hindisamay head


अ+ अ-

लेख

एक पत्र मानवता के नाम

डिसेंट कुमार साहू


भारत तथा अन्य देशों में ऐसे कई रिसर्च हुए है जो ट्रांसजेंडर समूह के साथ होने वाली हिंसा, सामाजिक भेदभाव तथा उसके प्रभावों के आँकड़े हमारे सामने रखते हैं। चेन्नई के एक हॉस्पिटल के मनोरोग विभाग द्वारा वर्ष 2016 में एक शोध प्रस्तुत किया गया, जो हॉस्पिटल में आने वाले ट्रांसजेंडर पर आधारित था। अध्ययन में शामिल सभी 15 (100%) लोग बचपन में ही sexual abuse के अनुभव से गुजर चुके थे। 15 में से 11 (73.3%) लोगों ने आत्महत्या करने की कभी न कभी कोशिश की थी, तथा सभी लोगों में तनाव के लक्षण पाए गए। इसके कारणों का विश्लेषण उन्होंने अत्याधिक भावनात्मक दुख तथा सामाजिक संबंधों से पूरी तरह से कट जाने को बताया था। यहाँ प्रश्न उठता है कि क्या व्यक्ति का मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार सिर्फ उसके जिंदा रहने से पूरा हो जाता है?

आज भले ही हम इक्कीसवी सदी में जीने का दंभ भर सकते है लेकिन समाज में कई ऐसे समूह है जो अपनी पहचान, आत्मसम्मान के लिए संघर्ष कर रहे हैं। हमारा साहित्य जिसे हम अपने समाज का आईना भी मानते है, में उत्पीड़ित समूहों को केंद्र में रखकर लिखी गई विभिन्न विधाओं में अभी भी उन समूहों के मानव होने तथा मानवीय क्षमताओं को बिना किसी भेद-भाव के स्वीकार किए जाने का आग्रह ही किया जा रहा है। वे चाहते है कि उन्हें कमजोर, मजबूर, घृणा का पात्र समझने की मानसिकता में बदलाव हो। हमें स्वीकार करना होगा कि वे भी इनसान है और वे भी औरों की तरह ही वह सब कुछ कर सकते हैं जो सब करते हैं। उन्हें कलंक समझना बंद करना होगा।

अक्सर हम अपने आस-पास लोगों को यह कहते हुए सुनते है कि माँ-बाप के लिए अपनी संतान जैसे भी हो संतान ही होती है, चाहे वह शारीरिक या मानसिक रूप से विकलांग ही क्यों न हो। लेकिन यही बात हम ट्रांसजेंडर से पूछें तो उनका जवाब होगा कि उन्हें उनकी मुश्किल घड़ी में अपनों का ही साथ नहीं मिला, बल्कि साथ खड़े होने के विपरीत उन्हें घर से निकाल दिया गया। या इतना प्रताड़ित किया गया कि उसने खुद घर छोड़ देना बेहतर समझा। आखिर जो समाज यह कहता है कि माँ-बाप के लिए संतान सिर्फ संतान होती है वह अपनी ही संतान को बहिष्कृत क्यों कर देती है? उपन्यास 'पोस्ट बाक्स न. 203 - नाला सोपारा' में इन्हीं प्रश्नों को मानवीय संवेदनाओं के स्तर पर उठाया गया है। लेखिका चित्रा मुद्गल का यह उपन्यास पत्र आधारित है। जिसमें एक बेटा (विनोद) अपनी माँ को पत्र लिखता है जिसे उसके अंतरलिंगी (intersex) होने के कारण हिजड़ा समूह में दे दिया जाता है। हिजड़ा समूह में देने की घटना विनोद के 14-15 साल की उम्र में घटित होती है इसलिए उसके साथ बचपन की यादें है, उसके जेहन में अब भी परिवार का प्यार है। विनोद की प्रत्येक चिट्ठी समाज के सामने प्रश्न खड़ा करती है कि उसे क्यों बहिष्कृत किया गया, क्यों उसे पशुओं से भी बदतर जीवन व्यतीत करने के लिए मजबूर किया गया। जिस उम्र में अपनों का प्यार और संरक्षण मिलना चाहिए था उसी उम्र में उसे घर से निकाल दिया जाता है, लोगों के दुर्व्यवहार को सहने व दर-दर भटकने के लिए। विनोद का पत्र सिर्फ अपनी माँ के नाम ही नहीं है बल्कि उसका पत्र हमारे पूरे समाज के लिए है जो ट्रांसजेंडर को मनुष्य ही नहीं समझता।

उपन्यास का मुख्य मात्र विनोद जिसे उसके घर वाले प्यार से बिन्नी बुलाते है और बाद में जब उसे हिजड़ा समूह में दे दिया जाता है तो वही विनोद, बिमली बन जाती है। विनोद का जन्म एक अविकसित यौनांग वाले के रूप में होता है, जिसे परिवार सामाजिक बदनामी के डर से सच्चाई छिपाते हुए उसका पालन-पोषण करता है। यह जरूरी भी है, उपन्यास के पात्र तिवारी जी की ही शब्दों में "लिंग-पूजक समाज लिंग विहीनों को कैसे बर्दास्त करेगा?" किसी व्यक्ति को लेकर जिस समाज की सारी संभावनाएँ उसके लिंग तक ही सीमित हो उस समाज में बालक विनोद का अपनी माँ से पूछना कि "मेरे नुन्नु क्यों नहीं है, बा?" बालमन का सवाल लगते हुए भी गंभीर प्रश्न खड़ा करता है कि क्या लैंगिक पहचान ही उसके मनुष्य होने का अंतिम सत्य और सबसे बड़ा पहचान है।

बाद में जब हिजड़ा समूह को विनोद के बारे में भनक लग जाती है और हिजड़ों के द्वारा घर पर आकर तमाशा करने के बाद परिवार वाले यह सोचने के लिए बाध्य हो जाते है कि कहीं परिवार और समाज वालों को पता चल जाएगा तो बदनामी होगी, इसी डर से बाद में विनोद को हिजड़ा समूह में दे दिया जाता है और समाज के सामने उसके एक दुर्घटना में मारे जाने की अफवाह उड़ाई जाती है। समाज में ट्रांसजेंडर पहचान इस तरह से कलंकित किया गया है कि माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्य, अपने ही परिवार के व्यक्ति को इस पहचान के साथ स्वीकार नहीं करना चाहते। उपन्यास में पितृसत्तात्मक समाज के कठोर मूल्यों का पता सिद्धार्थ के पात्र से चलता है जो विनोद का बड़ा भाई है। सिद्धार्थ अपने अजन्मे बच्चे का लिंग परीक्षण करवाता है कि कहीं वह जननांग दोषी तो नहीं। वह डॉ. से जोर देते हुए कहता है कि "लड़का हो या लड़की; उसे दोनों स्वीकार हैं मगर वह जरा गौर से देखकर बताए, उसका जननांग ठीक से विकसित हो रहा है न! कोई नुक्स तो नहीं। नुक्स हो तो उन्हें स्पष्ट बता दिया जाए। बच्चा गिरवा देंगे वह।" वह उस घर, उससे जुड़े लोग तथा उन सभी चीजों से दूर चले जाना चाहता है। उसे भय है रहता है कि कहीं उन सभी चीजों का प्रभाव उसकी गर्भवती पत्नी के कोख में पल रहे बच्चे पर न पड़ें। विनोद के अविकसित जननांग होने वाली बात को जब माँ छुपाकर रखने की बात करती है तब भी सिद्धार्थ घर वालों से कहता है 'बात फैल गई तो पूरे खानदान पर दाग लग जाएगा'।

हिजड़ा समूह में शामिल होने के बावजूद विनोद समूह 'अनुकूलित व्यवहारों' को स्वीकार करने से मना करता है। परिवार वालों के साथ छोड़ देने से विनोद गहरे तक टूट जाता है और जब उसे मौका मिलता है तो वह अपनी माँ को चिट्ठी लिखता है। उसके लिखे पत्रों में भूत को लेकर कड़वाहट, गुस्सा है तो पारिवारिक मजबूरियों को समझते हुए दया और प्रेम भी दिखता है, वही विनोद के मन में भविष्य को लेकर कई आशाएँ भी है। वह पढ़ना चाहता है, अन्य लोगों की तरह काम करके अपनी जीविका चलाना चाहता है, वह सोचता है कि कभी न कभी तो समाज उनके जैसे लोगों को स्वीकार करेगा ही। इसलिए वह भविष्य के प्रति आशावान भी है। इसी क्रम में आगे की पढ़ाई ले लिए विधायक जी से मिलना होता है, विधायक जी विनोद को पढ़ाई के साथ-साथ कंप्यूटर की पढ़ाई भी करवाते है और अपनी ही कार्यालय में उसे काम देते है। बाद में हिजड़ा समूह को एक वोट बैंक के रूप में साधने के लिए विनोद को उनका नेता बना देते है। विनोद के घर में उसकी माँ के अलावा बड़ा भाई, पापा और छोटा भाई है। जिस उम्र में माता-पिता को अपनी संतान की सबसे ज्यादा जरूरत होती है उसी उम्र में सिद्धार्थ संपत्ति में अपना अधिकार माँगकर घर छोड़ देता है। जबकि बहिष्कृत होने के बावजूद विनोद अपनी माँ के द्वारा अपने परिवार से जुड़ा हुआ है और उसे अपने परिवार की हमेशा फिक्र होती है।

उपन्यास ट्रांसजेंडर पहचान के वैयक्तिक, सामाजिक, सामूहिक तथा राजनीतिक आयामों में परिवर्तन को हमारे सामने प्रस्तुत करता है। विनोद हिजड़ा समूह के पारंपरिक ढाँचे का विरोध करता है, उसे यह कत्तई पसंद नहीं कि वह अपनी जीविकोपार्जन नाच-गाकर या भीख माँगकर करें बल्कि वह पूरे समूह को ही इस दलदल से निकलने के लिए किसी भी तरह के अन्य कार्यों में लग जाने की बात कहता है। इन्हीं विचारों के कारण विनोद के हिजड़ा सरदार से मतभेद भी होते है। दरअसल यह मतभेद खाँचों का विरोध करने वालों तथा खाँचों में बंधकर रहने वालों के बीच है। शिक्षा तथा जागरूकता की कमी के कारण गुरु-शिष्य परंपरा में रहने वाले ट्रांसजेंडर मानते है कि उन्हें भगवान ने सिर्फ आशीर्वाद देने के लिए भेजा है इसलिए वह अन्य काम क्यों करें? उसके तमाम कोशिशों के बाद भी जब समूह का कोई भी उसकी बात समझने के लिए तैयार नहीं होता तो वह कहता है "जिस नरक में तूने और पप्पा ने धकेला है मुझे, वह एक अंधा कुआँ है जिसमें सिर्फ साँप-बिच्छू रहते हैं। साँप-बिच्छू बनकर वह पैदा नहीं हुए होंगे। बस, इस कुएँ ने उन्हें आदमी नहीं रहने दिया।" इसके बाद भी जब पहली बार वह हिजड़ा समाज को उनके प्रतिनिधि के रूप में संबोधित करता है तो भी अधिकारों और माँगों से पहले उनकी आत्मचेतना, आत्मसजगता की बात करते हुए पारिवारिक स्वीकार्यता की बात करता है। वह ट्रांसजेंडर समूह के वर्तमान परिस्थिति के लिए कुछ हद तक उन्हें ही जिम्मेदार मानता है। उसका सवाल है कि समाज ने तो हमें अपनाया ही नहीं फिर हम भी क्यों वही मानकर बैठे है जो समाज समझता है। जिस नरक में समाज ने धकेला हम क्यों उसी में जीते आ रहे हैं? क्यों हमने इस नरक से निकलने की कोशिश नहीं की। "जननांग विकलांगता बहुत बड़ा दोष है लेकिन इतना बड़ा भी नहीं कि तुम मान लो कि तुम धड़ का मात्र वही निचला हिस्सा भर हो। मस्तिष्क नहीं हो, दिल नहीं हो, धड़कन नहीं हो, आँख नहीं हो। तुम्हारे हाथ-पैर नहीं हैं। हैं, हैं, हैं, सब वैसे ही हैं, जैसे औरों के हैं।" विनोद चाहता है कि इस मानसिकता के खिलाफ संगठित होकर आवाज उठाई जाए।

विनोद शिक्षा को मुक्ति का मार्ग मानता है, वह पूनम से कहता है कि "पढ़ाई ही हमारी मुक्ति का रास्ता है। कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा गया है हमारे लिए।" इसलिए वह पूनम तथा अन्य हिजड़ों को पढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित करता है और जब वह विधायक जी के बंगले में जा रहा होता है तो एक मास्टर की व्यवस्था भी करता है उन लोगों के लिए। भले ही जनगणना 2011 के आँकड़ों में ट्रांसजेंडर साक्षरता दर 56 प्रतिशत हो लेकिन ऐसे बहुत कम ट्रांसजेंडर होंगे जिन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी की हो। लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी का भी मानना है कि परिवार तथा समाज में किए जा रहे भेदभावपूर्ण व्यवहार के कारण ऐसे बच्चे अपने पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। लक्ष्मी इसे थर्ड जेंडर समूह के पिछड़ेपन का मुख्य कारण मानती हैं। तथाकथित मुख्य धारा के समाज से उन्हें शायद किसी प्रकार की कोई आस नहीं है, वे यह उम्मीद नहीं करते कि उनकी वर्तमान दशा में सुधार मुख्य धारा का समाज कर सकता है। इसके पीछे उनके पास ठोस कारण भी हैं। आजादी के इतने वर्षों बाद भी उन्हें अपनी लड़ाई खुद लड़नी पड़ रही है। विनोद के शब्दों में "अपना जीवन जीने की पद्धति पर मंथन करें। समाज उसके लिए मुक्ति के रास्ते नहीं तलाशेगा।" आखिर जो समाज एक तरफ उसे पवित्र और शुभ मानकर आशीर्वाद लेता है वही उसे इनसान भी नहीं समझते। विधायक जी तथा अन्य लोग भी अपनी राजनीतिक लाभ तथा वोट के लिए आरक्षण की तो बात करते है लेकिन वे नहीं चाहते कि वे आत्मसजग हों, वे अपने परिवारों में अपनी स्वीकार्यता की माँग करें।

शायद ही कोई समझ पाए उस समूह की पीड़ा को जिसे इनसान होते हुए भी बहिष्कृत कर दिया गया। इनसान होने के बदले में मिला जानवरों से भी बदतर जीवन। सभ्य समाज क्या उस अकेलेपन, घृणा, भेद-भाव, तिरस्कार, अपमान को सहन करने की कल्पना कर सकती है जो सदियों से इस इनसानी समूह पर थोप दिया गया है। किसी भी व्यक्ति की वैयक्तिक, सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक गतिकी को रोक दिया जाए, तमाम आवश्यकताओं के लिए सीमित दायरे में जकड़ दिया जाए तो शायद वह भी तड़प कर कह उठे जो विनोद महसूस कर रहा है - "कभी-कभी मैं अजीब सी अँधेरी बंद चिमगादड़ों से अँटी सुरंग में स्वयं को घुटता हुआ पाता हूँ। बाहर निकलने को छटपटाता मैं मनुष्य तो हूँ ना! कुछ कमी है मुझमें इसकी इतनी बड़ी सजा।" इस पीड़ा में कभी वह 'मैं ऐसा क्यों हूँ?', 'क्या मैं अकेला ही ऐसा हूँ या और भी लोग मेरी ही तरह है?' और 'भगवान ने मुझे ऐसा क्यों बनाया?' जैसा सवाल भी खुद से करता रहता है।

विनोद के साथ हिजड़ा समूह में पूनम नाम की ट्रांसजेंडर है जो विनोद से प्यार करती है और उसका ख्याल भी रखती है। पूनम के द्वारा ही विधायक जी से उसकी पढ़ाई के संदर्भ में बात की जाती है। विनोद का अपने बचपन की दोस्त ज्योत्सना के प्रति प्रेम, तथा पूनम का विनोद के प्रति प्रेम ट्रांसजेंडर समूह के उस हकीकत को बयाँ करता है जो समाज देखना, सुनना तो दूर की बात महसूस भी नहीं करना चाह्ता। विनोद बचपन से ही ज्योत्सना से प्रेम करता है, लेकिन जब उसे बड़े होने पर अपने अविकसित यौनांग का आभास होता है तो वह अपनी माँ से कहता है "तब मुझे समझ नहीं थी न बा। ज्योत्सना के काबिल नहीं हूँ न मैं।" प्यार सभी लोगों की जरूरत होती है, उन्हें भी अपनी शारीरिक-मानसिक जरूरतों के लिए एक जीवनसाथी की तलाश होती है, लेकिन रात के अँधेरे में ट्रांसजेंडर के साथ अपनी यौन इच्छाओं को पूरी करने वाला समाज दिन के उजाले में उनसे आँख मिलाकर बात नहीं करना चाहता है। समाज उन्हें 'सेक्स ऑब्जेक्ट' के रूप में देखता है। विधायक के भतीजे तथा उसके दोस्तों द्वारा पूनम के साथ सामूहिक बलात्कार तथा उसके यौनांगों को काटना, चीरना समाज के क्रूर चेहरे को सामने रखता है।

उपन्यास का अंत आशा-निराशा की घटनाओं के बीच होता है जहाँ एक ओर विनोद की माँ अपने बेटे से घर वापस आने की अपील करती है और उसके साथ किए गए व्यवहारों के लिए माफी माँगती है इसके लिए अखबारों में सूचना दी जाती है। तो दूसरी सूचना एक अज्ञात किन्नर की हत्या की होती है जिसे पहचाना नहीं जा सका है क्योंकि उसके सर को बुरी तरह से कुचल दिया गया है। उस लाश के विनोद की होने की आशंका भी उठती है जो अपनी माँ से मिलने तो गया है लेकिन तीन-चार दिनों बाद भी अपनी माँ के पास नहीं पहुँच पाता है। क्या विनोद की हत्या उसके घरवालों के द्वारा ही कर दी गई या उसकी हत्या उसका राजनीतिक लाभ उठाने की चाह रखने वालों ने की। आखिर वह पूनम के साथ हुई अमानवीय घटना के बाद गुस्से में था और इसकी लड़ाई कानूनन लड़ना चाहता था।

हमारी सामाजिक संरचना पूरी तरह से द्विलिंगी है जिसमें ना चाहते हुए भी कई बार विभिन्नता रखने वाले लोगों को इन खाँचों में से किन्हीं एक का चुनाव करना पड़ता है। जिसका जिक्र उपन्यास में भी किया गया है। विनोद का अन्य हिजड़ों से कहना कि 'हम औरतों के डिब्बे में चढ़ें या मर्दों के?' या विनोद का अपनी माँ को कहना - 'मेल, फीमेल के खाने मैं तो मेल ही टिक करूँगा, बा। सरकार भी अजीब है ना बा।' इस तरह पहले से बने-बनाएँ खाँचे विभिन्नता को अपने में समेट लेती है। क्या इसका कारण सिर्फ इतना है कि जेंडर और यौनिकता आधारित जिन मूल्यों पर हमारा पितृसत्तात्मक समाज खड़ा है विविधता में अपनी पहचान रखने वाले उन्हीं मूल्यों को चुनौती देते हुए समग्रता तथा विविधता में देखने, समझने व अपनाने का आग्रह करते है। लेकिन हमने जेंडर तथा यौनिकता के मानक गढ़ लिए है और चाहते है कि सभी व्यक्ति इन्हीं मानकों के आस-पास ही हो।

उपन्यास कई बार ऐसा लगता है जैसे ढाँचों को तोड़ते हुए अपनी ही तरह के मानकों में फँसता जा रहा हो। "स्त्रैण लक्षण मुझमें कभी नहीं रहे। अब भी नहीं हैं और जो लक्षण मुझमें नहीं हैं, उन्हें सिर्फ इसलिए स्वीकारूँ कि मेरी बिरादरी के शेष सभी, उन हाव-भावों को अपना चुके है?" सभी अंतरलिंगी बच्चों में स्त्रैण गुण हों यह जरूरी नहीं लेकिन जिनकी स्त्रैण प्रवृत्ति है उन्हें जबरन थोपा नहीं कहा जा सकता है। शरीर से पुरुष पहचानों को हटाना खुद को मन और शरीर से एक करना होता है, लिंग परिवर्तन आपरेशन भी उसी प्रक्रिया का एक भाग होता है। दूसरी तरफ उपन्यास में ट्रांसजेंडर होने वाले समूह को अविकसित होने वाले यौनांग की तरह ही दिखाया गया है, जबकि शारीरिक रूप से पुरुष होते हुए महिला पहचान स्वीकार करने वालों की संख्या बहुत ज्यादा होती है, अविकसित यौनांग वाले बच्चों की संख्या बहुत कम होती है। इसके साथ ही कुछ व्यवहारों को अनुकूलित कहा जा सकता है जैसे उनके बात करने का तरीका, बात करते हुए ताली पीटना आदि होता है जो सामान्य नहीं होता है बल्कि इसके लिए गुरुओं द्वारा प्रशिक्षित किया जाता है।

उपन्यासकार चित्रा मुद्गल जी के द्वारा उपन्यास के लिए 2011 के परिवेश को पटकथा का हिस्सा बनाया गया है। अब तक जेंडर तथा यौनिक आंदोलन पूरे विश्व में अपने विचारों के साथ स्थापित हो चुकी थी। भारत में भी जेंडर व यौनिक अधिकारों के प्रश्न बंद दरवाजों से निकलकर न्यायालयों में उठाए जा चुके थे। इसी संदर्भ में महत्वपूर्ण घटना 2 जुलाई 2009 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने धारा 377 में सहमति से बनाए गये समलैंगिक संबंध को मान्यता प्रदान की, हालाँकि 2013 में इसे फिर से आपराधिक घोषित किया गया। इसके बावजूद LGBTQ समूह अपनी पहचान खुलकर रखना शुरू कर चुकी है। वह बता रहे है कि उनका होना शर्म की बात नहीं बल्कि गर्व की बात है। भारतीय समाज में जिस तरह के परंपरागत ढाँचे का विकास ट्रांसजेंडर को लेकर हुआ था अब उसमें बदलाव आ रहे हैं। बहुत सारे ट्रांसजेंडर अलग-अलग व्यवसायों में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे है। इसका कारण वैश्विक स्तर पर ऐसी विभिन्नता रखने वाले लोगों का संगठित होना तथा पिछले कुछ समय से इनके मानव अधिकार संबंधी संघर्ष को माना जा सकता है। ट्रांसजेंडर अब अपनी पारंपरिक पहचान को नकारते हुए अपनी अलग पहचान निर्माण के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वह अब नहीं चाहते कि वे गुरु-शिष्य परंपरा में बंधकर जीवन व्यतीत करें या हिजड़ा पहचान अपनाएँ। वे चाहते हैं कि समाज उन्हें घृणा की दृष्टि से न देखे बल्कि एक मनुष्य होने के नाते उन्हें भी वे सभी अधिकार प्राप्त हों जिससे स्वतंत्र, गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत किया जा सके। ट्रांसजेंडर की स्थिति में आ रहे परिवर्तन को इसलिए भी महत्वपूर्ण माना जा सकता है क्योंकि परिवार व समाज अभी भी ऐसे लोगों को स्वीकार करने की स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में जो परिवर्तन हुए भी है वह सूक्ष्म स्तर पर ही माने जा सकते हैं, फिर भी यह भारतीय समाज में बने पहचान के खाँचों को टक्कर दे रहे हैं।


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में डिसेंट कुमार साहू की रचनाएँ