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कविता

बहेल्ला

नीरज पांडेय


सबको
नहीं मिलता
बहेल्ला होने का खिताब
एक कला है यह
सबको नहीं आता बहेल्लई करना
संस्कारों से नहीं
मेहनत से नहीं
नकल करने से भी नहीं
बड़े भाग्य से मिलती है यह
सारा दिन दवँछना पड़ता है
एहर से ओहर
एहमुर से ओहमुर
एँह दुआरे से ओंह दुआरे
तब जाकर माँओं की इनवस्टियों से
दिया जाता है बहेल्ला होने का खिताब
किसी को कान उमेठ कर
किसी को मूका मारकर
यह कहते हुए
"सारा दिन बहेल्ला की तरह दवँछेगा, और सँझइन बिना खाए पिए ही सो जाएगा!


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