चलती ट्रेन पायदान पर बर्फ़ पाँव खिड़की की छड़ों पर सुन्न उँगलियाँ छत पर पेचीदे आसनों में उलझे कूल्हे...
ये सब आख़िर में कहीं न कहीं पहुँचने के लिए।
क्या वाकई कोई नासमझ मान सकता है ख़ुद को पहुँचा हुआ बग़ैर सफ़र किए?
हिंदी समय में अंकिता आनंद की रचनाएँ