सिम्फनी
क्या कहा?
इस घोर कोलाहल के बीच स्वर संगति!
किस मुंगेरीलाल से यह सपना उधार ले आये हो ?
अब जरा ठहर कर सुनो
तीन ताल में जीने को अभ्यस्त हम
सात सुरों की बात कम ही समझ पाते हैं
भीम पलासी यहाँ काफी ऊपर का मामला है
जो हमारे सिर को बिना छुऐ गुजर जाता है
जब हम अपने होशोहवास से बाहर होते हैं
तब कई बेसुरे हमारे संगी-साथी होते हैं
जिनके बीच सुरों का काम घटता जाता है
शोभा गुर्टू, किशोरी अमोनकर, मधुप मुद्गल
का मुखर गायन हमें स्पंदित न कर दे तो
जीना मरना बेकार है
इस पर विश्वास जताने वालों से हम समय रहते दूरी बना लेते हैं
हवा के जरिये जीवन में
कंपकंपाहट ने कब प्रवेश किया
जीवन का कौन सा भाग ऊपर-नीचे डोला?
कौन सा भाग बिलकुल गहरी तली में बैठ गया?
यह मालूम कब कर सके हम
आशुरचना हमने ही ईजाद की
लोकगीतों को पुराणों के चंगुल से हमीं लोगों ने आजाद किया
फिर भी संगीत से कोसों दूर ही रहे
किसी प्रस्तावना के लम्बे या छोटे से अन्तराल
के बीच एक भी सुर उतर सका
तुरही, बीन, तम्बूरे, जलतरंग से हमारा रोज-रोज
का सरोकारी नाता नहीं रहा था कभी
बस हमारे प्यार के पास संगीत समझने की कुछ शक्ति थी
वह भी हमसे दूर चली गई
जब
हमने संगीत का अर्थ मन से नहीं कानों से लेना शुरू कर लिया और
विज्ञान की दिशा को हमने एक दिशा में भेज दिया
मन को किसी दूसरी दिशा में,
यह जानते हुए कि हर दिशा एक दूसरे से ठीक समान्तर है
ऐसे में स्वर लहरियों की उठान के बीच
आधे अधूरेपन से जीने वाले हम,
किसी सिम्फनी से संगत नहीं मिला पाते
स्वर की लहर में हम झूम नहीं बन पाते
हर कदम पर हम पिछड़ जाते हैं
संगीत की मादकता के लिए
एक पुल पर कोमलता से चलना होता है
हम हर पुल की नींव को ढहाते चलने वाले
किसी श्राप की शक्ल में त्रस्त, लोथड़े से, अभिशप्त।
खोज अर्थात वास्कोडिगामा
महज काली मिर्च की खुशबू ही
एक लम्बी भटकन का कारण नहीं हो सकती
किसी गहरी टीस के मातहत ही
जोखिम उठाने का सामान बंधता है
जब कोई दो चार काम की चीजें बगल में बाँध कर
अनजानी राह पर अकेला चल निकलता है तो
एक राह खुद उठ कर दूसरी राह का दामन थाम लेती है
बिना किसी नैन-नक्श के सिरे के बल पर
मिट्टी, जल और जमीन पर निशान बनाता हुआ
कच्ची पगडंडियाँ उकेरता-खोजता-बनाता हुआ
एक सिरफिरे को पुर्तगाल में वास्कोडिगामा और
भारत में दशरथ माझी का नाम दिया जाता है
इधर एक हम रहे
जिन्हें सुई तक खोजना भारी पड़ा
एकांत का आडम्बरहीन सुख हमें कुछ खोजने से रोकता रहा
इन दो पांवों ने हमें
खुद से कभी दूर नहीं होने दिया
एक दिन भी ऐसा नहीं गुजरा जब हम
अपने करीब आये हों और फिर अपने से उलट कभी दूर गए हों
हम कबीर की उस राह के ज्यादा नजदीक थे जो
सीधे मन से हो कर गुजरती थी
उस पर भी एक प्रेम ने जीते-जी कई मुश्किलें पैदा कर दीं
जहाँ की एक राह छोड़ कर बाकी सभी राहें बंद हो गयी थीं हमारे लिए,
हमारा बागी भी इसी इकलौती राह में धूनी रमाता चला गया
हाल यह है कि हमारा नाता केवल हमीं से रहा
'एकला चलो' का सटीक ज्ञान अपने भीतर
उतारने वाले अकेले तुम्हीं निकले
वास्कोडिगामा
जब तुमने एक लंबी-गहरी सांस ले,
दूरियों को पांवों से नापने का प्रण लिया
तब प्रार्थनाओं की कंपकंपाती लौ और
कब्रिस्तान का नीरव आशीर्वाद तुम्हारी पेटी से सिमट गया
धुआंधार नाविक और कलाबाज़ खिलाड़ी
समुन्द्र के बड़े-बड़े पत्थरों से टकरा कर अपनी राह भटकते रहे
पर तुमने व्यापार के नाम पर लगभग-लगभग
कई नदी, नाले और टीले पार किये
और एक दिन आ पहुंचे मछुआरों, नटों की अजातशत्रु धरती के पश्चिमी तट पर
तब इस चौरस भूखंड ने पहली बार भारत के नाम से गर्भ-धारण किया
अपनी नयी पहचान पर ऊँची अंगड़ाई ली
इसी सुगबुगी गंध की तो तुम्हें तलाश थी
जो पसीने से हमेशा तर रहती हो,
और जिसकी आँखों में हमेशा नमी बनी रहती हो,
जिसका सीमित विस्तार चारों दिशाओं में फैला हो
तुमने इस देश की खुशबूदार सुबह, मसालेदार शाम और सौंधी रातों से
संसार भर में परिचय करवाया,
यह तुम्हारी मेहरबानी ही थी कि
हम जैसे घोर आलसी जीवों को बैठे-बिठाये
अपने पांवों के नीचे एक ठोस जमीन मिल गई
कील
माकूल जगह ढूँढ़ कर हमें
ठीक बीचोबीच ठोक दिया गया
पहले पहल किसी ने इस ठोंक-पीट का बुरा नहीं मनाया
जब कंधों में दर्द की परतें धीरे-धीरे जमती चली गईं
जुबानें पहले कंपकपाईं
फिर बंद होने के कगार तक पहुँच गईं
बहुत बाद में काली आँखों वाला डर हमारा हमदम बन गया
उसके बाद से ही
कील का नुकीला सिरा
बार-बार अपने होने का अहसास करवाने लगा
टाँग दिया गया हम पर
दुत्कार, अपमान, लांछनाओं का भार
हमारे दामन को कभी सफेद नहीं रहने दिया
घाट पर घिस-घिस के धोया हमने खुद को
पर हर बार कालिख बची ही रह गई
हमारी फटी एड़ियाँ देखीं तुमने ?
ज़रा मिलाना इन्हें अपने पांवों से
जो चकाचक सफेद बने रहते हैं कड़कड़ाते जूतों के भीतर
अपने जंग खाए हुए जीवन से ही
मालूमात हुआ कि 'स्क्रैप' से ज्यादा
कुछ नहीं समझा गया हमें
जो धोने, बिछाने, माँजने और प्रतीक्षा का काम हम करती रही हैं उसे
शून्य जान कर खारिज किया जाता रहा
वह तो रुखसत होता समय कई बातें चुपके से हमारे कानों में कह गया
नहीं तो हम में से कई
जान ही नहीं पातीं अपने ही बगलगीरों की मक्कारियाँ
कुछ चीजें
यहाँ तक कि आईना भी
हमारे शक का कारण बना
चक्रवात के आमने-सामने बैठ कर जीवन का जो मुहावरा हमने गढ़ा
उसे हमने सीधे सीधे बाँच लिया
तुम्हारी नजरों से बचा कर
हमारी पूरी जमात ने हर बार तुम्हारे ही सपने देखे
यकीन मानो तुम्हारे सपने ही हसीन थे,
तुम नहीं
जो पाठ हमारी दादी-पड़दादियों ने हमें सिखाया
तमाम उलटबांसियों और खीँच-तान के बाद भी वह अपनी पकड़ बनाये रहा,
एक मजबूत खूंटे से बंधे रहना हमें सदा रास आता रहा
न जाने हमारी तासीर कैसी थी
हम लात-घूसें भी खाती रहीं और
खिलखिलाती भी रहीं
हमारे नौनिहाल आश्चर्य से हमें ताकते
और हम जैसा न बनने का प्रण लेते
इधर हमारी कील का लोहा अपनी धार तेज करता रहा
भरभराई दीवार पर और मुस्तैदी से चस्पां होने के लिए
नाभि नाल से उठती धुन
मैं अपनी हथेली पर कई बरसों का इंतज़ार लिए खड़ी हूँ
इंतज़ार का रुख उमड़ते-घुमड़ते घटाटोप बादलों सा वेगवान
वक़्त का मिजाज उन हवाओं-सा अनिश्चित
जो एक बार आती दिखती हैं
और दूसरे ही पल लौटने की तैयारी में लगी होती हैं
क्षितिज का अमूर्त विस्तार
कच्छ का रेतीला भार
थार का असीम सौंदर्य
हिमालय का दर्प
मेरे इंतजार के भारी-भरकम पाँवों तले दम तोड़ चुका हैं
जीवन की इस कतर-ब्योंत का कोई सानी रहा
ना ही तीन पहरों की राजदारी का
अब तो समूची कायनात
बरसों-बरस इन सातों पहरों की राजदारी करते बूढ़ी हो गई है
इस घड़ी ज़िंदगानी के पैंतरे भी
दुनियादारी-सी रंगरेजी छाप छोड़ने लगे हैं
जीवन का कोई शरणार्थी कोना मेरे नजदीक आकर
अपनी छाया छोड़ता नहीं दिखता
मैं, घने बियाबान के एक तीखे झुरमुट में
अपने एकमात्र इंतज़ार के साथ
जिंदगी कमाल पाशा की जादूगरी नहीं है
यह तो काफी पहले जान चुकी हूँ
ऊल-जलूल हरकतें करती
उछलती-कूदती-फलांगती जिन्दगी
आखिर मुझसे चाहती क्या है ?
धर्म शास्त्रों की नैतिकता का पलड़ा
मेरी ओर अपनी आस्था दिखाता है
फिर भी विज्ञान के सभी अनुशासनों का दंड
मुझे हर हाल में भोगना ही है
ऊपर से इंतजार का यह भार
सहस्त्र द्वार से कुंडलिनी तक
बे-रोकटोक बहता एक सुख
जिसे बाहर का एक भी रास्ता मालूम नहीं
इस सुख ने हर बार दुनिया का मलिन चेहरा देखने से साफ इनकार कर दिया है
अब मैं शदीद प्यास में बदल गई हूँ
जब मैंने देख लिया हैं कि
भीतर का यह एकलौता सुख भी
मेरे इंतज़ार से दोस्ती गाँठ चुका है
अब मुझे एक रोशनदान चाहिए
एक नेक नीयत
और चाय की एक प्याली।
सिरफिरा
बिना पते की चिट्ठी की तरह,
वह अपने नाम के ईद-गिर्द बेहिसाब चक्कर लगाता है फिर,
दाल-भात खाने बैठ जाता है
बोलने से पहले वह दस बार नहीं सोचता
उसके अंट-शंट बोलने से ही
पंचायत के तलवों तक में पसीना चूने लगता है,
सिरफिरे को जरा भी शर्म नहीं लगती
वह बिना पजामा ऊँचा किये ही गाँव की कचरे से अटी हुई नालियां साफ कर देता है
पड़ोस में पीटती हुई बहू को मारने वालों पर बिना लाठी के ही पिल पड़ता है
अंधेरे-उजाले में वह इतना ही अंतर समझता है कि
दाढ़ी बनाना आसान हो बस,
उसके दायें हाथ की अनामिका का नाखून कलयुग का वास्ता देता हुआ लगता है
मनुष्यों की जाति बंदर करने की योजना बनाई जाती है उसके लिए
कभी वह अपने आप को प्रधानमंत्री और कभी गली का चौकीदार मानने की सरल गुस्ताखी कर बैठता है
कभी अपने दायें पाँव की एड़ी से पानी निकालने की कोशिश करता दिखता है वह
पागलपन की इस दशा में भी वह प्यार का भूखा है
महाभारत की कूटनीतियाँ उसे कंठस्थ हैं
वह बाँच सकता है आकाश के सैंकड़ों तारों की कुण्डलियाँ,
कर सकता है बिना हिचक हस्ताक्षर
दुनियादारी की क्रम संख्या में अकसर गलती करता था
'क' से सपना और 'र' से पेशाब पढ़ाता था
ऐसे सिरफिरे लेकिन सभ्य नागरिक उनके अपने समय मे ही पागल करार कर दिये जाते हैं
तब एक ईमानदार लेकिन सिरफिरा आदमी देश की जनसंख्या रजिस्टर में कम हो जाता है
कापालिक अघोरी की तरह
अपने वर्तमान की थोड़ी-बहुत भी खबर होती,
तब शायद किसी काल भैरव से भविष्य का पता पूछने का साहस जुटाती,
पर यहाँ भविष्य के साथ-साथ वर्तमान भी घने कोहरे की गिरफ्त में दिखा
तब पूरे ब्रह्मांड को हाजिर-नाजिर जान मैंने स्वीकार किया
कहीं से कुछ भी उगाहने के मामले में
सिफर हूँ मैं
मेरे कंधों पर अपनी ठोड़ी रख
जो गम रह-रह कर मुझे सालते रहे,
ठेठ दुनियादारी से उनका दूर का नाता भी नहीं था
एक पारदर्शी लक्ष्मण रेखा मुझे विरासत में मिली थी
जो ऐन वक्त पर दुनिया में शामिल होने से रोक देती मुझे
हर बार मैं,
इस बिना रीढ़ की हड्डी वाली दुनिया की लचीली पीठ पर चढ़ने से बच जाती,
इस प्रसंग की याद की याद में,
हर बार मुझे स्वामी विवेकानंद याद आते
जो दुनियादारी की ओर रुख करने की सोचने ही लगे थे कि
गुरु परमहंस ने ठीक समय पर उनकी एक नस दबायी
और तुरंत ही स्वामी जी दुनिया की हरी-भरी राह भूल गए
इसी तरह किसी असरदार दुआओं की तासीर के चलते
चालू समय भी सीधे-सीधे मेरी आँखों में आँखों डाल कर बात करने की हिम्मत नहीं कर सका
दुनिया के साँचे में न ढल पाने का सुकून सब सुकूनों पर भारी रहा
इन 206 हड्डियों, मांस-मज्जा के अलावा भीतर कुछ ऐसे बीज भी सिमटे रहे
जिन्हें अरमानों की उपजाऊ जमीन पर अंकुरित होने की भारी ललक थी
ताउम्र इन्हीं अरमानों को पूरी आकृति देने के प्रयास में
अपनी ताकत से बाहर निकलकर
ढेर सारी असफलताओं से लैस
भीगी रूई की तरह भारी होती गयी मैं
तमाम बुतपरस्ती को नकारते हुए
अपने ही बनाये द्वीप में अकेली,
अनिश्चित कामना की साधनाओं में लिप्त
उजालों से उलटी दिशा में चलती
मन-मस्तक पर धूनी रमाये
अनजानी मंजिल तलाशती
अंधेरों की उस टोह में भी भटकती रही
जहाँ जुगनू भी गाइड बनने से कतराते रहे
लाख कोशिशों के बाद
मन की उफनती नदी का रुख
कोई मोड़ न ले कर वहीं
अविरल बहता रहा
तमाम तटबंधनों की सीमाओं को अस्वीकारते हुए
मैं अपने ही उजाले में खुद को रोशन करती
तन्हा, रात-बिरात उठ कर तीन चार पंक्तियाँ लिख कर
चैन की साँस ले कर लम्बी नींद में अलसाई
सीप, शंख, मोती, तारे, जुगनू, फाख्ता के साथ
किसी बंदरगाह को तराशती, तलाशती
शिव के प्यारे कापालिक अघोरियों की तरह जटाजूट
हररोज एक कदम शमशान की ओर धरती
किसी अंजाने अनदेखे मोक्ष की उम्मीद में
गुमशुदगी
मुझे मेरे होने का उस वक्त तब तक पता नहीं चल पाया था
जब तक एक नई-नवेली नाड़ी ने मेरी आत्मा को खोद-खोद कर
उसके भीतर अपना घर नहीं बना डाला
जीवन की एक मैराथनी दौड़ लगभग समाप्ति पर थी
पर मेरे पांव अब भी दूरियों की मांग कर रहे थे
जीवन के इस लाजिमी हक में
मेरी वह पसंद शामिल नहीं थी
जिसकी तलाश में मैंने कई नये खुदा तराश डाले थे
खुशी की पहली उड़ान के साथ
ऊब का आखिरी हिस्सा भी प्रेम के
पहले पड़ाव में ही मैने देख लिया था
बिना आवाज के कोई मेरी जिंदगी से बाहर हो रहा था
और मैं उसके पदचाप की बेवफाई पर रोते-बिलखते
अपने और नजदीक आ गयी थी
सच लगे तो टिके रहो
झूठ मानो तो जाने दो
अपनी यादों के इर्द-गिर्द सात फेरे लगा कर
उसे मलमल के लाल कपड़े में समेट
रख दिया है
और जब-जब वर्तमान के ताप में बैठ
अतीत के दो पत्थरों को रगड़
मैंने वर्तमान का चेहरा देखना चाहा तो
सामने वही बन्दर-बांट दिखाई दी
जिससे हर मोड़ पर कन्नी काटती आई थी मैं
उसी वक्त मैंने अपने हाथों से
अपना पता गुम कर दिया
दुनिया में जमे रह कर
गुमशुदगी का खूबसूरत नाटक
कई लाइलाज बीमारियों का सटीक हल ही तो है
दीवार पर कूची चलते हुए
क्या जब शरीर काम करता है तो
मन भी काम करता जाता है?
या शरीर, मन के हिस्से की ऊर्जा को भी सोख लेता है
या शरीर अपना काम करता है
और मन अपना
शरीर किस छोर पर मन से कदम ताल मिला पता है
किस छोर पर साथ छोड़ देता है
क्या हमारे हाथों में थामी हुई सुविधा
भीतर कोई सांसारिक हलचल पैदा करती है
या सुविधा विचारों की उफान को मंद कर देती है
जिस घड़ी दाग-धब्बे साफ हो रहे होते है
तो क्या मन में जमी हुई एक मैली लकीर भी साफ होने में सफल हो जाती है
और कूची से रंग करते हुए भी
ठीक वैसे ही विचार आते जो
सुघड़ ब्रश से पुताई करते हुए आते हैं
ये सारे विचार उस वक्त अपना जिस्म ओढ़ रहे हैं
जब मैं घर की पुरानी मटमैली दीवार पर आसमनी रंग पोत रही हूँ
ढेर सारे प्रश्न हैं
और उत्तर एक भी नहीं
इस बीच पूरी की पूरी दीवार की कलई छुप गयी है,
और खिली हुई आसमानी दीवार
मीठी और रंगीन हंसी हंसती दिख रही है
प्रतिशोध का प्रेम
चुप्पी के सबसे घने दौर में
अपने नाखूनों का बढ़ना कोई देख सके तो देखे
और जब देख ले तो मान भी ले
देह की प्रकृति के साथ-साथ
भीतर का प्रतिशोध है यह जो नाखूनों के रूप में बाहर टपक आया है
एक आसान बहाने से अपने नैन-नक्श
उकेरता हुआ
ज्वालामुखी, धरती का विरोध दर्ज करते हुए उबल पड़े हैं
सपने, एक पहर में जमी हुई नींद का
काई, समुद्र का
और दूरियां, मंजिलों का प्रतिशोध हैं
कितनों का प्रतिशोध उनके भीतर ही दम तोड़ गया
क्योंकि उनके पास प्रेम का अवकाश नहीं था
थरथराहट की पपड़ियाँ और
समय-असमय का बेमतलब बुखार
मेरे आगे पीछे डोलने लगा
जब मेरे शरीर की धरती से प्रेम ने
अपनी नाजुक जड़ें
दुनिया के मटमैले आसमां की ओर
बाहर निकालनी शुरू कर दी
मैं लालीपॉप सा मीठा जीवन
जी रही थी तो
मेरा प्रतिशोध आखिर किससे था ?
इस वक्त मैं प्रेम में हूँ
अब मैं कृष्ण कलाओं में उतर चुकी हूँ
द्रौपदी का लम्बा वस्त्र बन एक चमत्कार में ढल चुकी हूँ
मैंने साध लिया है सीता सा अखंड सौभाग्य
अजातशत्रुओं के खेमे में जा चुकी हूँ मैं
मरियम सी उदासी मेरे तलुओं पर चिपक गयी है
मेरी स्मित में मोनालिसा के होंठों का भेद शामिल हो चुका है
हवाओं के अणुओं में बंद सरसराती लिपि
व्याकरण समेत पढ़ ली है मैंने
कहने की जरूरत नहीं
मैं इस वक्त प्रेम में हूँ
अपनी-अपनी जगह
देर तक शुक्र मनाते
अपने आंगन में बेखौफ उतरे
अष्टावक्र प्रेम को निहारते संवारते
जीवन का आधा वक्त गुजरा
कई कोणों से सुशोभित प्रेम
अपने सीधे रूप में मेरे नजदीक क्योंकर आता
हर उस सीधेपन से एतराज रहा था मुझे
जो कहीं से भी मुड़ने से परहेजी था
प्रेम के इस सोलवें सावन पर
कई बार सात फेरे लेने का मन हुआ
पर ये सात फेरों वाला मामला तो
सीधेपन की ऊँची हद तक सीधा था
सो मैं रही अपनी कमान में महफूज
और मेरा अष्टावक्र प्रेम अपने आठ कोणों में विभाजित
इतिहास से बाहर मेरा तप
प्रेम के शिलान्यास के लिए
खतरे की घंटी से दो पल को
झनकती घंटी मांग लूंगी
सपनों का रंग उतरते देखूंगी
खुशियों को सस्ते में बेच डालूँगी
पांडुरंग के फर्जी देशप्रेम का लम्बा नाटक
बिना ऊबे हजम कर जाऊँगी
इकतारे में लगे दूसरे विकल्पी तार को देख
दुःख के चार सुर नहीं छेड़ूंगी
अमूर्त को मूर्त में तब्दील हो जाने तक का सधा हुआ इंतजार करूंगी
सीता के वेश में उर्मिला सा इंतजार सहूँगी
एक पांव पर खड़ी हो
सावित्री-तप पूरा करूंगी
परीक्षित के नजदीक जाकर
तक्षक का जहरीला दंश पचा लूंगी
पर जिस घड़ी प्रेम अपनी केंचुली उतार फेंकेगा
उस घड़ी मैं बिखर जाऊँगी
अब मैं तुम्हारे नाम से जानी जाती हूँ
एक समय के बाद
याद का एक बेहतर कोना
घिस कर
नुकीला हो गया है
जबकि बाकी तीनों कोने अपनी-अपनी जगह दुरुस्त हैं
ज्यादा इस्तेमाल से चींजें अपना आकार खो देती हैं
इस डर से तुम्हें याद करने का पुराना शऊर भी भुला बैठी हूँ
और सच तो यह है कि
तुम्हे याद करते रहने के लिए मैंने प्रेम नहीं किया था
और भूल जाने के लिए भी नहीं
बीच के उस समय में जब
मैं किसी शपथ पुस्तिका पर हाथ रख कर प्रण लेने से इनकार कर रही थी
उस वक्त के लिए भी नहीं
प्रेम, मैंने अपने जिन्दा रहने के लिए किया था ताकि
कोई तो कायदे का काम हो मेरे खातिर
बाद की बातों को बाद में याद करना चाहिए
शुरुआ़त की बातों को सबसे पहले
प्रेम की उस दस्तक से शुरू करते हैं
जो मेरे सुकून पर बिजली की तरह गिरी
और मैं पूरी तरह भस्म
अब मेरी राख उड़ती है पश्चिम में तो रात होती है
मैं रोती हूं तो ज्वालामुखी उबलते हैं दक्खिन में
जब यह राख अपने मस्तिष्क पर मलती हूँ तो
जीवन बवंडर की तरह गोल हो जाता हैं
मैं अपनी स्थानीयता से ही खुश थी
तुम्हारे प्रेम ने मुझे ब्रह्माण्ड में
एक नायब चीज की तरह पेश किया
अब मैं तुम्हारे नाम से जानी जाती हूँ
ढहने से पहले हर इमारत
खूबसूरत होती है
नजर लगने से पहले हर प्रेम बेदाग
प्रेम से हट कर मैं कुछ कहूँ तो
शापग्रस्त शिला हो जाऊँ
पर सच कहूँ
अब यादें मुझे सबसे अजीज दोस्त लगती हैं।
अपने अधिकार के आजू-बाजू दम तोड़ती मैं
अपने अधिकार में जन्म लेने की बेचैन घड़ी के दरमियान
आँखें खोलते ही मैंने देखा
अपनी कलाइयों में किसी और नाम की रंगबिरंगी चूड़ियां
पांव में किसी और नाम के बिछुए
गले में मंगलसूत्र
टीका, लिपस्टिक
और बदन पर किसी और आँखों की पसंदीदा साड़ी
जुबान पर किसी और के नाम का मन्त्र जाप
किसी और के सौभाग्य के लिए अखंड पूजा-परिक्रमा
मन-मस्तिस्क में विचार भी किसी और के
बिच्छू बन्टी की तरह किसी और के कच्चे आंगन में रोप दी गयी मैं
और रबी की फसल की तरह भरे पाले में काट दी गयी हूँ
मेरी नहर में पानी कम होने पर भी मुझे सींच दिया जाता है
जबरन एक अनचाही खड़ी-कंटीली फसल रोपने के लिए
अपने अधिकार के भीतर ही मैं दम तोड़ चुकी हूँ
कब्र के सिरहाने भी मेरा नाम आधा-अधूरा लिखा था
और कब्र के हत्थे पर उग आये दो फूलों को
तोड़ने के लिए भी कोई और ही तैयार दिखा
तुम जिंदगी
जिंदगी मैं तुझसे कभी ना छूटने वाला प्रेम करूंगी
तेरे मटमैले कोने को छू एक खूबसूरत कसम उठा रखूंगी
शरारत के पलों में तेरा कान उमेठ कर भाग जाउंगी
दुखी होऊँगी तो तुझे चम्बल की किसी मटियाली गुफा में धकेल
दुनाली से छलनी करने की सोचूंगी
तब कई प्रतिरोधी किस्से मेरी आँखों के सामने होंगे
मैं तेरा दाना पानी बंद करने की ठानूंगी
इंसान अपने कद जितना प्रेम करता है
तुम गौर से नहीं देखोगे तो भी
विज्ञान अपना काम करता रहेगा,
पेड़ की पहली मोटाई हमारे पहले प्रेम का पता देगी
उसके घेरे के आस-पास धूसर स्मृतियों के दुमहले छल्ले सिमट जायेंगे
प्राणी विज्ञान, प्रेम को हल्के में ले
उसे महज दो-तीन हफ्तों की रासायनिक प्रक्रिया में ही निपटा देगा
दर्शन शास्त्र का प्रेम शाश्वत वेगवान धारा बन बरसों बहेगा पर
कोई विधा अपनी सीमा से बाहर नहीं आना चाहेगी
विज्ञान और दर्शन कुछ भी कहें
प्रेम का प्रेत कहता है कि
इनसान अपने कद जितना प्रेम करता है
या कर सकता है
न उससे कम न ज्यादा
अपनी कद से कई उंगल ऊपर उठ कर बसने वालों का प्रेम
पल में हवा हो गया
एक करीबी लड़की ने तीन साल में दो प्रेम निपटा दिए
अब चौथा प्रेम तलाश रही है
डर है उसे
कहीं वह अपनी उम्र की उन लड़कियों में अकेली न पड़ जाए
जो हर शाम अपने नए-नवेले बॉय फ्रेंड्स के साथ टहलने जाती हैं
और पहले से भी अधूरी हो कर लौटती हैं
अपने भरोसे से
दुःख टकसाल में कुछ और पकने गया था
सुख से कल रात ही तेज झगड़ा हुआ
प्यास को अपना ही होश नहीं रहा
हवा की कौन कहे,
उसका मिजाज ही कई दिशाओं में गुम है
अब मेरे आस-पास
कोई नहीं
अपने भरोसे को पीठ पर लाद कर चल रही हूँ
कभी तेज कभी धीरे
कहाँ गए सब के सब
सब कुछ एकदम गड़बड़-झाला
तराशा हुआ सुख,
उलझा हुआ दुःख
गले तक आई प्यास
धो-पोंछ कर रखी उम्मीद
मांझ कर रखा इंतज़ार,
सब के सब एक सफर में खो गए
मैं खाली हाथ
सूनी आँखों से
उस दिशा में देखती हूँ
जहाँ से ये सभी दुलारे संगी-साथी आये थे
अब वहाँ केवल अंधेरा है
इतिहास की गर्त में मेरी पहचान
कहीं तो दर्ज होंगे मेरे सपने
मेरे प्रतिरोध के सरकंडे
विरोध के तीर-कमान
भटकेगा कोई मेरे इतिहास को जानने पहचानने की तड़प में
तब
निकाल लाएगा कोई पन्डा
मेरे नाम का एक ताम्रपत्र
लाल सुतली से बांध रखे हजारों ताम्रपत्रों में से ढूंढ़ कर
मेरा गोत्र, मेरा कुल खंगालेगा
मेरी पहचान की तलाश में
लाख कच्चे-पक्के पापड़ बेल
दिन और रात एक कर देगा
यही नामुराद पहचान
जो मुझे इस कदर परेशान कर रही है
कि इसे मैं गली के मोड़ पर बैठे काने कुत्ते को
न करने को भी तैयार हूँ
जीवन की दुकानदारी
बजरबट्टू की तरह जीवन खूब घुमाता है
ताकि सब गोल-गोल घूमते रहें और
उसकी दकान बेखटके चलती रहे
ये पंडे ये घंटियों का शोर गुल
ये मदारी
ये तबलची
ये मुखौटा धारी
ये बगुला-भगत
ये त्रिपुंड धारी
ये वादी, आदि, इत्यादि सब के सब पोशम्पा भई पोशम्पा खेलते रहें और
जुटी रहे भीड़ इनके आस-पास
और यह जीवन इसी धमाधम के बीच करवट ले सोता रहे
गाहे-बगाहे नाक की पुंगी बजा-बजा कर अपनी ओर आकर्षित कर
कूटशब्द में ध्वनित होता रहे
कि मैं हूँ तुम हो
मैं नहीं तुम कहाँ
और इस जीवन की भोली सूरत को
मीठा गुड़ समझ लोग इस पर भिनभिनाने लगें
यह जीवन ही तो था
जो हमारी हथेलियों पर आड़ी-टेढ़ी लकीरें खींच रहा था
कि आओ माथा मारो यहाँ कुछ देर,
जबकि इसी ने हमारे दिमागों पर एक बड़ा ताला लगा कर
चाबी अपनी जेब में रख ली थी,
कि हम अपने हाथों में माथा मारते रहे
और वह खुले सांड़ की तरह दूसरों के निजी जीवन में सिर घुसाता रहे
अभी-अभी देख कर लौटे हैं
इसके सारे ताम-झाम इंतजाम,
और इसकी बाजगरी में शामिल होने के बाद
हम बुरी तरह थक गए हैं
अब बारी हमारी है
तीसरा नेत्र खुलने का मामला अब प्रकाश में आया है
अब जो मौका हाथ आया है
जीवन के लम्बोतरे चेहरे पर कस के देने का
और हमने जम कर अपने काम को अंजाम दे दिया है
हाथों में अब कस कर दर्द है
और एक में पसीने की एक लकीर उतर आई है
शुक्र है कि अब साँसें पहले से बोझिल नहीं रहीं
हम अपनी गति से चल रहे हैं
जीवन की गति से नहीं
तब, अब, फिर
मेरा सामना प्रेम से हुआ
उजला-सफेद-मृदुल प्रेम
मैंने उसकी ओर घड़ी भर को देखा
वह शरमा दिया
ओह!
मैंने उसे आवाज दी
तब तक वह घुमावदार मोड़ मुड़ चुका था
मैंने उसे छूना चाहा,
वह हवा हो लहलहाने लगा
उसकी उजास
अपने भीतर समेटनी चाही
वह शिला होता दिखा
अब
मैं अपनी ही भाषा में गुम,
प्रेम अपने ही जादू में लोप
साँझ के हथियार
खुद सूनी साँझ एक नुकीला हाथियार मुझे सौंप,
सुस्ताने लगती है
हर शाम मैं बरामदे में बैठ,
एक नए हथियार की धार तेज करती दिखती हूँ
आज शाम की इस बारिश ने
कई छोटी बड़ी बर्छियां मुझे थमा दी हैं
साँझ दर साँझ
ढेर सारे हथियारों का जखीरा,
मेरे कदमों में बिछ गया है
सप्ताहांत मैं इन सभी हथियारों को इक्कठा कर
पीछे के आंगन में रख
सोने चल देती हूँ
यह अनुमान लगाते हुए कि कल की साँझ
मुझे कौन सा नया हथियार सौंपेगी
गांठ में बंद आखर
मन का अपना फलसफा हुआ करता है
और मन की चमड़ी का अपना
चमड़ी चूँकि बाहर की हवा में साँस लेती हैं
सो हमारी दोस्ती उसी से है
मन के इसी फलसफे के भीतर
एक तख्ती के लिए भी जगह थी
जिस पर लाख साफ करने पर भी
शब्द मिटते नहीं थे
सफाई से महज़ धूल ही साफ होती है
या फिर मन भी ?
कुछ साफ करने से मन का तापमान भी घटता बढ़ता है क्या?
निश्चित काम को दोहराते-फैलाते
पुरानी गठरी में रोज एक नई गांठ लगती जाती है,
पुरानी गांठ के ऊपर एक नई आंट
यह आज की बात है
उस वक्त की नहीं जब
शब्दों पर मोती टांकने
का जुनून हुआ करता था
और होड़ भी सबसे करीबी दोस्त से होती
तब कोई गांठ बंधती भी थी तो
दसों उँगलियों के संकोच के बिना
मास्टर की मार का जितना घमासान असर होता था
उतना आज पूरा का पूरा आसमान टूटने पर भी नहीं होता
रात के भोजन से भी ज्यादा जरूरी था
तख्ती के पुराने सूखे हुए हर्फों को साफ करना
मुल्तानी मिट्टी खत्म हो गई है तो
तेज दौड़ के साथ पड़ोसन काकी के घर से ला,
उससे तख्ती को मलना
सभी कामों का सरताज होता
कई गांठें तो आज भी मन में कुंडली जमाए बैठी हैं
तख्ती पर आड़े लेटे आखर आज भी लेटे हैं मुस्तैद
आज भी मन की वह गाँठ कसी कसाई
है ज्यों की त्यों
और तख्ती पर उकरे शब्द आज भी
गीले हैं
महानगर
महानगरों में बरसों बने रहते हैं हम
अपने आपको लगातार ढूँढ़ते हुए
इसके अतिरिक्त भार को अपने कमजोर कंधों पर ढोते
अभिमान से अभिज्ञान तक के लंबे सफर में
बेतरतीब उलझे हुए हम
महानगर की बोझिल धमक हमें
हर कदम पर साफ सुनाई देती है
इसके कंटीले शोर में हम खो गए हैं
फिलहाल हम इसके शयनकक्ष में आ चुके हैं
अब यहीं से अपने आप को खोने का पूरा मुआवजा लेंगे
दूर तक बिखरी हुई उदासी से|
खुशी के बारीक कणों को छानते हुए
महानगरों के सताये हुए हम
अपने गांव-कस्बों से
बटोर लाई खुशियों को बड़ी कंजूसी से खर्च करते हैं
महानगर के करीब आ कर
हमे बरसों के गठरी किये सपनों को परे सरका कर
कठोर जमीन पर नंगे पाँव चलने की आदत डालनी पड़ी है
महानगर के पास खबरों का दूर तक
फैला हुआ कारोबार है
जो महीन खबरें इसके पथरीले पैरों तले कुचली जाती हैं
वही हमारे लिए पीड़ा का सबब बनती हैं
फ्लाईओवर के नीचे से गु़जरते हुए
एक रेडीमेड उदासी हमारे अगल-बगल हो लेती है
लंबी चौड़ी इमारतों के ठीक बगल में
अपनी झोपड़ी
हमें अपने फक्कड़पन का अहसास दिला देती है
महानगर तुम्हें लांघते हुए चलना
अपने आप को
बड़ा दिलासा देना है
तुम्हारी चाल बहुत तेज है महानगर
लेकिन तुम्हें शायद यह मालूम नहीं
एक समय के बाद
दौड़ते-फांदते-इठलाते खरगोश की
चाल भी मंद पड़ जाती है
आदमी से आदमी तक की यात्रा
शुरुआत से अंत तक का सफर
आदमी से आदमी तक का ही है
भीड़ में गुम होता आदमी
तनहाई से गुजरता आदमी
आदमी से भिड़ता आदमी
आदमी के भीतर इंसान को खोजता आदमी
इतना सब होने पर भी
हरेक आदमी की एक आँख
ढूँढ़ती रहती है,
अपने लिए जमीन का एक टुकड़ा
जिस पर किसी
दूसरे आदमी के पदचिह्न न हों
बहाने से
अतीत की तलहटी में गोता लगाने के लिए
यह ध्यान रखना भी जरूरी था कि
साथ-साथ चल रहे समय के माथे पर बल न पड़ें
तब कई महीन बहाने तलाशने का काम करना पड़ा
फिर उन बहानों की डोर पर चल कर वो सब याद किया
जो मेरे न चाहते हुए भी कहीं पीछे छूट गया था
यह कुछ-कुछ उल्टी दिशा में जा कर सोचने की तबीयत का भी काम था
कुछ ठोस न रचने की समय सारणी में मैंने
एक बहाना तलाशा और उसी बहाने के जरिये
पुरानी यादों की धार तेज की
तब दूर छिटक गयी सहेलियों के बहाने से गुमशुदा सुख याद आया
अपने साथ खींच कर ले आया वह
कुएँ, ढोल और पड़छत्ती और गाँव की धूल भरी गलियां
शादी की रीत और बढ़ती उमर पर बात चलते ही
माँ-पिता का सम्बन्ध विच्छेद और दुध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीने वाली कहावत दोनों
इकट्ठे ही याद आये
जीवन की तेज रफ्तार के बहाने
चतुर सयाने लोग याद आये
पिछले दुख को भूलने के उपक्रम में
बहाने से नया ताजा ओढ़ा दुख याद आया
इसी बहाने की मार्फत
दुनिया के तमाम दुखों से दोस्ती का माकूल बहाना मिल सका
टुंड्रा प्रदेश का सच
अपनी सदाबहार हरियाली तज कर
अचानक से टुंड्रा प्रदेश में रूपांतरित होते हुए
जीवन को मैंने देखा
देखते-दखते वह किसी अप्रत्याशित जादू की तरह बौना हो गया
यह लगभग-लगभग उन दिनों की बात है
जब प्रकृति और प्राणी आपसी बगावत की कशमकश में थे
सपनों की मृगमरीचिका से बचने के लिए
छोटी मुनियाँ दाईं तरफ करवट लेकर सोने लगी थी
जन्मपत्री में बताये दिशा निर्देशानुसार मैंने
मोरपंख अपने सिरहाने रख लिए थे
बौनेपन में उतरते ही
मेरे जीवन ने इस कदर समाधि धारण कर ली
कि नयी जमीन की कच्ची-पक्की, जली-भुनी सभी मंत्र-सिद्ध तरकीबें उसे रट गयीं
और उसने बाहर और भीतर के बीच मध्यस्थता स्थापित कर ली
वह नज़ारा देखते ही बनता था जब वह अपने चेहरे पर पूरे ओज के साथ
दिन दहाड़े अपनी सुविधापूर्वक भीतर प्रविष्ट हो जाता
और अपनी सुविधापूर्वक तेजी के साथ बाहर की दुनिया में गोते खाने लगता
उसकी काई में फिसलने की सारी सुविधाएँ थीं और उसकी
काँटेदार झाडि़याँ से बिना खरोंच के निकल पाने की उम्मीद बेमानी थी
फिर भी मैं वहाँ अपनी आदतानुसार स्थायी रूप से जम गई
उत्तरी-ध्रुव से दक्षिणी-ध्रुव तक
एक से एक नयनाभिराम नजारे मेरी आँखों के सामने थे
पर उस सर्द बौनेपन में मेरे दिमाग से लेकर
आत्मा तक पर सफेद बर्फ जम चुकी थी और बौनापन मुझ पर भारी पड़ने लगा
जीवन के बौनेपन की लेफ्ट-राइट और तमाम मक्कार कलाबाजियां देख चुकने को
अभ्यस्त हो चुकी ये आँखें
उधर देखने लगीं
जहाँ एक रेगिस्तान आँखों में इंतजार लिए अब भी खड़ा था
हम मुठ्ठी बंद औरतें
हम मुठ्ठी बंद औरतें
फरिश्ते आकाश से उतरते हैं
और हम मुठ्ठी बंद औरतें धरती में समाती हैं
ज्यादा अंतर ने भी हमें दुःख दिया
कम अंतर ने भी बरसों प्रतीक्षा करवाई
पर इस बार अंतर कुछ अधिक घना था
घनी मूंछों और नाजुक बिछुओं में
हमारे मामले में एक जमा एक दो ही बनता आया था
बारहखड़ी का खाका भी हमारे करीब कुछ यूं ही बना
कि कुछ मात्राएँ हमें देखने को भी न मिलीं
सब कुछ तभी बेआवाज था
जब हम पलकों की तरह खुलतीं और
मछली की तरह चलते-चलते ही सो लेती थीं
विप्लव तो इसके बाद आया
जब हम अपनी तयशुदा जगह से जरा सी हिली
एक नसल के हाथ में
दूसरी नसल की कमान देने का फैसला खुदा का था
पर तुम तो खुदा के भी खुदा निकले
बंदरबांट के नाम पर
कुएँ के भीतर लटका डोल हमारे हाथ में थमा कर
दुनिया की और जाने वाली दिशा मे अंतर्ध्यान हो गए
हमारी बाट देखने की आदत को तुमने खूब भुनाया
हम फूंकनी से फूँक मार मार कर हलकान होती रहीं
तुम्हारे बच्चों को पिठ्ठू पर लटकाये
झूठी आस के सपने बुनती रहीं
हम सबके कानों मे तुम्हारी ही मरदूद कहानी थी
हम रंग छोड़ चुकी तस्वीरों
हम मुट्ठी बंद औरतों की कहानी इतनी ही थी
कि हम
झूठे बचे-खुचे अन्न के टुकड़ों के साथ
एकमत से चुपचाप मुठ्ठी बंद लिए ही परम धाम लौट गयीं
तुम्हारी अखंड शांति में बिना कोई दखल दिये
अंतिम रुदाली को आवाज़ दो
पहलेपन की सौंधियाई महक और आखिरीपन की गीली थकावट को याद रखते हुए
सब भूल गए इसके बीच के भीषण अंतराल को
हमारी कमजोर स्वरलहरियों पर क्या गुजरी
लहलहाती भूख नहीं थी यह जो
मोडुलर रसोई की आधुनिक चिमनी तले या
सफदरजंग फ्लाईओवर की दो ईंटों के चूल्हे पर रोटी बेलती औरत की नाभि से दो उंगल ऊपर उठ रही थी
जीवित आकृतियों का पाखंड था यह जो सदियों से सर चढ़ कर बोल रहा था
छठी इंद्रियां बिना हरकत किये
आत्मा का अल्पज्ञात रहस्य बताती चलती थीं कि
क्योंकर कुछ कहते-कहते रुक जाती रूहें
लम्बी ठंडी साँस ले,
अधखुले दरवाजों की ओट में दाँतों तले ऊँगली दबाती आत्माएँ
किस सोच में पड़ कर शिथिल हो जाती हैं
सच के पाँव मजबूत थे
वह बिना डोले बोल देता था कि हम
अपनी चल-अचल सम्पति दुपट्टे के किनारे बाँध
नंगे पाँव तपती रेत पर चल देती हैं
अपने वाष्पित आँसुओं को पीछे बिसराती हुईं
किसी पश्चिमी गर्म प्रदेश में अपने दामन पर पैबंद टांके
भरी दुपहरिया में भरोटी ढोई
नून गंठे के साथ खेत की मुंडेर पर उकड़ू बैठ टूक तोड़े हमने
होंठों पर पपड़ी जमा देने वाली सर्द हवाओं में
सीढी चढ़ाई और रपटीली गहराई बिना नापे तय की
हमें सबसे शांत मुहावरों की आड़ में सहलाया गया
हम चकित थीं
ताउम्र पानी ढो कर भी
हमारी बावड़ी सूखी की सूखी कैसे रह गयी
खुशियों की गंध को अपने भीतर बंद कर खुश हो लेतीं
बुरे वक्त को सिलबट्टे से रगड़ डालने का उपक्रम करतीं
हमारे सुकून पर जिस दिन काली बिल्ली ने गेड़ा मारा
और ये चंद खुशियाँ भी उसी रोज मारी गयीं
एक भरी-पूरी उठान वाली सुबह
नाचते-गाते शोर मचाते ढेर सारे बहे लिए आये
हमारे कानों में चंद मीठी बातें कर
चालाकी से बारीक बुनावट वाला रेशमी जाल हमे उढ़ा, बगल में मुस्तैद हो गए
वो दिन थे, और आज का दिन है
हम रोना भूले हुए हैं
जीने का अंतिम सहारा हमसे छूट गया है
कोई बख्शो हमें
अंतिम रुदाली को जरा जल्दी आवाज दो
जब सिरदर्द प्रेत की तरह आता था
हम दोनों भाई-बहन का बचपन युवावस्था के कई कदम नीचे था
और माँ तब इतनी युवा थी कि
कायदे से उस पाक अवस्था में
किसी भी दर्द को एक माँ के करीब आते हुए भी डरना चाहिए था
पर सिरदर्द चमड़े के जूतों समेत
सीधा सिर पर वार करता था
माँ सिर-दर्द के कोड़ों से बचने को
करवटें बदलती
सिर पर दुपट्टे को कस कर बांधती
ढेरों कप चाय पीती
दर्द को दूर धकेलने की
नाकाम कोशिशों के बाद थक कर
सो जाती
हम बच्चे थे
इस स्थिति में
अपने छोटी हथेलियों से माँ का सिर दबाना ही जानते थे
घड़ी भर सिर दबाते-दबाते
वहीं माँ के अगल-बगल झपकियाँ मारते नींद में लुढ़क जाते
कुछ बरसों के बाद जब माँ के सिर का दर्द बूढ़ा हो गया
तब उसने माँ का पिंड छोड़ा और
बरगद की जमींदोज जड़ों के नजदीक
अपना बुढ़ापा काटने चला गया
कई बरस बाद मालूम हुआ
सिर का वह बदमाश दर्द कुछ और नहीं
पिता से माँ के अनसुलझे-बेमेल रिश्ते की पैनी गांठ थी
यकीनन पिता से वह बेउमीदी वाले कच्चे रिश्ते के दूर जाने के साथ ही
वह बूढा दर्द भी कहीं नरक सिधार गया होगा
एक कच्ची-पक्की सीख के साथ कि
बेमेल रिश्ते के छोटे से छेद में घुस कर
कोई भी दर्द आसानी से अपना घर बना सकता है
अब आओ
क्या कहूँ अब
कहने को पूरा बची भी नहीं हूं
अधूरे प्रेम की तरह अधूरी
खंडित सभ्यताओं की तरह टूटी-बिखरी हुई
गन्दी नाली की दुर्गन्ध सी बजबजाती
इस पर भी मेरे धीरज का पत्थर आसानी से घुल जाता है
ठीक उसी तरह जिस तरह
पानी की परछाईं से
बताशा पिघल जाता है
आओ कबीले के सरदारो
आओ मेरा शिकार करो
चढ़ आओ अपने नुकीले पंजों समेत
आओ कि मेरे सीने की कई पसलियां साबूत हैं अभी
आओ कि अब मैं किसी खेद का शिकार नहीं बनना चाहती
आओ मुझे नोच-निचोड़ खा जाओ
और जब खान-पान पूरा हो जाये
तो सौंप दो मेरे अस्थि-पिंजर तीखी चोंच-पंजों वाले पक्षियों को
ताकि उनके पितृ भी जम कर तृप्त हो जाएं
आओ, धरती के ये जिन्दा फरिश्ते मुझसे नहीं देखे जाते
मैं किसी शक ओ सुबह से दूर
निर्जन टीले पर
अपने स्वाभिमान को पस्त होते देखते-देखते
थक गयी हूं
आओ मेरे हथेली की रेखाओं
मुझसे पंजा लड़ाओ
तुम्हें क्या मालूम
मेरी महत्वाकांक्षा के छोटे घेरे में सिर्फ
एक सीधा-साधा प्रेम ही है
सिर्फ प्रेम
प्रेम का वो दिव्य सलोना स्वरूप
जो सांता की तरह बेहिचक मासूम है
आओ भ्रम की एक सफेद चादर मेरे सामने डाल दो
ताकि मेरा प्रेम इसी भ्रम की राह पर
चल कर वापिस लौट जाये
आओ फिर बताओ कि मैं क्या करूँ
सीखने समझने की जो अफसरशाही दलीले हैं
वो मैं अरसे पहले ही भूल गयी हूँ
आओ आओ
मेरी याद की नस इस कदर निस्तेज हो चली है|
कि मैं बार-बार याद करने को ही याद करने लगती हूँ
अब और कुछ याद नहीं
एक परछाईं भी नहीं
एक आस भी नहीं
एक सपना भी नहीं
वो सच भी नहीं जिससे एक पल अलग होते भी
मैं हिचकती थी
दंभ
यह इतिहास का दंभ है
कि लोग उसे बार-बार पलट कर देखें
और उसकी याद ताजा बनी रहे
वर्तमान का दंभ चाहता है
लोग उसे कोसते रहें और जीते रहें
भविष्य का दंभ
एक दिहाड़ीदार की रोजी की तरह
हर रोज पकता है और
हर रोज बिकता है
काबुली चने
इतने बुरे भी नहीं होते काबुली चने
पर सच में काफी बुरे होते हैं
बचपन में इतने खाए
कि अब तो नाक तक अघाये
तब के समय तो
आंच से चनों के स्थायी रिश्ते को हमने
पूरी तरह से कुबूल कर लिया था
माँ चने उबालती जाती थी
हम उत्साह में खाते जाते थे
एक घड़ी तो उत्साह का अचार भी कसैला हो गया है
और
अब जीभ भी काबुली चनों का स्वाद नहीं औटती
कभी-कभार भूले-भटके घर में आ जाते हैं चने तो
महज इल्लियों को ही उनका स्वाद भाता है
जिन्होंने अपना स्वाद भी बचा रखा है
और उत्साह भी
मेरी तुम्हारी भाषा
मै अपनी भाषा की मांस-मज्जा में गले तक डूबी हुई थी|
और
तुम मुझे अपनी ओर खींचते चले जा रहे थे
भाषा के तंतु आपस में इस तरह गुंथे थे
जैसे प्रार्थना में एक हाथ की लकीरें दूसरे
हाथ की लकीरों
से अपना मिलान करती हैं
मेरी भाषा का अपना संकोच था
अपना व्याकरण
और इसी गणित के गुरूर की एक व्यापक समझ थी
उसने ही तुम्हारी भाषा के
नजदीक करतबी कलाबाजियाँ खाने से इनकार कर दिया था
अपनी भाषा में जमे रह कर तुम्हे प्रेम किया
मेरे प्रेम की एक-एक भाव भंगिमाएं
आत्मा के शीतल पानी में नहाई हुई थीं
कहीं कोई दाग-धब्बा ना रह जाये इस शक की सफाई में
मेरा प्रेम
बार-बार आत्मा की गहराई में डुबकी लगाता था
तुम प्रेम-आत्मा की इस अनोखी जल-क्रीड़ा से बाहर खड़े थे
पूरे के पूरे सूखे के सूखे
ऐसा नहीं था कि तुम्हे आत्मा और गहराइयों से परहेज था
फिर भी पुरुष का मान
पुरुष का मान होता है
और यह भी कि एक पुरुष होना नकारात्मक संज्ञा नहीं है
एक प्रेम पगी आत्मा तो तुम्हारे पास भी थी
जिसके पास कोई अनचीन्ही भाषा थी
जो प्रेम के सार्वभौमिक व्याकरण को नहीं समझ पाई थी
अब रहने दो
इससे ज्यादा सफाई
और ज्यादा कूड़ा बिखेर देगी
हर भाषा का अपना सम्मान होना चाहिए
और मैं अपनी भाषा की थाह रखूंगी,
तुम अपनी
इस कविता का अंत मैं किसी सन्देश से नहीं करना चाहती
इसका झुकाव उस
चित्रकार की तरह का जज्बा वाला होना चाहिए
जिसकी कूची ने कभी थकान का मुंह नहीं देखा था
उस फिल्मकार की तरह जो एक नायिका को
शरीर नहीं एक आत्मा मानता था
उन फिजाओं की तरह बेलौस
जिसकी आबोहवा में
पसीने की गंध फूलों की गंध को काटने का साहस रखती है
फिर भी दोनों की गंधिली भाषा अपनी-अपनी जगह महफूज रहती है
मन का बंटवारा
कहते हैं
पीछे के दिनों में जाना बुरा होता है
और उसकी रेत में देर तक कुछ खोजते रहना तो और भी बुरा
कोई बताये तो
पुराने दिनों की बहती धार की थाह पाये बिना
भविष्य की आँख में काजल कैसे लगाया जाये
अतीत की मुंडेर पर लगातार फड़फड़ाती डोर टूटी पतंग को देख
आज के ताजा पलों की हवा निकल जाती है
तब जीना एक हद तक हराम हो जाता है
अब हराम की जुगाली कोई कैसे करे
मेरे मन के अब दो पाँव हो गए हैं
एक पाँव अतीत की चहलकदमी करता है
और एक वर्तमान की धूल में सना रहता है
और दोनों मेरे सीने पर आच्छादित रहते हैं
भूत और वर्तमान की इस तनातनी से
भविष्य नाराज़ हो जाता है
मैं उसकी नाराजगी को
एक बच्चे की नाराजगी समझ
मधुर लोरी से उसका मन बहलाने का उपक्रम करती हूँ
ताकि मन का तीसरा बँटवारा होने से बच जाये
खुद से रूठते हुए
हमने प्यार किया
और पहचाने गए
नफरत की
और मारे गए
अपने को छोड़ कर जहाँ-जहाँ भी गए
खदेड़ दिये गए
हमने जो कुछ भी किया
संसार पर आँख धर कर किया
चुल्लू भर जिया
समुद्र भर खोया
शुक्र मनाते-मनाते रात आई
वह भी बिना कोई चिह्न छोड़
लौट गयी
सुबह अब आती नहीं
दोपहर का पहले भी कभी कोई ठिकाना नहीं था
महज इशारा भर था
हमारा जीवन और उस पर भी
हमें एक खड़ी बंजर भूमि पर जबरन रो़प दिया गया
ये सीधा-सीधा तरीका था
हमें उलट देने का
अपनी कहानी हमें
अपनी जुबानी ही सुनानी थी
पर
हम पस्त
दौड़ में हारे खिलाड़ी से
खुद से ही रूठे हुए
मुस्कान
मेरी मुस्कान मेरे कानों तक
नहीं पहुँच पा रही थी
तब मैंने इस धरती को छुआ
पर धरती के पास गुदगुदी थी
मुस्कान नहीं
मुस्कान तो उस
मांसाहारी पिचर पौधे की तरह
भीतरी तल में बैठी है
जहाँ से रस लेना कठिनता का अंतिम छोर जैसा है
ना जाने क्यों मेरी मुस्कान को
अमर हो जाने का चस्का लगा है
जानती हूँ बंद कलियों में सिमटा
मेरी स्मित का
पूरा रहस्य ज्ञान
पर एक अदृश्य बागबान के चलते
कलियों तक किसी की पहुँच नहीं है
अपनी हंसी के साथ मैं मुस्कान को भी गड़प कर जाती
गर जानती कि
मुक्त दुनिया में मेरी मुस्कान पर ग्रहण लगेगा
और मेरी मुस्कान
किसी मुठ्ठी में बंद हो कसमसायेगी
भेड़ियाआसन
सारे नायक पस्त
सारी नायिकाएं दुखी
सारे मसखरे हैरान
शो-विंडो की सिद्धहस्त गुड़ियाँ
अपनी करामातें भूलने लगीं
अभी इतिहास की जो तेज आंधी आयेगी
तो ये जीवन लहलहा उठेगा
तुम इतिहास को टेढ़ी नजरें दिए रहो
हम इतिहास से प्रेम करेंगे
हम उस जुलाहे को सभा में ले आयेंगे
जिसकी छनी उँगलियों से आज भी अविरल लहू बह रहा है
हम सारी अहिल्याओं को जीवित करायेंगे
सारी सतियों को लीलने को तैयार कुंड में लगी ईंटों को उखाड़ फेंकेंगे
सारे चुगलखोर धोबियों को पीटेंगे
सारी नदियों का खारा पानी ओज लेंगे
बहेलियों के जाल चिंदी-चिंदी कर देंगे
हम धरती पर अपना सीना लगायेंगे
सपनों की तिजोरियां चुरा लेंगे
ज्वालामुखियों से दोस्ती करेंगे
ऊँचे पहाड़ों को करेंगे प्रणाम
जब वर्तमान अपने भेड़िया आसन से हमें डराने को आएगा
तो हम उसे उस लहूखोर तोते की मरोड़ी हुई गर्दन दिखायेंगे
जो बरसों से हमारी आत्माओं का लहू पी कर जिन्दा था
तब हम इतिहास का लंबा पुल बनायेंगे और
वर्तमान और भविष्य की पदचाप सुनेंगे
प्रेम के तहखाने से गुजरते हुए
हर बच्चे की याद में
एक छड़ी-मास्टर और
हर जहन में
प्रेम का एक
तहखाना होता है
जहाँ भूला-भटका प्रेम
यादों की गर्म भट्टी पर पकता है
बिछड़े हुए प्रेम की यादों को इतना कुरेदा जाता है
कि उसके कोयले हमेशा सुलगते रहते हैं
उन कोयलों को उसी अवस्था में ढाँप कर
सब अपने काम-काज में गुम हो जाते हैं
और जब लौटते हैं तो फिर
सुलगते कोयलों पर हवा करने बैठे हैं
इस तरह यह शगल अपनी पकड़ हमेशा बनाए रखती है
हालांकि प्रेम अब इतनी दूर जा चुका है कि
उस तक यादों की रंगीन पतंगों की सहानुभूति से ही पहुंचा जा सकता है
और
'खुदा के हाथों में है बंदे की तकदीर' से
कदमताल करते हुए
बंदा अपनी यादों की कमान को
मजबूती से थामे रखता है
प्रेम की ध्यानावस्था में दिन-रात
यादों का जाप चलता है
वो प्रेम की मधुर सांठ-गाँठ
वो चुहलबाजियाँ
वो कभी ना बोलने की कसमें
और रेल-पटरी पर लेट मरने की झूठी मक्कारियां
प्रेम की बाजीगीरी भी अद्भुत है
संवेदना में ना बहे तो प्रेम भी एक
गोरखधंधा है
जहाँ ब्लैक एंड व्हाइट में फर्क मिट जाता है
हर साल प्रेम में पड़ने वालों के हाथों में भी
प्रेम की एक ही रेखा खींची होती है
फिर भी प्रेम के दुर्लभ खुदाओं की नाजुक खुदाई में
दखल ना देते हुए
उन्हें प्रेम के लिए लंबा अवकाश देना चाहिए
ताकि
प्रेम के इन नामचीन खुदाओं पर शोध कर
प्रेम के नकलची प्रकाश में आ सकें।
दुनिया यूँ गायब हुई
पहले पहल फूल आये धरती पर
फिर चहचहाते पक्षी आये
फिर कछुओं की आवाजें सुनाई पड़ने लगीं
धीरे-धीरे अंगूरों की थैली में रस भरने लगा
एक वक्त के बाद दिन के
दो टुकड़े हुए
परछाइयाँ उड़ान भरने की हिम्मत करने लगीं
हरियाले बगीचे को घेर लिया झींगुर, टटहरियों की मस्त आवाजाही
में डूबी उधेड़बुन ने
येरुशेलम के "पहले मंदिर" में
मीठी घंटियाँ एक सी बोली बोलने लगीं
फिर दुनिया गोल हुई
इसके मिलनसार रास्ते एक के भीतर एक राह पाने लगे
एक अजनबी राह में
तुमसे मिली मैं
और फिर शिद्दत से बनी हुई ये
दुनिया सिर समेत गायब हो गयी
इस योनि में, मैं
सभी योनियों में अपने भाग्य पर इतराने के कई कारण थे
सभी तैंतीस करोड़ योनियों में
मैं यम की मजबूत निगेहबानी में थी
ब्रह्मा, विष्णु, महेश मेरे अगल बगल ही टहल रहे थे
तीनों देवियाँ मुझ पर अथाह मेहरबान थीं
उसी लक्ष्मी ने धन की ललक थमायी
सरस्वती ने ज्ञान का दर्प दिया
पार्वती ने साहस की सीनाजोरी
चारों पहर की तफरी के लिए
हाथ बांधे खड़ी थी
मेनका, उर्वशी, रम्भा और तिल्लोतमा सी मोहक अप्सराएं
नारद हंसोड़ दूत सा इधर-उधर की खबरें ला
मेरे भारी मौसम को हल्का किया करता था
विष्णु के दसों अवतारों से अच्छा खासा परिचय था मेरा
योनियों की परिक्रमा कर मनुष्य योनि तक
पहुंचते न पहुँचते
सभी सरमायेदार एक-एक कर साथ छोडते गए
सबको अपनी व्यस्ताओं का तकाजा था
तीनों देवियाँ अपने पतियों की सेवा टहल में मुस्तैद हो गयीं
चारों अप्सराओं पर गृहस्थी का दबाव बढ़ गया
दसों अवतारों ने हिमालय की ओर रुख कर लिया
रह गयी मैं निपट अकेली
मनुष्य योनि का भार ढोने और
किसी दूसरी बेहतर योनि में टापने की प्रबल उत्कंठा के साथ
जीवन भीतर जीवन
पौधे अपनी टहनियों के बल खड़े हो
धरती का खनिज सोख रहे थे
प्रेम, आत्मा के बूते
मुखर हो रहा था
डोल्फिन पानी के भीतर-बाहर
आ-जा कर प्राणवायु को लपकते दोहरी हुई जा रही थी
सीधे-सीधे कोई नहीं कह पा रहा था
उसे जीवन 'भीतर जीवन' की तलाश है
जरूरी चीजें
धावकों के पांवों के उँगलियों के बीच
उगी 'फफूंद'
जरूरी है
जीत जितनी ही
लोकतन्त्र के लिए सफेदपोश 'मसखरे'
जरूरी है
जीवन के लिए
हवा-आग-पानी में बजबजाते 'अणु'
प्रेम के लिए स्नेह में पगी 'आत्मा'
लोहे का लहू सटकने के लिए जंग की लपलपाती 'जीभ'
जरुरी है बंद अलमारी में जमी 'धूल'
सुरक्षित आस्थाओं के लिए
पसीने की गंध
'देह की पहचान' के लिए
जिस तरह जरूरी है कतरे के लिए जरूरी है 'आंख'
उसी तरह जरूरी है मिटटी की सेहत के लिए 'नमी'
पर अंतिम घड़ी तक यह तय नहीं हो पाया है
कितनी जरूरी हूं 'मैं'
तुम्हारे लिए
प्रेम का यह आगंतुक रूप
कविता
प्रेम का सबसे एकान्तिक दुःख है
जिस तरह दूरियां
यादों का पंचनामा हैं
लो अलगाव का एक और पक्षी
पंख फड़फड़ाते हुए मेरे आंगन में उतर आया हैं
सारे काम काज को छोड़ मैं
अपनी बालकनी में निकल आई हूँ उसे दाने डालने
सुनती आई हूँ
प्रेम कहीं जाता नहीं
रूप बदल बदल कर
फिर-फिर जीवन में
आ धमकता है
कहीं आँगन में उतरा पक्षी भी प्रेम का
प्रेम के गुलाबी गालों पर काला तिल
कच्चे आँगन में रखे हारे में
रधता है घरेलू पशुओं के लिए चाट
खबल दबल
ठीक उसी तरह दिन रात
सपनों की गुनगुनी आंच तले
आत्मा की हांड़ी में
पकने छोड़ दिया हैं अपने इस प्रेम को
प्रेम किया है
तो लाजिम है कि इसे दुनिया से
छुपा कर किया गया है
इस पर दुनिया की दुखती नजरें
सबसे पहले लगेंगी
जब भी मैं प्रेम को साथ में ले कर निकलती हूँ
तब प्रेम के गुलाबी गालों पर काला तिल लगा कर ही
दुनियादारी का अहाते में पहुँचने वाले
फाटक की सांकल खोलती हूँ
अब क्या हो
एक तिलस्मी पल की नोक पर
मेरा आमना-सामना प्रेम से हुआ
उजला - सफेद - मृदुल प्रेम - चिरपरिचित प्रेम
मेरी नजर पड़ते ही
वह शरमा दिया
ओह
मैं प्रेम की रुपहली आँखों में
रुस्तमी ख्वाबों के बेल-बूटे टांक देना चाहती हूँ
पर प्रेम ने अपनी आंखें अधखुली रख छोड़ी हैं
मैं उसे आवाज देना चाहती हूँ तो वह
गली के उस पार जा चुका होता हैं
मैं उसको छूना चाहती हूँ
तो वह हवा होता है
उसे
अपने भीतर समेटना चाहती हूँ
तो वह शिला होता है
अब
मैं अपनी भाषा में गुम
और प्रेम अपनी लिपि में लोप
उनका सफर
रोटी का स्याह पक्ष ही
देखा है उन्होंने
जला हुआ,
महकविहीन
जंगल से आग तक
प्रेम से प्यास तक का
विचलित कर देने का सफर रहा है उनका
सब जानते हैं
उनके समानांतर एक भूख -पीढ़ी चल रही है
कड़ी धूप में नंगे पाँव
लम्बे सफर के बाद
बची-खुची हिम्मत के साथ
वे हादसों की तह में उतरते हैं
इस जीवन के कदापि विरुद्ध नहीं
फिर भी वे
जिसने उन्हें हर कदम पर छकाया है
ना जाने कब वे इतिहास में अपना कदम रखते हैं
कब वर्तमान में अपनी सिकुड़ी हुई जगह बनाते हैं
और कब अनिश्चित भविष्य में भी अपने होने का प्रबल दावा रखते हैं
इंसानियत की पहल पर ऊँचा मचान तैयार करते हुए
लगातार धरती पर नजर टिकाए हुए
दुनियावी शऊर से कोसों दूरउनका सफर आज भी जारी है
मेरी उपस्थिति, अनुपस्थिति
उस एकमात्र, अछूते दृश्य में
मेरी उपस्थिति
कभी सम्पूर्णता से
दर्ज नहीं हो सकी।
कभी आधी,
कभी पौनी,
कभी
केवल स्पर्श भर।
तब मैं
कैसे बता सकती हूँ
उस दृश्य का
भौगोलिक,
ऐतिहासिक,
समकालीन,
आधारभूत सत्य।
उस दृश्य के आवर्त में
सिमटी हवाओं के संत्रास से
भला कैसे परिचित हो सकती हूँ मैं।
जिस दृश्य में मैं कैद हूँ,
वहीं अपने आप को
यत्नपूर्वक समेटे हुए
कई शाश्वत बेचैनियों से गुजरते हुए
जीवन की बेहतर मीमांसा करते हुए
बादलों से घिरी साँझ के बेलौस समय में,
देख रही हूं
कई दृश्यों का घटना और बढ़ना।
युग दास्ताँ
जगह छोड़ो,
परे हटो,
यह मैदान तुरंत प्रभाव से
खाली करो
यहाँ आयेंगे,
सबसे मशहूर नायक,
धुरंधर खिलाड़ी,
सिने तारिकाएँ,
विश्व सुंदरियाँ,
सबसे धनी व्यक्ति,
सबसे सुगठित पहलवान,
यहाँ लगातार
कई दिनों,
कई सालों,
कई शताब्दियों तक
उत्सव चलेंगे,
तेज धुनें बजेंगी,
प्रतियोगिताएँ होंगी,
हमें इनमें
शामिल होना ही होगा
चाहे अनचाहे
हम बस इतना की बच पाएंगे कि
आने वाली पीढ़ियों को
हम अपनी लाचारी की दास्तान सुना पायें
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