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कविता

खुद में जिंदा रहना

यदुवंश यादव


सुबह सोचना बरगद जैसा
शाम को जड़ों को काट देना,
निकलना कहीं दूर के लिए
लौट आना बीच से ही
ख्वाबों का खत्म हो जाना
बिस्तर का हो जाना त्रिभुज
जिस पर पैर कहीं लटके हों,
सर टँगा हो त्रिभुज के एक कोने पर
जब बंद आँखों में अपना ही चेहरा
हो गया हो विकृत
आँखें लटक रही हों
थूथना फूल गया हो
मानो जैसे कह रहा हो
अब बहुत हो गया
जैसे हो गया हो सब लिजलिजा
सब कुछ फिसला जा रहा हो
बार-बार
उस मछली की तरह
जो पकड़ में नहीं आती।
खुद में जिंदा रहना
बहुत जरूरी होता है
बेहतर के लिए।


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