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कविता

हर औरत का एक मर्द है

दिनेश कुशवाह


छलना कह लो, माया कह लो
नागिन, ठगिनि, दुधारी।
ढोल, गँवार, शूद्र पशु कह लो
कामिनि, कुटिल, कुनारी।।

डायन या चुड़ैल कह पीटो
अबला दीन बिचारी।
जहर पिलाओ, गला-दबाओ
अथवा करो उधारी।।

सावित्री घर की मर्यादा
सतभतरी रसहल्या।
पति परमेश्वर की आज्ञा है
पत्थर बनो अहिल्या।।

यज्ञों में दुगर्ति करवाओ
जुआ खेलकर हारो।
प्रेम करे तो फाँसी दे दो
पत्थर-पत्थर मारो।।

बलि दे दो, ज़िंदा दफ़नाओ
जले बहू की होली।
पतिबरता तो मौन रहेगी
कुल्टा है जो बोली।।

सती बने या जौहर कर ले
डूब मरे सतनाशी।
विधवा हो तो ख़ैर मनाओ
भेजो मथुरा-काशी।।

जाहिल-जालिम आक्रांता को
बेटी दे बहलाओ।
बेटे खातिर राज बचा लो
ख़ुद भी मौज उड़ाओ।।

कुँआ, बावली, पोखर, नदियाँ
मर सीतायें पाटीं।
किस करुणाकर, करुणानिधि की
वत्सल छाती फाटी।।

अपनी दासी उनकी बेटी
अपनी बेटी उनकी।
महाठगिनि ने पूछा मुझसे
ये माया है किनकी।।

उन मर्दों में मैं भी शामिल
फिर भी कहूँ तिखार।
हर औरत का एक मर्द है
लुच्चा, जबर, लबार।।


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