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कविता

भूख

संध्या रियाज़


भूख क्यों लगती है आदमी को भी
या भूख ही क्यों लगती है आदमी को
बहुत सारी अपनी परायी
आकांक्षाएँ-इच्छाएँ
और एहसास खाकर भी
बराबर पीड़ित प्रताड़ित करती रहती
उफनती रहती है हरदम

आदमी कोल्हू के बैल सा
बहुत सी अच्छाइयों-सच्चाइयों से
आँखें मूँदता
चाही-अनचाही बुराइयों में सनता
पट्टी बाँधे आँखों पर
बिलकुल कोल्हू के बैल सा
घूमता रहता है
इस कायाकल्प मायायुक्त कोठरी में
जीवन के खूँटे से बँधा
चलता रहता है चलता रहता है
पर भूख तब भी नहीं मिटती
भूख को नहीं खत्म कर पाता आदमी
पर एक दिन भूख
खा लेती है आदमी को
विलीन होने के बाद भी
आत्मा भूखी रहती है
हाय! क्या यही नियति है
भूख!
क्यों लगती है आदमी को भी
या भूख ही क्यों लगती है आदमी को


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