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कविता

अच्छे दिनों का डर

दिनेश कुशवाह


( वीरेन डंगवाल के लिए)

एक दिन ऐसे ही
नहीं रहेंगे बाल
नहीं रहेंगे दाँत भी
आँखो की ज्योति धुँधली हो जाएगी
एक दिन मिट्टी में मिल जाएगी यह देह।

पर देश नहीं रहेगा
शून्य हो जाएगा संविधान
लोकतंत्र को लकवा मार जाएगा
सबके लिए सैनिक शिक्षा अनिवार्य होगी
सोचकर डर लगता है।

जब जीवन के अंतिम सत्य से
डर नहीं लगता
तब छप्पन इंच सीने की हुंकार से
डर क्यों लगता है
जब अच्छे दिन आने वाले हैं
तब डर क्यों लगता है।

मेरे भाई!
मैं सीता और शंबूक दोनों हूँ
मुझे रामराज्य से डर लगता है।


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