहले तुम दौड़ी आती थीं
अब किससे कह पाती होंगी?

जब कोई मिलता है तुम सा
मन हो जाता है ये गुम सा
मेरे जैसा कभी किसी को
तुम भी तो पा जाती होंगी?


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