आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी (6 मई 1864 - 21 दिसंबर 1938) जितने बड़े कवि,
निबंधकार, समीक्षक और अनुवादक थे, उतने ही श्रेष्ठ संपादक भी सिद्ध हुए।
इसीलिए उस युग को द्विवेदी युग के नाम से जाना जाता है। द्विवेदी जी ने सचित्र
मासिक पत्रिका 'सरस्वती' को अपने समय की सर्वश्रेष्ठ पत्रिका बनाने में सफलता
पाई थी। 'सरस्वती' 1900 से ही इलाहाबाद के इंडियन प्रेस से निकल रही थी। आरंभ
में संपादन का भार एक समिति को सौंपा गया था जिसमें पाँच लोग थे। वे थे बाबू
श्यामसुंदर दास, बाबू राधाकृष्ण दास, बाबू कार्तिक प्रसाद, बाबू जगन्नाथ दास
और किशोरीलाल गोस्वामी। प्रवेशांक के मुखपृष्ठ पर पाँच चित्र थे - सबसे ऊपर
वीणावादिनी सरस्वती का चित्र था। ऊपर बाईं ओर सूरदास और दाईं ओर तुलसीदास तथा
नीचे बाईं ओर राजा शिव प्रसाद सितारेहिंद और बाबू हरिश्चंद्र के चित्र थे। एक
साल बीतते न बीतते यह स्पष्ट हो गया कि संपादक मंडल से काम नहीं चलेगा तो
जनवरी 1901 से बाबू श्यामसुंदर दास उसके संपादक हो गए। 1902 के आखिर में बाबू
श्यामसुंदर दास ने आगे से संपादन करने में असमर्थता जताई और उन्होंने सरस्वती
प्रेस के मालिक चिंतामणि घोष से नए संपादक के रूप में महावीर प्रसाद द्विवेदी
का नाम सुझाया। चिंतामणि घोष द्विवेदी जी के महत्व से परिचित थे। उन्होंने
द्विवेदी जी को आमंत्रित किया और द्विवेदी जी ने रेलवे की पौने दो सौ रुपए की
स्थापित नौकरी छोड़कर इक्कीस रुपए मासिक के वेतन पर 'सरस्वती' के संपादन का
दायित्व स्वीकार किया। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 1903 के जनवरी महीने में
'सरस्वती' का संपादक बनने के साथ ही उसे ज्ञान के सभी अनुशासनों का खुला मंच
तो बनाया ही, यह भी सुनिश्चित किया कि प्रकाशन के पूर्व हर रचना की भाषा
व्याकरण की दृष्टि से शास्त्रसम्मत हो। उन्होंने भरसक कोशिश की कि पूरी
पत्रिका एक ही वर्तनी में निकले। द्विवेदी जी के लिए भाषा-परिष्कार कितनी बड़ी
प्राथमिकता थी, इसका अंदाजा 'भाषा और व्याकरण' शीर्षक उनके लेख से लगाया जा
सकता है।
अनस्थिरता का ऐतिहासिक विवाद :
द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' के नवंबर 1905 के अंक में 'भाषा और व्याकरण' शीर्षक
लिखकर अपनी भाषा चिंता जताई थी। उस लेख में द्विवेदी जी ने भारतेंदु
हरिश्चंद्र तक की व्याकरण की गलतियों पर टिप्पणी की है। द्विवेदी जी ने बाबू
हरिश्चंद्र के जिस अवतरण का उदाहरण दिया है, वह है - "मेरी बनाई वा अनुवादित
वा संग्रह की हुई पुस्तकों को श्रीबाबू रामदीन सिंह खड्गविलास के स्वामी का
कुल अधिकार है और किसी को अधिकार नहीं कि छापै।" भारतेंदु हरिश्चंद्र के इस
वाक्य पर द्विवेदी जी की टिप्पणी है - "इस वाक्य में पुस्तकों के आगे कर्म का
चिह्न को विचारणीय है। पुस्तकों को ...स्वामी का कुल अधिकार है, यह वाक्य
व्याकरण सिद्ध नहीं। यदि को के आगे छापने का ये दो शब्द आ जाते तो वाक्य की
शिथिलता जाती रहती। फिर छापै के पहले एक सर्वनाम भी अपेक्षित है।"1
महावीर प्रसाद द्विवेदी इसी लेख में राजा शिव प्रसाद, गदाधर सिंह, काशीनाथ
खत्री, मधुसूदन गोस्वामी और बालकृष्ण भट्ट के अवतरणों की गलतियाँ भी उद्धृत
करते हुए उन पर टिप्पणी करते हैं। 'हिंदी प्रदीप' के संपादक बालकृष्ण भट्ट के
जिस अवतरण को द्विवेदी जी ने उद्धृत किया है, वह है - "जब तुम कुछ कर ही नहीं
सकते तब मूंड़ मारकर घर क्यों नहीं बैठे रहते?" इस पर द्विवेदी जी टिप्पणी
करते हैं - "विचार्य्य शब्दों के प्रयोग में विधि निषेध का कुछ भी बंधन नहीं
देख पड़ता। यहाँ तक कि जो के आगे कोई-कोई तब का भी प्रयोग करते हैं। भाषा की
यह अनस्थिरता बहुत ही हानिकारिणी है।"2 द्विवेदी जी के इस एक शब्द
अनस्थिरता को लेकर लंबा विवाद चला। 'भारतमित्र' के तत्कालीन संपादक बालमुकुंद
गुप्त ने आत्माराम के नाम से दस लेख लिखकर द्विवेदी जी की तीखी आलोचना की। हर
लेख के अंत में गुप्त जी अनस्थिरता के सवाल को खड़ा कर देते थे। पहली ही
टिप्पणी के आखिर में में बालमुकुंद गुप्त ने चुनौती दी कि द्विवेदी जी
अनस्थिरता को व्याकरण से सिद्ध करें।3 दूसरी टिप्पणी के आखिर में
गुप्त जी ने लिखा - "अनस्थिरता का क्या अर्थ है? स्थिरता और अस्थिरता के बीच
में यह कहाँ से पैदा हो गई?"4 तीसरी टिप्पणी के आखिर में गुप्त ने
लिखा कि "आशा होती है कि अगली हाजिरी तक द्विवेदी जी अनस्थिरता को व्याकरण से
सिद्ध कर डालेंगे। दो सप्ताह में उन्होंने व्याकरण भली-भाँति उलट-पुलट लिया
होगा।"5 चौथी टिप्पणी के आखिर में गुप्त जी ने लिखा - "तीन सप्ताह
हो गए अनस्थिरता का उद्धार आपने न किया। इसे जरा एक बार अपने व्याकरण की पोशाक
पिन्हाकर सबके सामने लाइए।"6 पाँचवीं टिप्पणी के आखिर में गुप्त जी
ने लिखा - "कहिए अनस्थिरता की क्या दशा है? वह व्याकरण से सिद्ध हुई कि नहीं?" 7 छठी टिप्पणी में गुप्त जी ने लिखा - "आशा है कि आपने अपनी
अनस्थिरता को व्याकरण का लहंगा पिन्हाया होगा क्योंकि बहुत दिन हो गए।" 8 सातवीं टिप्पणी में गुप्त जी ने लिखा - "अनस्थिरता का द्विवेदी
जी के व्याकरण से क्या फैसला हुआ?"9 आठवीं टिप्पणी में गुप्त जी ने
लिखा - "अनस्थिरता का फैसला झटपट हो जाना चाहिए क्योंकि वही सारी लिखा-पढ़ी की
जड़ है।"10 नौवीं टिप्पणी में गुप्त जी ने लिखा - "अब तो आप
अनस्थिरता का कोई ठौर ठिकाना कर दें।"11 एक दूसरी टिप्पणी में
गुप्त जी लिखते हैं कि द्विवेदी जी पहले सोचते रहे कि अनस्थिरता को हिंदी से
सिद्ध किया जाए या संस्कृत से। कलकत्ते के टेंटेंराम (गोविंदनारायण मिश्र) ने
जब बताया कि अनखानी, अनहोनी की तरह अनस्थिरता हिंदी से सिद्ध हो सकती है, तब
द्विवेदी जी को भी यह कहने का साहस हुआ कि वह हिंदी से ही सिद्ध होती है। 12 गुप्त जी के दसों लेखों के उत्तर भी द्विवेदी जी ने 'सरस्वती'
के फरवरी 1906 के अंक में दिए। द्विवेदी जी ने लिखा - "भाषा की परिवर्तनशीलता
के विषय में अस्थिरता की जगह अनस्थिरता शब्द लिखना अनुचित नहीं। अस्थिरता शब्द
केवल स्थिरता के प्रतिकूल अर्थ का बोधक है। जो स्थिर नहीं है, वह अस्थिर है।
परंतु जिसमें अतिशय अस्थिरता है, जिसमें अस्थिरता की मात्रा अत्यंत अधिक है,
उसके लिए अनस्थिरता का प्रयोग हम अच्छा समझते हैं।"13 द्विवेदी जी
के जवाब के बाद भी गुप्त जी संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने 'व्याकरण विचार' और
'हिंदी में आलोचना' शार्षक लेख लिखकर द्विवेदी जी की फिर आलोचना की। तब
गोविंदनारायण मिश्र सामने आए और उन्होंने 'हिंदी बंगवासी' में आत्माराम की टें
टें शीर्षक से लेख लिखकर गुप्त जी की आलोचना की। डेढ़ साल तक चले उस ऐतिहासिक
विवाद ने एक काम यह किया कि व्याकरणसम्मत भाषा और वर्तनी की एकरूपता के प्रति
तब के लेखक व संपादक सजग-सचेत रहने लगे।
साहित्य के लिए रचनात्मक संघर्ष :
भाषा-परिमार्जन के साथ ही सर्जनात्मक साहित्य की हर विधा से लेकर साहित्य
समालोचना के लिए द्विवेदी जी के संपादन में 'सरस्वती' ने युगांतकारी भूमिका
निभाई। उदाहरण के लिए सिर्फ कहानी विधा को लें तो रामचंद्र शुक्ल की कहानी
'ग्यारह वर्ष का समय' 1903 में द्विवेदी जी के संपादन में 'सरस्वती' में ही
छपी। बंग महिला (राजेंद्रबाला घोष) की कहानी 'कुंभ की छोटी बहू' 'सरस्वती' के
सितंबर 1906 के अंक में छपी। 'सरस्वती' में 1909 में वृंदावनलाल वर्मा की
कहानी 'राखी बंद भाई' और 1915 में प्रेमचंद की पहली हिंदी कहानी 'सौत' और 1916
में उन्हीं की बहुचर्चित कहानी 'पंच परमेश्वर' छपी। 1915 में चंद्रधर शर्मा
गुलेरी की कहानी 'उसने कहा था' 'सरस्वती' में छपी। किशोरीलाल गोस्वामी की
कहानी 'इंदुमती' और 'गुलबहार' तथा भगवान दास की कहानी 'प्लेग की चुड़ैल' पहले
ही 'सरस्वती' में छप चुकी थीं।
'सरस्वती' की संपादकीय टिप्पणियाँ और समालोचनाएँ महावीर प्रसाद द्विवेदी स्वयं
लिखते थे और उनकी समालोचना की साख इतनी थी कि जिस भी किताब की वे प्रशंसा कर
देते थे, उसकी प्रतियाँ देखते-देखते बिक जाती थीं।
द्विवेदी जी कला व साहित्य को अखिल भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखते थे। वे
मराठी, गुजराती और बांग्ला की श्रेष्ठ पुस्तकों की समीक्षाएँ भी पूरे सम्मान
से प्रकाशित करते थे। द्विवेदी जी ने बांग्ला कवि माइकल मधुसूदन दत्त के अवदान
पर लंबा लेख 'सरस्वती' में छापा था। द्विवेदी जी ने 'सरस्वती' के जनवरी 1904
के अंक में मराठी लेखक दत्तात्रेय की रानी लक्ष्मीबाई पर लिखी पुस्तक की
समीक्षा करते हुए लिखा था -जिनको मराठी में अभ्यास नहीं है, उनके, हम, अकेली
एक यह पुस्तक पढ़ने की सिफारिश करते हैं। द्विवेदी जी ने दिखाया था कि भारतीय
भाषाओं के साहित्य में सहकार संबंध कैसे बन सकता है। द्विवेदी जी मराठी,
गुजराती और बांग्ला के भी ज्ञाता थे। वे हिंदी, उर्दू, संस्कृत, मराठी और
अंग्रेजी के भी जानकार थे और इन सातों भाषाओं के साहित्य से वे स्वयं को
अद्यतन रहते थे और उन भाषाओं के साहित्य की समालोचना कर सरस्वती के पाठकों को
भी समृद्ध करते थे। द्विवेदी जी की संपादन कला की विशेषता थी कि उन्होंने
साहित्य को कलाओं से जोड़ा। द्विवेदी जी ने संगीत कला पर स्वयं कई लेख लिखे।
'सरस्वती' के अक्टूबर 1907 के अंक में 'गायनाचार्य विष्णु दिगंबर पलुस्कर' और
'सरस्वती' के नवंबर 1907 के अंक में 'संगीत के स्वर' शीर्षक सुचिंतित लेख
लिखे। और साहित्य की विधाओं - कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक, निबंध, जीवनी,
आलोचना के समांतर समाज शास्त्र, अर्थशास्त्र, राजनीति शास्त्र, नागरिक
शास्त्र, इतिहास और आधुनिक ज्ञान-विज्ञान को भी पत्रिका में महत्व दिया और इस
तरह उसका फलक विस्तृत कर दिया। अनेक रचनाकारों को सबसे पहले द्विवेदी जी ने ही
अवसर दिया और जिनकी कविता या कहानी या लेख 'सरस्वती' में छपते थे, वे भी चर्चा
में आ जाते थे। 'सरस्वती' के रचनाकारों में श्यामसुंदर दास, कार्तिक प्रसाद
खत्री, राधा कृष्ण दास, जगन्नाथ दास रत्नाकर, किशोरीलाल गोस्वामी, संत निहाल
सिंह, माधव राव सप्रे, राम नरेश त्रिपाठी, अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध,
मैथिली शरण गुप्त, गया प्रसाद शुक्ल स्नेही, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत,
सूर्यकांत त्रिपाठी निराला,, महादेवी वर्मा, राय कृष्ण दास, माखनलाल
चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, रामधारी सिंह दिनकर जैसे साहित्यकार शामिल
थे।
साहित्येतर विषयों के प्रति भी आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी का बराबर रुझान
रहा। द्विवेदी जी के अध्ययन-अनुशीलन का एक प्रमुख विषय अर्थशास्त्र था।
अर्थशास्त्र पर द्विवेदी जी का पहला लेख फरवरी 1907 की 'सरस्वती' में छपा था।
द्विवेदी जी राजनीतिक अर्थशास्त्र को संपत्ति शास्त्र कहते थे। उनकी पुस्तक
'संपत्ति शास्त्र' 1908 में आई थी। संपत्ति शास्त्र दरअसल हिंदी में
अर्थशास्त्र पर कदाचित पहली पुस्तक है जिसे लिखने के लिए द्विवेदी जी ने
अर्थशास्त्र और राजनीतिक अर्थशास्त्र पर अंग्रेजी में लिखी नौ और बांग्ला,
उर्दू, मराठी व गुजराती में लिखित दो-दो पुस्तकों की यानी कुल सत्रह पुस्तकों
की सहायता ली थी। इसका विवरण द्विवेदी जी ने संपत्तिशास्त्र की भूमिका में
दिया है। द्विवेदी जी ने अर्थशास्त्र संबंधी सिर्फ प्रकाशित पुस्तकों की ही
मदद नहीं ली, अपितु अप्रकाशित पुस्तक की भी सहायता ली। वह अप्रकाशित पुस्तक
माधवराव सप्रे की थी। संपत्तिशास्त्र की भूमिका में द्विवेदी जी ने
अर्थशास्त्र संबंधी माधवराव सप्रे के प्रयास का उल्लेख पूरे सम्मान के साथ
किया है। सप्रे जी ने अर्थशास्त्र पर एक किताब तैयार तो की थी किंतु उसे लिखने
के उपरांत वे संतुष्ट नहीं हुए, फलतः उसे प्रकाशित नहीं कराया। सप्रे जी ने वह
हस्तलिखित किताब द्विवेदी जी को भेज दी। संपत्तिशास्त्र की भूमिका में
द्विवेदी जी ने स्वीकार किया है कि सप्रे जी की हस्तलिखित पुस्तक से उन्होंने
बहुत लाभ उठाया। भूमिका का आरंभ द्विवेदी जी इस तरह करते हैं, "हिंदुस्तान
संपत्तिहीन देश है। यहाँ संपत्ति की बहुत कमी है। जिधर आप देखेंगे उधर ही आँख
को दरिद्र देवता का अभिनय किसी न किसी रूप में अवश्य ही दिख पड़ेगा।" कहने की
जरूरत नहीं कि भारत की वह संपत्तिहीन दशा ब्रिटिश साम्राज्यवाद की संसाधनों की
लूट का नतीजा थी। आज 2014 में मानो उन्हीं कठिन आर्थिक हालातों की पुनरावृत्ति
हो रही है। अंग्रेज भारत में व्यापार करने ही आए थे और बाद में वे इसके
भाग्यविधाता बन गए। 1991 से ही भारत में उदारीकरण की आँधी चल रही है और विदेशी
कंपनियाँ भारत में आ रही हैं और यहाँ के संसाधनों का दोहन कर रही हैं। संपत्ति
शास्त्र में द्विवेदी जी ने लिखा है, "पाश्चात्य संपत्ति शास्त्र के कितने ही
नियम ऐसे हैं जिनका अनुसरण करने से पश्चिमी देशों को तो लाभ है, पर हिंदुस्तान
की सर्वथा हानि है।" कहने की जरूरत नहीं कि द्विवेदी जी अपने समय से बहुत आगे
थे। उन्होंने 1908 में जो चिंताएँ जाहिर की थीं, उसमें आज समूचे गरीब भारत को
शरीक होना पड़ रहा है। ये चिंताएँ प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश की अनुमति दिए
जाने के बाद पैदा हुईं। दावा किया जा रहा था कि एफडीआई के दरवाजे खोलने से
मंदी से उबरने में मदद मिलेगी। वह दावा खोखला साबित हो चुका है क्योंकि भारत
की आर्थिक विकास में गिरावट जारी है। यह दावा भी किया गया था कि नए आर्थिक
सुधारों से देश की तरक्की होगी। 1991 में नए आर्थिक सुधार लागू हुए। तब से
निश्चित ही तरक्की हुई है लेकिन उसका लाभ देश-विदेश की चुनिंदा कंपनियों,
निवेशकों, अमीरों, नेताओं और दलालों को मिला है। यानी देश के तीन से पाँच
प्रतिशत लोगों की तरक्की हुई है और भारत में डालर अरबपतियों की संख्या 55 तक
पहुँच गई। लेकिन देश की जो 95 प्रतिशत आबादी है, उसकी स्थिति और बिगड़ी है।
आर्थिक सुधारों की प्रक्रिया तेज होने के बाद इस देश में दो देश बने हैं। एक
अत्यंत अमीरों का देश, दूसरा अत्यंत गरीबों का देश। एक तरफ चमक-दमकवाली शापिंग
माल का देश दिखता है तो उसी के समानांतर देश के कई हिस्से किसानों के लिए
सुसाइड जोन बने हुए हैं। नए आर्थिक सुधारों के कालखंड में यानी 1995 से 2010
के बीच भारत में ढाई लाख किसानों ने आत्महत्या की। किसान को उसके हाल पर छोड़
दिया गया। उसे खाद, बिजली, बीज आदि की बढ़ी कीमत अदा करनी पड़ी और उनके
उत्पादन का उचित मूल्य नहीं मिला, उल्टे सस्ते विदेशी कृषि उत्पादों से
प्रतिस्पर्धा करनी पड़ी। देश की बहुसंख्यक आबादी को आर्थिक सुधारों का लाभ
नहीं मिलने के बावजूद उस प्रक्रिया को तेज किया गया है। प्रत्यक्ष विदेशी
पूँजी निवेश की सीमा बढ़ाते समय उसके दुष्परिणामों पर गौर करने का जहमत क्यों
नहीं उठाया गया? बहुब्रांड खुदरा व्यवसाय में प्रत्यक्ष विदेशी पूँजी निवेश की
जो छूट दी गई है, उससे लाभ की तुलना में नुकसान ज्यादा हुआ है। जितना निवेश
नहीं हुआ, उससे ज्यादा कई करोड़ नागरिक प्रभावित हुए हैं। भारतवर्ष में कृषि
के बाद सबसे ज्यादा लोग खुदरा व्यवसाय से जुड़े हैं और इस क्षेत्र में
प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति देकर सरकार साधारण युवक-युवतियों को उनके
खुदरा व्यवसाय से वंचित कर बेकारी की ओर पहले ही ढकेल चुकी है। खुदरा व्यवसाय
में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश एक अंतरराष्ट्रीय परिकल्पना है जो दरअसल कार्पोरेट
श्रेणी का हरित लूट कार्यक्रम है। अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों का मकसद भारत के
कृषि क्षेत्र का उपयोग अपने सोर्सिंग हब के रूप में करना है। देश की अर्थ
व्यवस्था पर जब लगातार बेतरह प्रतिकूल प्रभाव पड़ना जारी है तो इन सुधारों को
आर्थिक विकास कहा जाए या आर्थिक बिगाड़? विशेष आर्थिक क्षेत्र की आड़ में
बहुराष्ट्रीय कार्पोरेट कंपनियों द्वारा भारत के संसाधनों का दोहन करने,
जल-जंगल-जमीन को लूटने का जो दौर चल रहा है, उसने जंगल के साथ अन्योन्याश्रित
संबंध बनाकर जीनेवाली एक समूची संस्कृति को विनाश के कगार पर ला खड़ा किया है।
बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने की आड़ में हो रहे
प्रकृति के अंधाधुंध दोहन के सांघातिक नतीजे मनुष्य प्रजाति को भुगतने पड़ रहे
हैं और आगे भी भुगतने होंगे। गांधी ने कहा था कि धरती पर इतना संसाधन है कि
उससे मनुष्य की जरूरत की पूर्ति हो सकती है किंतु लालच की नहीं। इसलिए प्रकृति
सम्मत वैकल्पिक रास्तों पर चलना अनिवार्य है। प्रकृति व मनुष्य में संतुलन
नहीं होने के कारण ही आज 'ग्लोबल वार्मिंग' का संकट हमारे सामने मुँह बाए खड़ा
है। यह भी कहा जा रहा है कि अगला विश्वयुद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा। यदि समय
रहते दुनिया इस पूँजीवादी विनाशकारी राह को नहीं छोड़ती तो धरती से जीवों के
गायब होने की आशंका को कम नहीं किया जा सकेगा। प्रकृति के सान्निध्य और
साहचर्य में ही मनुष्य और समाज का विकास संभव है। अन्य जीवों के साथ मनुष्य इस
धरती पर कैसे लंबे समय तक बना रहे, उन्हीं वैकल्पिक उपायों का संधान हम
द्विवेदी जी की किताब संपत्ति शास्त्र में कर सकते हैं। यह किताब मनुष्य व
समाज के विकास की राह में खड़े अवरोधों को हटाने में आज भी मददगार है। मनुष्य,
समाज और विश्व को बेहतर बनाने के लिए नई सैंद्धांतिकी गढ़ने के सूत्र संपत्ति
शास्त्र के पूर्वार्द्ध तथा उत्तरार्द्ध नामक दोनों खंडों में बिखरे पड़े हैं।
दोनों खंडों को कई उप खंडों में विभक्त किया गया है। पूर्वार्द्ध के सात उपखंड
27 परिच्छेदों में और उत्तरार्द्ध के पाँच उपखंड बीस परिच्छेदों में विभक्त
हैं। इन परिच्छेदों में द्विवेदी जी संपत्ति की उत्पत्ति के कारकों में जमीन,
श्रम और पूँजी पर विचार करते हैं। वे मानते हैं कि प्रकृति प्रदत्त कच्ची
सामग्री जब तक श्रम से नहीं जुड़ती, तब तक संपत्ति के रूप में नहीं बदलती।
मार्क्सवाद-लेनिनवाद का राजनीतिक अर्थशास्त्र भी यही बात कहता है। वह बताता है
कि आर्थिक तरक्की के बारे में जो घोषणाएँ की जाती हैं, उसके पीछे की राजनीति
को समझना होगा।
महावीर प्रसाद द्विवेदी ने दिसंबर 1920 में 'सरस्वती' से विदा ली। उनका अंतिम
संपादकीय 'संपादक की विदाई' शीर्षक से जनवरी 1921 की 'सरस्वती' में छपा। उसमें
द्विवेदी जी ने लिखा, "सरस्वती को निकलते पूरे 21 वर्ष हो चुके। जिस समय उसका
आविर्भाव हुआ था, उस समय हिंदी भाषा और हिंदी साहित्य की क्या दशा थी, यह बात
लोगों से छिपी नहीं है। जिन्होंने उस समय को भी देखा है और जो इस समय को भी
देख रहे हैं। 'सरस्वती' के आकार-प्रकार, उसके ढंग और लेखन शैली आदि को लोगों
ने बहुत पसंद किया - अच्छी मासिक पुस्तक में जो गुण होने चाहिए, उसका शतांश भी
मुझमें नहीं...।"
कहने की जरूरत नहीं कि अच्छी मासिक पुस्तक में जो गुण होने चाहिए, वे सभी
द्विवेदी जी में थे। सही तो यह है कि जब तक द्विवेदी जी के संपादन में निकली
'सरस्वती' को धुरी मानकर नहीं चला जाएगा तब तक बीसवीं शताब्दी के पहले और
दूसरे दशक के हिंदी साहित्य के इतिहास को नहीं समझा जा सकेगा। जाहिर है कि तब
'सरस्वती' की सहयात्री पत्रिका 'मर्यादा' के योगदान को भी ध्यान में रखना
होगा। 'सरस्वती' 1975 तक निकलती रही किंतु द्विवेदी जी के संपादन के कालखंड
यानी बीसवीं शताब्दी के पहले व दूसरे दशक की 'सरस्वती' का योगदान सबसे ऊपर है।
इसी तरह बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक के हिंदी साहित्य को समझने के लिए
'मतवाला', 'माधुरी', 'सुधा' और 'विशाल भारत' को धुरी बनाना होगा और चौथे दशक
के 'हंस' को, पाँचवें दशक के 'प्रतीक' और 'ज्ञानोदय' को, छठे-सातवें दशक की
'कल्पना' को धुरी बनाना होगा। 'कहानी', 'नई कहानी' और उसके परवर्ती समय में
'सारिका', 'कथा', 'समालोचना' के योगदान को भी ध्यान में रखना होगा। आठवें दशक
में 'पहल', 'आजकल', नवें- अंतिम दशक में 'हंस' (राजेंद्र यादव के संपादन
वाली), 'कथादेश, 'वर्तमान साहित्य', 'वसुधा', 'साक्षात्कार' और 'अक्षरा' के
रचनात्मक संघर्ष को ध्यान में रखना होगा। आज भी 'पुनर्नवा', 'अक्षर पर्व'
'आलोचना', 'तद्भव', 'बहुवचन', 'प्रगतिशील वसुधा', पुस्तक वार्ता, वागर्थ,
वर्तमान साहित्य, 'परिकथा', 'कथा', 'कथाक्रम' और 'पाखी' जैसी पत्रिकाएँ और
समकालीन भारतीय साहित्य, इंद्रप्रस्थ भारती, आजकल जैसी सरकारी पत्रिकाएँ
भारतेंदु तथा द्विवेदी युग की ही परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं।
संदर्भ
1.
हिंदी की अनस्थिरता - एक ऐतिहासिक बहस : महावीर प्रसाद द्विवेदी, बालमुकुंद
गुप्त और गोविंद नारायण मिश्र, संपादक - भारत यायावर, वाणी प्रकाशन, दिल्ली,
संस्करण-1993, पृष्ठ-15
2.
वही, पृष्ठ-22
3.
वही, पृष्ठ-62
4.
वही, पृष्ठ-66
5.
वही, पृष्ठ-69
6.
वही, पृष्ठ-72
7.
वही, पृष्ठ-75-76
8.
वही पृष्ठ-78
9.
वही पृष्ठ-81
10.
वही पृष्ठ-82
11.
वही पृष्ठ-86
12.
वही पृष्ठ-91
13.
वही पृष्ठ-29-30