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कविता

हस्तकला

अंकिता आनंद


मेरे घर की औरतें
हाथों से साँस लेती हैं

उनके दाँतों तले आई उनकी ज़बान
हड़बड़ा कर कदम पीछे हटा लेती है

पलकें अनकहे शब्दों की गड़गड़ाहट
कस कर भीतर बाँध कर रखती हैं

कपड़े तह करते, फर्नीचर की जगह बदलते
आग से गीली लकड़ी बाहर खींचते, नारियल तोड़ते

इन हाथों को प्रशिक्षण दिया गया था
इन पर खुदी लकीरों पर चलने का

सालों का सीखा वे भूल नहीं सकीं
पर जो कर सकती थीं वो किया

लकीरों को खुरदुरा, धुँधला कर दिया
उन रेखाओं से जो उनकी कमाई के थे, जिनकी अब वे मालिक हैं।


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