विजयदेव नारायण साही के बारे में उन्हीं की आलोचना-पुस्तक 'जायसी' के प्रकाशकीय में कवि, चित्रकार और उनके सहकर्मी रहे जगदीश गुप्त ने लिखा है, ''साही अपने जीवन के अंतिम वर्षों में जायसीमय हो गए थे। स्वयं साही ने जायसी के एक रूपक के सहारे जायसी से अपने लगाव को रेखांकित करते हुए कहा है कि बार-बार दूर वनखंड से आकर मैं जायसी रूपी कमल की वास लेता हूँ। हर बार एक नई सुगंध मिलती है।''1 यह कवि जायसी से आलोचक साही के गहरे संवेदनात्मक और बौद्धिक लगाव का प्रमाण है, जिससे 'जायसी' जैसी समीक्षा-कृति संभव हुई।
विजयदेव नारायण साही ने हिंदुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद में 17, 18 और 19 मार्च 1982 को मध्यकालीन कवि मलिक मुहम्मद जायसी पर एक-एक करके तीन महत्वपूर्ण व्याख्यान दिए थे। बाद में इन व्याख्यानों और जायसी पर लिखे गए तीन अन्य अप्रकाशित लेखों को हिंदुस्तानी एकेडमी ने 'जायसी' नाम से छह निबंधों के संकलन को पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया। यह साही की किसी कवि विशेष पर आधारित एकमात्र व्यवस्थित आलोचना-पुस्तक कही जा सकती है। इसमें साही ने 'पद्मावत' और जायसी की विचारोत्तेजक 'उधेड़-बुन' की है।
साही जहाँ एक ओर जायसी की सांस्कृतिक-दृष्टि और उनके रचनात्मक महत्व से अभिभूत थे वहीं दूसरी ओर वे उनके जैसे कवि के व्यक्तित्व और कृतित्व 'पद्मावत' के चारों ओर फैले सूफीवाद के 'मलबे' को लेकर चिंतित भी थे। वे इसलिए चिंतित थे क्योंकि इससे जायसी के अप्रासंगिक हो जाने का खतरा था। कवि जायसी के चारों ओर फैले सूफी जायसी के मलबे को साफ कर कवि जायसी और उनकी रचना 'पद्मावत' की साफ-साफ और वास्तविक तस्वीर साही सबके सामने पेश कर उनकी प्रासंगिकता को स्थापित करना चाहते थे। उन्हें इस कार्य में कुछ सीमा तक सफलता भी मिली। उन्होंने समकालीन पाठकों को जायसी की काव्य-शक्ति से बड़े प्रभावशाली ढंग से परिचित कराया।
रामचंद्र शुक्ल ने उनके इस कार्य के लिए मजबूत आधार-भूमि पहले ही तैयार कर दी थी। यह सही है कि साही जायसी की व्याख्या में शुक्ल से बहुत आगे तक गए, उनकी अनेक स्थापनाओं से असहमति जताते हुए, उन्हें काटते हुए अनेक क्रांतिकारी स्थापनाएँ कीं जो उनके जीवन-काल में ही विवादास्पद भी हुईं और सराही भी गईं लेकिन यह भी उतना ही सही है कि यदि शुक्ल न होते तो यह संभव था कि वे न तो जायसी को उस रूप में जान पाते और न ही इतनी महत्वपूर्ण स्थापनाएँ ही कर पाते, जितनी कि उन्होंने की हैं। जायसी को खोजने का, उन्हें केवल सूफी भक्त से अलग एक सूफी भक्त कवि के रूप में स्थापित करने का काम शुक्ल ने ही किया, इस तथ्य से स्वयं साही असहमत नहीं हैं। वे विनम्रतापूर्वक शुक्ल की भूमिका और योगदान को स्वीकार करते हैं। उन्होंने लिखा है, ''मैंने आरंभ में कहा था कि जायसी ने लिखा चाहे सोलहवीं शताब्दी में हो, लेकिन उन्हें वस्तुतः आविष्कृत इस बीसवीं शताब्दी में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किया।''2 जायसी को सूफी मानने के साथ-साथ कवि के रूप में उन्हें स्थापित कर शुक्ल ने सूफीवाद के मलबे को साफ करने की जो शुरुआत की थी, साही का काम उसी को आगे बढ़ाता है।
साही जायसी और 'पद्मावत' के बारे में 'जायसी' में स्थापित मान्यताओं-निष्कर्षों तक अचानक ही या पहली नजर में ही नहीं पहुँचे। वे धीरे-धीरे जायसी को पढ़ते हुए, गुनते हुए उनके बारे में अंतर्दृष्टिपूर्ण उधेड़-बुन करते हुए इन मान्यताओं-निष्कर्षों तक पहुँचे। इस क्रम में जायसी के बारे में उनके विचारों में परिवर्तन भी होते रहे। 'जायसी' से पहले साही ने जायसी के बारे में जो कुछ लिखा है, उससे पता चलता है कि पहले जायसी के बारे में उनके विचार परंपरागत ही थे। परंपरागत इस अर्थ में कि उन्होंने शुक्ल के विचारों का ही अनुसरण किया है। 'धर्मनिरपेक्षता की खोज में हिंदी साहित्य और उसके पड़ोस पर एक दृष्टि'2 नाम से साही का एक विचारोत्तेजक निबंध है। इसमें उन्होंने जायसी के बारे में लगभग वही लिखा है, जो शुक्ल ने लिखा था। 'धर्मनिरपेक्षता की खोज-2' और 'जायसी' को पढ़कर लगता ही नहीं है कि दोनों एक ही आलोचक की रचनाएँ हैं। समय के साथ किसी कवि के बारे में किसी आलोचक की धारणा में परिवर्तन या विकास असंभव और आश्चर्यजनक नहीं होता है। फिर भी, 'जायसी' को पढ़ते समय उक्त लेख को याद रखना जरूरी है। 'साहित्य क्यों?' नामक पुस्तक में संकलित इस लेख में साही ने जायसी को सूफी कहा है। शुक्ल की तरह ही साही मानते हैं, ''जायसी का तसव्वुफ आगे बढ़कर, बिना अपने इस्लाम को छोड़े, हिंदू धर्म के मर्म को स्पर्श करता है।''3
यही नहीं, शुक्ल की तरह वे भी 'पद्मावत' की कथा को दो भागों में बँटी हुई पाते हैं' पहला कल्पना प्रधान, और दूसरा ऐतिहासिक। इसे स्पष्ट होता है कि सत्तर के दशक में या उससे पहले साही जायसी के संबंध में शुक्ल के योगदानों से अधिक कुछ जोड़ पाने की स्थिति में नहीं थे। लेकिन, जैसा कि कहा गया है, जब साही जायसी पर अपने को केंद्रित करते हैं, जायसीमय हो जाते हैं तब शुक्ल की मान्यताओं को काटते-छाँटते बहुत आगे तक चले जाते हैं। जहाँ छोटे-मोटे अपवादों को छोड़कर उनके योगदान को सब स्वीकार करते हैं।
हिंदी आलोचना में जायसी संबंधी शुक्ल की जिन स्थापनाओं को बाद में निर्विवाद मान लिया गया उनमें 'पद्मावत' की कथा के स्रोत संबंधी स्थापनाएँ भी हैं। साही ने उनकी इस स्थापनाओं को खारिज कर नई स्थापनाएँ कीं। शुक्ल की स्थापना है कि जायसी ने इतिहास के आधार पर कल्पना के सहारे 'पद्मावत' की कथा को बुना है। हजारीप्रसाद द्विवेदी ने भी 'पद्मावत' की कथा को कुछ इतिहास और कुछ लोक कथाओं पर आधारित बताया है। इन आचार्यों ने कल्पना की भूमिका को सीमित ही माना है। इसके विपरीत साही ने कल्पना को सर्वाधिक महत्व देते हुए स्थापित किया कि 'पद्मावत' की कथा पूर्णतः कल्पना-प्रसूत है। उनके अनुसार 'पद्मावत' की कथा जायसी ने इतिहास से नहीं बल्कि अधिक संभावना यह है कि इतिहासकारों ने जायसी से ली। साही ने इस मान्यता को जोर देकर स्थापित किया। उन्होंने यह स्थापना इस संभावना के आधार पर की कि हो सकता है 'पद्मावत' की कथा इतनी लोकप्रिय हो गई हो कि ऐतिहासिक रूप ग्रहण कर वह बाद में रची जाने वाली अनेक कथाओं का आधार हो गई हो। साही का संकेत शुक्ल की उस मान्यता की तरफ है जिसके अनुसार 'पद्मावत' की कथा इसलिए भी इतिहास पर आधारित दिखाई देती है क्योंकि 'पद्मावत' की तरह की कई अन्य रचनाएँ भी इसी कथा के आधार पर रची गई हैं। लेकिन, साही ने ऐतिहासिक साक्ष्य जुटाकर सिद्ध किया है कि ये सभी रचनाएँ जिनकी कथा 'पद्मावत' की कथा से मिलती-जुलती है, 'पद्मावत' के बाद की हैं। इसलिए, यह हो सकता है कि 'पद्मावत' की ही कथा को आधार बनाकर इनकी रचना की गई हो।
हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे कुछ विद्वान यह मानते हैं कि 'पद्मावत' की कथा लोक कथाओं पर आधारित है। जो लोग 'पद्मावत' की कथा को इतिहास या लोक कथाओं पर आधारित मानते हैं उनके बारे में साही लिखते हैं, ''इस साक्ष्यहीन अनुमान का आधार केवल यही हो सकता है कि अपनी ओर से वे जायसी की सृजनात्मक प्रतिभा को इतना बड़ा श्रेय देने को तैयार नहीं हो पाते कि सचमुच इस मलिक मुहम्मद नाम के साधारण आदमी ने समूची कथा स्वयं गढ़ डाली, विशेषतः ऐसी कथा जिसने लोक मानस और प्रबुद्ध जनों को भी इतनी जोर से पकड़ा कि पद्मावती-अलाउद्दीन की कथा काव्य-कृति से बाहर इतिहास का अंश बन गई।"4 इस तरह साही 'पद्मावत' को ऐसी काव्य-कृति मानते हैं जिसने 'अक्षरशः इतिहास' को जन्म दिया। साही 'पद्मावत' को संसार की उन रचनाओं में गिनते हैं जिन्होंने न केवल इतिहास बल्कि अपने-अपने समाजों में जातीय इतिहास का भी निर्माण किया। इससे स्पष्ट होता है कि 'पद्मावत' को साही इतिहास का निर्माण करने वाली काव्य-कृति मानते हैं।
हम देखते हैं कि शुक्ल ने कवि-कल्पना को जो अधिकार दिया था साही ने उसे और अधिक व्यापक और शक्तिशाली बनाकर जायसी को सौंपा। 'पद्मावत' की कथा भले ही जायसी की अपनी कल्प-सृष्टि हो लेकिन वह कल्पना से कोई सर्वथा नया, अकल्पनीय, अविश्सनीय, अपरिचित और अद्भुत लोक नहीं रचते। वस्तुतः 'पद्मावत' की कथा कवि-कल्पना-प्रसूत होते हुए भी अपने समकालीन समाज का प्रतिबिंब या युग-छवि प्रस्तुत करती है। जिसमें बादशाहों द्वारा राजाओं की बेटियों-पत्नियों को हरम के लिए माँगना, न मानने पर छीन लेना या अपहरण कर लेना, औरतों का जौहर कर लेना, युद्ध का वातावरण और शौर्य-गाथाओं जैसी सभी तत्कालीन प्रवृत्तियाँ विद्यमान थीं। इनकी वजह से 'पद्मावत' का इतिहास आधारित होना स्वाभाविक लगता है। समाज के प्रतिबिंब अथवा युग-छवि ने जायसी की कल्पना को प्रामाणिकता और स्वाभाविकता दी है।
'पद्मावत' की कथा को कल्पना-प्रसूत मानने वाले साही उसे वैसी ही दो भागों में बँटी हुई पाते हैं जैसी इतिहास और कल्पना के योग से बनी हुई मानने वाले रामचंद्र शुक्ल। साही कथा के इस विभाजन को अस्वाभाविक नहीं वरन् 'स्वाभाविक विभाजन' मानते हैं। कथा के पूर्वार्द्ध को शुक्ल ने काल्पनिक कहा है तो साही ने उसे 'परी कथा' या 'निजंधरी कथा' जैसा कहा है। उन्होंने ऐसा इसलिए कहा है क्योंकि उनके अनुसार पूर्वार्द्ध की कथा की बुनावट में 'अतिप्राकृतिक' या 'जादुई घटनाएँ' अधिक हैं। इसी तरह उत्तरार्द्ध की कथा को साही अतिप्राकृतिक और जादुई घटनाओं से रहित और इसीलिए 'परीकथा' या 'निजंधरी कथा' जैसी न मानकर उसे इतिहास की तरह की माना है। उत्तरार्द्ध में साही अलाउद्दीन जैसे ऐतिहासिक व्यक्ति, दिल्ली और चित्तौड़ जैसे ऐतिहासिक स्थलों की उपस्थिति तो स्वीकार करते हैं लेकिन इतने भर से ही उसे इतिहास मान लेने के लिए तैयार भी नहीं हैं। इस तरह 'पद्मावत' की कथा के विश्लेषण के क्रम में साही कथा में विभाजन वाली शुक्ल की बात तो मानते हैं लेकिन उसकी व्याख्या वे अपनी तरह से करते हैं।
शुक्ल द्वारा की गई 'पद्मावत' की व्याख्या-विश्लेषण से वे बिल्कुल असहमत दिखाई देते हैं। शुक्ल के विश्लेषण की कमियों को दिखाते हुए वे लिखते हैं, ''शुक्लजी ने इस विभाजन को रेखांकित करने के बाद अपने निबंध का सारा विश्लेषण प्रथमार्द्ध पर ही केंद्रित कर दिया। दूसरे हिस्से को उन्होंने अपनी सूक्ष्म आलोचना-दृष्टि का विषय नहीं बनाया और न उन्होंने इस प्रश्न को ही उठाना आवश्यक समझा कि दोनों हिस्सों में कोई आन्तरिक संबंध बनता है या नहीं; या अगर कोई गहरा संबंध नहीं बनता तो 'पद्मावत' वस्तुतः एक काव्य रह जाता है, या दो काव्यों का एक जुट है जिन्हें यांत्रिक ढंग से एक साथ नत्थी कर दिया गया है। यह प्रश्न बना रहता है कि दोनों हिस्सों के बीच शिल्पगत एकता या उससे भी आगे अर्थगत एकता किस प्रकार घटित होती है? संभवतः शुक्लजी ने सोचा हो कि इतिहास का ब्यौरा मात्र होने के कारण जब उत्तरार्द्ध में जायसी की कल्पना के लिए कोई स्थान नहीं है, तो उसके विश्लेषण से कुछ मिलने वाला नहीं है।"5
रामचंद्र शुक्ल के विश्लेषण पर अपने द्वारा उठाए गए सवालों के जवाब देने की कोशिश भी साही ने अपने पूरे विश्लेषण में की है। पूर्वाद्ध को 'सिंहल लोक' और उत्तरार्द्ध को 'इतिहास लोक' की संज्ञा देते हुए उन्होंने न केवल शुक्ल से अपनी असहमतियों को स्पष्ट किया बल्कि अपनी प्राथमिकताओं को भी स्पष्ट किया।
शुक्ल ने अपने विवेचन में 'पद्मावत' की कथा के दोनों भागों को क्रमशः रखा है। इसके विपरीत साही ने 'पद्मावत' की कथा संबंधी अपने विवेचन में उत्तरार्द्ध की कथा, जिसे शुक्ल ने 'इतिहास-वृत्त' कहा है, पहले चुना है। यह साही का अपनी प्राथमिकताओं का विवेचन-क्रम भी है। शुक्ल ने पूर्वाद्ध की कथा का जितना विस्तृत और सूक्ष्म विवेचन किया है उतना उत्तरार्द्ध का नहीं। इस बात की शिकायत साही ने की है, यह उपरोक्त उद्धरण से स्पष्ट है। इसलिए, यह लाज़िमी था कि साही इस शिकायत को स्वयं दूर करने का भरसक प्रयास करते।
शुक्ल जब 'पद्मावत' की कथा के उत्तरार्द्ध की ऐतिहासिकता पर विचार कर रहे थे तब कर्नल टॉड की 'राजस्थान-गाथा' ने उन्हें इसे ऐतिहासिक मान लेने के लिए सबसे अधिक प्रेरित किया। लेकिन, टॉड की जिस 'राजस्थान-गाथा' को आधार बनाकर शुक्ल ने उत्तरार्द्ध की कथा को इतिहास पर आधारित माना उसके बारे में साही की दो-टूक मान्यता है, "टॉड की राजस्थान-गाथाएँ इतिहास नहीं हैं।"6 टॉड की 'राजस्थान-गाथाओं' की ऐतिहासिकता को खारिज कर साही ने शुक्ल की स्थापना की जमीन ही खिसका दी। शुक्ल ने उत्तरार्द्ध की कथा को इतिहास पर आधारित सिद्ध करने के लिए जितने प्रमाण इतिहास से जुटाए हैं उससे अधिक प्रमाण साही ने इसे इतिहास न मानकर 'इतिहास-लोक' मात्र सिद्ध करने के लिए जुटाए हैं। साही के तर्क परिमाण की दृष्टि से ही नहीं बल्कि गुण की दृष्टि से भी अधिक ऐतिहासिक हैं।
इतिहासकारों ने समय-समय पर ऐसी ऐतिहासिक घटनाओं और समस्याओं पर विचार किया है जिनका गहरा संबंध 'पद्मावत' की कथा से है। शुक्ल ने टॉड की 'राजस्थान-गाथा' को इतिहास मानकर 'पद्मावत' के उत्तरार्द्ध की कथा को इतिहास पर आधारित बताया है। लेकिन, साहीजी ने टॉड की 'राजस्थान गाथा' को इतिहास नहीं मानते हुए इतिहासकारों की एक आपसी सहमति का जिक्र करते हुए लिखा है, "इतिहासकार अब लगभग सहमत हैं कि चित्तौड़ की पद्मिनी और गोरा बादल आदि की कोई कथा इतिहास से जायसी ने नहीं ली, अधिक संभावना यही है कि इतिहासकारों ने जायसी से ली।"7 उन्होंने अपने पक्ष में प्रो. कानूनगो के 'लिखित व्याख्यान' 'लीजेंड ऑफ पद्मिनी' भी का हवाला दिया है। जिसमें प्रो. कानूनगो इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि गोरा बादल आदि का समस्त वृत्त जायसी ने स्वयं कल्पित किया है। जिन इतिहास ग्रंथों में इनका उल्लेख मिलता है, वे सब जायसी के बाद के हैं।
टॉड की 'राजस्थान गाथा' को इतिहास न मानकर और इतिहासकारों की इस 'आपसी सहमति' को सामने रखकर साही ने दो ऐसे अकाट्य तर्क पेश किए हैं जो यह मानने के लिए विवश कर देते हैं कि 'पद्मावत' की उत्तरार्द्ध की कथा इतिहास पर आधारित नहीं है बल्कि जायसी द्वारा कल्पित है। उसमें इतिहास का आभास है। वह इतिहास नहीं, साही के शब्दों में 'इतिहास लोक' है। इसका कारण बताते हुए साही ने लिखा है, "जिसे शुक्लजी ने इतिहास का वृत्तांत कहा है, वह वस्तुतः इतिहास नहीं है। आधुनिक अर्थों में वह पूर्णतः यथार्थवादी भी नहीं है। इसलिए हम उसे इतिहास या यथार्थ न कहकर थोड़ा अधिक लचीला नाम देंगे। कथा का उत्तरार्द्ध एक 'इतिहास-लोक' निर्मित करता है।"8
साही उत्तरार्द्ध की कथा को पूर्वाद्ध की कथा की तुलना में यथार्थपरक मानते हुए भी इतिहास न कहकर 'इतिहास-लोक' कहते हैं, तो इसका कारण यह है कि उनकी दृष्टि में "कल्पना दोनों ही भागों में समानतः काम करती है।"9 इसलिए, जब कल्पना दोनों भागों में समान रूप से काम कर रही है तो 'कल्पना-प्रसूत' अंश को इतिहास कैसे कहा जा सकता है? इतिहास का आभास होने पर उसे 'इतिहास-लोक' ही कहा जा सकता है। कल्पना दोनों भागों में समान रूप से काम करती है लेकिन कल्पना-प्रसूत दोनों भागों का स्वभाव एक दूसरे से अलग है, ऐसा साही मानते हैं। उनके अनुसार पूर्वाद्ध 'अलोक' या 'यूटोपिया' है, जबकि उत्तरार्द्ध की कथा 'अलोक' या 'यूटोपिया' का निर्माण नहीं करती है। पूर्वार्द्ध की तुलना में उत्तरार्द्ध की कथा अर्थात् 'इतिहास-लोक' की प्रामाणिकता साही के अनुसार इसलिए है क्योंकि इसकी घटनाएँ आस-पास के सत्ता-संघर्ष के सामान्यीकृत नमूने हैं।
सामान्य नियम के विपरीत साही उत्तरार्द्ध की कथा के बाद पूर्वाद्ध की कथा के विवेचन पर आते हैं। 'पद्मावत' की पूर्वाद्ध की कथा में अतिप्राकृतिक घटनाएँ या स्थितियाँ जुड़ी हुई हैं। उस समय को देखते हुए कहा जा सकता है कि अतिप्राकृतिक या जादुई घटनाओं का काव्य में नियोजन प्रचलित था। उस समय के आस-पास की 'अलिफ लैला', 'चंदायन', 'मधुमालती' और 'मृगावती' आदि रचनाओं में अतिप्राकृतिक या जादुई घटनाएँ मिलती हैं। लेकिन, 'पद्मावत' की कथा में आई ये घटनाएँ इन रचनाओं की तरह मात्र कौतूहल या विस्मय नहीं पैदा करती हैं। साही इस अंतर को भली-भाँति पकड़ते हैं। वे लिखते हैं, "समूचे पूर्वाद्ध में इन घटना तरंगों का उठना-गिरना वस्तुतः एक विश्वव्यापी नैतिक और भावात्मक सामंजस्य का अंग है। जो मनुष्य और मनुष्येतर प्रकृति को एक ही संगीत से अनुप्राणित करता है।"10 मनुष्य और मनुष्येतर प्रकृति को एक ही संगीत से अनुप्राणित करने वाला संगीत उन रचनाओं में नहीं है जिनमें 'पद्मावत' की तरह अतिप्राकृतिक घटनाओं का नियोजन हुआ है, यह साही की मान्यता है।
साहीजी 'पद्मावत' में कथा के विभाजन को स्वीकार करते हैं, दोनों भागों की अपनी-अपनी विशेषताओं की व्याख्या भी भेदक लक्षणों के साथ करते हैं लेकिन वे कथा के इस विभाजन को स्वाभाविक मानते हैं। वे मानते हैं कि कथा के दोनों भाग कृत्रिम रूप से एकजुट नहीं हैं बल्कि स्वाभाविक रूप से एकजुट हैं। यही मानकर वे चुप नहीं रह जाते इससे आगे जाकर कथा के दोनों भागों के आंतरिक संबंध को खोजने की कोशिश भी करते हैं। शुक्ल के विवेचन में साही ने कथा के दोनों भागों के बीच आंतरिक संबंध की खोज की कमी की ओर ध्यान खींचा था। 'पद्मावत' की कथा के विभाजन को स्वीकार कर यदि वह उनके बीच आपसी संबंध की पड़ताल नहीं करते तो यह मान लेने की पर्याप्त संभावना रहती कि 'पद्मावत' दो काव्यों-कथाओं का एकजुट रूप है, लेकिन ऐसा नहीं है। दोनों संभवतः एक ही हैं। हाँ, यह जरूर है कि जिस तरह 'गोदान' में पहली नजर में गाँव और नगर की कथाएँ समानांतर चलती हैं और एक दूसरे से विच्छिन्न लगती हैं लेकिन वास्तव में हैं नहीं उसी तरह 'पद्मावत' की कथा के दोनों हिस्सों के बारे में भी लग सकता है। लेकिन, जिस तरह से कथा और शिल्प की दृष्टि से 'गोदान' में दो सर्वथा विच्छिन्न कथाओं को मान लेना गलत है, उसी तरह 'पद्मावत' में भी कथा के दोनों हिस्सों को सर्वथा एक दूसरे से विच्छिन्न दो कथाओं के रूप में देखना गलत है। साही ने कथा के दोनों हिस्सों के बीच शिल्पगत और अर्थगत एकता के घटने की प्रक्रिया का भी विश्लेषण किया है। उनका यह विश्लेषण 'सिंहल-लोक' और 'इतिहास-लोक' के आपसी संबंधों के विश्लेषण के माध्यम से 'पद्मावत' की कथा की पूर्णता और एकता की भी खोज है। कथा के दोनों भागों (कल्पना-लोक और इतिहास-लोक) को समान रूप से कल्पना-प्रसूत और दोनों के स्वभाव में अंतर की साही की मान्यता की ओर पहले ही ध्यान दिया जा चुका है और कुछ अंतरों की चर्चा भी हो चुकी है। इसके अतिरिक्त साही के अनुसार दोनों भागों के स्वभाव में एक महत्वपूर्ण अंतर यह है कि पूर्वाद्ध की कथा में आंतरिकता है जबकि उत्तरार्द्ध की कथा की प्रमुख विशेषता यह है कि इसमें आंतरिकता के लिए कोई जगह नहीं है। उनके अनुसार पूर्वाद्ध की कथा अर्थात् 'सिंहल-लोक' के लिए बाह्यता का अभाव और उत्तरार्द्ध की कथा अर्थात् 'इतिहास-लोक' के लिए आंतरिकता का अभाव है। इसके बावजूद साही दोनों को अपूर्ण नहीं मानते हैं। उन्हीं के शब्दों में, "सतह पर इतिहास-लोक अपनी बाहरी दुनिया में पर्याप्त है और सिंहल-लोक अपनी आंतरिकता में स्वतः संपूर्ण है।"11
सवाल उठता है कि जब कथा में विभाजन है और विभाजित दोनों कथाओं के स्वभाव में अंतर भी है तो वह 'स्वभावतः एकता' कहाँ से आती है जिसकी साही ने बात की है? इस सवाल के निराकरण के लिए ही, संभवतः, साही ने लिखा है, "(लेकिन) तत्वतः वे अलग नहीं रह सकते। वे एक दूसरे को बराबर बेधते रहते हैं और एक गहरी ट्रेजडी को जन्म देते हैं।"12 दोनों को परस्पर बेधने का काम पद्मावती का चरित्र करता है। उसके चरित्र को साही कथा के दोनों भागों को जोड़ने वाले सेतु के रूप में देखते हैं। वे लिखते हैं, "वस्तुतः पद्मावती दो दर्पणों के बीच प्रकाश का वह सेतु है जिसके द्वारा कथा के दोनों भाग परस्पर अनुस्यूत होते हैं।"13 साही के अनुसार जायसी ने 'पद्मावत' की कथा को सत्य के दो नितांत भिन्न स्तरों, दो भिन्न आयामों में फैलाकर जोख़िम का काम किया। यह जोख़िम प्रबंध काव्य की एकतानता के नष्ट होने का था। क्योंकि, उनके अनुसार काव्य के क्षेत्र में कथा की बुनावट इस तरह पहले कभी नहीं हुई थी। एक तरह से यह एक नया प्रयोग है जिसमें जायसी सफल हुए हैं। साही मानते हैं कि 'पद्मावत' की कथा में अनेक व्यतिरेक हैं लेकिन इन "व्यतिरेकों के बावजूद 'पद्मावत' एक सुगठित एकतान संरचना का काव्य है। पूरा काव्य अंततः केंद्रित, संपूर्ण और अखण्डित बौद्धिक सघनता का प्रभाव छोड़ता है।"14
साही के जायसी और 'पद्मावत' संबंधी विवेचन की केंद्रीय स्थापना यह है कि न जायसी सूफी हैं और न ही उनका 'पद्मावत' सूफी काव्य है। साही की इस मान्यता से, और जैसा कि आमतौर पर माना जाता है, साही जायसी के सूफी होने से तो इनकार करते ही हैं उनके सूफियाना अंदाज को भी नहीं मानते। लेकिन, साही जायसी के संबंध में उनके सूफियाना अंदाज या उनकी रचना में सूफीमत के कुछ तत्वों के होने से पूर्णतः इनकार भी नहीं करते हैं। उनके अनुसार जायसी 'मठी' या 'सरकारी' सूफी तो कतई नहीं हैं, यदि हैं भी तो 'कुजात सूफी'। इस तरह तमाम कोशिशों के बाद भी साही सूफी मत से जायसी के संबंध को पूर्णतः विच्छिन्न नहीं कर पाए। लेकिन, सूफीवाद के 'मलबे' से मध्यकाल के एक प्रमुख कवि (उनके अपने शब्दों में जिसकी रचनाशीलता गहरे अर्थों में आधुनिक है) की पहचान एक कवि के रूप में आधुनिकों के लिए फिर से स्थापित करने में वे जरूर कामयाब हुए हैं।
सूफीवाद और 'पद्मावत' के संबंध को साही ने इस तरह से विश्लेषित किया है, "यह कहना कि पद्मावत सूफी ग्रंथ है, एक बात है। यह कहना कि पद्मावत में सूफीमत या सूफमतों के तत्व हैं और ये कथा के प्रधान अंश हैं, दूसरी बात है। यह कहना कि पद्मावत में सूफी तत्व हैं लेकिन वे कथा के प्रधान अंश नहीं हैं, तीसरी बात है।"15 'पद्मावत' और सूफी मतवाद के संबंध के बारे में अब तक के सभी विवेचन उपरोक्त तीनों श्रेणियों में आ जाते हैं।
हिंदी आलोचना में पहले प्रकार का मत, 'पद्मावत' सूफी ग्रंथ है, सबसे प्राचीन और प्रचलित है। इसका आरंभ जार्ज ग्रियर्सन से होता है लेकिन आलोचना के क्षेत्र में इसकी पूर्ण स्थापना रामचंद्र शुक्ल के द्वारा हुई। पहले प्रकार के मत से दूसरे प्रकार का मत तत्वतः बहुत भिन्न नहीं है, इसलिए यहाँ पहले और दूसरे में अंतर करने की कोई खास जरूरत नहीं। जबकि, तीसरे मत के आरंभकर्ता साही के अनुसार 'पद्मावत' के अनुवादक श्री शिरेफ हैं। हिंदी आलोचना में पहले प्रकार के मत के समर्थन में ज्यादा लोग सामने आए जबकि श्री शिरेफ की मान्यताएँ बहुत बाद में चलकर विजयदेव नारायण साही के द्वारा और अधिक मजबूती के साथ पुनर्स्थापित हुईं।
पहले प्रकार के मत के प्रतिनिधि विचारक के रूप में हम डॉ रामखेलावन पांडेय का नाम ले सकते हैं। डॉ पांडेय मानते हैं कि जायसी महदवी मत में दीक्षित हुए थे। उनके गुरु का नाम शेख बुरहान था। उनके अनुसार इस मत का प्रवर्तन मीर मियाँ मुहम्मद जौनपुरी ने किया था। आमतौर पर यह माना जाता है कि सूफी विचारधारा का उदय इस्लामी जीवन-मूल्यों के विरोधस्वरूप और धार्मिक-सांस्कृतिक समन्वय के अनुकूल हुआ था, लेकिन डॉ पांडेय ऐसा नहीं मानते हैं। उनके अनुसार सूफी संप्रदाय का उदय धार्मिक और सांस्कृतिक समरसता के लिए नहीं बल्कि इस्लामी सांस्कृतिक परंपरा में आ रहे स्खलन को दूर करने की मंशा से हुआ था। डॉ पांडेय महदवी संप्रदाय की विशेषताओं का सविस्तार परिचय कराने के बाद जायसी और 'पद्मावत' के बारे में अपना मत इस प्रकार व्यक्त करते हैं, 'जायसी में इस (इस्लामिक) परंपरा के निर्वाह की आकांक्षा थी। सांस्कृतिक संगम के उदार पक्षपाती की अपेक्षा वे इस्लाम की गौरव-वृद्धि के आकांक्षी थे। इस्लाम के गौरव की ही गाथा उन्होंने गाई है।'16
डॉ पांडेय की तरह ही साही भी मानते हैं कि महदी संप्रदाय कट्टरपंथी, पुनरुत्थानवादी और सांप्रदायिक था और शरीअत की रक्षा के साथ-साथ दुनिया पर अपनी सत्ता स्थापित करना चाहता था। लेकिन, 'पद्मावत' के पाठ के बाद पता चलता है कि इसके रचयिता का संबंध महदी जैसे किसी सांप्रदायिक मत से कतई नहीं था। यही नहीं, 'पद्मावत' और इसके रचयिता के बारे में डॉ पांडेय ने जो कुछ लिखा है, उसे पढ़कर यह संदेह उत्पन्न होता है कि 'पद्मावत' को उन्होंने ठीक से पढ़ा भी है या नहीं। 'पद्मावत' में जायसी की सहानुभूति मुसलमान बादशाह अलाउद्दीन के प्रति न होकर हिंदू रानियों नागमती, पद्मावती, हिंदू राजा रतनसेन और हिंदू राज्य चित्तौड़ के प्रति है। आलोचकों ने इसे जायसी की धर्मनिरपेक्षता और धार्मिक सहिष्णुता का निर्विवाद प्रमाण माना है। साही के अनुसार अलाउद्दीन की चित्तौड़-विजय और उसके एक हिंदू राज्य से इस्लामी राज्य बनने पर धर्मनिरपेक्ष संस्कृति के कवि के रूप में सम्मानित अमीर खुसरो की प्रतिक्रियाओं से जब हम जायसी की प्रतिक्रिया की तुलना करते हैं तो पता चलता है कि वे किस दर्जे के उदार-हृदय और निष्पक्ष कवि थे।
जायसी को महदी संप्रदाय से जोड़कर 'पद्मावत' के संबंध में रामखेलावन पांडेय के विचारों और मान्यताओं पर टिप्पणी करते हुए साही ने ठीक ही लिखा है, 'पद्मावत' का सब-कुछ डॉ रामखेलावन पांडेय के निष्कर्ष के विरुद्ध जान पड़ता है।' 17
श्री शिरेफ इस बात के पक्षधर थे कि में सूफी तत्व हैं लेकिन वे इस कथा के प्रधान अंश नहीं हैं। साही ने इसी से सूत्र लेकर 'पद्मावत' के बारे में अपनी मान्यताओं को खड़ा किया है। वे मानते हैं कि 'पद्मावत' की रचना में तसव्वुफ एक तत्व है। जायसी ने तसव्वुफ के मुहावरे के उपादान का प्रयोग वैसे ही किया है जैसे काव्य-रूढ़ि, लोक-मानस, काव्यशास्त्र, योग, संस्कृत और फ़ारसी आदि से उपलब्ध उपादानों का। इन सब तत्वों पर रामचंद्र शुक्ल ने भी ध्यान दिया है। लेकिन, उन्होंने इन्हें जहाँ जायसी की बहुज्ञता का प्रमाण मानकर उनकी प्रशंसा की है वहीं साही जायसी की सफलता इस बात में मानते हैं कि वे 'इन विविध, जब तब विरोधाभासी और असंगत उपादानों को अपनी 'भावनात्मक भट्ठी' में गलाकर नया रूप दे सके हैं। निःसंदेह साही ने इन उपादानों में से तसव्वुफ को भी माना है, जो उनके अनुसार उपलब्ध काव्यात्मक मुहावरे में एक नया प्रयोग भर है। इस तरह वह यह कहना चाहते हैं कि 'पद्मावत' की समग्र व्याख्या के लिए सभी तत्वों और 'भावात्मक भट्ठी' से निकलने के बाद उनके संश्लिष्ट स्वरूप पर ध्यान देना चाहिए न कि आत्यंतिक रूप से किसी एक तत्व पर। 'पद्मावत' की समग्र व्याख्या जैसे किसी एक तत्व के आधार पर नहीं हो सकती है वैसे ही मात्र तसव्वुफ के आधार पर भी नहीं हो सकती है। इसलिए, 'पद्मावत' की व्याख्या में तसव्वुफ या सूफीवाद को प्रधानता देना गलत है, क्योंकि जायसी की 'भावात्मक भट्ठी' में पिघलने के बाद तसव्वुफ 'पद्मावत' का एक तत्व भी नहीं ठहरता, केवल उपलब्ध काव्यात्मक मुहावरे का एक प्रयोग ही है।'18
रामचंद्र शुक्ल ने 'पद्मावत' को सूफी ग्रंथ मानते हुए भी काव्य के रूप में उसकी उत्कृष्ट व्याख्या और मूल्यांकन किया है। इसी तरह जायसी को सूफी मानते हुए भी उन्होंने जायसी को तुलसीदास के बाद हिंदी के सबसे महत्वपूर्ण कवि के रूप में स्थापित किया। इस तरह शुक्ल जी के यहाँ जायसी को सूफी फकीर मात्र मानने या विशुद्ध कवि मात्र मानने के बीच संतुलन है। जायसी को सूफी और कवि एक साथ मानने में उन्हें कोई समस्या नहीं दिखाई देती है। किंतु, साही में यह संतुलन बचा नहीं रह पाता है। वे जायसी को सूफी फकीर और कवि दोनों न मानकर केवल कवि मानते हैं और अपनी मान्यताओं को तर्कसंगत ढंग से स्थापित भी करते हैं। वे साफतौर पर कहते हैं, 'पद्मावत का लेखक अपने को आग्रहपूर्वक कवि के रूप में मनवाना चाहता है; उसे आप सूफी या साधु भी मानें, ऐसा कोई आग्रह नहीं है।' 19
कहने की जरूरत नहीं कि 'पद्मावत' में बहुत-सी ऐसी पंक्तियाँ हैं जिनमें जायसी ने अपने को कवि कहा है लेकिन ऐसी एक भी पंक्ति नहीं मिलती है जिसमें उन्होंने अपने को सूफी साधु या फकीर कहना चाहा हो, तमाम धार्मिक-आध्यात्मिक संवेदना और स्तुति के बावजूद। लेकिन, यह विडंबना ही है कि अपने को कवि कहने वाले व्यक्ति को कवि से अधिक सूफी फकीर, झाड़-फूँक करने वाला बाबा तो माना गया। इस तरह जायसी के मूल्यांकन का जो प्रतिमान होना चाहिए था उसका उपयोग नहीं हुआ और संपूर्ण मूल्यांकन गलत राह पर चल निकला।
काव्यशास्त्रियों ने 'काव्य-प्रयोजन' की चर्चा की है। इसके अनुसार रचना के पीछे कवि का कोई-न-कोई उद्देश्य अवश्य रहता है। जायसी के काव्य-हेतु पर विचार करने पर स्पष्ट होता है कि 'पद्मावत' की रचना के पीछे उनका उद्देश्य यश-प्राप्ति था, न कि सांप्रदायिक प्रचार। 'पद्मावत' के अंत में जायसी ने इसकी रचना के पीछे अपने मंतव्य या कवि-आकांक्षा को प्रकट करते हुए कहते हैं -
मुहमद यहि कवि जोरि सुनावा। सुना सो प्रेम पीर गा पावा।।
जोरी लाइ रकत कै लेई। गाढ़ी प्रीति नैन जल भेई।।
और मन जानि कबित अस कीन्हा। मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा।।
...
केइँ न जगत जस बेंचा केइँ न लीन्ह जस मोल।
जो यह पढ़ै कहानी हम सँवरै दुइ बोल।।
जायसी के काव्य-हेतु पर विचार करने पर यह स्पष्ट होता है कि उनका काव्य-हेतु विशुद्ध काव्यशास्त्रीय है, कवियोचित है, संतोचित या धर्मानुकूल नहीं। उनका उद्देश्य कवियों की तरह यश-प्राप्ति है न कि साधु-फकीरों की तरह जन्नत-प्राप्ति या धर्म-प्रचार।
साही की आलोचना-दृष्टि की विशेषता यह है कि उन्होंने जायसी के कवि रूप को सामने लाने की आवश्यकता अनुभव की। यह आवश्यकता उन्हें इसलिए अनुभव हुई क्योंकि उन्होंने देखा कि जायसी के चारों ओर बाबावाद, सूफीवाद और चमत्कारों का ऐसा लबादा आलोचकों द्वारा डाल दिया गया था जिससे उनकी कविता उनके समय के आलोचकों, विचारकों और रसिकों के लिए अप्रासंगिक हो रही थी। जाहिर है, जायसी की कालजयी कविता को समकालीन दृष्टि के अनुरूप प्रासंगिक बनाने की आवश्यकता साही को प्रेरित कर रही थी कि वे जायसी का साक्षात्कार कवि के रूप में करें-कराएँ। लेकिन, विशुद्ध कवि के रूप में जायसी का साक्षात्कार करना सरल नहीं था। जायसी के काव्य और व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द फैली सूफीवाद और चमत्कारवाद की बद्धमूल धारणा ने यह काम अत्यंत कठिन कर रखा था।
परन्तु, कविता की अपनी परख और इतिहास की समझ के बल पर साही ने मध्यकालीन जायसी की खोज कालजयी कवि के रूप में की। इसके लिए उन्हें अपने पूर्ववर्ती आलोचकों की स्थापनाओं से टकराना पड़ा, उन्हें खारिज करना पड़ा। आज जायसी को समझने की दिशा में साही को अनदेखा करके नहीं बढ़ा जा सकता।
'पद्मावत' में एक रूपक है, जिसके अनुसार चित्तौड़ तन है, राजा मन है, नागमती दुनिया-धंधा है, आदि। इस रूपक के आधार पर 'पद्मावत' की पूरी कथा अन्योक्ति मान ली गई। यह रूपक भी एक बड़ा कारण था जिसने जार्ज ग्रियर्सन और रामचंद्र शुक्ल दोनों को 'पद्मावत' को सूफी काव्य मानने के लिए प्रेरित किया। लेकिन, 'पद्मावत' के पाठालोचक माताप्रसाद गुप्त ने इस कड़वक को प्रक्षिप्त सिद्ध किया है और यह प्रस्तावित किया है कि 'पद्मावत' को अन्योक्ति पद्धति से पढ़ना गलत है।20 गुप्त की तरह साही भी उक्त रूपक वाले कड़वक को प्रक्षिप्त कहकर आगे बढ़ जाते हैं। इस कड़वक को प्रक्षिप्त मान लेने से साही के सामने 'पद्मावत' को सूफी-काव्य मानने की सबसे बड़ी तकनीकी बाध्यता समाप्त हो जाती है जो ग्रियर्सन और शुक्ल के सामने मौजूद थी।
साही ने 'पद्मावत' को सूफी काव्य और जायसी को सूफी कवि मानने के विरुद्ध कई कारण गिनाए हैं, उनमें से कुछ को इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है -
शाहजहाँ के समय में बज़्मी नाम के फ़ारसी के सूफी शायर ने 'पद्मावत' का फ़ारसी में अनुवाद किया था। किन्हीं डॉ भगवतीप्रसाद सिंह की सूचना पर कि बज़्मी के अनुवाद में नागमती-विरह खंड नहीं है, साही ने यह निष्कर्ष निकाला कि चूँकि 'पद्मावत' सूफी ग्रंथ नहीं है और यह सूफीवाद के वैचारिक ढाँचे में पूर्णतरू अँट नहीं पाता है इसलिए 'बज़्मी के अनुवाद में कहीं-कहीं परिवर्तन करके पद्मावत की दार्शनिक और ऐतिहासिक दृष्टि को संप्रदाय के लिए उपयोगी बनाने का प्रयास किया गया है।'21 साही ने बज़्मी के अनुवाद में पाया कि मूल पद्मावत की तुलना में अलाउद्दीन के चरित्र को स्थान-स्थान पर स्तुतिपरक विशेषण जोड़कर उज्ज्वल और प्रशंसित बनाकर प्रस्तुत किया गया है। लेकिन, विवेचन-क्रम में साही इस निष्कर्ष पर निर्द्वंद्व हैं कि 'पद्मावत' सूफी काव्य कतई नहीं है। यदि ऐसा होता अनुवाद में किसी सूफी कवि को अपने संप्रदाय के लिए उपयोगी बनाने के लिए संशोधन नहीं करने पड़ते, जैसे बज़्मी को करने पड़े हैं।
अमीर खुसरो एक सूफी कवि और इतिहासकार थे। उन्होंने मुसलमान बादशाहों द्वारा हिंदू राजाओं पर आक्रमण और युद्ध के पश्चात विजय पाने पर खूब लिखा है। साही ने 'जायसी' में सूफीवाद से जायसी के संबंधों पर विचार करते हुए चित्तौड़ पर अलाउद्दीन द्वारा किए गए आक्रमण, विजय, सती हुई स्त्रियों और वीरगति प्राप्त पुरुषों के खुसरो के वर्णन की तुलना जायसी द्वारा किए गए वर्णन से करके यह दिखाने की कोशिश की है कि सूफी खुसरो की दृष्टि कट्टरपंथी इस्लामिक ही है जबकि जायसी के वर्णन में दूर-दूर तक सांप्रदायिकता की बू भी नहीं है। खुसरो और जायसी की तुलना के माध्यम से साही जहाँ एक ओर अपने निष्कर्ष, जायसी सूफीवाद के दायरे में नहीं अँटते हैं, को पुनर्स्थापित किया है वहीं यह दिखाने की कोशिश भी की है कि जिस खुसरो को सामासिक और धर्मनिरपेक्ष संस्कृति का प्रतीक माना जाता है, वह वास्तव में एक कट्टरपंथी सांप्रदायिक मुसलमान-सूफी से अधिक कुछ नहीं था। जबकि, उन्होंने जायसी की धर्मनिरपेक्ष-सामासिक सांस्कृतिक चेतना को प्रशंसित किया है।
सूफियों की जिस छवि को सामने रखकर साही जायसी को उसमें न अँटने वाला और दूर-दूर तक उससे परिभाषित न होने वाला कहते हैं वह यह है कि इस्लामी जीवन-मूल्यों से असंतुष्ट होने के बावजूद सूफियों में मुसलमानों के नेता उलमा की ताकत को चुनौती देने की शक्ति नहीं थी। इस्लाम की कट्टरपंथी व्याख्याओं से भी वे कभी भी असहमत नहीं हो सके। इसी तरह मुसलमान शासक वर्ग से भी वे असहमत और असंतुष्ट तो थे लेकिन उनका विरोध तो दूर ईमानदारी से उनकी आलोचना भी नहीं कर सके। इस प्रकार साही के अनुसार सूफी 'सरकार' और 'मठ' दोनों का तालमेल करके चलने वाले थे जबकि जायसी न तो सरकार अर्थात राज्याश्रय में रहे, न ही धर्माश्रय (सूफी मठ) से जुड़े थे। उनकी कविता सूफियों द्वारा अपनाई गई इन दोनों विशेषताओं का अतिक्रमण करती है। लेकिन, सवाल उठता है कि क्या सूफियों की वास्तव में वैसी ही छवि रही है, जैसी साही ने पेश की है। सूफीवाद के बारे में साही की मान्यताओं से एक हद तक सहमति के बावजूद यह लगता है कि साही ने इस्लाम से सूफियों के अंतर और आत्मसंघर्ष की उपेक्षा की है और इस्लाम से उनके लगाव, धार्मिक रूढ़िवादिता और समझौतापरस्ती को ज्यादा रेखांकित किया है। बहरहाल, अमीर खुसरो जैसे सूफी कवि, इतिहासकार से जायसी की तुलना के माध्यम से साही ने अपनी स्थापनाओं को प्रभावशाली बना दिया है।
साही ने जायसी के सूफी न होने के पक्ष में एक कारण यह भी बताया है कि उनके समय के किसी भी इतिहास-ग्रंथ या साहित्यिक कृति में न केवल उनका उल्लेख नहीं हुआ है बल्कि उनकी संगठित उपेक्षा हुई है। यह प्रकट है कि जायसी अपने जीवन-काल में हो रही अपनी उपेक्षा से दुखी थे। 'पद्मावत' में अपना दुख उन्होंने इस प्रकार प्रकट किया है -
कबि बिआस रस कंवला पूरी। दूरिहि निअर निअर भा दूरी।।
निअरहि दूरि फूल संग काँटा। दूरी जो निअरैं जस गुरु चाँटा।।
भंवर आइ बनखंड हुति लेहिं कँवल कै बास।
दादुर बास न पावहिं भलेहिं जे आछहिं पास।।
साही के अनुसार जायसी के प्रति यह 'दहाड़ती हुई चुप्पी' और उपेक्षा-भाव इसीलिए है क्योंकि वे किसी सूफी खानक़ाह से जुड़े हुए या उसमें दीक्षित नहीं हुए थे। यदि ऐसा होता तो कम-से-कम उनके संप्रदाय के इतिहास और साहित्य में उनकी चर्चा अवश्य होती। साही ने जायसी के ऐतिहासिक उल्लेख न होने को उनके सूफी न होने का प्रमाण माना। वागीश शुक्ल ने साही के इस तर्क की आलोचना करते हुए लिखा है कि जिस 'दहाड़ती हुई चुप्पी' का जिक्र साही ने किया है उसके कुछ अन्य कारण हो सकते हैं, जायसी का सूफी न होना कोई विश्वसनीय कारण नहीं है। साही के एकदम विपरीत वागीश शुक्ल ने 'दहाड़ती हुई चुप्पी' का विश्वसनीय कारण यह बताया है कि वे महदी सूफी थे इसलिए उनके बारे में यह चुप्पी है। वे उदाहरण देकर बताते हैं कि महदी होना उस समय खतरे से खाली नहीं था। अपने को महदी मानने वालों को राज्य मृत्युदंड की सजा देता था। वागीश शुक्ल 'चुप्पी' के कारणों तक पहुँचने के क्रम में पाते हैं कि जायसी ने राज्य की ओर से संभावित खतरे के भय से अपने महदी होने को छुपाने की कोशिश की होगी, राजदंड से बचने के लिए अपने महदीपन को प्रचारित नहीं किया होगा। इसलिए, उनकी चर्चा कहीं नहीं मिलती है। वे लिखते हैं, 'जायसी ने यह सब देखा होगा, देख रहे होंगे, और अपने महदी होने के दावे को कविता तक केंद्रित रखा होगा, कस्बे तक सीमित रखा होगा, दरबार तक न पहुँचाया होगा, अनुयायियों की सेना न तैयार की होगी। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि वे महदवी नहीं थे या सूफी नहीं थे।'22
वागीश शुक्ल के तर्क को दो आधारों पर नहीं माना जा सकता है। एक तो स्वयं जायसी कहते हैं, 'दूर-दूर से आकर उनके काव्य का आनंद उठाते हैं और पास ही बसने वाले दादुर अपने बीच में खिले हुए की गंध भी नहीं पाते।'23 इससे स्पष्ट होता है कि यदि जायसी सूफी होते तो उनकी प्रसिद्धि के साथ उनके मत या संप्रदाय की सूचना भी पहुँची होती, जबकि ऐसा होता नहीं। इसलिए, वागीश शुक्ल का यह तर्क निराधार साबित होता है। दूसरा आधार है कि यदि महदी सूफी होने के नाते जायसी का कहीं उल्लेख नहीं हुआ तो अन्य सूफी कवियों का भी उल्लेख नहीं होना चाहिए था जबकि साही ने दिखाया है कि जायसी को छोड़कर कई अन्य सूफी कवियों का उल्लेख मिलता है।
अब जायसी के बारे में साही के इस विवेचन के समक्ष कुछ 'पद्मावत' और कुछ 'आख़िरी कलाम' से उठे सवालों को ध्यान में रखकर मूल सवाल का जवाब ढूँढ़ने की कोशिश की जा रही है। 'आख़िरी कलाम' 'पद्मावत' के मिजाज से भिन्न रचना है। इसमें प्रसिद्ध इस्लामी अवधारणा - क़यामत का वर्णन है और यह वर्णन क़ुरान और शरीअत के अनुसार है। जायसी के आलोचकों के समक्ष यह सवाल बराबर बना रहता है कि वे जायसी के किस रूप को सही माने, जो 'पद्मावत' में है उसको या जो 'आखिरी कलाम' में है उसको। जाहिर है, जब दोनों एक ही कवि की रचनाएँ हैं तो किसी एक के आधार नहीं बल्कि दोनों के आधार पर जायसी का जो रूप बनता है, वही कवि का प्रामाणिक और पूर्ण रूप है। साही ने जायसी के विवेचन में 'आख़िरी कलाम' को महत्व दिया है, जाहिर है, इसकी पूर्ण उपेक्षा की भी नहीं जा सकती थी। लेकिन, इस रचना से जायसी का जो रूप उभरता है उसका उन्होंने किसी-न-किसी तरह से बचाव कर 'पद्मावत' से उभरने वाले जायसी के रूप की ओर ध्यान खींचने की, उसी को प्रामाणिक बनाने या उसी का पूरक बनाने की कोशिश की है।
जायसी ने 'आख़िरी कलाम' में शरीअत के अनुसार क़यामत का वर्णन किया है। साही इस तथ्य को स्वीकार करते हैं लेकिन इसे जायसी का स्थायी भाव न मानकर, अस्थायी भाव मानते हैं। उनका तर्क है कि जायसी ने 'आख़िरी कलाम' की रचना क़यामत की हवा के दबाव में की है। साही ने दूसरा तर्क दिया है कि जायसी ने 'आख़िरी कलाम' में इस्लाम के बुनियादी दार्शनिक-वैचारिक ढाँचे को तो स्वीकार किया है लेकिन कट्टरपंथी, पुनरुत्थानवादी और सांप्रदायिक महदी की उपेक्षा की है। साही ने जायसी के बचाव में तीसरा तर्क यह दिया है कि 'आख़िरी कलाम' की क़यामत की अवधारणा परंपरागत अवधारणा से भिन्न है। उनके अनुसार, 'आख़िरी कलाम' की क़यामत वह भावनात्मक और वैचारिक धुरी है जिस पर हमारे पुण्य, ईमान और बेईमानियाँ चक्कर काटते हैं, कल या परसों घटित होने वाला इतिहास नहीं।'24
साही ने कहना चाहा है कि जायसी ने इस्लाम की क़यामत की अवधारणा को तो लिया लेकिन उसके उद्देश्य को छोड़ दिया। 'आखिरी कलाम' की 'क़यामत' धार्मिक नहीं, भावनात्मक और वैचारिक है, जिसपर मनुष्य की पुण्य, ईमान जैसी शुद्ध धर्मनिरपेक्ष मानवोचित प्रवृत्तियाँ हैं न कि धार्मिक प्रेरणा जो कि भविष्य में कल या परसों के इतिहास में घटती। यह तो ठीक है, लेकिन साही यह नहीं बताते कि क़यामत की शुद्ध धार्मिक अवधारणा को धार्मिक मानते हुए भी जायसी ने उसे कैसे धर्मनिरपेक्ष और इतिहास निरपेक्ष बना दिया है?
अब कुछ और सवाल 'पद्मावत' से। 'पद्मावत' के आरंभ में पैगंबर मुहम्मद और शुरू के चार खलीफाओं की स्तुति है। इसके अतिरिक्त, आखिर, जायसी की कविता में ऐसा क्या है जिसके कारण सूफी उनसे आकर्षित हुए और 'पद्मावत' की प्रतियाँ खानक़ाहों में तैयार की गईं और सुरक्षित रखी गईं? क्यों उनके बारे में तरह-तरह की किंवदंतियाँ गढ़ी गईं? क्यों उनका 'बाबा' रूप निर्मित किया गया? क्यों उनके मजार के नाम पर जायस में अमेठी वालों ने मठ बनाने की कोशिशें कीं। इन सवालों का जवाब साही की आलोचना में नहीं मिलता है। वे तो यह भी नहीं कहते कि जायसी सूफी नहीं थे। वे उन्हें 'कुजात सूफी' कहते हैं। उन्होंने यह भी स्वीकार किया है, 'पद्मावत' में कुछ ऐसे स्थल हैं "जहाँ सीधे अथवा खींचतान कर भावनात्मक या सांप्रदायिक तसव्वुफ सिद्ध किया जा सकता है।'25 वे यह भी मानते हैं, 'पद्मावत' की काव्य शैली में भी प्रयुक्त 'प्रेम की पीर', सौंदर्य वर्णन तथा निरूपण में कहीं-कहीं ऐसी उक्तियों का प्रयोग है जिसके कारण आध्यात्मिक अर्थों की झलकियाँ मिलती हैं।'26
'आख़िरी कलाम' और 'पद्मावत' से उठे ये सवाल यह तथ्य सामने रखते हैं कि जायसी सूफी विचारधारा से यदि नहीं तो कम-से-कम उसकी काव्य-शैली से अवश्य प्रभावित हुए थे। 'पद्मावत' के 'सूफीवाद' का यही रहस्य है। सच तो यह है, स्वयं साही इस तथ्य से परिचित थे, जिसके कारण चाहकर भी वे सूफियाना रंग से जायसी और पद्मावत को आच्छादित होने से नहीं रोक सके। इस स्थिति का विश्लेषण करते हुए मैनेजर पांडेय ने समस्या का सही हल सुझाया है। उनके अनुसार, 'यदि एक ओर 'पद्मावत' को सूफी सिद्धांत का दृश्टांत काव्य मान लेना गलत है तो दूसरी ओर जायसी की कवि दृष्टि के सूफियाना अंदाज को अस्वीकार करना भी सही नहीं हैं। जो लोग जायसी को शुद्ध सूफी संत सिद्ध करना चाहते हैं वे 'पद्मावत' के लौकिक और मानवीय पक्षों की उपेक्षा करके केवल अध्यात्म और अलौकिक की खोज करना चाहते हैं और जो उन्हें शुद्ध कवि साबित करते हैं वे यह भूल जाते हैं कि 'अखरावट' और 'आख़िरी कलाम' भी जायसी की ही रचनाएँ हैं।'27
साही के बारे में यहाँ यही कहना उचित प्रतीत होता है कि वे चाहकर भी जायसी को उनके सूफियाना अंदाज से अलग नहीं कर सके हैं। इससे उन्हें आपत्ति भी नहीं है। 'पद्मावत' के विभिन्न उपादानों में से तसव्वुफ को भी वे एक उपादान मानते हैं जो उनकी 'भावनात्मक भट्ठी' में से तपकर निकलने के बाद प्रचलित काव्य-मुहावरों से भिन्न एक मुहावरा भर लगता है। संभवतः जायसी का उक्त 'सूफियाना अंदाज' ही वह चीज है जिसे साही मुहावरा कहना चाहते हैं। इस तरह, दोनों में कोई तात्विक अंतर नहीं रह जाता।
'पद्मावत' में प्रेम की प्रधानता निर्विवाद रूप से स्वीकार की गई है। रामचंद्र शुक्ल ने उसके प्रेम को अलौकिक, आध्यात्मिक और एकांतिक कहा है, लेकिन कुछ स्थलों पर वे इसमें लौकिक प्रेम का उत्कर्ष भी पाते हैं। साही 'पद्मावत' के प्रेम को अलौकिक, आध्यात्मिक और एकांतिक नहीं मानते। उनके अनुसार 'पद्मावत' में बैकुंठी प्रेम का नहीं बल्कि ऐसे प्रेम का वर्णन किया गया है जो प्रेम करने वाले को ही बैकुंठी बना देता है। लेकिन, प्रेम के वियोग पक्ष का जो विवेचन शुक्ल ने किया है साही उससे पूरी तरह सहमत हैं। इस सहमति को प्रकट करते हुए उन्होंने लिखा है, "विरह-वर्णन के आंतिरक संवेगों की तरलता और तीव्रता का विश्लेषण आचार्य रामचंद्र शुक्ल की भावग्राही आलोचक बुद्धि ने जिस प्रकार किया है, उसमें कुछ जोड़ने का प्रयास करना व्यर्थ है। ...मैं बहुत विनम्रतापूर्वक शुक्लजी के इस मूल्यांकन में अपनी आवाज भी मिलाना चाहता हूँ।"28
आलोचना के क्षेत्र में 'पद्मावत' की छवि लंबे समय तक 'प्रेम के पीर के काव्य' की या प्रेमाख्यानक काव्य की रही है। साही ने इस छवि को तोड़ा है। उनके अनुसार 'पद्मावत' में जितना प्रेम है, उतना ही युद्ध भी है इसलिए "'पद्मावत' केवल प्रेम की कहानी नहीं है, प्रेम और युद्ध की मिली-जुली कहानी है।" उनके अनुसार जब जायसी ने प्रेम के साथ-साथ युद्ध की भी केंद्रीयता की ओर संकेत किया है तब उसे केवल 'प्रेमाख्यानक काव्य' कहना आश्चर्यजनक है। प्रकारांतर से साही मध्यकालीन युद्ध-प्रधान परिवेश से उपजे काव्य को केवल प्रेम या अन्य कोमल संवेदनाओं तक न सीमित कर उस पर युद्ध के संदर्भ में भी विचार करने का प्रस्ताव रखा है।
रामचंद्र शुक्ल ने 'पद्मावत' में 'पीर' को महत्व दिया है तो साही ने उसमें एक ऐसी 'विषाद-दृष्टि' (ट्रैजिक विजन) को रेखांकित किया है जिसके निरूपण में वे उनके अनुसार मध्यकालीन कवियों में अद्वितीय हैं। इस मामले में साही के अनुसार न उनका कोई पूर्ववर्ती है, न परवर्ती। इस विषाद-दृष्टि के स्रोत पर भी उन्होंने विचार किया है। उनके अनुसार इस विषाद-दृष्टि में 'युग साक्षात्कार' की चुनौती है। इस चुनौती को अपने पूर्ववर्तियों, समकालीनों और परवर्तियों में केवल जायसी स्वीकार करते हैं। उनके अनुसार कबीर ने अपनी 'सहज समाधि' से बाहर निकलकर समाज की तरफ देखा जरूर लेकिन उनकी हिम्मत पड़ोस में पड़ने वाले पंडित-मुल्ला से आगे नहीं गई। सूरदास और तुलसीदास के बारे में उनका कहना है कि इन कवियों ने समय से कटकर त्रेता-द्वापर में ही सब कुछ समझने की कोशिश की। वे मानते हैं कि सामाजिक और सांस्कृतिक कारणों से ये कवि वैसा नहीं कर सके जैसा कि जायसी ने किया। साही ने कबीर में 'हिम्मत' की कमी देखी तो सूर-तुलसी में अपने समय की चिंता से कटी अतीतग्रस्तता पाई। कहना न होगा, साही की कबीर, सूर और तुलसी संबंधित स्थापनाएँ न केवल निराधार हैं बल्कि उनकी साहित्यिक समझ पर भी सवाल खड़ी करती हैं। साही की मान्यता के विपरीत इन कवियों में न केवल गहरी सामाजिक संपृक्ति है बल्कि हिम्मत भी कम नहीं है।
'जायसी' की भूमिका में साही की पत्नी कंचनलता साही ने लिखा है, "किसी कवि पर लिखने वाला प्रखर आलोचक स्वयं भी कवि हो तो वह अपने आलोच्य विषय पर जितने गवाक्ष खोलता है, उतने ही अपने कृतित्व पर भी। 'जायसी' का महत्व जितना जायसी पर नई रोशनी डालने का कारण होगा, शायद उतना ही जायसी के बहाने साहीजी पर नई रोशनी डालने के कारण भी हो।"
साही ने जायसी की आलोचना के माध्यम से अपनी आलोचना-दृष्टि के गवाक्ष खोले हैं। मध्यकालीन समाज और काव्य को समझने और समकालीन सामाजिक-सांस्कृतिक समस्याओं के समाधान के लिए साही ने जायसी से दृष्टि प्राप्त की है। मध्यकालीन समाज, संस्कृति और काव्य को साही कबीर, सूर और तुलसी की दृष्टि या गवाही पर नहीं समझना चाहते, जायसी की दृष्टि से समझना चाहते हैं। इसका कारण यह है कि साही की विचार-प्रणाली के अनुकूल मध्यकालीनों में केवल जायसी पड़ते हैं। उनका समकालीन चिंताओं से अनुप्राणित मन जायसी की ओर आशा भरी नजरों से देखता है, "हिंदू और मुसलमान दो संस्कृतियों की टक्कर के बाद सचमुच एक संस्कृति, एक भारतीय हृदय, एक समाज बन सकेगा या नहीं, यह प्रमथित करने वाला प्रश्न सोलहवीं शताब्दी के सामने है।"29
धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक सभी दृष्टियों से मध्यकालीन भारतीय समाज संक्रांति का काल है। हिंदू-मुसलमान, हिंदू-हिंदू और मुसलमान-मुसलमान आपस में सत्ता के लिए लड़ रहे थे। धार्मिक उन्माद, धार्मिक पुनरुत्थान और विशुद्धतावाद जैसी कुप्रवृत्तियों में रहकर जायसी उसी "निर्मल भाव की तलाश कर रहे थे जहाँ यह सारा संघर्ष अप्रासंगिक हो जाता है, उसी निर्मल भाव का नाम उन्होंने प्रेम दिया।"30 प्रेम मिलजुलकर समन्वय के साथ रहने की सीख देता है। इस तरह मध्यकालीन समस्याओं और ऐसी ही समकालीन समस्याओं को हल करने का, समन्वय का जो रास्ता जायसी ने दिखाया है उसे साही ने विस्तार से समझाया है। उन्होंने मध्यकालीन ही नहीं समकालीन राजनीतिक-सांस्कृतिक और धार्मिक सत्ता-संघर्षों के परिप्रेक्ष्य में भी जायसी का समकलीन पाठ प्रस्तुत किया है।
'पद्मावत' का मूल्यांकन करते समय साही ने जायसी द्वारा अपने जीवन और रचना-कर्म के बारे में दिए गए संकेतों का भरपूर उपयोग किया है। मसलन, साही ने चार प्रमुख संकेतों को अपने मूल्यांकन में महत्व दिया है। पहला संकेत यह कि 'पद्मावत' की कथा आदि से अंत तक जुड़ी हुई है, पूरी कथा एक इकाई है। दूसरा संकेत यह है कि कथा की संरचना में दो 'भुजाओं वाला' संतुलन है। साही के अनुसार इसी संतुलन के आधार पर कथा एक इकाई बनती है। आलोचकों ने 'पद्मावत' को प्रेम की कथा कहा है लेकिन, जायसी ने संकेत दिया है कि इसमें प्रेम की ही नहीं, युद्ध की भी कथा है। इसमें प्रेम की ही नहीं, युद्ध की भी पीर है। यह दोनों की मिली-जुली कहानी है। साही इसे तीसरे संकेत के रूप में लेते हैं। चौथा संकेत जायसी ने यह किया है कि संसार में यश और कीर्ति ही शेष रहती है और उन्होंने यश और कीर्ति-प्राप्ति के उद्देश्य से 'पद्मावत' की रचना की है। साही ने इन संकेतों को गंभीरता से लिया है और मूल्यांकन करते समय इनका उपयोग किया है। यह एक अच्छी आलोचना का दायित्व है। आलोचना के मान रचना से ही निर्मित होते हैं। हम कह सकते हैं कि जैसे तुलसीदास के काव्य ने रामचंद्र शुक्ल की आलोचना के मान निर्धारण में सहायता की और कबीर ने हजारीप्रसाद द्विवेदी की आलोचना के वैसे ही जायसी ने साही की आलोचना को जायसी के काव्य ने प्रभावित किया।
साही प्लेखानोव और कॉडवेल की इस मान्यता से सहमत हैं कि कविता धर्म से ऊपर होती है। यदि धर्म को मोटेतौर पर एक जीवन-दृष्टि देने वाली व्यवस्था मानें, जैसा एंटोनियो ग्राम्शी मानते हैं, तो भी साही उसे कविता में अस्वीकार करते हैं। यह ध्यान देने लायक है कि साही जायसी को 'अलीक विचारक' तो मानते हैं लेकिन 'पद्मावत' में किसी विचारधारा या मतवाद की उपस्थिति को अस्वीकार भी करते हैं। उन्होंने लिखा है, "ये सभी उक्तियाँ कविता, विशेषतः पदमावत, के केंद्र में अनुभूति को स्थापित करती हैं, किसी मतवाद या दार्शनिक सिद्धांत को नहीं।" 31 विचारधारा बनाम अनुभूति की चिर परिचित बहस को एक बार फिर अपनी तरह से तूल देते हुए साही ने 'पद्मावत' के संदर्भ में लिखा है, "जायसी की काव्य-क्षमता की महानता इसमें है कि उन्हें सीधे हस्तक्षेप करके अभिप्राय को खोलकर कहने और दार्शनिक अथवा सामाजिक स्थापना करने की आवश्यकता नहीं पड़ती। वस्तुतः इसी कारण पूरी कथा में विचारधारा नहीं, बल्कि एक नैतिक मर्म और उसमें अनुस्यूत बौद्धिक सघनता की प्रतीति होती है।"32 साहित्य और कलाओं में विचारधारा का विरोध करनेवाले विद्वान ऐसा ही कहते हैं। सवाल उठता है कि क्या साहित्य और कलाएँ मात्र अनुभूति को ही स्थापित करती हैं? अनुभूति की प्रतिक्रिया में क्या मानव-मस्तिष्क में कुछ भी घटता नहीं है? अनुभूति की निष्पत्ति अनुभूति ही नहीं हो सकती है। यदि एक क्षण के लिए यह मान भी लिया जाय कि जायसी की कविता में सूफीवाद या ऐसी ही कोई संगठित विचारधारा नहीं है तो भी यह नहीं कहा जा सकता है कि 'पद्मावत' में सिर्फ अनुभूति ही अनुभूति है, विचारधारा या कोई जीवन-दर्शन नहीं। अनुभूति से अभिव्यक्ति की प्रक्रिया जब आरंभ होती है तभी से कवि की विचारधारा या जीवन-दृष्टि भी सक्रिय हो उठती है। हर कवि और कलाकार की जीवन-दृष्टि होती है और यह जीवन-दृष्टि उसकी रचना में पर्यवसित भी होती है। कार्ल मार्क्स और फ्रेडरिक एंगेल्स साहित्य और कलाओं में विचारधारा की उपस्थिति को स्वीकार करते थे लेकिन वे उसी रचना को उत्कृष्ट मानते थे जिसमें विचारधारा अलग से दिखती न हो, बल्कि रचना का अविभाज्य अंग हो।
'पद्मावत' की एक पंक्ति है -
औ मन जानि कवित अस कीन्हा। मकु यह रहै जगत महँ चीन्हा।।
साही ने इसकी व्याख्या इस प्रकार की है, "कवि ने मन में यह समझकर ऐसा काव्य रचा कि संभवतः संसार में यह उसकी पहचान शेष रह जाय।"33 क्या कवि की यह इच्छा केवल अनुभूति है? क्या उससे बढ़कर उसकी अनुभूति को ही प्रभावित करने वाला कारण नहीं है? स्पष्ट है कि यह पंक्ति काव्य-प्रेरणा की सूचना देती है।
यह जरूरी नहीं कि कोई कवि किसी प्रचलित विचारधारा को अपने काव्य में घुलाए या रूपांतरित ही करे, वह कोई नवीन विचारधारा या जीवन-दृष्टि अपनी कविता के माध्यम से प्रस्तुत भी कर सकता है। साही का यह कहना ठीक है कि 'पद्मावत' में सूफीवाद जैसी विचारधारा नहीं है या यह सूफीवाद का दृष्टांत काव्य नहीं है। लेकिन, उनका यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता है कि 'पद्मावत' को जायसी ने किसी भी विचारधारा का निषेध करते हुए लिखा है। उसमें उनकी जीवन-दृष्टि और सिद्धांत भी नहीं हैं यदि कुछ है तो केवल अनुभूति और नैतिक मर्म ही है। ऐसा वे ही मान सकते हैं जिनके लिए साहित्य केवल और केवल अनुभूति होता है और विचारधारा केवल विचारों की धारा होती है। ऐसे लोगों का प्रतिकार करते हुए मैनेजर पांडेय ने ठीक ही लिखा है, "विचारधारा केवल विचारों की धारा नहीं है, उसमें विचार, आस्था, विश्वास और मूल्य चेतना का भी योग होता है।"34 कवि के विचार, आस्था, विश्वास और मूल्य-चेतना की अभिव्यक्ति उसके काव्य में होती है इसलिए अनुभूति और विचारधारा के बीच आत्यंतिक भेद को मानना उचित नहीं है।
साही के विपरीत माताप्रसाद गुप्त ने जायसी की जीवन-दृष्टि या विचारधारा के स्वरूप का विवेचन किया है और वे इसे उनकी अनुभूति के विरोधी के रूप में नहीं देखते। साही ने अपने वैचारिक पूर्वग्रह के कारण जानबूझकर जायसी की विचारधारा की उपेक्षा की है। उमेशदत्त तिवारी ने भी इसे दर्ज किया है। उनके अनुसार साही ने "जायसी की दार्शनिकता को अनावश्यक और गौण सिद्ध कर दिया। यह उसी तरह हुआ, जैसे किसी आस्तिक को नास्तिक बताना।"35 जायसी के बारे में उनकी मान्यता है, "जायसी इन सभी से सदा ऊपर एक मौलिक विचारधारा के पोषक तथा प्रचारक के रूप में दिखाई पड़ते हैं।"36 रचनाकार अपने स्वभाव और विचारधारा के अनुसार ही रचना करता है। इसलिए, उसकी विचारधारा की उपेक्षा करके उसकी कृति को नहीं समझा जा सकता है और न ही उसके कथित 'नैतिक मर्म' या 'अनुभूति' को ही।
जायसी ने 'पद्मावत' में दस बाबाओं की वंदना की है। उन्हें अपना गुरु, पीर गाढ़े के साथी और अपने को उनका सेवक कहा है। साही ने इसे जायसी की 'सामान्य श्रद्धा' कहकर हल्के में लिया है। फिर भी जायसी पर इन बाबाओं के पड़े प्रभाव का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं, "हो सकता है कि इन बाबाओं के यदाकदा सत्संग ने जायसी को खुद सोचने और अपने निजी विचारों को व्यवस्थित करने में मदद पहुँचाई हो।" 37 यहाँ यह प्रश्न उठता है कि निजी विचारों के व्यवस्थित रूप को विचारधारा के अतिरिक्त और क्या नाम दिया जा सकता है। इस तरह साही के विश्लेषण में स्पष्ट फाँक है। एक ओर जहाँ वे मानते हैं कि 'पद्मावत' में विचारधारा नहीं, केवल 'अनुभूति' और 'नैतिक मर्म' हैं वहीं दूसरी ओर वे यह मानते हैं कि उसमें 'व्यवस्थित विचार' भी है। जायसी के व्यवस्थित विचारों ने क्या उनके सौंदर्यशास्त्र और अनुभूति को प्रभावित नहीं किया होगा?
साही ने जायसी को शुद्ध कवि और 'पद्मावत' को शुद्ध कविता के रूप में पढ़ना चाहा है। साहित्य में विचारधारा को महत्वपूर्ण न माननेवाले, बल्कि उसके सन्निवेश को हानिकर माननेवाले विजयदेव नारायण साही के लिए अपनी साहित्यिक मान्यताओं को स्थापित करने के लिए यह आवश्यक था कि वे 'पद्मावत' को सूफीवाद या ऐसी ही किसी विचारधारा से अलग एक शुद्ध काव्य-कृति के रूप में पढ़ें। लेकिन, सूफीवाद की अनुपस्थिति दिखाने के उत्साह में उन्होंने जायसी की दार्शनिकता और विचारशीलता को ही खारिज कर दिया है बल्कि उन्हें विचारधारा विरोधी कवि, जो कि एक आधुनिक काव्य-सिद्धांत है, के रूप में स्थापित करते हैं। लेकिन, वे उनकी विचारशीलता को खारिज भी नहीं कर पाते हैं बल्कि फेरफार कर स्वीकार ही कर लेते हैं। 'पद्मावत' साही को साहित्य में विचारधारा विरोध की अपनी आधुनिक विचारधारा के अनुकूल काव्य-रचना लगती है। इसलिए, वे अपने आलोचक की परिपक्वावस्था में 'जायसीमय' हो गए थे। इस दृष्टि से साही की 'जायसी' और 'शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट' को एक साथ पढ़ने पर रोचक निष्कर्ष निकलते हैं। 'शमशेर की काव्यानुभूति की बनावट' (1964) की साहित्यिक मान्यताओं का ही विकास 'जायसी' (1982) में हुआ है। इस तरह साही एक मध्यकालीन कवि को नई कविता की कसौटी पर कसते हैं। यह कितना उचित और अनुचित है, उक्त विवेचन में यही देखने का प्रयास किया गया है।
संदर्भ-सूची
1. जायसी, विजयदेव नारायण साही, हिंदुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, 1993, प्रकाशकीय।
2. वही, पृ 106.
3. साहित्य क्यों? विजयदेव नारायण साही, संपादक - कंचनलता साही, प्रदीपन एकांश, इलाहाबाद, 1988, पृ 85.
4. जायसी, पृष्ठ 87.
5. वही, पृष्ठ 82-83.
6. वही, पृष्ठ 84.
7. वही, पृष्ठ 84.
8. वही, पृष्ठ 90.
9 . वही, पृष्ठ 90.
10. वही, पृष्ठ 95.
11. वही, पृष्ठ 91.
12. वही, पृष्ठ 91.
13. वही, पृष्ठ 99.
14. वही, पृष्ठ 91.
15. वही, पृष्ठ 51.
16. वही, पृष्ठ 7।.
17. वही, पृष्ठ 81.
18. वही, पृष्ठ 51.
19. वही, पृष्ठ 9.
20. पद्मावत, संपादक - माताप्रसाद गुप्त, हिंदुस्तानी एकेडमी, इलाहाबाद, 1965, पृष्ठ 601-602.
21. जायसी, पृष्ठ 54.
22. आलोचना, जनवरी-मार्च-1987, पृष्ठ 40.
23. जायसी, पृष्ठ 16.
24. वही, पृष्ठ 29.
25. वही, पृष्ठ 25.
26. वही, पृष्ठ 26.
27. भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य, मैनेजर पांडेय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 38.
28. जायसी, पृष्ठ 111.
29. वही, पृष्ठ 88-89.
30. वही, पृष्ठ 89.
31. वही, पृष्ठ 33.
32. वही, पृष्ठ 102.
33. वही, पृष्ठ 34.
34. शब्द और कर्म, मैनेजर पांडेय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 13.
35. हिंदुस्तानी त्रैमासिक, अप्रैल-जून 1990, पृष्ठ 4.
36. वही, पृष्ठ 5.
37.
जायसी, पृष्ठ 38.