फ़सलें जब कट चुकतीं चैत की
गेहूँ के बोरे भरकर, अपने घर
गाड़ी को हाँकते हुब्बलाल आते
बैलों का उत्साह बढ़ाते, कहते :
बाह बेटा ! बाह बहादर !!
गली के मोड़ पर है तिरछी चढ़ाई
रास्ता सँकरा है, बैल हिचक जाते
उन्हें कोसते हुब्बलाल दुलराते :
अभी जवानी में तुम ऐसे हो
तुमको तो खा जाय बुढ़ापा
अब क्यों हिम्मत हार रहे हो
अब तो पास आ गए घर के
इन बातों को पंद्रह-बीस बरस बीते
हुब्बलाल जी नहीं रहे, न उनकी वह गाड़ी
बैलों की भी वह कहाँ ज़रूरत रही
कौन प्यार अब उन्हें करेगा इतना ?
लाया जाता है अनाज अब ट्रैक्टर से
लगे नहीं उसको खरोंच कोई जिससे
मोड़ पर ही उसे रोक देता ड्राइवर
भाड़ा लेकर उसको जाने की जल्दी रहती
भरी दोपहर, पीठ पर बोरे चढ़ाकर
घर पहुँचाते हैं किसान हाँफते
पिटे हुए मजूरों की तरह
बात-बात पर खीझ उठते
अभी उस दिन दरवाज़े के रस्ते पर
पानी भरा गिलास गिर गया बच्चे से
उसको इतनी डाँट पड़ी वह सहम गया
गेहूँ को घर तक लाने की कठिनाई में
जैसे उसका भी क़ुसूर हो