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कविता

बहुत पुरानी बात है

संध्या रियाज़


बहुत पुरानी बात है
जब आता था हँसाना मुझे हर बात पर
और हर चीज लगती थी सुंदर
इधर-उधर घूमते बादलों के झुंड में
मिल जाते हैं कई आकार, कई सूरतें
दौड़ भागती सोती जागती

सालों पुरानी बात हो गई
जब रूठना अच्छा लगता था
और माफी मँगवाने के बाद मान जाना भी
छोटे से मेले में जाकर झूला झूलना
फिर मिट्टी के सेठ-सेठानी घर लाना
कितना सुखद होता था
हफ्तों पहले और महीनों बाद तक
मन खिला-खिला रहता था

रात के अँधेरे में आँगन में सो कर
ऊपर बिखरे तारों को गिनना
और बार-बार गिनना अच्छा लगता था
अब तो ऐसा नहीं है
समय बदल गया, उम्र भी बढ़ गई
और
बदल गया समय के साथ-साथ
बादलों का घूमना, मेलों का रंग
और अँधेरे में तारों का चमकना
सब कुछ बदल गया धीरे-धीरे
अब नन्हीं किलकारियाँ बादल नहीं तकतीं
ना रूठ कर मनाए जाने का इंतजार करती हैं
ना मेले से लाती हैं मिट्टी के खिलौने
और न फुर्सत है उन्हें तारे गिनने की
सब कुछ पुरान हो गया है अब तो
एक पिछली रात का सपना सा
जिसके सच होने की चाह होती है
पर सपने कहाँ होते हैं सच
बहुत पुरानी बात हो गई अब तो
जब सपने सच होते थे।


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