एक पुरानी ग्रीक कहानी याद आ रही है। एक देवपुत्र था - प्रॉमिथियस, धरती पर
	रहने वाली एक सुंदरी से प्रेम कर बैठा। परमेश्वर ने सजा सुनाई कि लड़की को छोड़ो
	या दंड भोगो। प्रॉमिथियस एक निर्दोष प्रेमी की तरह दंड को तत्पर हो गया। सजा
	दी गई। एक गिद्ध प्रॉमिथियस के कलेजे को फाड़-फाड़ कर निकालेगा, उसे खाएगा, उड़
	जाएगा और देवता होने के कारण यानी की अमर होने के कारण रातों-रात एक नया कलेजा
	पैदा हो जाएगा और पुनः गिद्ध को आकर उसे नष्ट करना होगा। यह क्रम अहर्निश चलता
	रहेगा। हर धर्मशास्त्र के लोक मिथक, अपने किस्म के अदृष्ट माया-लोक, अपरिभाषित
	नीति मानकों, अप्रतिहत अस्वीकृत दाँवों और अंतर्विसंगतियों से जूझते नायकों के
	श्वेत पत्र की तरह हैं। मैं जन-विश्वासों तथा लोक-आस्थाओं के समानांतर
	जीवन-संसार को एक लिहाज से स्वीकारणीय पाता हूँ। कथाओं का निर्माण एक समूची
	संस्कृति का अपनी 'उपस्थिति' से अपने 'अस्तित्व' में संक्रमण है। प्रत्येग युग
	अपने समय के संभावित तर्क के साथ-साथ अपनी प्रस्तावित कल्पना का भी साक्षी
	होता है। यह अवश्य विचारणीय है कि युगीन अंतर्दशाओं के प्रभाव और सामर्थ्य को
	तय करने में भूमिका कल्पना की रही या तर्क की। मेरा यहाँ भी मानना है कि एक
	सजग युग चेतना, एक सबल प्रश्नावाचक दृष्टि और उत्वसधर्मी अनुभवगत अनुशीलन के
	गठजोड़ से ही तैयार होती है। इकलौते या इकहरे मापदंड, समय और समाज के
	अंतर्विवेक को, उसकी जातीय पक्षधरताओं एवं वर्गीय चुनौतियों के स्तर पर अलगाने
	का काम करते हैं। इस कहानी के सिरे कहीं नहीं जुड़ते या कहें कि यह कहानी
	इसीलिए अधिक निर्मम है क्योंकि इसके सुनिश्चित साध्य तक नहीं हैं। या कि
	आधुनिकतावादी संदर्भों में प्रत्येक आत्मीयता एवं भावोन्मेष के सहभागी तत्व का
	ऐसा ही परिणाम होना सुनिश्चित है। यह कहानी हमें एक साथ कई दिशाओं में घूम
	जाने को बाध्य कर जाती है - आततायी त्रासदी के समकालिक जीवन मूल्यों की ओर,
	आघातों के साथ अकेले छोड़ देने वाली हीन भावना की ओर, सभ्यता के झूठे मूल्यों
	को मानवीय अस्मिता के युगीन संशय की ओर अथवा यथार्थ की बुनियादी जीवेषणा को एक
	प्रगतिशील सार्वजनिकता के काव्यशास्त्र की ओर। एक रचनाधर्मी आँख हमेशा एक
	प्रयोगशील मन की पैदाइश होती है। उसके लिए निषेध और उपेक्षा के मायने मात्र
	अराजक बचकानेपन के तत्व होते हैं। हमारे स्वप्न हमारी ही चेतना के दृश्य
	प्रबंध है। उन्हें भौतिकता के संदर्भों में स्वीकार भले ही न किया जा सके
	किंतु देशकालगत जीवन के वस्तुनिष्ठ बोध के लिए वह हमेशा उत्तेजक की भाँति काम
	करते हैं। आज के दौर में 'भगवत रावत' एक ऐसे ही कवि हैं जो जीवन की अंतर्संगति
	में सभ्यताओं और इतिहास को स्वायत्त करते हैं एवं इसी स्वायत्तता के क्रम में
	कविता के आंतरिक अनुशासन से मुठभेड़ भी करते हैं। यह मुठभेड़ कविता की भीतरी
	परंपरा से तो है ही साथ ही साथ उस आयातित और आरोपित प्रतिक्रियात्मक संस्कृति
	से भी है जो कविता के बुनियादी परिप्रेक्ष्य केा देखने समझने की दृष्टि बाधित
	कर रही है।
	भगवत रावत प्रायः एक लोक आवेग की गहरी संपृक्ति के साथ सामने आते हैं। उनकी
	लोक की समझ न तो किसी शास्त्रीय ब्यौरे के परिवृत्त से बनती है न ही किसी
	शासकीय वातावरण की कार्यालयीय आत्मपरकता से। यह एक नितांत सरल, समस्थानिक और
	प्रकृतिस्थ प्रश्नाकुलता के आरोह अवरोह से बनती सँवरती है। ये परिमाप चूँकि
	सांसारिकता और समकालीनता के सामान्यीकृत, किंचित सुविधापूर्ण एवं सर्वस्वीकृत
	अवधारणाओं से अलग एक उदग्रता, ताप, बेचैनी और अनौपचारिक नाटकीयता की कीमत देकर
	पाया गया है अतः इसमें लोकधर्मिता का वह अधूरापन या कहें कि कच्चापन सर्वत्र
	देखा जा सकता है जिसे अभाव मानकर अन्य कवि उसे भरने का प्रयास कर उसकी
	केंद्रीय सौंदर्यधर्मिता से अलग कर देते हैं। अपनी कविता में लोक को न तो वे
	सभ्य बनाते हैं न ही सैद्धांतिक। लोक से गहरी संपृक्ति के बिंदु भगवत रावत के
	इसी भावानुशासन में है। कविता के सरोकार अंततः जीवन के सरोकार हैं और जीवन के
	व्यापक अर्थ उसकी मनुष्यता के होने के। इसीलिए भगवत रावत की कविता जीवन को लोक
	के संदर्भ में जिम्मेदार मानती हैं। यही जिम्मेदारी आगे चलकर उस स्वप्न और
	आकांक्षा के विपर्यस्त ही सही, सांस्कृतिक सौभाग्य में रूपांतरित हो जाती है
	जहाँ कविता की भाषा, मनुष्य की भाषा का अनुवाद नहीं वरन् अनुभव प्रतीत होने
	लगती है। एक स्वीकार को समर्पित और लोक यथार्थ से संलग्न कवि की समझ उन
	धारणाओं से बनती है जो उसके अपने युग विवेक की संसारधर्मिता को लाँघकर एक ऐसी
	संवेदनधर्मी भूमि को खोजे जो संसार में अपने वर्तमान के होने की शर्त के
	साथ-साथ उसके चेतनागत जुड़ावों के संदर्भों को भी पकड़ सके। एक ऐसे समय में जहाँ
	सामाजिक सरोकार, और जीवन यथार्थ जैसे शब्द, कविता के संसार को दिलचस्प तरीके
	से बोझिल कर रहे हैं और भाषा में मूल्यों के पराभव के प्रश्न, भावुकता के ठोस
	और विचलन से भरे रोमान को गढ़ रहें हैं वहाँ भगवत रावत की कविताएँ वर्तमान
	जीवन-बोध का अपनी सामाजिक चेतना के बेहद साधारण एवं सामान्य पहलुओं के स्तर पर
	संवाद का प्रयास हैं। असल में इन कविताओं मे लोकचेतना के पक्षधर अनुभव-बोध की
	सामाजिक व्याप्ति एवं परंपरा से प्राप्त रचनात्मक वस्तु-बोध के विश्वास के बीच
	जो उत्सुकता और अपनापन है वही इसे वर्तमान और प्रासंगिकता के संदर्भ में
	आवश्यक एवं निर्णायक बनाता है। रावत की कविताओं का विकास देखने पर लगता है कि
	वे अपनी रिक्तता में बेहद गहरी हो जाती हैं। कहने का आशय यह है कि वे तब सबसे
	अधिक मारक, निर्मम और क्रुद्ध दिखती है जब संस्कृति और सभ्यता के चेहरे उन्हें
	आमने सामने साफ और सफेद दिखाई देने लगते हैं। युगों की अंतर्धारा में झाँकतीं
	और लोक चेतना की दरारों को भरने का प्रयास करने के पहले उन्हें और वस्तुपरक
	स्पृहा से स्पष्ट करती प्रतीति है यह। सत्तागत प्रतिरोध के सिलसिले में
	व्यवस्था को आईने के तौर पर भविष्य के सामने एक दुविधा की तरह खड़ा करतीं उनकी
	कविताएँ मात्र किसी उल्लास, मुक्ति या स्वतंत्रता का घोषणा पत्र नहीं हैं, वे
	उन सभी हाशिये पर खड़े अपारदर्शी राजनीतिक चेतना के गढ़े गए सामाजिक चिंतन के
	यूटोपिया का प्रतिरोध भी है जिनका अस्तित्व (केंद्रीय) मौजूदा स्थापत्य में
	निषिद्ध एवं वर्जित माना जाता रहा है।
	रावत जी के कवि कर्म का प्रारंभ हिंदी में उस दौर से दिखा है जब आधुनिकता के
	भद्रलोक और समकालीनता के सांस्कृतिक भाव बोध का बोलबाला रहा है। कविता के
	धरातल और कंगूरे दोनों ही ७० के दशक से जहाँ वर्तमान परिवेश को संक्रमणशील
	भावावेशों के रचनात्मक ऐंद्रिक बोध से जोड़ते वहीं दूसरी ओर अवसाद एवं निराशा
	के रोमैंटिक ठंडेपन के असफल जीवन संवेगों से। मेरा मानना है कि समसामयिकता
	विचार के स्तर पर जितना प्रौढ़ और सबल बोध है, भावना के स्तर पर उतना ही
	निष्प्राण और अस्पष्ट। भगवत रावत के सिलसिले में इस अवधारणा को अनेकायामी स्तर
	पर समझा जा सकता है। उनकी एक कविता हैं 'बैलगाड़ी'। युग संदभों के व्यापक
	संवेदन को एकरैखिक चेतना देने का प्रयास करती कविता। हिंदी कविता में साधे गए
	बेहद कठिन और दुष्कर काव्य तकनीकों के परिचय देती कविता। वह तकनीक है एक खास
	किस्म की संज्ञाप्रधान वस्तुपरक इकाई का युगों के अंतर्गत विशेषण होते
	जीवन-प्रसंगों से वार्तालाप और यकायक उस इकाई का समकालीन प्रतिमानों में एक
	सांस्कृतिक विवेक की तरह लोकेट कर जाना। ऐसी कविताओं पर उतरने से पहले युगबोध
	के प्रति साहसिक जागरुकता और विरोधाभासी अनुभवों के आपसी तनावों की सही समझ
	एवं शिनाख्त आवश्यक है - 'एक दिन अपनी ही चमक-दमक की / रफ्तार में परेशान सारे
	के सारे वाहनों के लिए / पृथ्वी पर जगह नहीं रह जाएगी / तब न जाने क्यों लगता
	है मुझे / अपनी स्वाभाविक गति से चलती हुई / पूरी विनम्रता से सभ्यता के सारे
	पाप ढोती हुई / कहीं न कहीं / एक बैलगाडी जरूर नजर आएगी।' (बैलगाड़ी) ऐसी
	कविताओं पर विचार करते हुए कविताओं से जुड़े पूर्व निश्चित मानचित्र तथा
	काव्यशास्त्र के चालू स्थापत्य काम नही देंगे। इस कविता के जीवन और मनोजगत का
	स्पेस तथाकथित विकासशील और प्रगतिकामी बाजारीकरण के विरोध में खड़े सामाजिक पाठ
	का आख्यान रचता है। एक विसंवादी समय में जहाँ वस्तुबोध को परखने के यंत्र
	त्रासद आत्मनिर्वासन से ग्रस्त हैं और जहाँ यथार्थबोध की उपस्थिति एक वैचारिक
	मुद्रा बन कर रह जाने मे अपने को सर्जन का सहधर्मी मानती हो रावत जी की ऐसी
	कविताएँ एक अंतर्द्वंद्व से भरे विक्षोभ और असहमति के ईमानदार जीवन कर्म से
	जूझती हैं। ये कविताएँ एक समूचे कालबोध के त्रास और विचार जगत के अकेलेपन से
	लोहा लेने वाली कविताएँ है। बौखलाहट और प्रश्न को व्यवस्था के स्वेच्छावादी
	तत्काल से जोड़ने वाली कविताएँ। वर्तमान जीवन मूल्यों में पसरा अंधकार और उसके
	यंत्रणा से भरे भविष्य के साये यह स्पष्ट संकेत करते चले हैं कि कवि की
	संवेदना का संसार, आधिपत्य और आतंक के सत्ताभिमुख उपमानों से मुक्त या कहें
	संप्रभु संसार है।
	अपने समय के सामाजिक विवेक और राजनीतिक हताशा को रावत अपनी काव्यभाषा के
	बुनियादी अनुभवबोध में तलाशते हैं। यह एक किस्म के अरक्षित और सामूहिक
	परंपराबोध को सामंजस्य एवं स्मृतिधर्मी संदर्भो का दाय है। संस्कृतिगर्भी और
	इतिहास में संसार के संवेदन को महसूस करने वाले कवि की एक खासियत तो यह है कि
	वह जितना मुखर अपने निजी व्यक्तिगत सरोकारों में होता है उतना ही ऊर्जान्वित
	वह समूह की अभिव्यक्ति के लिए भी रहता है। अपने जीवनानुभवों के साथ उसमें
	व्यापक और विस्तृत जीवनधाराओं के स्वर भी अनुनादित रहते है। ऐसी समूह-संस्कृति
	का निर्माण ही अंततः कविता के जीवन को उसके आत्मीय स्वभाव में विश्वसनीय भी
	बनाता है साथ ही साथ यथार्थ के सहज धर्म को सामाजिक रूप से ग्रहणीय बनाने की
	योग्यता भी देता है।
	रावत बहुआयामी अर्थों में नॉस्टैल्जिया के कवि हैं। यहाँ इस शब्द का प्रयोग
	किसी जुमले की तरह करने का अभिप्रेत नही हैं। असल में 'नॉस्टैल्जिया' हर उस
	कवि को आंतरिक एकात्म का बोध कराने वाला सूत्र है जो पुरातन विमर्शों को अपनी
	समग्र काव्य तकनीक में अवधारणाओं के रैखिक या चक्रीय वर्तमान में बुनने का
	प्रयास करता है। इसके दो खतरे हैं - पहला, कविता की वैचारिक भित्ति का कमजोर
	पड़ जाना और उसका स्थान एक भावुक सहानुभूति द्वारा ले लेना तथा दूसरा, इतिहास
	के भूले बिसरे को वर्तमान के प्रसंग में स्मृति का अप्रत्याशित बिंब दे देना।
	यह कविता की प्रतिध्वनि को रोमांचित और आसक्ति से विभोर तो कर देता है किंतु
	उसके नैसर्गिक विन्यास को बहुविध वर्गीय अस्मिताओं और अनुभवों के आकस्मिक
	प्रयोगों से विच्छिन्न कर देता है। किंतु यही स्मृति कविता के अपने अंदरूनी
	संविधान में रावत जी के यहाँ शक्ति की तरह है। 'लौटना' भगवत रावत की ऐसी
	कविताओं में से एक है जहाँ इतिहास की प्रतिहिंसा और आक्रामक महत्वाकांक्षा का
	दृश्य, भाषा के उस मूल रूपक से जुड़ा हुआ है जिसे धर्म-उन्मादी चेतना की विशेष
	नियति ने अपनी जकड़ में ले रखा है। इस कविता की रचनाधर्मिता का साहस, भाषा के
	उस निश्चित सामर्थ्य से टकराने का है जो अर्थ के या संप्रेषण की अराजक
	व्याप्तियाँ नही गढ़ता। वह अपने चिर-परिचित अभिप्रेत को पहचानता और बूझता है जो
	अनिर्णय या अनमनेपन के कुहासे से दो-चार होता रहता है - 'दिन भर की उड़ान के
	बाद / घोंसलों की तरफ लौटती चिड़ियाँ / सुहानी लगती हैं।'
	एक सामान्य संज्ञावादी शब्द चित्र। जहाँ भाषा का टोन किसी गहरे आधुनिक संदर्भ
	को झिंझोड़ने के लिए जैसे अपनी भूमिका तैयार कर रहा हो। यहीं से रावत जी की उस
	जनसांस्कृतिक चिंता का ठेठ राजनीतिक उदासीनीकरण प्रारंभ होता है जिसका स्पष्ट
	प्रतिकार झूठे मिथ्या आडंबरों के छद्म विचार और पाखंडी एकांतिकता की निर्जन
	एवं भितरघाती संभावनाएँ कर रही हैं - 'लेकिन जब / धर्म की तरफ लौटते हैं लोग /
	इतिहास की तरफ लौटते हैं लोग / तो वे ही / धर्म और इतिहास के / हत्यारे बन
	जाते हैं।'
	भागवत रावत अनेक अंतर्द्वंद्वों एवं कई विरोधाभासों के अंतर्निहित क्षमताओं की
	धारणा के जरिए, उनकी वास्तविकता को संभव करते हुए जैसे अपने समूचे काल बोध को
	उसके केंद्रीय संकट से परिचित कराते हैं। चूँकि वे व्यक्तिवाची शिल्प पर भरोसा
	करते हैं इसलिए किसी भी प्रकार की सांप्रदायिक अमूर्तता, या आत्ममुग्ध सम्मोहन
	से बचकर निकल आने का कला उन्हें बखूबी आती है। अवधारणाओं और प्रतीकों की
	अंतर्वस्तु के रूपांतरण की एलिगरी में गए बगैर, वे इतिहास और रहस्य के
	विश्वस्त अनमनेपन को प्रतिपल परिवर्तित यथार्थ बोध के नित नवीन जातीय संरचना
	से जोड़ने का प्रयास करते रहते हैं। भाषा के साफ सुथरेपन के साथ ही उनकी रचना
	प्रतिक्रया का एक बुनियादी नियम भी है और वह है वैचारिक ऋजुता। समकाल का तर्क
	और लोकसम्मत जीवन प्रकृतियों के सजग दृष्टिकोण, कविता में उनकी मौजूदगी किसी
	अधीर या हक्के बक्के बुजुर्ग की तरह नहीं कराते। व्यक्ति, सत्ता और सृष्टि के
	प्रयोग उनकी काव्य प्रक्रिया में परस्पर अंतर्मुक्त होते चलते हैं या कहें कि
	ये तीनों तत्व जिस भांति कविता की भीतरी और बाहरी क्रियाओं को संयत करते हैं
	ऐसा प्रतीत होता है कि कविता की प्रत्येक परत एक सघन एकालाप और सामूहिक विरासत
	की स्मृति को पुनर्जीवित करने में लगी है। ८० के दशक की पहचान और प्रतिष्ठा के
	दौर में भगवत रावत साधारण जीवन को समग्र बोलचाल के आयामों में परिवर्तित करने
	वाले कवि के रूप में जाने गए या कहें अलगाए जाने लगे। उनकी आगे की कविता जीवन
	की रचनात्मक चुनौती के रूप में रचना की भाषा को अर्थवत्ता देने वाला रहा है।
	साथ ही उनके कलागत अनुभव अपनी काव्य-प्रकृति के उन समृद्ध आत्मविश्वासों का
	निर्माण करते हैं जहाँ कविता का परिवेश अपनी तमाम कृतज्ञ निष्ठाओं और समर्पित
	आस्थाओं के बावजूद मनःस्थिति की बेचैनी, जीवेषणा और आपाधापी में अपनी भावभूमि
	का मोक्ष खोजता है - 'जब मैं स्कूल में पढ़ता था, उन दिनों / अखबार में छपी,
	बाढ़ग्रस्त इलाके का मुआयना करती / किसी हेलीकॉप्टर की तसवीर से पता चलता था /
	अब इधर सुविधा हुई है / अब हम घरों में कुर्सी पर बैठे-बैठे डूबते गाँवों के /
	जीते जागते दृश्य देखकर जान जाते हैं / कि बरसात आ गई है / हम हर साल इसी तरह
	बरसात के आने का इंतजार करते हैं' (अपने देश में)। शेली इसे 'डिवीजनल
	ट्रान्सफर' कहता था। स्थगित आग्रहों और गुणात्मक व्यवस्थाओं के अनेक ऐसे
	सूत्रों का निर्माण जो जीवन के मामूली से लगते ब्यौरे से लेकर रचना विधान की
	प्रतिनिधि सत्ता तक अपनी आवाजाही रखें और भूलने-पहचानने के बीच की सीमा में
	प्रामाणिक अर्थबोध और प्रासंगिक सांकेतिकता के समीकरण बाँधे। यह अत्यंत दुष्कर
	और असंभव सा कवि-कर्म है। इसके लिए आवश्यक है कि कैसे कवि अपनी व्यक्तिगत
	पक्षधरता को सामान्य मानव-संबंधों की संवेदनाओं एवं प्रक्रियाओं के अर्थ में
	अनूदित करता है। इससे कवि की नीति संवेदनाओं, चिंतन प्रक्रिया और उसी के
	द्वारा की जा रही समाजगत विचार अनुभूति में फाँक पड़ जाने के खतरे हैं। इसलिए
	वह यह मानकर नहीं चलता कि उसकी रचना से कोई समानांतर बोध या तात्कालिक क्रांति
	संभव नहीं। असल में प्रत्येक रचनाकार का एक नैसर्गिक स्वरचित सौंदर्यबोध होता
	है जो कि उसके रागात्मक दायित्वबोध एवं मानवीय पारस्परिकता के ऐतिहासिक
	अंतर्द्वंद्वों के परिणामस्वरूप काव्यानुभूति के मुहावरों और संघर्ष के
	सामाजिक अनुमानों को आधुनिक विकल्पों के आधार पर विसर्जित करता रहता है। यह
	प्रक्रिया प्रतिरोध के सशक्त पर्यावरण को काव्यभाषा के स्तर पर एकजुट करने का
	प्रयास करती है।
	खालीपन का स्पर्श और क्लेश का अनूठापन रावत जी की कविताओं में एक नई अर्थ आाभा
	का प्रस्तुतीकरण है। आम जन मानस के सांकेतिक सौंदर्य और उनके लोकचेतस आत्मिक
	बिंब का पाठ रचती कविता तक पहुँचने की जो सीधी और स्पष्ट गतिविधि है उसका मूल
	है वह अहसास जो नारे की तरह प्रचारित किए जा रहे निरर्थकता बोध और जुलूस की
	तरह प्रदर्शन करते आचरणहीनता के बीच से रास्ता बनाती जनतांत्रिक
	जीवनावश्यकताओं के एक नए चेहरे को परिभाषित करती है। पहले कहा जा चुका है कि
	रावत जी का काव्यबोध कविता के दायरे में एक समूह की सहृदयता का निर्माण करता
	है, भीड़ के सिनिसिज्म का नही। वह सही मायने में वस्तुगत संयम को कवितागत सादगी
	से परिचित कराते हैं जिसके कारण तनाव की एक अकृत्रिम अवस्था उनकी कविता के
	सामाजिक बिंबों को गढ़ती जाती है। वह तनाव खौलता हुआ, अवसादग्रस्त, असंयत न
	होकर समकालीन उपभोक्तावाद के अंतर्विरोधों, सत्ता अभिकेंद्रित राजनीति की
	अनिवार्य हो चुकी आचारहीनता को एक अंतरंग संवाद के स्तर पर खोलती है - 'इतनी
	थक चुकी है वह / प्यार उसके बस का नहीं रहा / पैंतीस बरस के / उसके शरीर की
	तरह / जो पैंतीस बरस-सा नहीं रहा' (थक चुकी है वह) कविता में जीवन के
	प्रतिनिधि उदाहरण को तलाशती उनकी काव्य-प्रक्रिया समकालिक होने के बावजूद,
	अपनी उपलब्ध, निर्मित एवं परिचित समानांतरता के खिलाफ हो जाती है। और साथ ही
	इस तरह अपने अधीनस्थ या कि पड़ोसी सरोकारों मे कुछ इस भाँति प्रवेश कर जाती हैं
	कि अतिरंजित आशंकाओं और नाटकीय जल्दबाजियों के विरोधी यथार्थबोध, जीवनापेक्षा
	वस्तु संदर्भों में प्रतिरोध के मानस का उम्मीद से भरा खाका खींच सकें।
	रावत जी की कविताओं के काव्यमर्म को समझने पर यह आसानी से टटोला जा सकता है कि
	घटनाओं या देशकाल के आकस्मिक बयान से, जीवन के विश्वस्त प्रतिरोधों और संयत
	दृष्टिकोणों को उनकी अतिमुखर सहज प्रतिहिंसा से कैसे बचाया जा सकता है। कविता
	के सजर्नात्मक वस्तुपक्ष को तलाशती रावत जी की कविता, अक्सर जीवन के अनपेक्षित
	संदर्भों को समकालीनता की दैनंदिन परंपरा में तलाशती है - 'चिड़ियों को पता
	नहीं कि वे / कितनी तेजी से प्रवेश कर रही हैं। / कविताओं में... / उन्हें
	नहीं पता था / कि कविताओं तक आते-आते / वे चिड़ियाँ नहीं रह जातीं / वे नहीं
	जानतीं कि उनके भरोसे / कितना कुछ हो पा रहा है / और उनके रहते हुए / कितना
	कुछ ठहरा हुआ है।' (चिड़ियों को पता नहीं) ये अनपेक्षित संदर्भ संस्कृति की
	प्रतिक्रियात्मक शक्तियों के ठुकराए हुए वे संघर्ष के अवसाद हैं जिनकी मौजूदगी
	कविता की प्रतिकृत सवंवेदना को मानवीय निष्ठा में अधिक से अधिक सहिष्णु बना
	देती है। यहीं पर यह भी अनायास ही दिख जाता है कि किस तरह भगवत रावत कविता के
	अपने सुनिश्चित समाज को प्रायोजित गतिशीलताओं और रोगातुर सहानुभूतियों से
	बचाकर ले जा सकने में सक्षम हो जाते हैं। इसलिए उनकी रचनाएँ आत्मकेंद्रित सुख
	और आक्रामक विसंगतियों के आत्ममुग्ध ब्यौरों से मुक्त हैं। रावत जी की कविता
	के ऐंद्रिक लक्ष्य भी वे सामान्य सी लगती नाटकीय पक्षधरताएँ है जो अलग अलग समय
	पर अलग अलग परिणाम के सांस्कृतिक प्रसंगों को समाज के आत्मकेंद्रित रिश्तों की
	निरंकुशता से विस्थापित करती रहती हैं। इस किस्म के रैखिक खतरे उन जैसे कवियों
	को उठाते ही रहने होंगे क्योंकि मानवीय निस्सहायता की उत्तरदायी शोषक
	ख्वाहिशों के प्रतिपक्ष की सृष्टि अपने युग निष्कर्षो को व्यापक सोद्देश्यता
	देने वाला रचनाकार ही कर सकता है।
	निस्संदेह रावत जी आक्रोश, तनाव और अव्यवस्था को युगजीवन की नई भाषा और यथार्थ
	के केंद्रीय शिल्प में ढालने में सफल रहे हैं। समय की संलग्न यथार्थमयता और
	परिदृश्य के आत्मान्वेषित (भले ही विश्रृंखलित) संयोजन, उनकी अनुभवजन्य
	आत्मीयता तथा अंतःसंघर्ष से पैदा होने वाले जीवन के भाव साम्य, कविता के
	निर्माण में उन रचनात्मक इरादों को सहन करते चलते हैं जो सार्वजनिक
	संवदेनशीलताओं की मौलिक निजता का बृहत्तर मानवीय आयाम गढ़ते हैं। आदमी को उसके
	भीतर के अमानवीय अंतरंग से सामना कराती भागवत रावत की कविता के संघर्ष,
	अभिव्यक्ति के किसी सुविधाभोगी चमकीलेपन का नतीजा नहीं हैं और न ही मेरा यह
	मानना है कि वह किसी नुकीली भावनिष्ठ तबीयत की आर्द्र निष्पत्तियाँ है। वरन
	व्यक्ति और समाज के पारस्परिक आत्मालोचन की आत्मीय हिस्सेदारी रचती कविताएँ
	हैं वे - 'आँखों में फैले / आसमान की तरह / वह फैला था / आकर्षक / अनंत / मैं
	उसमें कूद पड़ा / खूबसूरत चुनौती के उत्तर सा / पर वह जादुई पानी की तरह /
	सिमटने लगा / देखते-देखते / दिखने लगी तन की मिट्टी / दरकते-दरकते / वह मुर्दा
	चेहरों में / तब्दील हो गई / उन चेहरों में एक चेहरा मेरा था।' (समुद्र के
	बारे में) ये आत्मीय हिस्सेदारी, तज्जन्य मानवीय इच्छा शक्ति और अनुभवों के
	वैचारिक तनाव की सदिच्छा का परिणाम है। यह जरूरी भी है। कविता को संस्कृति
	कर्म बनाने की चेष्टा कभी-कभी उसे सामूहिक वर्गीय आवाहन के तादात्म्य से विलग
	कर उसे मात्र गाथा किंवदंतियों के सूचना संसार में भटकने के लिए छोड़ देती हैं।
	कवि को आगामी किसी अप्रत्याशित भय के अंदेशे नहीं हैं वह वर्तमान के ही
	सामाजिक दायरों में भविष्य के समाजशास्त्र को मूर्त करते हैं। वैसे यह समकाल
	का एक खास चिरपरिचित मुहावरा है कि वर्तमान के शब्द से आज की कविता आगामी
	अर्थों के संकेत चुनती है। कविता में प्रयोगों के दायरे भाषा और भाव के आपसी
	उलझे हुए और दुरूह रिश्तों को आलोचनात्मक पारदर्शिता से अलग एक रचनाधर्मी
	पारदर्शिता देने की ओर सक्रिय होती है। अभिव्यक्ति के स्तर पर निरंतर झूलती
	संवेदनशीलता और समकालीन औचित्यों के दिशाहीन संलाप भगवत रावत की कविता समस्या
	से जुड़े प्रमुख विचारणीय बिंदु हैं। सार्वजनिक सोद्देश्यता के व्यंग्य,
	वैचारिक छद्म का विद्रूप, और दरकती हुई संरचनात्मक लय के प्रगटीकरण में उनकी
	भाषा गोलाई में गहराई पाती जाती है। उद्वेलन और आत्म संशोधन की प्रक्रिया में
	बदलाव की चिंताओं का जीवन के संवेगों से साहचर्य स्थापित कर लेना ही इस कविता
	का साध्य है। मानव के आहत मूल्य और लोक जीवन के ऐंद्रिक तनाव रावत जी की
	कविताओं को नए सिरे से देखने को बाध्य करने वाले तत्व है। अनुभव का जीवनगत
	अर्थविस्तार और आकांक्षाओं के प्रस्तावित सौंदर्यबोध में मनुष्य की उपस्थिति
	का संकल्प उनकी रचनाधर्मिता में जीवन यथार्थ के एक जैविक विकास का नेतृत्व
	करता है।
	असल में हर कवि का अपना एक जीवन बिंब होता हैं। जिसे वह अपने व्यक्तिगत
	विश्वासों के स्मृति बिंबों से आलोकित रखने का प्रयास करता है। इन दोनों बिंब
	प्रतीकों का परिवेश और मनोविज्ञान, पर्याप्त संकेतगर्भी और यथार्थ के आदिम
	आग्रही मायनों से जुडा होता है। भावनात्मक वैचारिक असंगतियों, वैयक्तिक
	वस्तुपरक भटकावों तथा सामाजिक द्वंद्वात्मकता को किसी दिलचस्प विट से फुसलाती
	प्रतीति के विरुद्ध रावत की कविता, उन्हीं जीवन एवं स्मृति बिंबों के आपसी
	प्रभावगत मूल्यबोधों के सहयोग संवदनों से विकसित होती है और सुरक्षित भी रहती
	है।
	संकेत में ऊपर यह कहा जा चुका है कि सामाजिक स्तर पर संबोधित वक्तव्य हो या
	व्यक्तिगत स्तर पर दोनों में भावबिंबों का व्यापार अत्यंत प्रभावशाली रूप में
	कार्य करता है। परिवेश के संकटों को संबोधित करती और साथ ही उन संकटों में
	ऐहिक रूप से शामिल भगवत रावत की कविता अपने उच्चारण में स्वप्न और फैंटेसी का
	इस्तेमाल बेहद संदर्भ सूचक स्थितियों में करती है। नए कवियों में स्वप्न,
	चिंतन प्रतीकों के कंट्रास्ट को आवेग देने के लिए प्रयुक्त हुआ है। बहुतायत
	में मुक्तिबोध और यत्र तत्र अधिकांश समकालीन कवियों में राजनैतिक सामाजिक
	व्यंजकता को और गहरा करने में इस शैली का अपना योगदान रहा है। इसी तरह से
	फैंटेसी निजी और सामूहिक संवेदना के वस्तुपरक अनुभव बिंबों का संप्रेषण है।
	रावत जी के लिए ये दोनों आधुनिक काव्य प्रक्रिया के उपकरण, सांस्कृतिकता के
	सामयिक आग्रहों और सामाजिक यथार्थवादी मांसलता (या कहे मूर्तता) को काव्यानुभव
	के अर्जित संस्कारों के संदर्भ में देखने का माध्यम भर रहे हैं। उनकी व्याप्ति
	उनकी कविता में किसी भी तरह से भाषिक शिल्प या उपमानों के भंगिमा निर्माण में
	नहीं हुई है। और राव अपनी समूहबद्ध स्वायत्तता में इतने शक्तिशाली हैं कि उनकी
	कविता को अधिक से अधिक संतुलित एवं द्वंद्वात्मक अन्विति के रूप में साधा जा
	सकता है।
	एक रचना परंपरा की पड़ताल रचनाकर की पहचान को ही व्यक्त करती है। समकालीन कविता
	प्रसंगों में 'प्रकृति', विचार और कला के संतुलन को जीवन सहयोग और परिस्थितिगत
	सम्बद्धता के अनुकूलन में देखने का तत्व है। रावत जी के लिए प्रकृति कविता की
	रचनात्मक संभावनाओं में देशकाल की समृद्ध चेतना है। मानवी असमंजस और अहसासों
	की द्वंद्वात्मक पुनर्रचना में प्रकृति एक वर्गीय चरित्र की भूमिका अपनाती
	दिखती है। अनुभव विस्तार के गलत सही अतिक्रमण रावत जी की प्रकृति में जीवन
	यथार्थ के निराश और जल्दबाज पणिामों का अनुसंधान करते हैं। जीवन की सक्रियता
	की आड़ में किसी अराजक संकेत को रचनात्मक संकल्पों की अनुशासन की भाषा दे देने
	के विरुद्ध भगवत रावत की कविता में प्रकृति, विचार चेतना के प्रस्थान बिंदु को
	तलाशती है। इसलिए भौतिक अंतःसंघर्षों की समझ और आवश्यक नतीजे तक पहुँचने के
	लिए प्रश्नाकांक्षा तथा विडंबना के सूत्र यहाँ रुकते नहीं। प्रायोजित
	युक्तियों और किराये के भाव व्यापारों से दूर भगवत रावत नसीहतों के नहीं
	नतीजों के कवि हैं। जैसा कि नामवर जी कहते हैं कि हर बड़ा कवि अपने समय के
	सौंदर्यबोध को बदलता है। साथ ही साथ वह अपने चुने गए संसार की संवादधर्मिता भी
	बदलता है या कहें कि एक समूची युग चेतना को नए सिरे से रिहेबिलिटेट
	(पुनर्वासित) करता है। हर सजग कवि सभ्यताओं के अंदरुनी विवेक को खंगालता हैं
	और परंपरा के ध्रुवीकरण को जीवन के सौंदर्यबोध मे तोड़ता है। रावत हमारे समय के
	जरूरी कवि हैं। जरूरी कई आयामों में (भले ही कई मायनों में नहीं)। भाषिक
	बड़बोलेपन और डरावनी चीख पुकार के बेतरतीब उद्वेलनों के बीच रावत जैसे कवि की
	उपस्थिति एक प्रौढ़ प्रत्याशा की उपस्थिति है। जीवन के आडंबर से दूर मेहनतकश
	अनुभवों की बारीकियों के साथ।