hindisamay head


अ+ अ-

कविता

छूना मन

दिनेश कुशवाह


मैं तुम्हें छूना चाहता हूँ
जैसे तुम्हें
छूता है ठंढ़ी हवा का झोंका
और हुलास से भर उठती हो तुम।

मैं तुम्हें छूना चाहता हूँ
जैसे तुम्हें
नहाते समय छूता है पानी
और नहाकर तुम और सुंदर हो जाती हो।

मैं तुम्हें छूना चाहता हूँ
जैसे भोर को छूती है सुनहली किरण
या जैसे तुम छूती हो अपने आपको
स्वयं पर मुग्ध होते हुए।

मैं नहीं चाहता छूना तुम्हें
जैसे तुम्हें
छूता है बगलगीर
या रास्ते की धूल
जो तुमसे चिपक जाती है
उस अनजान की तरह भी नहीं
जो कुंडली मिलने पर
छूता है तुम्हें
और बना लेता है अपनी खेती।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में दिनेश कुशवाह की रचनाएँ