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कविता

गंतव्य

अंकिता आनंद


चलती ट्रेन
पायदान पर बर्फ़ पाँव
खिड़की की छड़ों पर सुन्न उँगलियाँ
छत पर पेचीदे आसनों में उलझे कूल्हे...

ये सब
आख़िर में कहीं न कहीं
पहुँचने के लिए।

क्या वाकई
कोई नासमझ मान सकता है
ख़ुद को पहुँचा हुआ
बग़ैर सफ़र किए?


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