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आलोचना

समय और संबंध का अँधेरा : दूधनाथ सिंह की साठोत्तरी दौर की कहानियाँ

राजीव कुमार


हिंदी कहानी की पूरी परंपरा में दूधनाथ सिंह उन थोड़े से कहानीकारों में हैं जिन्होंने कथ्य और अभिव्यक्ति शैली-दोनों ही स्तरों पर अपना अक्षुण्ण निजपन निर्मित किया है। उनका यह निजपन उनकी साठोत्तरी दौर की कहानियों में विशेष रूप से दिखाई देता है। यह प्रक्रिया 'सपाट चेहरे वाला आदमी' (१९५९ ई.) से शुरू होकर 'सुखांत' (१९७१-७२) में अपने चरम पर पहुँचता है। उनके इस निजपन की विशिष्टता को रेखांकित करते हुए मधुरेश ने लिखा है, ''अनुभूतियों से संस्पर्शित सूक्ष्म अंतर्दृष्टि और रूढ़ सामाजिक ढाँचे के प्रति कटु निर्ममता, बहुत-सी सामाजिक विसंगतियों के बीच स्त्री-पुरुष संबंधों को नए आयामों में अन्वेषित कर सकने की क्षमता आदि सारी चीजों से मिलकर दूधनाथ सिंह की कहानियों की उपलब्धियों का जो रूप बनता है, सातवें दशक के कथा-लेखकों में उसकी समता के उदाहरण बहुत अधिक नहीं हैं।''

'सुखांत' के बाद, एक लंबे-अंतराल के पश्चात १९९० से उनकी कहानियों का दूसरा दौर शुरू होता है। इस नए दौर में उन्होंने 'माई का शोकगीत', 'काशी नरेश से पूछो', 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे' जैसी यादगार कहानियाँ लिखीं; परंतु साठोत्तरी दौर में जहाँ वे निजपन के प्रति सचेत थे, इस दौर में उन्होंने भावबोध, कथावस्तु और कहन की विशिष्ट भंगिमा अर्जित की थी, अपने दूसरे दौर में हिंदी कहानी की विराट सामाजिक प्रतिबद्धता वाली धारा में अपने को घुला देते हैं। इस दौर में वे 'रीछ', 'आइसबर्ग', 'दुःस्वप्न', 'रक्तपात', 'सुखांत', 'सपाट चेहरे वाला आदमी' आदि के भोक्ता तथा नए ऐतिहासिक रुझान के प्रवक्ता नहीं रह जाते बल्कि 'माई का शोकगीत', 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे' आदि के सर्वद्रष्टा बन जाते हैं। ये (दूसरे दौर की) कहानियाँ अतीत अथवा वर्तमान की कुछ सूचनाओं के इर्द-गिर्द की गढ़ंत-सा प्रतीत होता है। इस दौर की सर्वाधिक सराही गई 'धर्मक्षेत्रे-कुरुक्षेत्रे' के अंतिम अंश में बाप-बेटे का संवाद, घात-प्रतिघात और उनके खेत रहने के चित्रण को छोड़ दें तो पूरी कहानी एक रिपोर्टिंग से ज्यादा कुछ भी नहीं लगती। फिर भी विडंबनात्मक यथार्थ के उद्घाटन की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण कहानी जरूर है। लेकिन इस दूसरे दौर में साठ के दौर की कहानियों से जो अंतर आया वह यह है कि दूधनाथ सिंह की दूसरे दौर की कहानियों की सानी बहुत-सी मिल जाएगी। (प्लॉट के स्तर पर न सही, सरोकार के स्तर पर; वैसे ये सरोकारबद्ध कहानियाँ ही हैं), लेकिन उन्होंने जो कुछ भी साठ के दौर में लिखा उसकी कोई सानी नहीं है। अगर कुछ भाव-साम्य मिलता भी है तो उसी दौर के कहानीकारों के उसी दौर की कहानियों के साथ। ऊब में ज्ञानरंजन-सा और पैसिव उदासी में रामनारायण शुक्ल-सा।

साठोत्तरी दौर के कहानीकार दूधनाथ सिंह तत्कालीन ऐतिहासिक दौर के बीच मानवीय संवेदना में दृष्टिगोचर हो रहे नए विडंबनात्मक रुझान के सर्वप्रमुख चितेरे हैं। यह विडंबनात्मक रुझान देश की आजादी के सुखद एहसास के कालांतर में गहन तिक्तता में बदल जाने की वस्तुस्थिति से पैदा हुई है। दूधनाथ सिंह इस दौर की अपनी कहानियों के संदर्भ में कहते हैं, ''उनकी पृष्ठभूमि में आजादी से मोहभंग है। वैचारिक संघर्ष और... परिवार के टूटने, राजनीतिक दिशाहीनता की आती धीमी आहट, एकल परिवारों में पत्नी तथा प्रेम का द्वंद्व और अंतर्विरोध इन कहानियों का उत्स है और मेरी ही नहीं उस समय लिखने वाले सभी महत्वपूर्ण कहानीकारों की विषयवस्तु का विश्लेषण इसी तरह है।'' दूधनाथ सिंह की इस दौर की ज्यादातर कहानियाँ ('प्रतिशोध', 'कोरस', 'उत्सव', 'सुखांत' आदि कुछेक को छोड़कर) पारिवारिक संबंधों के ताने-बाने में विषय-वस्तु को उठाती है, 'प्रतिशोध' आदि कुछेक कहानियों में भी जहाँ वे पारिवारिक दायरे की परिधि से थोड़ा बाहर निकलते हैं उनमें से भी ज्यादातर में परिवार एक व्यथित करने वाली इकाई के रूप में मौजूद है। हिंदी कहानी की पूरी परंपरा में परिवार का इतना विक्षुब्ध स्वरूप कहीं और नहीं मिलता जो कि इस कहानीकार की संवेदना में बिना अपवाद के अनवरत मौजूद है। स्वयं दूधनाथ सिंह साठोत्तरी दौर की कहानियों के बाद संवेदना के इस मॉडल से बाहर आ जाते हैं। प्रश्न यह उठता है कि दूधनाथ सिंह पारिवारिक ताने-बाने में मौजूद स्थायी ऊब तथा वहाँ घटने वाले तीक्ष्ण प्रतिघातों के माध्यम से क्या केवल घर और कुटुंब के स्तर पर संबंधों के संकट को रखना चाहते हैं या इन संबंधों के संकट की व्याप्ति कुछ इतर संकेत भी करती है। ध्यातव्य है कि ये कहानियाँ 'नई कहानी' के प्रेम त्रिकोण वाली संरचना या उसका एक्सटेंशन नहीं है। इस कारण यहाँ समस्या की प्रकृति भी भिन्न है। 'सपाट चेहरे वाला आदमी', 'सुखांत', 'दुर्गंध', 'रक्तपात' 'प्रतिशोध' में तनाव की स्थिति किसी तीसरे व्यक्ति की उपस्थिति के कारण नहीं है। 'रीछ' में भी तीसरे व्यक्ति की कोई प्रत्यक्ष उपस्थिति या घुसपैठ नहीं है। अतीत का कृत्य यहाँ अपराध चेतना का रूप ले लेता है। मधुरेश के अनुसार, ''अपराध की चेतना से पैदा हुई असहजता किस प्रकार व्यक्तित्व के संतुलन को बिगाड़ती है और किस प्रकार वह चेतना रीछ की तरह आक्रामक एवं भयावह हो सकती है इसका बड़ा प्रभावशाली अंकन इस कहानी में हुआ है।'' अपराध चेतना कहानी में स्पष्ट है, लेकिन वह अतीत का हिस्सा है, वर्तमान का नहीं। वर्तमान में कहानी के नायक की चाह यही है कि ''क्या वह पत्नी को सब कुछ बता दे? यही उसने चाहा था। बहुत शुरू में... बल्कि शादी के पहले ही उसने इस बात का निर्णय ले लिया था। ...इसमें वह सफल नहीं हो सका था। इधर-उधर की बातों द्वारा अपनी मूल बात पर आने की भूमिका उसने कई बार तैयार की थी। बल्कि बार-बार यही करता रहा। और हर बार पत्नी उसकी भूमिका को चीरकर एक नए अनागत खौफ में उसे जकड़ देती।'' कहानी में नायक के कन्फेशन की चाह पूरी नहीं हो पाती क्योंकि उसकी पत्नी अतीत में भी ऐसी किसी संभावना के बाबत 'सोच भी नहीं सकती।' अतीत का अपराध वर्तमान को ग्रसने लगता है। लेकिन क्या अपराध चेतना का यह मर्मांतक प्रभाव, जटिल संबंध का 'क्लोज्ड सिचुएशन' जिससे बाहर आने की कोई राह नायक के सामने नहीं है, 'एब्सल्यूट' रूप से पारिवारिक निर्मित है तया इस सिचुएशन के निर्माण में किसी अन्य चीज की भूमिका है जो प्रत्यक्ष रूप से सामने नहीं आ रही है। हर बार चीजें एक 'डेड इंड' पर जाकर ठहर जा रही है। 'रीछ' में नायक अपने अतीत से बाहर नहीं आ पाता, 'रक्तपात' में संबंधों के प्रति ठंढापन घर कर जाता है, 'आइसबर्ग' में नायक रिक्तता से बाहर आना चाहता है पर वापस उसी रिक्तता में लौट जाने को विवश है। अपने इस संवेदनात्मक मिजाज के संदर्भ में दूधनाथ सिंह का कहना है कि ''उस वक्त की मेरी कहानियों में जीवन का निषेध पक्ष कुछ ज्यादा ही प्रबल है। क्योंकि उल्लास और उमंग का माहौल उन दिनों संपूर्ण भारतीय राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक जीवन में अनुपस्थित था। एक नई अनुभूति के लिए यह समय एक प्रस्थान-बिंदु है।'' स्पष्ट है कि उमंग का माहौल बाहर नहीं था, कहानीकार आंतरिक स्तर पर-पारिवारिक स्तर पर निषेध को केंद्रीय सेंस के रूप में बरत रहा था, इस प्रकार इन कहानियों में पारिवारिक जीवन का जो मॉडल है वह तत्कालीन समाज अथवा देश की स्थिति का एक तरह है मेटाफर बन जाता है। इन कहानियों में मौजूद पारिवारिक स्तर की अभिव्यक्तियाँ सामाजिक जीवन से किस तरह अभिन्न है इसकी पुष्टि विजयमोहन सिंह के इस विश्लेषण से भी होती है जो कि उन्होंने दूधनाथ सिंह आदि की साठोत्तरी कठानी के संदर्भ में किया है, ''...यह कहानी अपने पूर्व की कहानी से कहीं अधिक 'सामाजिक' है। उसमें संबंध अचानक ही महत्वपूर्ण नहीं हुए हैं। संबंध हमारी सामाजिकता जाहिर करते हैं क्योंकि वे हमें दूसरों से जोड़ते हैं। यहाँ तक कि संबंध टूटने की पीड़ा का बोध भी सामाजिक चेतना का ही अंग है। ...नया कहानीकार तथाकथित मनौवैज्ञानिकता पर आधारित 'मानव स्वभाव का विश्लेषण' नहीं करता। वह मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित विश्लेषण के 'खूझे' नहीं अलगाता। वह एक ऐसे बिंदु पर पहुँच गया है जहाँ बाह्य परिवेश अपनी दूरी का परित्याग कर वैयक्तिक संबंधों के विश्लेषण में घुल गया है।'' इस उद्धरण की यह स्थापना ककि 'बाह्य परिवेश अपनी दूरी का परित्याग कर वैयक्तिक संबंधों के विश्लेषण में घुल गया है', दूधनाथ सिंह कहानियों की प्रवृत्ति और व्यक्ति को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण संकेत है। आशय यह है कि दूधनाथ सिंह की कहानियाँ भले ही पारिवारिक जीवन के प्लॉट के इर्द-गिर्द घूमती प्रतीत होती है लेकिन उसकी व्याप्ति वहीं तक सीमित नहीं है। ये कहानियाँ उतनी निजी भावबोध की कहानी नहीं है, बल्कि इन कहानियों के दो स्तर हैं। अपने पहले स्तर में, अभिधात्मक अर्थ में (प्रतीक सहित) पारिवारिक जीवन के उस रुझान को अभिव्यक्त करता है जो कि उस खास दौर में निर्मित हुई थी। उसका उत्स, कारण या बहाना भले ही आंतरिक हो लेकिन उसे 'इंटेंस' करने में बाह्य जगत की महत्वपूर्ण भूमिका थी। दिक्कत यह है कि आउटर रेफरेंस हर जगह मौजूद नहीं है लेकिन जो इनर रेफरेंस है वह कहानी के पूरे विकास को सपोर्ट नहीं करता। कहानियों में मनःस्थितियाँ केंद्रीय पात्र का बर्ताव के पीछे जो छोटे-छोटे ट्रेस दिए गए हैं वह कहानी के पूरे स्वरूप एवं प्रभाव की दृष्टि से नाकाफी है। 'सपाट चेहरे वाला अदमी' में 'मैं' की जो बेचैनी है, उसके आँसू विहीन होने की स्थिति है उसके पीछे यह सूचना है कि वह उस बच्ची को देखकर रोया करता था जिसे सूखे का रोग था। जब वह हँसती थी तो लगता था रो रही है। छ महीने की उम्र में ही उसकी झुर्रियाँ अस्सी साल की बुढ़िया से बढ़ गई थी। लेकिन इस बच्ची की मृत्यु के बाद 'मैं' रो नहीं सकता। यहीं से कहानी का दूसरा स्तर मेटाफरिक रूप सामने आता है। ये कहानियाँ अपने मेटाफरिक स्वरूप में देशकाल की व्यापक संवेदना को प्रतिबिंबित करने लगती है। 'सपाट चेहरे वाला आदमी' की उस बच्ची की यातना और विडंबना देश की यातना का द्योतक बन जाती है।

दरअसल दूधनाथ सिंह की साठोत्तरी कहानियों का जो विकास-क्रम है वह एक थीसिस की तरह है। 'सपाट चेहरे वाला आदमी' में इस थीसिस का बीज रूप मौजूद है, बीच की विभिन्न कहानियों में इसके अनेक आयाम स्पष्ट होते हैं पर कुछ अनकहापन, कुछ स्फीति, कुछ अधूरापन रह जाता है तथा 'सुखांत' जो कि साठोत्तरी दौर की उनकी अंतिम कहानी है, में इस थीसिस के सारे आयाम सामने आ जाते हैं, सारे बिखरे सूत्र एक जगह इकट्ठा होकर संश्लिष्ट कलात्मक कृति-दस्तावेज का निर्माण करते हैं। इस दृष्टि से दूधनाथ सिंह की इस दौर की कहानियाँ स्वतंत्र इकाई होने के बावजूद 'सुखांत' लिखने की तैयारी सी लगती है, जिसे लिखने के बाद वे एक लंबे 'कूलिंग पीरियड' में चले जाते हैं और मानते हैं कि ''अपनी औपान्यासिक कथा सुखांत लिखने के बाद मुझे लगा कि लिखने के लिए अब कुछ नहीं रह गया है।'' सुखांत पारिवारिक दायराबद्धता को तोड़ने वाली रचना है। अगर 'सुखांत' की ओर से देखा जाए तो दूधनाथ सिंह की वे कहानियाँ भी जिनमें जटिल प्रतीकात्मकता का संधान तथा संवेदना का स्तरीकरण किया गया है संप्रेषणीयता की दृष्टि क्लिष्ट नहीं रह जाती है।

दूधनाथ सिंह की साठोत्तरी कहानियों तथा इससे संबंधित उनके विचार एवं व्याख्या से गुजरने पर कुछ महत्वपूर्ण तथ्य सामने आते हैं कि -

१. वे अपनी (तथा अपनी पीढ़ी) की संवेदनात्मक वैशिष्ट्य के प्रति खासे आग्रही हैं तथा अपने आग्रह के मुखर (कई बार अतिवादी) प्रवक्ता हैं।

२. उनकी कहानियाँ अपने समय से गहरे रूप से जुड़ी हुई हैं।

३. जटिलता उनकी विशिष्टता (सौंदर्य के अर्थ में) है जिसके बिना उनकी कहानियाँ निरीह लगती है।

४. वे मनोवैज्ञानिक पद्धति के कथाकार नहीं हैं। बाह्य का अंतर में प्रवेश और मेटाफर के निर्माण का उनकी कहानियों के रचाव में प्रमुख स्थान है।

दूधनाथ सिंह की कहानियों में उस समय का मेटाफर तो प्रमुखता से अंतर्निहित है ही, संबंधों का जो ढाँचा है वह भी उस समय विशेष के प्रभाव से रूपाकार ले रहा है। दरअसल अपने समय से उनका सरोकार अधिकतम है, समयातीत होने में उनकी रुचि न्यूनतम है। समय की दृष्टि से अनेकानेक कहानियाँ ऐसी होती हैं जिन्हें किसी एक कालखंड के दूसरे कालखंड में आसानी से शिफ्ट किया जा सकता है; मसलन 'कोसी का घटवार', 'आर्द्रा', 'राजा निरबंसिया', 'जहाँ लक्ष्मी कैद है' आदि। अगर इन कहानियों को उनके रचनाकाल से बाहर के समय में रखकर पढ़े तो इनकी संवेदना में कोई क्षति नहीं होगी क्योंकि ये कहानियाँ मानवीय भावना और सामाजिक ढाँचे के उस कोटि से जुड़ी हुई हैं जिसका स्वरूप शाश्वत या कम से कम दीर्घजीवी जरूर है। 'कोसी का घटवार' के प्रेम की सफरिंग की स्थिति लगभग शाश्वत है। 'राजा निरबंसिया' की विडंबना भारतीय समाज से मिटाए नहीं मिट रही है। लेकिन यही सलूक दूधनाथ सिंह की साठोत्तरी कहानियों के साथ नहीं किया जा सकता, हालाँकि बाद के दौर की उनकी 'माई का शोकगीत', 'धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे' के साथ यह संभव है। 'रीछ' अपने समय के बिना दांपत्य कलह की रोजमर्रा कहानी है। 'सपाट चेहरे वाला आदमी' के लड़के की आवाजविहीनता हर युग की व्यथा नहीं है। 'आइसबर्ग' का सफरर नायक हर युग का मॉडल नहीं बन सकता। उसका बर्ताव समय के एक निश्चित फ्रेमवर्क में है। अगर इस फ्रेमवर्क को तोड़ दिया जाए तो नायक के पैसिवनेस का जो ढाँचा है वह ढाँचा ढह जाएगा। यहाँ कुछ उदाहरण जान-बूझकर 'नई कहानी' से रखे गए हैं क्योंकि 'नई कहानी' की भी सारी दावेदारियाँ समय से संबद्ध हैं। वहाँ भी आजादी के बाद मोहभंग की बातें की गई है, लेकिन वास्तव में वहाँ संक्रामक स्थितियों का बोलबाला है। अतीत से मोह और विलगाव का अंतर्द्वंद्व है। पारिवारिक संबंधों के टूटन की पीड़ा है। भीष्म साहनी की 'चीफ की दावत', कमलेश्वर की 'देवा की माँ', उषा प्रियंवदा की 'वापसी' - हर जगह पारिवारिक संबंध टूटने पर गहन वेदना का अहसास मिलता है। लेकिन साठोत्तरी कहानी में यह वेदना अनुपस्थिति की सीमा तक पहुँच गई है। अगर कहीं है भी तो वहाँ भी एक तरह का पैसिवनेस है। इस दौर में हमारे सामने 'सेल्फ कन्फाइंड' नायक सामने आता है जो विरक्ति एवं ऊब के भाव से मरा हुआ है। 'सपाट चेहरे वाला आममी', 'रक्तपात', 'आइसबर्ग', 'दुर्गंध', 'प्रतिशोध' - हर जगह यही स्थिति है। 'रक्तपात' में पिता की मृत्य पर बेटा नहीं आता, 'आइसबर्ग' में अकारण भाई भाई पर प्रतिघात करता है, 'सुखांत' में नायक के परिवारवाले-माँ और पत्नी-नायक के विरोधी तथा व्यवस्था के सहयोगी बन गए हैं। ऐसा लगता है कि संबंधों का जो डिफाइन ढाँचा अब तक रहा है वह यहाँ आकर झूठा पड़ गया है। संबंधों की यह विकट स्थिति सिर्फ इसी दौर में दिखाई देती है। 'नई कहानी' में संबंधों में तनाव के बावजूद उसे पाने का (भले ही आधिपत्य के रूप में) संघर्ष है, यहाँ वैसी कोई उत्सुकता दिखाई नहीं देती। साठ के बाद के दौर में भी ऐसी स्थिति दिखाई नहीं देती -नितांत निजी संबंध के संदर्भ में। 'नई कहानी' के दौर से यह संवेदना की 'मेजर शिफ्टिंग' है। दूधनाथ सिंह की कहानियों में यह शिफ्टिंग घनीभूत रूप में व्यक्त हुई है। अगर इन कहानियों को दूसरे दौर में शिफ्ट करें तो यह समय के मेल में न रह पाएगी। 'रीछ', 'रक्तपात', 'आइसबर्ग' आदि कहानियाँ जिनमें संबंधों की जद्दोजहद, उसका विखराव और विरक्ति है अगर इनकी आंतरिक तहों में जाएँ तो देखेंगे की वहाँ भी समय की गहरी प्रतिध्वनि है। इन कहानियों का कुछ स्थिति साम्य समय से बाहर जा सकता है, मसलन संबंधों में विलगाव के कुछ दृष्टांत मिल जाएँगे लेकिन वह संश्लिष्ट संवेदना, वह पैसिवनेस, वह ऊब बाहर दिखाई नहीं देगी। एक बात यह भी है कि ये कहानियाँ अपने ऊपरी ढाँचे से इतर कुछ वृहत्तर कहना चाहती है वह इस समय विशेष की परिधि में ही संभव है। उदाहरणस्वरूप 'रीछ' में दांपत्य संबंध के अंदर पूर्व प्रेम की स्मृति के घुसपैठ से क्राइसिस उत्पन्न होता है। इस घुसपैठ के कारण जो गलीज और यातना जन्म ले रहा है, वह उस समय के वर्तमान और अतीत का मेटाफर बन जाता है। 'रीछ' की उपस्थिति से जिस तरह की बदबू पारिवारिक जीवन में प्रवेश कर गई है उसी तरह की यातनादायी स्थिति देश के परिदृश्य पर भी है। जिस तरह की अतीतग्रस्तता का शिकार कहानी का नैरेटर है, लगभग उसी प्रकार की स्थिति जनता के साथ भी चिपकी हुई है। देश के स्तर पर यह अतीतग्रस्तता क्या है? आजादी के भावबोध, उसके रोमान के प्रति मोह। जिस प्रकार 'रीछ' से त्रस्त होने के बावजूद नैरेटर उसके मोह से बाहर नहीं आना चाहता, उसी प्रकार जनता आजादी के खुशफहमी से निकल नहीं रही है। इस खुशफहमी में वह व्यवस्था की विद्रूपताओं को ढोए जा रही है। आजादी के रोमान में सत्ता द्वारा उत्पन्न की जा रही गलीज की उपेक्षा की जा रही थी। सन् साठ तक आते-आते सत्ता का जो चरित्र बन चुका था, उसमें यह ठहराव आत्मघाती बन गया था, जैसा कि इस कहानी (रीछ) में रीछ के प्रति नैरेटर के मन में मोह उत्पन्न होने से होता है। कहानीकार दूधनाथ सिंह इस स्थिति को समझ रहे थे। उनके अनुसार, ''हमारे सामने आजादी का दुखांत ही ज्यादा प्रमुख या-और आज भी है। इसी को मैं आज के लेखक का मोहभंग कहता हूँ जिसके तहत उसने, और उसी ने क्यों, सारे भारतीय जनमत ने आजादी के अर्थ को, अपने इतिहास, प्रजातंत्र, अपनी संसद को, गांधीवाद को, नेहरू के पवित्र स्वप्नदर्शिता को - नए सिरे से पुनः परिभाषित करने का जोखिम उठाया।'' दूधनाथ सिंह ने कहीं प्रत्यक्ष रूप से जैसे 'प्रतिशोध' में, कहीं मेटाफर और प्रतीक में जैसे 'सपाट चेहरे वाला आदमी' अथवा 'कोरस' में और कहीं पूरी संश्लिष्टता में जैसे 'सुखांत' में आजादी के बाद के इस दुखांत को बार-बार अभिव्यक्त किया है।

दूधनाथ सिंह की कहानियों में समय से उनकी संबद्धता को स्पष्ट करना इसलिए भी आवश्यक है कि प्रायः इनकी कहानियों पर फ्रायड के सिद्धांत को स्थूल और रूढ़ ढंग से लागू किया जाता रहा है। डॉ. रमेशकुंतल मेघ 'रीछ' की व्याख्या करते हुए लिखते हैं, ''सेक्स की विचित्र गहराइयाँ, अवचेतन की दुर्दमनीयता, चिति की रहस्यमयता तथा व्यक्तित्व की कुंठा आदि का कलात्मक रचाव 'रीछ' में उजागर होता है। रीछ कहानी में भी एक ऐसा पात्र है जो केवल 'वह' (नायक) के निजी कमरे (वैयक्तिकता) तथा तहखाने (अवचेतन) के अँधेरे में रहता हुआ वह अर्थात अन्यदेशिक ढंग से रीछ पति पुरुष या पुरुषवत रीछ या खूँखार तथा रक्तपिपासु इदम् (इड) शक्ति और अवचेतन मानस, सभी कुछ है।''१० इस विश्लेषण में आगे भी कदम-दर-कदम इस कहानी को फ्रायडीय सिद्धांत का रचनात्मक उल्था साबित किया गया है। इसकी अर्थव्यंजकता के अन्य आयामों की ओर बिल्कुल ही ध्यान नहीं दिया गया है। स्पष्ट है इस व्याख्या में कहानी के निहितार्थ को सीमित कर दिया गया है। अगर 'रीछ' अथवा दूधनाथ सिंह की अन्य कहानियाँ सिर्फ निरपेक्ष परिवारवादी संरचना है तथा उसका सिर्फ वगैरह कहने का क्या अर्थ है? वास्तव में ऐसा नहीं है। इस संदर्भ में दूधनाथ सिंह के मंतव्य को जानना आवश्यक हो जाता है। एक प्रश्न - 'आपकी प्रारंभिक कहानियों में फ्रायडियन प्रभाव दिखता है, उन कहानियों को आज आप किस तरह देखते हैं?' के उत्तर में वे कहते हैं - ''जिसे तुम फ्रायडियन तत्व कहते हो, उस तरह का मनोविश्लेषणवाद और सबकांशस का विश्लेषण इन कहानियों में नहीं है। वो एक निश्चित सामाजिक दौर की उपज हैं और नई कहानी आंदोलन की प्रवृत्तियों से बिल्कुल अलग हैं।''११ दूधनाथ सिंह यहाँ जिस निश्चित सामाजिक संबंध को इंगित करते हैं वह तत्कालीन दौर में देश की परिस्थितियाँ हैं।

दूधनाथ सिंह की कहानियों में मनोवैज्ञानिक तत्व एक सहयोगी तत्व के रूप में हो सकता है, लेकिन ऐसे किसी सिद्धांत के पोषक के रूप में उनकी कहानियों को सीमित कर देना कहानी की व्यापकता को रिड्यूस करना होगा। सामान्यतः दूधनाथ सिंह की कहानियाँ अनकांशसनेस की कहानियाँ नहीं है बल्कि इसके उलट उनमें मुखर सेल्फ कांशसनेस है। हर पात्र अपने समय तथा समाज के साथ पैसिव कन्फ्रंटेशन में है। 'आइसबर्ग' में बिन्नू को अगर पत्नी का संग-साथ नहीं आता तो वह उसे स्वीकार नहीं कर रहा है भले ही अपने को उस जिंदगी के 'योग्य नहीं' घोषित कर देता है। 'रक्तपात' में पिता से असहमति रही है नैरेटर की और वह उनकी मृत्यु पर भी नहीं आता।

दूधनाथ सिंह अपने समय के प्रति सचेत ही नहीं अतिरिक्त सचेत कहानीकार हैं। उनकी कहानियों के निश्चित प्रस्थान बिंदु हैं जिसे वे खासे आग्रह के साथ रखते हैं। हालाँकि इस प्रक्रिया में वे कुछ जगहों पर सरलीकरण भी कर देते हैं, पर सामान्यतः वे अपनी कहानियों के प्रस्थान बिंदु तथा एंबियांस के प्रति स्पष्ट हैं, सचेत हैं, इमानदार हैं और उससे एकमेक हैं। अपनी रचनात्मक वैयारिकी के साथ इस हद तक संलग्नता का कोई और उदाहरण शायद ही हिंदी कहानी में दिखाई दे। 'जनवादी कहानी' के शोर के साथ जरूर विचार आधारित तथा तयशुदा अंत वाली कहानियाँ लिखी गईं लेकिन वहाँ 'कहानीपन' की बड़ी क्षति है। वैचारिकता को अथवा दृष्टिकोण को अक्षुण्ण रखते हुए श्रेष्ठ कहानी लिख पाने वाले विरल उदाहरण दूधनाथ सिंह हैं। इस पूरी प्रक्रिया को उनकी साठोत्तरी दौर की रचनात्मकता पृष्ठभूमि के संदर्भ में पेश किए उनके दृष्टिकोण के माध्यम से समझा जा सकता है -

''मैं तो सन् १८८५ से १९६० की भारतीय मानस की बनावट को एक ही मानता हूँ। यह एक ही तरह की इतिहास लहर है जिसमें आजादी हमारा सबसे पवित्र आदर्श रहा है। इसलिए लगभग ७५ वर्षों का संपूर्ण भारतीय साहित्य इसी पवित्र, आदर्श मानसिक बनावट की देन है। मेरे खयाल में भारतेंदु से शुरू करके राकेश और निर्मल और मुक्तिबोध तक एक ही पीढ़ी के अंतर्गत आते हैं। भारतेंदु यदि शुरुआत हैं तो राकेश, निर्मल और मुक्तिबोध उपलब्धि। गो कि राकेश, निर्मल या मुक्तिबोध का सारा उत्कृष्ट साहित्य आजादी के बाद आया लेकिन उसकी वैचारिक और कलात्मक रुझान आजादी के पहले की मानसिक बनावट की ही देन है।''१२

''लड़ाई जब बाहर वालों से होती है तो आदमी घूँसा तानकर खड़ा हो जाता है। लेकिन जब अपने घर में होती है तो अक्सर घूँसा अपनी ही नाक पर मार लेता है। हमारी पीढ़ी की यह अंतरमुखता, घुटन, यह चुप इसी परिवर्तित मानसिक बनावट की सूचना देती है।''१३

''बुनियादी तौर पर प्रजातांत्रिक मूल्यों की सारी परिकल्पनाएँ वर्तमान परिस्थितियों में झूठी साबित हो रही हैं। यह सचमुच परिस्थितियों को उनके सही रूप में देखने की बात है। जीवन को बेहतर बनाने और संबंधों और मूल्यों को एक सचमुच का नया नैतिक मान देने की घोषणाएँ और प्रयत्न व्यर्थ से होते दिखाई देते हैं। इस तरह के सारे परिणाम एक संवेदनशील व्यक्ति को एक विचित्र प्रकार के 'आदिमवाद' की ओर ले जाते हैं।''१४

यहाँ पहले उद्धरण में दूधनाथ सिंह ने १८८५ से १९६० की रचनात्मकता को एक ही तराजू पर तौल दिया है यह उतना तक तो ठीक है कि उनकी स्वयं की कहानियाँ तब तक के मिसाल से पूर्णतः अलग संवेदनात्मक ढाँचे की है, परंतु इतने लंबे दौर की हिंदी की सभी साहित्यिक अभिव्यक्तियाँ एक ही मानसिक बनावट की है यह कहना एक किस्म का अतिवाद है और अपने किए के प्रति अतिरिक्त आवेश। प्रेमचंद और जैनेंद्र, अज्ञेय और यशपाल, मोहन राकेश और राजकमल चौधरी को एक ही मिजाज का कैसे कहा जा सकता है। बहरहाल, बाद के दोनों उद्धरणों से दूधनाथ जी कहानियों के मिजाज तथा उसकी पृष्ठभूमि का पता चलता है। वे जिसे अपने घर की लड़ाई कहते हैं दरअसल वह 'घर' परिवार तक सीमित नहीं है, उसकी व्याप्ति राष्ट्र के स्तर तक है जो कि तीसरे उद्धरण से स्पष्ट हो जाता है जहाँ वे प्रजातांत्रिक मूल्यों के झूठे पड़ने की बात करते हैं। इस प्रकार उनके आत्म के निर्माण में उनके बाह्य की, जो कि उस समय की ऐतिहासिक स्थिति थी, कि महत्वपूर्ण भूमिका है। दूसरी ओर उनका आत्मसंकुचन आत्मग्रस्तता नहीं है, उसमें उनके समय का अक्स मौजूद है। 'रक्तपात' तथा 'आइसबर्ग' में इसे देखा जा सकता है। 'रक्तपात' में नैरेटर का अपने पिता के प्रति क्षोभ है, पत्नी से असहज संबंध है, इस कारण वह आंतरिक रूप से विघटित हो रहा है। वह संबंधों और रागात्मक क्रियाओं से विमुख हो गया है। दूसरी ओर माँ भी आंतरिक टूटन का शिकार है, बेटे के व्यवहार के कारण। पिता की मृत्यु पर बेटे का न आना उसके लिए संघातिक साबित होता है। वे कहती हैं - 'ऐसे पूत का क्या भरोसा। जो अपने बाप का न हुआ वह और किसका होगा।' अब इसे राष्ट्र के मेटाफर के रूप में देखिए - '६० के दशक में हमारे देश की जो सत्ता संरचनाएँ थी, उसमें हमारे अपने ही लोग थे और वे ही हमारा घात कर रहे थे। यह तत्कालीन दौर के संवेदनशील लोगों के लिए संघातिक स्थिति थी। वे 'माँ' की तरह मानसिक विक्षेप के लिए विवश थे। दूसरी ओर युवाओं के लिए भी यह हतोत्साह करने वाला समय था। उनके सामने दो ही विकल्प थे या तो 'आइसबर्ग' के टीज करने वाले लुंपेन जगत में बदलिए या फिर पैसिव विनय में ढल जाना होगा। तत्कालीन युवा मानस का आत्मसंकुचन इसी वस्तुस्थिति की देन है। यहाँ अतीत कोई आस्था पैदा नहीं करता, कोई संबल नहीं देता। अतीत गलीज है, जगत एवं विनय के दादा जी की तरह। इस कहानी में दादाजी ने नैतिक क्षरण का जो पार्श्व निर्मित किया है उसके कारण तत्कालीन वर्तमान में जगत जैसा लुंपेन मंच पर आ गया है जो नैतिक क्षरण का प्रदर्शन तमगे की तरह करता है और दादा की परंपरा से खुद को जोड़ता है। इसी अतीत का दूसरा प्रतिफलन गहन विरक्ति से भरा विनय है। इस तरह पूरा परिदृश्य काटखाऊ है; ऊब, ठहराव और सड़ांध से भरा हुआ है। दरअसल दूधनाथ सिंह बड़ी संरचना की ट्रेजेडी और क्राइसिस को छोटी संरचना में अभिव्यक्ति देते हैं। बड़ी संरचना राष्ट्र है, छोटी संरचना परिवार या समाज।

...सिंह की कहानियों के संदर्भ में एक प्रश्न संप्रेषणीयता का भी उठाया जाता है। प्रहलाद अग्रवाल लिखते हैं, ''उनकी कई कहानियाँ अपने शिल्प की जटिलता के कारण पाठक के लिए मानसिक व्यायाम का उपादान बन जाती हैं। कथ्य के ऊपर दोहरे-तिहरे आवरण, विभिन्न शिल्प विधियों का प्रयोग, शब्दों की पच्चीकारी उनकी कहानियों में है, और खूब है। किंतु शिल्प की महत्ता सुलझाने में हैं, उलझाने में नहीं है।''१५ यह सच है कि दूधनाथ सिंह की कथा संरचना पाठकों से ज्यादा एफर्ट की माँग करती है। लेकिन यह संरचना उलझाने की नियत से नहीं बल्कि संश्लिष्टता के आग्रह से निर्मित हुई है। ध्वस्त सपने के कारण जनमानस में अब और अवसाद की ऐतिहासिक स्थिति, बाहर के ऊब और निराशा का जीवन से एकात्म हो जाना, नितांत निजी संबंध का पीड़ादायक स्थिति में बदत जाना, व्यक्तिगत एवं राष्ट्र के स्तर पर सफरिंग का एक-सा भावबोध, प्रतिरोध की कोई स्थिति नहीं - यह सब मिलकर ऐसी जटिल स्थिति निर्मित करती है जिसे सीधे-सीधे व्यक्त करना कठिन है। दूधनाथ सिंह के संदर्भ में यह ध्यान रखने की बात है कि वे मनुष्य के शाश्वत भावबोध के तथा वायवीय पक्षधरता के (कम से कम विवेच्य काल में) कथाकार नहीं हैं। वे ऐतिहासिक ट्रेजेडी के कथाकार हैं। ऐसी ऐतिहासिक परिस्थिति जिसमें चीजें उलट-पुलट गई हैं। पूर्व में दूधनाथ जी को 'कोट' किया जा चुका है जिसमें उन्होंने 'आदिमवाद' की स्थिति उत्पन्न होने की बात कही है। यह आदिमवाद ही उनकी कहानियों में जटिलताएँ तथा काटखाऊ वातावरण का सृजन करता है। हालाँकि वे कई बार इसे वे इतने चरम पर ले जाते हैं कि प्रसंग उहात्मक और अमानवीय हो जाता है जैसा कि 'दिनचर्या' कहानी में पत्नी के देहयष्टि से असंतुष्ट पति के सोच को दर्शाते हुए नैरेटर लिखता है - ''उसकी पीठ पर चर्बी की मोटी-मोटी तहें थी जिसमें ब्रा की तनियाँ धँसी हुई थीं। पेटीकोट में उसके भारी नितंब थलथला रहे थे। उसकी इच्छा हुई कि बसूले से उसकी पीठ बाहें और नितंब छील दे जिससे उसका छरहरापन वापस लौट आए।''१६ लेकिन इस तरह की अभिधात्मक अतिवादी अभिव्यक्ति के बजाए जब भी उन्होंने प्रतीकात्मकता तथा फैंटेसी का रचनात्मक उपयोग किया है तब की उनकी कलात्मक उपलब्धियाँ अप्रतिम है।

इस संदर्भ में एक यह बात समाने आती है कि संभवतः उनके अंदर भी संप्रेषणीयता का द्वंद्व था। उन्होंने अपनी कई कहानियों में प्रतीकों की समांतरता में कथा का अभिधात्मक ढाँचा खड़ा किया है। अन्विति का जगह-जगह अतिरिक्त ट्रेस दिया है। लेकिन ऐसा उन्होंने जहाँ भी किया है लोकप्रियता के शर्त पर कहानी की बहुलार्थकता को अपेक्षाकृत सीमित किया है। 'रीछ' में वे पति-पत्नी के वर्तमान का इतना वर्णन करने लगते हैं कि कहानी कलहपूर्ण दांपत्य की कहानी मात्र लगने लगती है। कई बार अतीत और एंबियान्स का इतना विश्लेषण करते हैं कि बड़ा विजन सतही परिघटना में तब्दील होने लगता है जैसा कि 'आइसबर्ग' का युग संदर्भ पर्सनल सफरिंग में रिड्यूस होने लगता है। अभिधात्मकता और विश्लेषणात्मकता के दबाव के कारण अपेक्षाकृत इन कहानियों की बहुतार्थकता संकुचित हुई है। यहाँ मैं 'अपेक्षाकृत' शब्द पर जोर दे रहा हूँ। लेकिन जहाँ कहीं भी उन्होंने ऐसे दबाव को स्वीकार नहीं किया है, कहानी बड़े विजन की रचना बन गई है। उनकी इस विशिष्टता को 'सपाट चेहरे वाला आदमी' में देखा जा सकता है। इस कहानी के संदर्भ में मधुरेश ने लिखा है - ''सपाट चेहरे वाला आदमी' और 'रक्तपात' अपने समय की पीड़ा को बड़े सार्थक और कलात्मक ढंग से उभारती है। ...सपाट चेहरे वाला आदमी' अपनी अविश्वसनीय विचित्रता के बावजूद हमारे युग का बड़ा सटीक एवं विशिष्ट प्रतीक है।''१७

दूधनाथ सिंह की साठोत्तरी दौर की लगभग सभी कहानियाँ एक ही मूड की कहानी है। संवेदना की यह विशिष्टता प्रारंभिक रूप में 'सपाट चेहरे वाला आदमी' से शुरू होकर 'सुखांत' में अपने चरम और व्यापकता में सामने आती है। इस पूरे दौर की उनकी रचनात्मकता में एक-सा भाव पसरा हुआ है - संबंधों में असहजता और एकरसता, अंदर की छटपटाहट से भरा निष्क्रिय युवा जिसकी कोई आइडेंटिटी नहीं है, यह युवा अंदर-बाहर की यंत्रणाओं को झेलते हुए आंतरिक स्तर पर लहूलुहान है, समाज में सामूहिकता अंश मात्र भी नहीं है, सामाजिक नैतिकता की कहीं कोई झलक नहीं है - लगता है जीवन में कहीं भी, कुछ भी सुंदर अथवा कोमल शेष नहीं बया है। इस दौर में दूधनाथ सिंह 'प्रतिशोध' एक मात्र कहानी है जिसमें पति-पत्नी व्यवस्था की यंत्रणा को साथ-साथ झेल रहे हैं, परस्परता के साथ। इसके अतिरिक्त 'आइसबर्ग' में संबंध की कोमलता का हलका सा रिसाव है - कहानी में विनय के प्रति बहन बेबी के मन में करुणा है। हालाँकि वह भी एक बार उसे 'स्वार्थी, निर्दयी, आत्मरत की पदवी' दे डालती है।

भारतीय इतिहास के विशेष क्षण में संबंधों के सूखेपन, युवाओं का निष्क्रियता, व्यवस्था में सड़ांध की जो स्थिति बनी थी उसकी सबसे मुकम्मल और तीक्ष्ण अभिव्यक्ति दूधनाथ सिंह की कहानियों में हुई है। उस दौर के डार्क को उन्होंने सबसे ज्यादा मुकम्मल ढंग से पकड़ा है। ज्ञानरंजन का मुख्य थीम मध्यवर्ग का दुचित्तापन है, इसे पहले यशपाल उठा चुके थे ज्ञानरंजन ने इस पर अपना रंग चढ़ाया। रवींद्र कालिया इस दौर के सबसे सहज कहानीकार हैं। उसे दौर का संत्रास उनके यहाँ भी है, लेकिन साथ में सकारात्मकता एवं जीवन में आस्था भी है। लेकिन जिस चीज को साठोत्तरी भावबोध के खास पहचान के रूप में चिह्नित किया गया है उसके भास्कर दूधनाथ जी ही हैं। कहीं कोई विचलन नहीं, 'सपाट चेहरे वाला आदमी' से लेकर 'सुखांत' तक के ग्यारह-बारह वर्षों में वे उस ऐतिहासिक तिक्तता से बाहर नहीं आते।

'सपाट चेहरे वाला आदमी' में जीवन की कृत्रिमता, सामाजिक अमानवीयता, भावहीनता, अकेलापन और अवसाद की संश्लिष्ट अभिव्यक्ति हुई है। यह कहानी विरूपताओं को झेलने की अभिशप्ति तथा आत्म के तलाश की जद्दोजहद की कहानी है। कहानी में नैरेटर रो नहीं पाता, एकरसता का शिकार है। उसने वेद से लेकर कामसूत्र तक पढ़ डाला है, पर उससे उसे कोई राहत नहीं मिलती। तात्पर्य यह कि अतीत के दृष्टांत बेकार हो चुके हैं। नैरेटर उस बच्ची के मरने के बाद नहीं रोया जो छ माह की उम्र में अस्सी साल की बुढ़िया लगती थी। अब इसकी तुलना १९४७ में मिली आजादी और '६० तक आते-आते उसकी पत्नी से कीजिए। कैसे इसके सारे प्रोजेक्ट धूल-धुसरित हो गए। कहानी में उस वेश्या के साथ जो कुछ हो रहा है, वैसी ही यंत्रणा भरी स्थिति देश के साथ भी है। और उस बच्चे का सपाट चेहरा संवेदनशील नागरिक की विडंबना और विवशता। गौर करने की बात है कि रोने की क्षमता न तो नैरेटर में है, न उस सपाट चेहरे वाले बच्चे में। यह पैसिव असहमति, क्षोभ और विकल्पहीनता की मिली जुली एवं जटिल स्थिति है। विकल्प नहीं है फिर भी जो कुछ घट रहा है वह स्वीकार्य नहीं है। बच्चे के गले में रोटी अटक गई है, स्पष्ट है कि वह विद्रूपता को स्वीकार नहीं कर पा रहा है।

आदमी की मूल भावना के खात्मे के साथ व्यवस्था किस कदर क्रूर होती चली गई इस स्थिति को 'प्रतिशोध' में देखा जा सकता है। नौकरशाही खटमल की तरह लोगों को परेशान कर रही है। कहानी में उसकी संख्या, कभी भी नहीं से निकल आना यह दर्शाता है कि व्यवस्था कितना आतंककारी है। वह लोगों को त्रस्त कर उसे भीरु बना रही है। कहानी में कर्मचारी-अधिकारी सत्येंद्र को इतना परेशान करते हैं, उसका उपहास करते हैं कि वह उनका सामना करने से कतराने लगता है। अंततः वह समर्पण कर देता है। वह नौकरशाही के मानदंड को स्वीकार कर लेता है। विजयमोहन सिंह इस कहानी की विशिष्टता को रेखांकित करते हुए लिखते हैं, "...'प्रतिशोध' में 'कुछ' है जो उसे बिचली पीढ़ी की प्रतीकात्मक कहानियों से अलग करता है! उसमें जिस प्रश्न या समस्या को रेखांकित किया गया है वह बिलकुल आज की है और जिसे बिचली पीढ़ी की कहानियाँ महसूस नहीं करती थीं! वह सवाल है 'समझौते' का जो आज पूरे युग का प्रधान चरित्र-लक्षण है।''१८

पतनकारी स्थिति व्यवस्था में ही नहीं पूरे समाज में व्याप्त है। 'उत्सव' में मौत को धंधे में बदल दिया गया है तो 'दिनचर्या' में पत्नी पति को चापलूसी के लिए प्रेरित करती हैं। 'स्वर्गवासी' में केंद्रीय पात्र नैतिकता विहीन अर्कमण है। 'दुःस्वप्न' में समाज में व्याप्त अविश्वसनीयता का माहौल सामने आता है कहानी में नैरेटर जिससे दलाल समझकर घृणा करता है दरअसल वह अपने बेटे की जान बचाने के लिए ... की तरह भटक रहा है। इस कहानी में दूसरा संदर्भ सांप्रदायिक माहौल का है। हालाँकि उस ... की पीड़ा तथा सांप्रदायिकता के माहौल को जबरन एक बिंदु पर साथ लाया गया है। दोनों घटनाओं में कोई तालमेल नहीं है।

अंत में 'सुखांत'। 'सुखांत' दूधनाथ सिंह की साठोत्तरी मिजाज की अंतिम कहानी है। इस कहानी में उनके साठोत्तरी मनोभाव के समस्त आयाम मिट जाते हैं, साथ ही इस कहानी में कहानीकार वह ट्रेस भी छोड़ता है जिसमें उसके आगे के प्रस्थान के संकेत हैं। कहानी की मुख्य थीम यह है कि व्यवस्था किस प्रकार प्रतिरोधी चेतना का अपने हित में अनुकूलन करती है। यह प्रयास इतना आक्रामक है कि समाज में एक अनाम भय छाया हुआ है, प्रतिरोधी समूह बिखर गया है। कहानी में नैरेटर के कुछ 'कार्यक्रम' थे, लेकिन वह सफल नहीं हो पाया। इसका कारण क्या था? कारण यह था कि ''...उन दिनों शांति थी और व्यवस्था की चकाचौंध रोशनी थी। लोग हँसते रहते थे और अंडरवियर या गाउन पहनकर अखबार पढ़ते रहते थे।''१९ अर्थात् लोग सत्ता द्वारा प्रसारित छल से संतुष्ट होकर यथास्थितिवादी बन गए हैं। नैरेटर पाता है कि उसके साथी उसका साथ छोड़कर चले गए हैं - ''पुलिस आई और हमें पकड़ ले गई। वे लौकियाँ दबाए हुए बिलों में घुस गए और अपनी सुरक्षा को कुतर-कुतर खाने लगे।''२० वह अकेला पड़ जाता है। विक्षिप्त हो जाता है। खाली मैदान को संबोधित करने लगता है। माँ-पत्नी उसे घर के अंदर कैद कर देती है। खिड़की-रोशनदान भी बंद करा दिया जाता है। एक दिन जब उसे बाहर निकाला जाता है वह पाता है कि उसके कार्यक्रम के दिन लद गए हैं। कहानी के इन कुछ संदर्भों से स्पष्ट है कि कैसे व्यवस्था एक व्यक्ति के अंदर एलियनेशन का सृजन करती है। कहानी में फैंटेसी का इस्तेमाल कर समाज के हर तबके के चरित्र की वास्तविकता को उजागर किया गया है। इस लेख में पूर्व में इस बात का उल्लेख किया गया है कि 'सुखांत' की ओर से देखने पर दूधनाथ सिंह की कहानियाँ क्लिष्ट नहीं रह जातीं। इस कहानी में व्यक्ति का बाहर उसके अंदर को किस प्रकार प्रभावित कर रहा स्पष्ट है। इस कहानी में जो अन्य महत्वपूर्ण चीजें हैं उनमें से एक है - गांधीवादी शैली से इनकार। कहानीकार ने गांधी के उस विचार को अपने समय के परिप्रेक्ष्य में प्रभावहीन माना है कि अंतरात्मा बहुमत से बड़ी चीज है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि नैरेटर भले ही यह मान चुका है कि उसके कार्यक्रम के दिन लद गए हैं, लेकिन उसे बेटे की 'चमकती उदास आँखें' दिखाई देती हैं। स्पष्ट है कि सबकुछ खत्म नहीं हुआ है। संघर्ष की विरासत आगे बढ़ाई जा रही है।

मधुरेश इस कहानी को नपुंसक आक्रोश की कहानी मानते हैं, ''...'सुखांत' की सबसे बड़ी विडंबना ही यह है कि वह इस नपुंसक आक्रोश को ही पूरी लड़ाई की भूमिका देने के आग्रह से ग्रस्त है और इसका कारण फिर वही है कि लड़ाई की मूल जमीन और मुद्दे ही लेखक के आगे स्पष्ट नहीं है।''२१ मधुरेश की यह टिप्पणी हिंदी आलोचना की रूढ़ जनवादी प्रवृत्ति को दर्शाती है जिसमें सफेद स्याह का स्पष्ट विभाजन होता है। जनता की विजय में आस्था होती है। लेकिन यहाँ स्थिति उलट है। जनता आशंकित, भ्रमित तथा सत्ता के उद्देश्य से एकमेक है। यहाँ तक कि निकटस्थ संबंधी माँ पत्नी भी नैरेटर के पक्ष को जानने का प्रयास नहीं करतीं। वे वही काम करतीं हैं जो सत्ता के अनुकूल है। उसे घर में कैद कर दिया जाता है। कहानी के इस अंश को देखिए -

''मेरी तबीयत खराब है? मुझे क्या हुआ है? बताइए, मुझे क्या हुआ है? अगर मेरी तबीयत खराब होगी तो मुझे पता नहीं चलेगा? आपने मुझे किस डॉक्टर से दिखाया? किसने मेरी नब्ज पर उँगली रखी... बोलिए? उसका यह इलाज आपको किसने सुझाया। वह लुच्चा, लफंगा, धूर्त, खौफनाक आदमी कौन है जिसने मुझे बीमार घोषित किया? और जिस पर आपने यकीन कर लिया...। बुलाइए उसे और मेरे सामने कहलवाइए...।''

''सारी दुनिया कहती है।''

''कहाँ है वह सारी दुनिया? आपकी मुट्ठियों में है? मुझे पता नहीं और मैं बीमार हूँ... हुँह।''

''बेटे तुम्हें सचमुच पता नहीं।''२२

अगर व्यक्ति के सामने, उसके इर्द-गिर्द इतनी प्रतिकूलता होगी तो आत्मसंकुचन का शिकार हेगा ही।

दूधनाथ सिंह भारतीय इतिहास के विशेष कालखंड में पैदा हुई डार्कनेस को पूरी संजीदगी से दर्ज करने वाले कथाकार हैं। साठ के दौर की यातना, विक्षोभ, मोहभंग एवं विरक्ति की जितनी सांद्र अभिव्यक्ति इनकी कहानियों में हुई है वह अन्यत्र दुर्लभ है।

संदर्भ

१. सिलसिला, प्रकाशन, संस्थान, २१६, श्रीरामनगर, शाहदरा, दिल्ली-११००३२, प्रथम संस्करण-१९७९, पृ. १०

२. कहा-सुनी, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., ७/३१, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-११०००२, पहला संस्करण-२००५, पृ. १२५

३. हिंदी साहित्याब्दकोश, १९६७, संपादक - देवेंद्रनाथ शर्मा, गोपाल राय; ग्रंथ निकेतन, रानीघाट, पटना-६, संस्करण - जून, १९६८, पृ. १५५

४. 'सपाट चेहरे वाला आदमी' कहानी संग्रह प्रकाशक - साहित्य भंडार इलाहाबाद : संस्करण-२०१५, पृ. १६

५. कहा-सुनी, पृ. ७१

६. '६० के बाद की कहानियों, संपादक - विजयमोहन सिंह, मधुकर सिंह, प्रकाशक - तलघर प्रकाशन, इलाहाबाद, वितरण - लोकभारती इलाहाबाद सस्करण २०१६ पृ. १५-१६

७. विजयमोहन सिंह की इस स्थापना को दूधनाथ सिंह का समर्थन प्राप्त है। '६० के बाद की कहानियाँ पुस्तक को दूधनाथ सिंह ने पुनः प्रकाशित करते हुए यह प्रस्तावित, किया है कि 'इस संकलन को एक अद्वितीय ऐतिहासिक दस्तावेज के रूप में सुरक्षित रखा जाना चाहिए।' उन्होंने स्वर्गीय विजयमोहन सिंह की स्थापना का कोई खंडन नहीं किया है।

८. कहा-सुनी, पृ.-८०

९. कहा-सुनी, पृ. १६

१०. आधुनिक हिंदी कहानी, संपादक - गंगाप्रसाद विमल, दि मैकमिलन कंपनी ऑफ इंडिया लिमिटेड, संस्करण-१९७८, पृ. ३९-४०

११. कहा-सुनी, पृ.१२५

१२. कहा-सुनी, पृ. १७

१३. कहा-सुनी, पृ. १८

१४. समकालीन कहानी : दिशा और दृष्टि, संपादक डॉ. धनंजय, अभिव्यक्ति प्रकाशन, ८४७, यूनिवर्सिटी रोड, इलाहाबाद-२, संस्करण-१९७०, पृ.-१७०

१५. हिंदी कहानी : सातवाँ दशक, मैकमिलन, पृ. ५१

१६. पहला कदम (कहानी संग्रह), रचना प्रकाशन, ४५ ए, खुल्दाबाद, इलाहाबाद-१, संस्करण १९७६, पृ.-२१८

१७. साहित्याब्द कोश-१९६७, पृ. १५५

१८. आज की कहानी, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., जी-१७, जगतपुरी, दिल्ली-५१; संस्करण-२००२, पृ.-९१-९२

१९. कथा-संग्रह - दूधनाथ सिंह, रेमाधव पब्लिकेशन्स प्रा.लि., पो. बॉक्स नं-३६८४, लाजपनगर, नई दिल्ली-२४, संस्करण-२००६, पृ.-२२६

२०. वही, पृ.-२२७

२१. सिलसिला, पृ.-८२

२२.कथा-समग्र - दूधनाथ सिंह, पृ. २२४


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हिंदी समय में राजीव कुमार की रचनाएँ