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कविता

शाप मुक्त होने का कौन सा तरीका है ?

दिनेश कुशवाह


मुझे गुस्सा आता है
अपने पिता, दादा, परदादा पर
कि वे इतने सीधे क्यों थे?
बाजुओं में बला की ताकत लेकर भी
वे बेचारे क्यों थे?

सोचते-सोचते सर्कस का रिंगमास्टर
मेरे जेहन में
आतंक की तरह छा जाता है
और मेरा गाँव, मेरा शहर
उसी आतंक में समा जाता है।

अप्रैल-मई महीने की
आँधी और बारिश से
सूख जाते हैं मेरे प्राण
हवा-बूँदाबादी के साथ
काँपने लगता है मेरा दिल
जबकि पूरा शहर निश्चिंत होता है
घरों, पार्कों, रेस्तराओं और सिनेमाघरों में।

तब मेरे भीतर
मेरे गाँव का खलिहान
आम का बागीचा
त्राहिमाम कर रहा होता है।

मुझे बेतरह उदास कर जाती है
गर्मी की शाम
जाड़े और वर्षा की शाम से
एकदम अलग
प्रेयसी की तरह आती है गाँव की याद।

शहर मुझे नहीं रिझा पाता
उचटा मन गाँव में
भाग-भाग जाता है
जहाँ मैं बीनता था
बचपन में आम के टिकोरे
ढोता था गेहूँ
तोपता था भूसा।
मनाया करता था कि
क्यों नहीं होती हैं सिर्फ उजली रातें
जिनमें होता है
रास्ता चलने का सुभीता
आँगन में साग-भात खाने का मजा।

गर्मी की शाम
किसान के घर राशि आने का मौसम
मेरी प्रेमिका, मेरा गाँव
मुझे घेर लेते हैं
इस समय मैं
पूरा का पूरा गाँव में होता हूँ
अपने आपको दादा-परदादा की तरह
बलवान पाता हूँ।

तभी सर्कस की माया में
अपने आप को नाचते हुए पाता हूँ
देखता हूँ खतम हो गए बैल
समाप्त हो गई गायें
लापता हो रही हैं भैसें।
गर्मी भर खेत धू-धू जलते हैं
गन्ना-गेहूँ-आलू-प्याज सब हो गए
किसान से बेगाने।

फँसाने लिए के पंडित-मुल्ला-महाजन-नेता-अफसर सभी हैं
उजाड़ने के लिए सुप्रीम कोर्ट से लेकर
सरकार तक है
बचाने के लिए कोई नहीं
किसान का बेटा लड़े अगर
तो नक्सली करार दिया जाता है।

क्यों हो गया है मेरा पौरुष अभिशापित
शाप मुक्त होने का कौन सा तरीका है?
सोचते-सोचते सर्कस का रिंगमास्टर
मेरे भीतर आतंक की तरह छा जाता है।


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