हरिवंश को राज्यसभा के उपसभापति की जवाबदारी मिलने पर हिंदी के वरिष्ठ
संपादकों की जो टिप्पणियाँ आई हैं, वे गौरतलब हैं। हिंदी पत्रकारिता के इतिहास
के विशेषज्ञ विजय दत्त श्रीधर ने आंचलिक पत्रकार के सितंबर अंक में लिखा है कि
हरिवंश साफ-सुथरी पत्रकारिता के प्रतीक हैं। श्रीधर जी ने हरिवंश को लोकनायक
जयप्रकाश नारायण और पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर का वैचारिक प्रतिनिधि करार
दिया है। वहीं, दैनिक भास्कर के समूह संपादक प्रकाश दुबे ने अखबार के नागपुर
संस्करण के 12 अगस्त 2018 के अंक में प्रकाशित भास्करवारी स्तंभ में लिखा है,
"डा. राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण के विचारों पर हरिवंश चलते हैं। सदन का
कामकाज सँभालते ही हरिवंश ने प्रमाणित किया कि विचारों से वे समझौता नहीं कर
सकते। पिछड़े वर्ग से संबंधित अशासकीय विधेयक को प्रस्तुत करनेवाले सदस्य की
मतदान की माँग उपसभापति ने मंजूर कर ली। विपक्ष को तसल्ली हुई कि वाकई
निष्पक्ष उपसभापति मिला।" इन दो टिप्पणियों से इस उम्मीद को बल मिलता है कि
देश अप्रैल 2020 तक उच्च सदन के उपसभापति के रूप में हरिवंश की निष्पक्ष
भूमिका के कई दृष्टांत देखेगा। सांसद के रूप में हरिवंश का कार्यकाल अप्रैल
2020 तक है। अप्रैल 2014 में राज्यसभा के लिए बिहार से चुने जाने के बाद जब
प्रधानमंत्री आदर्श ग्राम योजना के तहत एक गाँव को गोद लेना था तब हरिवंश ने
राजनीतिक रूप से महत्वहीन रोहतास जिले के बहुआरा गाँव को चुनकर जता दिया कि
देश को देखने की उनके पास एक भिन्न दृष्टि है। उन्होंने उस गाँव के अलावा अपनी
सांसद निधि का बड़ा हिस्सा बिहार के आर्यभट्ट ज्ञान विश्वविद्यालय के नदियों
पर अध्ययन करने वाले केंद्र और आईआईटी पटना में लुप्त होती भाषाओं पर शोध करने
वाले केंद्र को विकसित करने में खर्च किया। देश को देखने की यह दृष्टि हरिवंश
को लोहिया, जे.पी. और चंद्रशेखर के विचारों से मिली। हरिवंश का पूरा नाम
हरिवंश नारायण सिंह है किंतु वे अपनी जाति का उल्लेख नहीं करते। प्रकाश दुबे
के शब्दों में जाति का केंचुल वे छोड़ चुके हैं। हरिवंश जब तक प्रभात खबर के
प्रधान संपादक थे, लोहिया, जेपी और चंद्रशेखर के जन्मदिन पर हर साल विशेष
परिशिष्ट निकालते रहे। वह क्रम उनके संपादन काल में कभी न टूटा। हरिवंश की
पत्रकारिता और लेखन पर भी इन नायकों के विचारों का प्रभाव पड़ा। हरिवंश ने
चंद्रशेखर की सात किताबों का संपादन किया। हरिवंश 1989 से 2014 तक 'प्रभात
खबर' के प्रधान संपादक थे। झारखंड पर उन्होंने प्रभात खबर के कई विशेषांक
निकाले। बाद में उनका पुस्तकाकार प्रकाशन भी हुआ। 1990-91 के कुछ महीनों तक
हरिवंश तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के अतिरिक्त सूचना सलाहकार के रूप में
कार्यरत रहे।
उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के सिताबदियारा गाँव के दलजीत टोला में 30 जून
1956 को जन्मे हरिवंश ने अपनी प्राथमिक और उच्च प्राथमिक शिक्षा गाँव के सटे
टोला काशी राय स्थित स्कूल में पूरी की। उसके बाद, जेपी इंटर कालेज,
जयप्रकाशनगर से उन्होंने हाईस्कूल किया। उसके बाद वाराणसी गए। वहाँ यूपी कॉलेज
से इंटरमीडिएट और उसके बाद काशी हिंदू विश्वविद्यालय से स्नातक किया,
अर्थशास्त्र में एमए किया और पत्रकारिता में डिप्लोमा की डिग्री भी हासिल की।
पढ़ाई के दौरान ही टाइम्स ऑफ इंडिया समूह, मुंबई में प्रशिक्षु पत्रकार के रूप
में उनका 1977-78 में चयन हुआ। प्रशिक्षण पूरा करने के बाद वे 'धर्मयुग' में
उप संपादक बने और वहाँ 1981 तक कार्यरत रहे। उसके बाद 1981 से 1984 तक वे
हैदराबाद एवं पटना में बैंक आफ इंडिया के अधिकारी रहे। लेकिन 1984 में
उन्होंने पत्रकारिता में वापसी की और आनंद बाजार पत्रिका समूह द्वारा प्रकाशित
'रविवार' साप्ताहिक में सहायक संपादक बने। वहाँ वे अक्टूबर 1989 तक रहे। फिर
महानगरों की पत्रकारिता और बड़े घरानों के बड़े अखबारों-संस्थानों को छोड़कर
उन्होंने एक छोटे शहर राँची में प्रायः बंद हो चुके अखबार 'प्रभात खबर' में
प्रधान संपादक के रूप में काम शुरू किया। नए प्रयोगों और जन सरोकारों से
जुड़कर हरिवंश ने न सिर्फ 'प्रभात खबर' को स्थापित किया, अपितु पत्रकारिता को
नया आयाम भी दिया।
निकट अतीत में प्रभाष जोशी और 'जनसत्ता' जिस तरह एक-दूसरे के पर्याय बने अथवा
राहुल बारपुते और 'नई दुनिया' एक-दूसरे के पर्याय बने, उसी तरह हरिवंश और
'प्रभात खबर' भी एक-दूसरे के पर्याय बने। हरिवंश और 'प्रभात खबर' कैसे
एक-दूसरे के पर्याय बने, इसकी पूरी कहानी 'सफरनामा एक अखबार का 25 वर्षों का'
नामक 656 पृष्ठों की किताब में दर्ज है। यह किताब दो साल पहले 2016 में
प्रकाशन संस्थान से छपी थी। निराला ने उसका संपादन किया है। राहुल बारपुते,
राजेंद्र माथुर और प्रभाष जोशी की परंपरा के संपादक माने जाने वाले हरिवंश को
पिछले तीन दशकों में युवा संपादकों व पत्रकारों की उम्दा पीढ़ी खड़ी करने का
श्रेय भी जाता है। हरिवंश ने 25-30 साल के युवाओं को स्थानीय संपादक या
संपादकीय प्रभारी जैसी जिम्मेदारी देने का जोखिम उठाया। लेकिन जिन युवा
पत्रकारों को उन्होंने यह जिम्मेदारी सौंपी, उनमें अधिकतर सफल भी हुए जैसे
अनुज कुमार सिन्हा, विजय पाठक और कौशल किशोर त्रिवेदी। 'सफरनामा एक अखबार का
25 वर्षों का' किताब हरिवंश की संपादन कला और उनके संपादन में अखबार की रजत
भूमिका का अवलोकन है। इस किताब में देशभर के लेखकों-पत्रकारों व विख्यात
शख्सियतों के डेढ़ सौ लेख संकलित हैं। इस किताब में संकलित अपने लेख में
मैनेजर पांडेय ने लिखा है, "मुझे खास तौर से राँची का 'प्रभात खबर' नाम का
अखबार हमेशा बहुत पसंद आता है। समाचार के चयन, संयोजन, प्रस्तुति आदि की
दृष्टि से भी और सबसे अधिक ये कि यह एकमात्र अखबार है जो झारखंड पर विशेषांक
निकालकर कभी अर्थ तंत्र, राजनीति तंत्र, संस्कृति और साहित्य का लेखा-जोखा
प्रस्तुत करता है ताकि व्यापक पाठक समुदाय जो अखबार के पाठक हैं, वे झारखंड को
पूरी तरह जान सकें।" राजेंद्र यादव ने 'दबे-कुचले की आवाज' शीर्षक अपने लेख
में लिखा है, "संपादक का महत्व अखबार में सबसे ज्यादा होता है। 'प्रभात खबर'
को ही लें, अगर हरिवंश जी नहीं हों तो 'प्रभात खबर' का क्या रूप होगा?"
'आदिवासियों की धड़कन का आईना' शीर्षक लेख में साक्षात्कार' के जनवरी-मार्च
2003 के अंक में छपे शिवमंगल सिंह सुमन के पत्रों को उद्धृत किया गया है। 22
जनवरी 1990 के पत्र में सुमन जी ने लिखा है, " 'प्रभात खबर' के उच्च स्तरीय
स्वरूप से मैं बहुत प्रभावित हुआ हूँ। भारतवर्ष के हिंदी दैनिक समाचार पत्रों
में निःसंदेह उसे शीर्षस्थ कोटि में रखा जा सकता है।" 21 जून 1991 को लिखे
दूसरे पत्र में सुमन जी ने लिखा है, " 'प्रभात खबर' छपाई, सफाई और उच्चस्तरीय
पत्रकरिता के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुका है।" कवि त्रिलोचन ने 29 जून
1990 को लिखे पत्र में कहा है, "आपका 'प्रभात खबर' मैं ध्यान से पढ़ता हूँ और
मैं इसको हिंदी के उत्तम पत्रों में मानता हूँ। आप समाचार देने में भी अद्यतन
हैं और महत्व के बाहर के समाचार भी पूरी तरह देते हैं। आपने साहित्यिक अंकों
को अच्छे ढंग से निकाला है। आपका रविवारी अंक संग्रहणीय रहता है।" रामकुमार
वर्मा ने लिखा है, " 'प्रभात खबर' के कुछ अंक पढ़ कर ज्ञात हुआ कि यह प्रथम
श्रेणी का पत्र है और इसके द्वारा प्रकाशित सूचनाएँ विश्वस्त और प्रामाणिक
हैं।" वाराणसी से एक फरवरी 1990 को लिखे पत्र में काशीनाथ सिंह ने कहा है,
"सबसे अधिक बधाई 'प्रभात खबर' जैसा 'जनसत्ता' के टक्कर का अखबार निकाने के
लिए। सचमुच मैंने बिहार से इतने अच्छे अखबार की उम्मीद नहीं की थी। इसी लेख से
यह भी पता चलता है कि साहित्य समालोचक नामवर सिंह और कवि केदारनाथ सिंह भी
मानते हैं कि 'प्रभात खबर' हिंदी का सर्वश्रेष्ठ दैनिक है। हिंदी की
ख्यातिलब्ध उपन्यासकार महुआ माझी के लेख का शीर्षक है : राँची से देशभर में
दस्तक जिसमें उनका मानना है कि प्रभात खबर से झारखंड में पत्रकारिता का नया
उदय हुआ। उन्होंने लिखा है, "आम जनता 'प्रभात खबर' को अपना लीडर मानती है।
हरिवंश जी को हम केवल संपादक के रूप में नहीं जानते, बल्कि वे सुलझे
बुद्धिजीवी हैं। उनकी बेबाक टिप्पणी हमें प्रोत्साहित करती है।"
देश के शीर्षस्थ साहित्यकारों की तरह देश के तमाम सुपरिचित पत्रकार भी इसी तरह
की राय जाहिर करते हैं। किताब में संकलित अपनी टिप्पणी में राजदीप सरदेसाई ने
लिखा है, "'प्रभात खबर' की तरह पत्रकारिता में हम अपनी लक्ष्मणरेखा व ताकत
पहचानें, अपने लोकतंत्र में विश्वास करें तो सफल होंगे।" कुलदीप नैयर ने लिखा
है, "मुझे आज अखबारवालों में कमिटमेंट नहीं दिखता, लेकिन 'प्रभात खबर' जरा
हटकर है।" वीजी वर्गीज ने लिखा है, "'प्रभात खबर' ने क्षेत्रीय अखबार होते हुए
भी राष्ट्रीय सरोकार बनाए रखा है।" वीजी वर्गीज के लेख का शीर्षक ही है :
'बाजारवाद के दौर में गरीबों की बात करनेवाला अखबार'।" किताब में प्रभाष जोशी
की दो टिप्पणियाँ हैं। एक टिप्पणी में 'प्रभात खबर' के संदर्भ में उन्होंने
लिखा है, "हिंदी पत्रकारिता का भविष्य उज्ज्वल है।" राम बहादुर राय के लेख का
शीर्षक है : क्षेत्रीय पत्रकारिता को एक नई दिशा दी। इसमें वे लिखते हैं,
"'प्रभात खबर' और 'जनसत्ता' दोनों लगभग एक ही समय में अस्तित्व में आए। हिंदी
पत्रकारिता की ये दो महत्वपूर्ण घटनाएँ हैं। 1983 में प्रभात खबर निकालने का
फैसला किया गया, उन्हीं दिनों लंबी जद्दोजहद के बाद और प्रभाष जोशी के आग्रह
पर गोयनका ने जनसत्ता निकालने का फैसला किया। 'जनसत्ता' को प्रभाष जोशी का
योग्य नेतृत्व मिला। वह एक-डेढ़ साल में ही बड़े अखबारों के मुकाबले नए
प्रयोगों के दौर से निकला और सफल हुआ। उन दिनों प्रभात खबर को योग्य नेतृत्व
उपलब्ध नहीं था। युवा कांग्रेस के एक बड़े नेता ज्ञानरंजन ने उसे निकाला व चला
नहीं पाए। उसके पाँच-छह साल बाद प्रभात खबर में नेतृत्व परिवर्तन हुआ। जब
प्रभात खबर को हरिवंश ने सँभालना शुरू किया तब से वह एक व्यवस्थित अखबार बनने
की दिशा में बढ़ने लगा। उसे पिछली छाया से मुक्त होने में थोड़ा वक्त लगा।
प्रभात खबर ऊँचाइयाँ चढ़ रहा था, तब जनसत्ता ढलान पर था। प्रभात खबर को अपने
क्षेत्र में प्रभावशाली अखबार बनाने के लिए हरिवंश ने उन जगहों पर खुद जाकर
समझा, बातचीत की और उसके निष्कर्ष निकाले।" पुण्यप्रसून वाजपेयी ने लिखा है,
"किसी भी संपादक के लिए मुश्किल काम है कि बाजार की स्थितियों के इतर वह
पत्रकारिता के मानदंडों को इस तरह स्थापित करे जिससे साथ काम करनेवाले
पत्रकारों में यह अहंकार आ जाए कि वह वाकई पत्रकार है। हरिवंश जी ने इन
स्थितियों को समझा-बूझा है इसलिए उनके संपादक होते हुए जो अखबारी प्रयोग है,
वह बहुआयामी है।" पुण्यप्रसून वाजपेयी की दो टिप्पणियाँ किताब में हैं। दूसरी
टिप्पणी का शीर्षक है : 'संपादक की निज साधना'। इसमें कहा गया है, "'प्रभात
खबर' को बाहर-अंदर जितना मैंने देखा है, उसमें संपादक शब्द पर हरिवंश का नाम
मुझे अक्सर ऊपर और बड़ा लगा है क्योंकि दो दशकों से कोई शख्स बतौर संपादक एक
अखबार को जीवन से जोड़ने में लगा हो, वह महज संपादकीय जरूरत नहीं हो सकती।"
किताब के बैक कवर पर वरिष्ठ पत्रकार विनोद मेहता की चर्चित किताब एडिटर
अनप्लग्ड के एक अंश को उद्धृत किया गया है। उसमें विनोद मेहता ने लिखा है,
"जरा झारखंड से निकलनेवाले स्वतंत्र अखबार 'प्रभात खबर' को याद कीजिए। उसकी
साहसिक पत्रकारिता की तरफ देखिए। मधु कोड़ा का पर्दाफाश करने, अवैध खनन को
उजागर करने, और कोलगेट की कहानी ब्रेक करने से लेकर उन्होंने कितनी बड़ी-बड़ी
और महत्वपूर्ण खबरें प्रकाशित कीं।" यदि देश के जाने-माने साहित्यकार तथा
पत्रकार हरिवंश को बड़ा संपादक और उनके संपादन में निकले प्रभात खबर को बड़ा
अखबार मानते हैं तो इसलिए कि 'प्रभात खबर' को सदा-सर्वदा यह बोध रहा है कि
अखबार पाठकों से बनता है और पाठकों को बनाता है। 'प्रभात खबर' को इसीलिए
पाठकों ने बनाया और 'प्रभात खबर' ने भी पाठकों को बनाया। हरिवंश ऐसे पत्रकार
हैं जो पाठकों को सजग बनाने के लिए सचेष्ट रहे हैं। इसी किताब में संकलित
हरिवंश की चुनिंदा संपादकीय टिप्पणियों से भी हम उनके सरोकार जान सकते हैं।
हरिवंश की एक संपादकीय टिप्पणी का शीर्षक है-'अच्छी पत्रकारिता के लिए सजग
समाज चाहिए'। इसमें हरिवंश बताते हैं कि प्रभात खबर कैसे खड़ा हुआ। वे लिखते
हैं, "14 अगस्त 2007 को प्रभात खबर के 23 वर्ष पूरे हए। 14 अगस्त 1984 को यह
पहली बार छपा। इस अखबार का उद्देश्य था, झारखंड की आवाज बनना। अक्तूबर 1989
में इसका प्रबंधन बदला। अपने समय की सबसे प्रभावी, प्रतिष्ठित और सर्वाधिक
प्रसारित साप्ताहिक धर्मयुग (मुंबई, टाइम्स ऑफ इंडिया संस्थान) और कोलकाता के
आनंद बाजार पत्रिका समूह से प्रकाशित, मशहूर और चर्चित साप्ताहिक रविवार में
काम करने के बाद, बंद प्रायः प्रभात खबर में काम करना, मुंबई, कोलकाता, दिल्ली
छोड़ कर राँची में सिमटना, उस समय भी जिद या खब्त ही माना जाता था। शायद जेपी
आंदोलन, वैचारिक राजनीति के जीवंत होने या सामाजिक सरोकार के कारण यह अल्प अंश
हममें भी रहा हो। शायद इसी कारण राँची आना हुआ। नई जगह। पर आदिवासी समाज और इस
अंचल की समस्याओं ने प्रेरित किया, यह चुनौती स्वीकारने के लिए। मकसद सिर्फ एक
था, क्या पत्रकारिता पिछड़े, गरीब लोगों और अविकसित इलाकों में सार्थक
हस्तक्षेप कर सकती है? यह अनुभव करना और जानना। जीवन, अनुभवों का दस्तावेज है।
इस दृष्टि से प्रभात खबर की पत्रकारिता के अनुभव समृद्ध हैं। टीम की दृष्टि से
भी। प्रभात खबर की टीम ने हर असंभव परिस्थितियों के मुकाबले खड़े होकर प्रभात
खबर को मजबूत बनाया। और पाठक, जिन्होंने प्रभात खबर की पत्रकारिता को लगातार
प्रोत्साहित किया। फिसलन दिखी, तो पाठकों ने सवाल उठाये, सावधान किया और वे
पाठक ही आंदोलन की पत्रकारिता के मार्गदर्शक बने।" इसी टिप्पणी में हरिवंश
लिखते हैं, "प्रभात खबर का प्रबंधन हर कीमत पर साफ-सुथरे रास्ते पर चलने का
मूल्य मंत्र बताता रहा है। यह भी एक कारण है कि राख (बंदी के कगार) से उठ कर
यह अखबार खड़ा हुआ। जिस बाजार में विदेशी पूँजी और शेयर बाजार से 800-1000
करोड़ लेकर बड़े मीडिया घराने खड़े हों, वहाँ मामूली पूँजी के साथ खड़ा होना,
फैलना और बढ़ना, इस मिट्टी, पाठक संसार, विज्ञापनदाताओं और प्रभात खबर की युवा
टीम का ही चमत्कार है। देश के सबसे पिछड़े राज्य बिहार और उसके सबसे पिछड़े
भाग (राँची, छोटानागपुर) से 1984 में निकलकर, एक अखबार अब तीन राज्यों के सात
केंद्रों से प्रकाशित हो, यह शुद्ध रूप से ग्लोबलाइजेशन (आक्रामक पूँजी) की
दुनिया में लोकलाइजेशन का महत्व रेखांकित करता है। यह झारखंडी सफलता है। अगर
समाज को अच्छी पत्रकारिता चाहिए, तो उसे सजग भी होना पड़ेगा।"
एक अन्य टिप्पणी में हरिवंश 'प्रभात खबर' की संघर्षपूर्ण यात्रा का संक्षेप
में विवरण देते हैं। वे बताते हैं कि कठिन चुनौतियों के बीच 'प्रभात खबर' को
पुनर्जीवित करने की कोशिश हुई। एक प्रतिबद्ध टीम से। संपादकीय, गैर संपादकीय
हर विभाग में यह टीम थी। कोलकाता, दिल्ली व अन्य जगहों से बड़े संस्थान छोड़
कर कुछ साथी आए। पत्रकारिता में एक नए प्रयोग के लिए। यह आजमाने के लिए कि
क्या पत्रकारिता समाज पर असर डाल सकती है? तब उस टीम के पास सिर्फ सपने थे।
साधन नहीं। पूँजी नहीं। बैठने की पर्याप्त जगह नहीं। छपाई की दृष्टि से
आउटडेटेड या स्क्रैप हो चुकी आठ पेज छापनेवाली बंधु मशीन थी। मैन पावर जरूरत
से कई गुणा ज्यादा। दूसरे अखबारों से कटिंग-पेस्टिंग कर, यह अखबार अगले दिन की
रोशनी देखता था। न कोई सप्लीमेंट, न विशेष सामग्री। वह वही दौर था, जब देश
करवट ले रहा था। दो मोर्चों पर। एक ओर अयोध्या की आग का ताप फैल रहा था। दूसरी
ओर, आजादी के बाद की अर्थनीतियों ने देश को कंगाल बना दिया था, लगभग दिवालिया।
उन्हीं दिनों दुनिया नए कगार पर थी। टेक्नोलॉजिकल रिवोल्यूशन के। जिसके गर्भ
से ग्लोबलाइजेशन, उदारीकरण, सूचना क्रांति व नॉलेज एरा का उदय हुआ। मोबाइल
क्रांति दूर देशों में आहट दे रही थी। टीवी चैनलों की आवाजें दस्तक देने लगी
थीं, पर फुलफॉर्म में नहीं। पूँजी निर्णायक भूमिका में थी। विचार और वाद ढलान
पर थे। हरिवंश लिखते हैं, "उन्हीं दिनों पत्रकारिता के साथी कहते कि
पत्रकारिता का मर्म तो महानगरों में है। सत्ता के पास रहने में है। इस विद्या
के ग्लैमर से खुद को जोड़ने में है। तब शुरुआत हुई थी, पत्रकारिता को मंच बना
कर राज्यसभा या सत्ता गलियारे में पहुँचने की या इस माध्यम को लॉबिंग में
इस्तेमाल करने की। तभी प्रबंधन से लेकर संपादकीय में कुछ साथियों ने जंगल (तब
महानगरों की तुलना में राँची जंगल ही कहा जाता था) से धारा के खिलाफ 'प्रभात
खबर' में प्राण डालने व नई जान फूँकने का विकल्प चुना। आज भी उनमें से कई साथी
साथ हैं, हर विभाग में, हर बड़े प्रस्ताव या प्रलोभन के बावजूद। कुछ अन्यत्र
हैं। अच्छी जगहों पर। उन सबके सामूहिक प्रयास ने यह नई कोशिश की। तब जाने-माने
पत्रकार पूछते या व्यंग्य करते कि अखबारों की सूची में सबसे नीचे के पायदान पर
जड़ जमा चुका 'प्रभात खबर' कहाँ ठौर पाएगा? अखबारी दुनिया के एक जाने-माने
प्रबंधन विशेषज्ञ से, इस अखबार ने अपने भविष्य का आकलन चाहा। 1991 में उनकी
रिपोर्ट आई, जितना जल्द यह बंद कर दिया जाए, उतना ही बेहतर। वे सही थे,
क्योंकि अखबारों की तत्कालीन प्रतिस्पर्द्धा में प्रभात खबर कहीं था ही नहीं।
न थी सुविधाएँ या आवश्यक पूँजी। सारे लॉजिक इस अखबार के चलने और इसके बुनियादी
अस्तित्व के खिलाफ थे। दूर-दूर तक भविष्य में कहीं रोशनी नहीं। पर एक टीम थी,
जो नई व भिन्न पत्रकारिता चाहती थी। मुद्दों के ईद-गिर्द। ऐसी ही युवा व
समर्पित टीम थी प्रबंधन में (विज्ञापन, सर्कुलेसन, प्रोडक्शन, वगैरह) जो
अकल्पनीय मुसीबतों और अभाव में भी कुछ कर दिखाने के लिए तत्पर थी। तब बिहार,
विकास की दृष्टि से सबसे पिछड़ा राज्य था। और उन दिनों छोटानागपुर बिहार का
सबसे पीछे छूटा हिस्सा। अखबार, विज्ञापन से चलते हैं। विज्ञापन के बारे में
तथ्य है कि यह डेवलपमेंट का बाइप्रोडक्ट है। इसलिए जहाँ विज्ञापन नहीं, वहाँ
अखबार की गुंजाइश नहीं। पर, इस टीम ने एक ही संकल्प लिया - हमें भिन्न अखबार
बनना है, अलग पहचान के साथ। हमने दूसरे बड़े महारथियों से अपनी तुलना छोड़ दी।
हम सब डूब गए अपने संसार में। सीमित साधनों में ही, क्या राह होगी? कैसे हम
अपने ही मापदंड पर एक्सीलेंस (श्रेष्ठता) हासिल कर सकते हैं। अपना मुकाबला खुद
से। हाँ, 'प्रभात खबर' ने खुद को जोड़ा समाज के मूल सवालों से। हमने माना कि
80 के दशक में डेमोग्राफर इन चीफ प्रो. आशीष बोस ने हिंदी इलाकों को बीमारू
कहा, तो हमारी भूमिका क्या हो सकती है? भ्रष्टाचार, गवर्नेंस, मूल्यहीनता की
राजनीति के बीच हम क्या कर सकते हैं। याद रखिए, उन्हीं दिनों उदारीकरण का दौर
आया। और उसके साथ आई पत्रकारिता की नई विद्या, पेज-3 की पत्रकारिता... यानी,
रियूमर (अफवाह), गॉसिप, लाइफ स्टाइल, महानगरों में होने वाली भोग-विलास की
पार्टियों की खबरें, संपन्न घरानों की चर्चित शादियाँ और राजनीतिक गलियारों की
अफवाहें। गांधी हमारे आदर्श थे। हमारा काम बोले, हम नहीं... हमारा पाथेय था।
आज मार्केटिंग एक्सपर्ट या ब्रांडिंग के माहिर लोग इसे प्रभात खबर का ॠण पक्ष
मानते हैं। इस दौर में आत्म प्रचार या चर्चा ब्रांडिंग के लिए अपरिहार्य कदम
माना जाता है। बहरहाल तब प्रभात खबर के एक-एक साथी, चाहे वे जिस विभाग में हों
दूसरे विभाग का काम सीखने को उत्सुक, बिना श्रेय लिए या बताए। मल्टी स्किलिंग
क्षमता विकसित करने की कोशिश। अज्ञेय की एक पंक्ति याद रहती थी, जब विकल्प न
हो, तब जीवन कितना आसान हो जाता है। अभावों का संसार था। इसलिए बीच-बीच में
काम बंद कर देने वाली मशीन पर कंपोजिंग या पुराने यंत्रों-मशीनों पर ही काम
होना था। पेज-3 की पत्रकारिता संस्कृति के विकल्प में ग्रासरूट पत्रकारिता की
राह चुनी। इस राह ने, लोक मुद्दों की ताकत ने प्रभात खबर को आगे पहुँचाया।
इसलिए 'प्रभात खबर' के फैलाव का श्रेय भी समाज के ज्वलंत मुद्दों को जाता है।
उन मुद्दों से जुड़ कर ही 'प्रभात खबर' टिक पाया। सबसे बड़े, शीर्ष और ताकतवर
अखबार घरानों के सामने। इन मुद्दों से 'प्रभात खबर' आज भटक जाए, तो फिर वह
पुरानी स्थिति में ही होगा। अपने अस्तित्व के लिए जूझता। वर्ष 2000 आते-आते
अखबारों के स्पर्द्धा की दुनिया बदल गई। छोटे अखबार तेजी से बंद होने लगे।
बड़े अखबारों के आक्रमण, मार्केटिंग रणनीति और पूँजी बल के कारण। तब विदेशी
पूँजी (एफडीआइ), इक्विटी और शेयर बाजार की पूँजी लेकर अखबारों की दुनिया में
भी देशी मल्टीनेशनल कंपनियाँ उभर आईं। वे सीधे-सीधे पहले से जमे पुराने
अखबारों को आर्थिक रूप से ध्वस्त करने लगीं। इस तरह, गुजरे 20 वर्षों में न
जाने कितने स्थानीय व छोटे अखबार बंद हो गए... या कहने को जीवित हैं। अधिकाधिक
अखबारों का होना, लोकतंत्र के चरित्र के अनुरूप है। आवाज या दृष्टिकोण की
बहुलता ही लोकतंत्र को ऊर्जा देती है। पर देश में यह नुकसान हो चुका है।
पत्रकारिता के इस नए दौर की मार भी प्रभात खबर पर पड़ी, खूब। उसे बांधने और
गुम करने की हर कोशिश हुई, पर प्रभात खबर की समर्पित टीम, इस आक्रामक पूँजी की
लहर का भी अपनी सृजन क्षमता से मुकाबला करने में लगी है। देश के तीन सबसे बड़े
घरानों (तीनों शेयर बाजार की लिस्टेड कंपनियाँ) के मुकाबले स्पर्द्धा में उतरा
एक अकेला क्षेत्रीय अखबार... पाठकों के बल। अपनी समर्पित टीम के बल। शुरुआत
राँची (14 अगस्त,1984) से। फिर जमशेदपुर (आठ सितंबर, 1995), फिर धनबाद (15
जुलाई, 1999), पटना (सात अप्रैल, 1996), फिर कोलकाता (31 अक्तूबर, 2000),
देवघर (29 जुलाई, 2004), सिलीगुड़ी (10 मार्च, 2006) और अब मुजफ्फरपुर (10
अक्तूबर, 2010)।"
हरिवंश ने अपनी पत्रकारिता में चिंतन, विचार और संवाद को सर्वोच्च प्राथमिकता
दी। 'प्रभात खबर' ने संदेश दिया कि हम अपनी जड़ों से न कटें। अपनी समृद्ध
परंपरा, मूल जड़ों, मूल प्रवृत्ति भूल कर होड़ लेने से सूचनाओं का विराट जमघट
तो तैयार किया जा सकता है पर वह सूचना का विधायक पक्ष नहीं हो सकता। 'मुद्रित
शब्दों की महत्ता' और लोक विधायक पक्ष को ध्यान में रखते हुए, विज्ञान,
प्रौद्योगिकी, नई सूचना प्रणाली का सदुपयोग नहीं किया गया तो एकतरफा जहाँ
विकास की दौड़ में पीछे छूटने का अंदेशा है, वहीं नई तकनीक का सही ढंग से
उपयोग नहीं होने पर उसके खतरनाक साबित होने की आशंका है। यदि हम अपनी जड़ों पर
कायम रहे तो चाहे जितनी विकृतियाँ आएँ - कंप्यूटर क्रांति के चलते आएँ या
विदेशी उपग्रह चैनलों के कारण आएँ या पत्रकारों में भोग लिप्सा बढ़ने के कारण
आएँ - उनसे हम उबर लेंगे। भूमंडलीकरण के दबाव ने मीडिया का स्वरूप और चरित्र
बदल डाला है। हरिवंश ने लिखा है कि उदारीकरण के फलस्वरूप उभरी नई विश्व
अर्थव्यवस्था में मीडिया संपन्न वर्ग का हिमायती बन गई है और हाशिए के समाज के
लिए मीडिया में बहुत कम जगह बची या नहीं बची है क्योंकि हाशिए के समाज की बात
करते ही मीडिया पर चौतरफा दबाव पड़ने लगते हैं। सरकार से, विधायिका से,
अपराधियों से, विज्ञापन देनेवाले बड़े औद्योहिक घरानों से और स्वयं अपने
मीडिया समूह के प्रबंधन से। बाजारवाद के इस दौर में सर्वहारा की आवाज
सुननेवाला कोई नहीं है। भूमंडलीकरण के गर्भ से जो चिटफंड कंपनियाँ, शेयर बाजार
के दलाल और नॉन बैंकिंग कंपनियाँ अचानक अवतरित हुईं, उनकी 'प्रभात खबर' ने
जमकर खबर ली। अखबार ने सपने दिखाकर छलनेवाली चिटफंड कंपनियों से अपने पाठकों,
दर्शकों, श्रोताओं को सावधान किया। 1991-95 के दौरान जेवीजी और कुबेर जैसी
चिटफंड कंपनियों ने अपना कारोबार फैलाने के लिए अखबार भी निकाले थे। जब वे
कंपनियाँ जनता को तीन साल में धन दोगुना करने का लालच देकर लूट रही थीं तो
उनकी ठगी के खिलाफ जनता को सचेत करने के बजाय उन कंपनियों की उद्यमशीलता का
प्रशस्तिगान अधिकतर मीडिया कर रहा था। छोटे-छोटे निवेशकों की सुधि तब बड़े
मीडिया घरानों ने नहीं ली। आज जेवीजी, कुबेर जैसी कंपनियाँ अरबों रुपए ठगकर
गायब हैं। भूमंडलीकरण के ही गर्भ ने पेड न्यूज की प्रवृत्ति को बढ़ाया। नब्बे
के दशक से ही जितने आम चुनाव हुए, उसमें पेड न्यूज का बोलबाला साफ दिखा। चुनाव
आयोग ने चुनावी विज्ञापन की सीमा तय कर दी तो मीडिया ने नायाब तरीके ढूँढ़े।
चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों के पक्ष में 'एडवरटोरियल' छापे जाने लगे। हद तो तब
हो गई जब एक निर्वाचन क्षेत्र से दस चुनावी प्रत्याशी थे, तो दसों के जीतने
संबंधी 'न्यूज आइटम' छपे। पैसे लेकर। प्रत्याशियों ने विज्ञापन के बदले 'न्यूज
आइटम' अपने पक्ष में छपवाए। सीधे अखबारों के प्रबंधन, उसके बड़े पत्रकारों ने
इन 'प्रचार न्यूज आइटमों' के विज्ञापन दर से पैसे वसूले। चुनाव आयोग की
आचार-संहिता, चुनावी प्रचार-विज्ञापन पर खर्च की सीमा तय करने की सारी
कोशिशें, धरी की धरी रह गईं। उदारीकृत नई विश्व अर्थव्यवस्था में मीडिया की
भूमिका में आए इस परिवर्तन को 'प्रभात खबर' ने मानने से इनकार कर दिया।
'प्रभात खबर' ने चुनावी कवरेज की अपनी आचार संहिता बनाई जिसे विस्तार से इस
किताब में जगह दी गई है। किताब के एक खंड में रिपोर्टर्स डायरी दी गई है।
इसमें झारखंड में भुखमरी से हुई मौत के कवरेज के दिनों को विनोद पाठक ने याद
किया है। उनकी टिप्पणी का शीर्षक है : उन्हें मानना पड़ा कि लेपसी भूख से ही
मरी थी। कहना न होगा कि इसी तरह के कवरेज के कारण प्रभात खबर हरिवंश के
नेतृत्व में झारखंडी जनता की धड़कन का आईना बन पाया। हरिवंश सदा-सर्वदा
जनोन्मुख पत्रकारिता के पैरोकार रहे हैं। परमवीर चक्र विजेता अलबर्ट इक्का की
शहादत के बाद उनका परिवार आर्थिक संकट में था। परिवार के पास जीने के संसाधन
भी नहीं थे। हरिवंश ने इक्का के परिवार को मदद करने के लिए अभियान चलाया। साढ़े
चार लाख रुपये इकट्ठा कर उन्होंने इक्का के परिवार को दिया। इसी तरह हरिवंश ने
दशरथ माँझी को लेकर अभियान चलाया और उन्हें गुमनामी के अँधेरे में खोने से
बचाया।
हरिवंश बहुत पढ़ाकू हैं। विभिन्न विषयों और विधाओं की किताबें खरीदकर पढ़ते
हैं और उस पर अपनी राय भी जाहिर करते हैं। कई किताबों पर उनके लंबे-लंबे लेख
प्रकाशित हुए हैं। दूसरे मुद्दों पर भी उनके लंबे आलेख छपते रहे हैं। लेकिन वे
लेख पठनीयता के गुणों से भरपूर होते हैं। छोटे-छोटे वाक्य। सरल-सहज भाषा। उनके
लेखों में पारदर्शी गद्य की ताजगी होती है। व्यक्ति के रूप में भी वे बहुत सरल
और सहज हैं।