हम यहाँ उन्नीसवीं सदी की पूरी गतिकी को कुछ चुने हुए चिन्हों, बौद्धिक
परिघटनाओं और कुछ परियोजनाओं के माध्यम से विश्लेषित करना चाहते हैं, बौद्धिक
परिघटना में यहाँ राजा राममोहन राय, केशवचंद्र सेन, दयानंद सरस्वती, रामकृष्ण
परमहंस, विवेकानंद, हेनरी विवियन डेरोजियो, महात्मा ज्योतिबा फुले और भारतेंदु
हरिश्चंद्र की परियोजनाओं को शामिल किया गया है। एक स्तर पर यह अष्टमार्गी
परियोजना है जिसका साध्य उन्नीसवीं सदी का नवजागरण है अपने अन्य 'साध्यों' के
आलावा। परियोजनाओं के इस अध्ययन में वैचारिक टकराहटें हैं, अंतर्विरोध है और
एक स्तर पर अपनी 'आत्मपहचान' के लिए आत्मसंघर्ष है जिनमें उपनिवेशवादी समय की
कसमसाहटें शामिल हैं। उन्नीसवी सदी की बौद्धिक परिघटना का विन्यास एक
त्रिकोणात्मक तनाव और संघर्ष से निर्मित हुआ है जिसके एक कोण पर पश्चिमी ज्ञान
के प्रभाव और उसके साथ निर्मित समाजार्थिक संबंध का दृष्टिकोण है तो दूसरे कोण
पर अतीत का स्थगन और पाश्चात्य ज्ञान तथा आधुनिक अवधारणाओं से उत्पन्न
दृष्टिकोण है और तीसरे कोण पर पुरानी धार्मिक परंपराओं के पुनरुत्थान का
दृष्टिकोण। यह तीनों कोण कई स्थान पर टकराते हैं, रगड़ खाते हैं, सँभलते हैं और
फिर चल देते हैं। इनकी गति में उन्नीसवीं सदी साँसें लेती है। इन साँसों का
ताना-बाना इस आलेख में विन्यस्त करने की कोशिश की गई है यह कितना कारगर होगा,
ठीक-ठीक कहना मुश्किल है।
इससे पहले की हम इसके ताने-बाने और मुश्किलों की तरफ जाएँ सबसे पहले एक अपील -
उन्नीसवीं सदी की परिघटनाओं के संदर्भ से विभिन्न पहलुओं के अध्ययन (जिनमें से
एक पहलू का उल्लेख इस आलेख में किया गया है) के दौरान एक बात जो हमेशा मेरे
आस-पास मंडराती रही वह बहुत त्रासद है। इस पूरी सदी में जो अकाल पड़े और लाखों
लोग भूख से मरे उसका कोई मुक्कमल इतिहास नहीं मिलता, जो मिलता है वह महज कुछ
आँकड़े भर हैं। भारत अपनी विकास की कहानी में 'अकाल' और उसके कारण जो लाखों लोग
भूख से मरे उसकी सच्चाई वाली कहानी को ठीक उसी तरह दबा देता है जिस प्रकार
पश्चिम में 'प्लेग' से मरने वाले लाखों लोगों की सच्चाई दबाई गई थी। आज भी
'प्लेग' और 'अकाल' में मारे गए लोगों के संदर्भ से साहित्येतिहास लिखा जाना
शेष है। 'प्लेग', और 'अकाल' को लेकर पश्चिम और भारत में कुछ कथा-साहित्य तो
मिलता है, लेकिन उसका कोई सामाजिक इतिहास नहीं मिलता है। उन्नीसवीं सदी की
पूरी की पूरी बौद्धिक जमात इस विषय पर कुछ भी गंभीरता से कहते हुए नहीं दिखलाई
देती है। यह अपने समय का एक द्वैत है जो एक लंबी छलाँग के साथ हमारे सामने
इक्कीसवीं सदी में भी अपने नए रंग-रोगन के साथ मौजूद है। उन्नीसवीं सदी की यह
चुप्पी पसरती हुई हमारी इक्कीसवीं सदी में चली आई है।
औपनिवेशिक भारत में "गांधी जी को छोड़कर आधुनिक भारत के सभी प्रमुख चिंतकों को
विज्ञान का, उसके सैद्धांतिक तथा तकनीकि दोनों पक्षों का, बड़ा आकर्षण रहा है।
राममोहन ने तो वैज्ञानिक पुस्तकों तथा यंत्रों को उपलब्ध करने तथा
प्रयोगशालाएँ स्थापित करने के लिए बहुत आग्रह किया था। केशवप्रसाद सेन ने अपनी
ऐपिसिल टू इंडियन ब्रदरेन में लिखा था - 'विज्ञान ही आपका धर्म होगा - वेदों
से भी ऊपर, बाइबिल से भी ऊपर। खगोल, भूविज्ञान, वनस्पति विज्ञान, रसायन, शरीर
और कायिकी उसी प्रकार प्रकृति के, ईश्वर के सजीव धर्मग्रंथ हैं, जैसे दर्शन,
तर्कशास्त्र और नीतिशास्त्र आत्मा के, ईश्वर के धर्मग्रंथ हैं।" इस विचार सरणी
को यदि समेकित रूप से देखें तो राममोहन राय से लेकर महात्मा गांधी तक
औपनिवेशिक भारत के नवजागरण के साहित्येतिहास की निर्मिति में कई विविध छवियाँ
पिरोई जा सकती है। इन छवियों में हमें आपस में संघटन की प्रक्रिया का विकास भी
युगीन विशेषताओं उसकी परिस्थतियों के आधार पर देखना चाहिए। युगीन विशेषताएँ और
युगीन परिस्थितियाँ क्या थीं। और उसकी पृष्ठभूमि क्या थीं जिसके आधार पर यह तय
होना था कि औपनिवेशिक भारत अपना बौद्धिक विकास का रास्ता कैसे तय करेगा। "भारत
में (अठारहवीं शती के उत्तरार्द्ध में) पितृसत्ताक वरीयता और सामंतवाद को
तोड़ने वाले घटक मजूरी वाला श्रम, साक्षरता, औद्योगीकरण, वर्णाश्रम का
विघटन-नहीं उभर पा रहे थे। कृषकों का पूर्व पूँजीवादी दमन उत्तरोतर
उपनिवेशवादी-पूँजीवादी शोषण से भी जुड़ता गया। शहरी औद्योगिक मजदूर-वर्ग की
अनुपस्थिति थी। जमींदारों ने व्यापारी तथा नौकरशाही बुर्जुआ वर्गों से गठजोड़
किया।"
एक विचार सरणी का यह मानना है कि मानसिक दासत्व से मुक्ति का और उपनिवेश
विरोधी चेतना जागृत करने का श्रेय पाश्चात्य शिक्षा प्रणाली को है। आधुनिक
चेतना का प्रसार शिक्षा की इसी पद्धति के कारण हुई। यह एक सरलीकृत मान्यता है,
हमें इसे ऐतिहासिक संदभों में देखना चाहिए कि क्या अंग्रेजों का उद्देश्य
भारतीयों को जागृत करना था इसलिए वे शिक्षा की पद्धतियों पर ध्यान दे रहे थे।
जवाब होगा नहीं। उसका उद्देश्य अपनी सत्ता को संचालित करने वाले मानव-संसाधनों
का निर्माण था। लेकिन जब भारतीय इस प्रकार के संसाधन में रूपायित हो रहे थे तो
वे केवल उपनिवेश के संसाधन नहीं रह गए थे बल्कि इस देश की मिट्टी उनकी चेतना
में था और इसके विकास की चिंता उनकी सोच की जड़ में था। और वे धीरे-धीरे ही सही
सीमित मात्र में ही सही आम भारतीय जन मानस को प्रभावित कर रहे थे। दूसरी विचार
सरणी का मानना था कि इस शिक्षा प्रणाली में भारतीय भाषा, संस्कृति तथा भारतीय
जीवन पद्धति के लिए कोई जगह नहीं है, बल्कि उसे तुच्छ समझा जाता है। आर्य
समाज, रामकृष्ण मिशन आदि अनेक संस्थाओं के खोले जाने का यही एक सरलीकृत तर्क
विकसित हुआ, लेकिन यही तर्क सब कुछ नहीं था। "परिवर्तन के समर्थकों में भी दो
अंतर्विरोध और प्रायः परस्पर टकरानेवाली प्रवृतियाँ दृष्टिगोचर हो रही थी।
बुद्धिजीवियों का एक हिस्सा पश्चिम के आक्रमणों से 'राष्ट्रीय' संस्कृति की
सुरक्षा के लिए पुरानी धार्मिक परंपराओं के पुनरुत्थान को एक महत्वपूर्ण तत्व
मानता था। ये लोग पश्चिम की 'भौतिकवादी' संस्कृति के मुकाबले भारत की
'आध्यात्मिक' संस्कृति को खड़ा करते थे।" इन संस्थानों में भारतीयता पर आधारित
शिक्षा प्रणाली के विकास का कार्य हुआ। औपनिवेशिक भारत में ईसाई मिशनरियों ने
ईसाई मत के प्रचार के लिए शिक्षा के क्षेत्र में जो कार्य किया वह भी
महत्वपूर्ण है। कहा जाता है कि भारत में अंग्रेजों को सत्ता में बनाए रखने में
इन मिशनरियों ने एक 'गैर सरकारी संगठन' की तरह कार्य किया जो भारत के सुदूर
प्रांतों तक, आदिवासी जनता तक पहुँचकर कार्य किया। "अपने कार्य को अधिक
प्रभावशाली बनने के लिए बहुत सी मिशनरियों ने भारतीय भाषाओं का अध्ययन किया,
पुस्तकें लिखी, संस्कृत के धार्मिक और दार्शनिक ग्रंथों का अनुवाद किया, भारत
के इतिहास और संस्कृति पर अन्वेषण कार्य किया और जनता की सेवा के उद्देश्य से
आधुनिक ढंग के स्कूल और अस्तपाल खोले... उनका भारत के सामाजिक सुधारकों पर
गहरा असर पड़ा।" अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली पर महात्मा गांधी औपनिवेशिक भारत में
एक भिन्न किस्म की शिक्षा की छवि का निर्माण कर रहे थे जो उनकी बुनियादी तालीम
में निहित था और अंग्रेजी शिक्षा के खिलाफ कुछ मौलिक सोच थी। 'हिंद स्वराज'
में महात्मा गांधी ने दर्ज किया कि, "करोड़ों लोगों को अंग्रेजी की शिक्षा देना
उन्हें गुलामी में डालने जैसा है। मैकाले ने शिक्षा की जो बुनियाद डाली, वह
सचमुच गुलामी की बुनियाद थी। ...अंग्रेजी शिक्षा से दंभ, राग, जुल्म वगैरह बढ़े
हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाए हुए लोगों ने प्रजा को ठगने में, उसे परेशान करने
में कुछ भी उठा नहीं रखा है।" स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा के ढाँचे पर
लेकर जोरदार बहस हुई और इसके लिए "शिक्षा आयोग'' का गठन किया गया जिसके
अध्यक्ष क्रमशः डॉ. सर्वपल्ली राधाकृष्णन एवं प्रो. दौलत सिंह कोठारी ने अपनी
रिपोर्टो की भूमिका में अंग्रेजी शिक्षा की खामियों को उजागर किया है।
उन्नीसवीं सदी की बौद्धिक परिघटना में जो चीज सबसे प्रमुखता से उभर कर आती है
और जो उन्नीसवीं सदी के नवजागरण का हासिल है, वह है स्त्री के संदर्भ में
नजरिये की आलोचना और नए नजरिये का निर्माण (बाल विवाह से लेकर विधवा की
दुर्दशा और उसके विवाह, बहु विवाह प्रथा पर चोट, स्त्री को संपत्ति में अधिकार
और सबसे अधिक स्त्री शिक्षा पर जोर) शिक्षा के ढाँचे का विकास जिसमें पारंपरिक
शिक्षा की पद्धिति, धर्म के संदर्भ में आलोचकीय दृष्टिकोण का विकास और आर्थिक
ढाँचों के विकास में काश्तकारों की दुर्दशा। इस बौद्धिक परिघटना में राममोहन
राय के 'तुहफात-उल-मुवाहिदीन' ( एकेश्वरवादियों के लिए उपहार) जो 1803 ई. में
प्रकाशित हुई थी से लेकर महात्मा गांधी के 'हिंद स्वराज' (1909) तक तक का समय
शामिल है। इस पूरे औपनिवेशिक दौर में रचनाकारों के बौद्धिक दृष्टिकोणों का जो
प्रवाह और जो विकास है वह मोटे तौर पर तीन तरह से काम कर रहा था। यह समाज का
एक किस्म से त्रिकोणात्मक संघर्ष था, एक वैचारिक तनाव था। पहला था, पश्चिमी
ज्ञान के प्रभाव और उसके साथ समाजार्थिक संबंध जो उत्पन्न हुआ उसके आधार पर
भारतीय समझ का अपना दृष्टिकोण बना लेना। दूसरा था, अपनी विशिष्ट ऐतिहासिक
संदर्भों की वास्तविकता को स्थगित करते हुए प्रचलित पाश्चात्य ज्ञान और आधुनिक
अवधारणाओं से उत्पन्न दृष्टिकोण। तीसरा दृष्टिकोण था अपनी परंपरा और आधुनिकता
को एक सातत्य में देखने की। इस त्रिकोणात्मक तनाव में एक बात जो सबमें मौजूद
थी, वह थी आगे की ओर देखने की दृष्टि। के. दामोदरन ने इसे इस प्रकार दर्ज किया
है, "...भारत में भी, नवजात राष्ट्रवाद की राजनीतिक और आर्थिक अंतर्वस्तु ने
स्वयं को धार्मिक सुधार के रूप में अभिव्यक्त किया और उसका एक ऐसे राष्ट्रीय
नवजागरण आंदोलन के रूप में विकास किया, जिसने प्रतिक्रियावादी सामाजिक
शक्तियों के सरंक्षण में प्रचलित पुराने सड़े-गले रीति-रिवाजों और धार्मिक
अंधविश्वासों को ठुकरा दिया।" और यह सब एक खास भौगोलिक क्षेत्र में घटित हो
रहा था।
नवजागरण की उपनिवेशवादी बौद्धिक परिघटना में राजा राममोहन राय की परियोजना
आधुनिक भारत के निर्माता और नवजागरण चेतना के अग्रदूत के रूप में चर्चित
राममोहन राय अरबी, फारसी, अंग्रेजी, संस्कृत, बंगाली सहित यूनानी, लैटिन और
हिब्रू जैसी भाषा के जानकर माने जाते हैं। 1811 में अपने बड़े भाई की मृत्यु के
बाद भाभी के सती हो जाने पर उनके जीवन और विचार का परिप्रेक्ष्य बदलने लगा था।
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में (1803-1814) वे ईस्ट इंडिया कंपनी के झंडे के
नीचे काम करते थे। जिस वर्ष वे ईस्ट इंडिया में काम की शुरुआत कर रहे थे उसी
वर्ष उन्होंने अपनी पहली कृति 'तुहफात-उल-मुवाहिदीन' की रचना की। राजा राममोहन
राय की सुधारवादी परियोजना का सबसे बड़ा प्रतीक 20 अगस्त 1828 को उनके द्वारा
स्थापित 'ब्रह्मसमाज' है। जिसके पहले सचिव ताराचंद्र चक्रवर्ती नियुक्त किए
गए थे। ब्रह्मसमाज का दर्शन था निराकार एकेश्वरवाद। इस दर्शन पर यकीन करने के
कारण हिंदू समाज का व्यापक समर्थन इसे कभी नहीं मिल पाया। सती प्रथा जैसी
कुरीतियों के विरुद्ध ब्रह्मसमाज ने प्रखरता से आवाज उठाई। इनके प्रयासों से
1829 में सती प्रथा के विरुद्ध लार्ड विलियम बेंटिक के नेतृत्व में कानून बना।
ब्रह्मसमाज के खिलाफ परंपरावादी राधाकांत देव ने 'धर्मसभा' को स्थापित कर
राजा राममोहन राय की परियोजना को हर संभव असफल करने की कोशिश की। यह कोशिश एक
स्तर पर एक चुनौती थी जिसका राजा राममोहन राय को हर हाल में सामना करना था।
अपने विचारों के लिए दोनों सभाओं ने पत्रिकाएँ निकाली। राजा राममोहन राय ने
'संवाद कौमुदी' नाम से पत्रिका निकली और राधाकांत देव ने 'समाचार चंद्रिका'
नाम से अपनी पत्रिका निकाली। राजा राममोहन राय के सुधारवादी आंदोलन की
परियोजना में बंगाल सहित समूचा भारत था। जैसा कि हम जानते हैं नवजागरण में
पत्र-पत्रिका का महत्व सबसे अधिक है। दरअसल पत्र-पत्रिका अपने समय की बौद्धिक
परियोजना और उसमें शामिल त्रिकोणात्मक तनाव के साथ अपने विचारों और सिद्धांतों
को रखने का एक मंच हुआ करता था। राजा राममोहन राय अपने राजनीतिक और सामाजिक
विचार 'संवाद कौमुदी' और 'मिरात-उल-अखबार' के माध्यम से कर रहे थे। इन पत्रों
और कॉलमों के माध्यम से वे जाति प्रथा, मूर्ति पूजा, सती प्रथा जैसे मुद्दों
पर चोट कर रहे थे। ब्रह्मसमाज की भी यही परियोजना थी। प्रसिद्ध उपन्यासकार
रवींद्रनाथ टैगोर के उपन्यास 'गोरा' में ब्रह्मसमाज की परियोजना के तहत मूर्ति
पूजा, छुआछूत के भेदभाव, जाति प्रथा और धार्मिक कट्टरता के बीच तीखी बहस मिलती
है जो युगीन समय का चित्र है और नवजागरण का आईना भी। राजा राम मोहन राय के बाद
ब्रह्मसमाज की इस परियोजना में देवेंद्रनाथ ठाकुर जुड़ते हैं।
देवेंद्रनाथ ठाकुर ने 1845 में ब्रह्मसमाज को एक किस्म से नए आदर्शों से जोड़ा
जिसमें वेदों का महत्व था, कालांतर में ऐसा लगने लगा कि वेदांत ही ब्रह्मसमाज
का लक्ष्य है और यह ठीक राजा राममोहन राय की परियोजना जिसमें ईसाई धर्म की
मानवीय करुणा शामिल थी, के बिल्कुल उल्टा था। 1847 को देवेंद्रनाथ वेदों का
अध्ययन करने के लिए बनारस गए थे। वहाँ से वापस लौटने के बाद उन्होने हिंदू
शास्त्रों की गौरवशाली धारणा पर पुनः ध्यान दिया और उपनिषदों के द्वारा
एकेश्वरवादिता का समर्थन किया। लेकिन अब भी इस परियोजना में कट्टर हिंदू धर्म
का परिप्रेक्ष्य शामिल नहीं हुआ था। 1850 से 1856 तक ब्रह्मसमाज में नवीन
सामाजिक आदर्शों का दौर चला जिसमें स्त्री शिक्षा, विधवा विवाह, धर्म के
क्षेत्र में सहिष्णुता, बहु विवाह का विरोध प्रखरता से किया जाने लगा। और
यहीं से उन्नीसवीं सदी की बौद्धिक परियोजना में केशवचंद्र सेन का प्रवेश होता
है।
केशवचंद्र सेन और उनके सहयोगियों ने अपनी परियोजना का विस्तार किया। वे न केवल
बंगाल में बल्कि बंबई (1864), मद्रास (1864) तथा अन्य पश्चिम क्षेत्रों में
ब्रह्मसमाज के सिद्धांतों के माध्यम से नवीन चेतना का प्रसार किया। यही वह समय
था जब भारत के भूगोल में ब्रह्मसमाज की तर्ज पर कई संस्थाओं का निर्माण होने
लगा। जिसके माध्यम से बौद्धिक परिघटनाएँ जो सीधे आम-जनता को प्रभावित करने
वाली हुआ करती थीं, घटित होने लगी। बंबई में 'प्रार्थना समाज' तथा मद्रास में
'वेद समाज' ऐसे ही बौद्धिक परिघटनाओं का कार्य करने लगा था।
नवजागरण की उपनिवेशवादी बौद्धिक परिघटना में केशवचंद्र सेन और दयानंद
सरस्वती की परियोजना
बंबई यात्रा ने केशवचंद्र सेन को एक नए परिप्रेक्ष्य में खुद को रखने की तड़प
पैदा की और वे अपनी आत्मपहचान के लिए नए सिरे की तलाश कर रहे थे। 1867 में
'प्रार्थना समाज' की स्थापना उनकी तड़प और आत्मपहचान का एक हिस्सा रहा है। इस
समाज के संस्थापकों में आत्माराम पांडुरंग और महादेव गोविंद रानाडे जुड़े हुए
थे। उपासना और सामाजिक सुधार जैसे दो मुद्दों पर यहाँ कार्य होने लगा।
केशवचंद्र सेन अपनी इस परियोजना में 'इंडियन मिरर' के माध्यम से 1861 से ही
कार्यरत थे। नारी शिक्षा और नारी की मुक्ति, बाल विवाह, अंतरजातीय विवाह जैसे
मुद्दों पर केशवचंद्र का कार्य उन्नीसवीं सदी की बौद्धिक परिघटना का हिस्सा
है। महाराष्ट्र में इससे जुड़े हुए रानाडे जाति प्रथा, मूर्ति पूजा जैसी
कुरीतियों पर आंदोलित थे। रानाडे सामाजिक सुधार आंदोलन जो पूरे भारत में चल
रहे थे उनको एकत्र कर एक मंच पर लाना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने 'राष्ट्रीय
सामाजिक सम्मेलन' की स्थापना की। सभी समाजिक सुधार आंदोलन से जुड़े हुए संगठनों
को एक मंच पर लाने की पहलकदमी रानाडे को इस उन्नीसवीं सदी के बौद्धिक परिघटना
में एक अलग पहचना देती है। समय-समय पर यह सम्मेलन आयोजित होता रहता था।
"'राष्ट्रीय सामाजिक सम्मेलन' का वार्षिक अधिवेशन उसी पंडाल में करने की
अनुमति मिल गई, जिसमें कांग्रेस का अधिवेशन होता था। परंतु 1895 में बाल
गंगाधर तिलक तथा अन्य उग्रवादी नेताओं के कहने से यह सुविधा छीन ली गई।" यदि
ऐसा न हुआ होता तो अनुमान है कि आज कांग्रेस पार्टी का भी एक सांस्कृतिक मंच
होता, जो शायद ज्यादा उदार, ज्यादा लोकतांत्रिक होता; किसी सांप्रदायिक संगठन
की कट्टरता से अलग और उसकी और किसी की भी कट्टरता के लिए जगह कम करता हुआ
होता; पर ऐसा हुआ नहीं। बहरहाल, 1870 की इंग्लैंड यात्रा ने उनके बौद्धिक
विकास को और प्रखर बनाया लेकिन 1878 की एक घटना ने केशवचंद्र सेन की पूरी
परियोजना का परिप्रेक्ष्य ही बदल दिया और उसके बाद केशवचंद्र सेन इस पूरी
बौद्धिक जमात से बाहर हो गए। बाहर कर दिए गए। वह घटना थी, अपनी नाबालिग बेटी
का विवाह कूच बिहार के महाराजा - जो विवाह के समय नाबालिग थे - से हिंदू
पद्धति से करना। इस घटना के बाद उनके कई समर्थकों ने साथ छोड़ा, प्रार्थना समाज
पर इसका प्रतिकूल प्रभाव हुआ। 1878 की घटना से ठीक तीन साल पहले एक और 'समाज'
भारतीय औपनिवेशिक जमीन पर उत्पन्न हो रहा और जिसका व्यापक प्रभाव उत्तर और
पश्चिम-उत्तर भारत पर होने वाला था और जिसके अगुआ थे दयानंद सरस्वती।
1875 में 'आर्य समाज' की स्थापना दयानंद सरस्वती ने की। इस स्थापना की
पृष्ठभूमि में इससे पहले के समाजों के कार्य थे। मूल रूप से गुजरात के
कठियावाड़ से अपने मूल नाम मूलशंकर के साथ उत्तर भारत के समाज को प्रभावित करने
के लिए जो आंदोलन छेड़ा वह कई वर्षों तक प्रभावकारी रहा और जिन बौद्धिक तनावों
की बात हम त्रिकोण के माध्यम से ऊपर कर रहे थे, उसके एक कोण को आर्य समाज ने
बल प्रदान किया।
दयानंद सरस्वती ने वेदों तथा भारतीय दर्शन का गहराई से अध्ययन किया था और इस
निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि आर्य जाति सबसे श्रेष्ठ है, भारत सबसे श्रेष्ठ भूमि
है और वेद ईश्वरीय ज्ञान है। पुराणों के बारे में उनका विचार था कि ये हिंदू
धर्म में मूर्ति पूजा जैसी कुरीतियों और अन्य अंधविश्वासों को बढ़ाते हैं।
वेदों को समग्र ज्ञान का स्रोत मानने वाले आर्य समाज ने अनेक निरर्थक
कर्मकांडों की निंदा की, ब्राह्मणों के प्रभुत्व को अस्वीकार किया और
राष्ट्रीय चेतना के लिए कार्य किया। 'वेदों की ओर लौटो' जैसे नारे के कारण
चर्चित आर्य समाज को अतीतजीवी कह कर खारिज भी किया गया। वेदों के प्रति
अतिरिक्त आग्रह आर्य समाज की सीमा थी। दयानंद सरस्वती ने वेदों का अनुवाद
किया। हिंदी भाषा में प्रकाशित दयानंद सरस्वती का 'सत्यार्थ प्रकाश' दरअसल
आर्य समाज का एक विस्तृत दर्शन है, और उनकी बौद्धिक परियोजना का हिस्सा है। इस
परियोजना में आर्य विद्यालयों की स्थापना और उसमें वेदों एवं प्राचीन आदर्श
ग्रंथों का पठन-पाठन करने की व्यवस्था करना शामिल है। "'सत्यार्थ प्रकाश'
में उन्होंने न केवल बौद्ध धर्म, जैन धर्म, इस्लाम और ईसाई धर्म को झूठे धर्म
कहकर उनकी निंदा की, वरन उनके दृष्टिकोण को आर्य चिंतन से संश्लेषित और
समन्वित करने के किसी भी प्रयत्न का बड़ी ही उग्रता से विरोध किया।" यह
दृष्टिकोण दरअसल उन्नीसवीं सदी की बौद्धिक परिघटना की परियोजनाओं के त्रिकोण
में तनाव से उत्पन्न होता है।
नवजागरण की उपनिवेशवादी बौद्धिक परिघटना में रामकृष्ण परमहंस,
विवेकानंद की परियोजना
रामकृष्ण परमहंस (1836-1886) उन्नीसवीं सदी के औपनिवेशिक समय में अपनी जिस
परियोजना को लेकर उतरे वह मूलतः धार्मिक और मानवतावादी थी। परमहंस ने अपने ही
जीवन को अपनी परियोजना के लिए एक प्रयोगशाला में रूपायित कर लिया था। ठीक यहीं
पर मुझे महात्मा गांधी याद आते हैं जिन्होंने भी भिन्न अर्थों और
परिप्रेक्ष्यों में अपने जीवन को एक प्रयोगशाला के रूप में तब्दील कर दिया था।
बहरहाल, परमहंस की इस प्रयोगशाला में विभिन्न धर्मों के विधि विधानों का
निष्ठापूर्वक पालन किया जाता था और एक-दूसरे के बीच समन्वयवादी भावना से
संबद्ध किया जाता था। रामकृष्ण परमहंस की परियोजना में तमाम छोटी-छोटी लोक
कथाएँ होती थीं और उसके दृष्टांत होते थे जिसके आधार पर वे अपने समय और समाज
में हस्तक्षेप करते थे और कथाओं और दृष्टांतों के आधार पर जीवन के यथार्थ को
समझाते थे मसलन, वे कहते थे कुम्हार की दुकान में कई आकार-प्रकार के बर्तन
बनाए जाते हैं। जिसे अलग-अलग नाम से बुलाया जाता है। लेकिन सभी बर्तन मूलतः एक
ही तत्व मिट्टी से बने होते हैं, ठीक उसी प्रकार ईश्वर एक है जिन्हें
विभिन्न युगों मे विभिन्न देशों में विविध नामों से बुलाया जाता है। परमहंस
की परियोजना को सबसे अधिक प्रखरता से आगे ले जाने वाले उनके शिष्य स्वामी
विवेकानंद थे। विवेकानंद के आने के बाद पूरी दुनिया में भारत की छवि अंग्रेजों
की बनाई हुई छवि से एकदम भिन्न होने लगी थी।
भारतीय नवजागरण के बौद्धिक परिघटना में विवेकानंद का नाम उल्लेखनीय है।
बंकिमचंद्र, गिरीशचंद्र घोष जैसे लोग विवेकानंद से प्रभावित थे आगे चलकर हिंदी
के प्रसिद्ध कवि निराला भी उनके विचारों से प्रभावित हुए। 1893 ई. में शिकागो
के 'विश्व धर्म सम्मेलन' में दिये गए ओजस्वी भाषण को लेकर उनकी चर्चा
बार-बार की जाती रही है। हम यहाँ उस भाषण पर कोई विश्लेषण नहीं कर रहे हैं।
नवजागरण के दौर में भारत की 'अस्मिता' को पुनः स्थापित करने के लिए उन्होंने
'वेदांत' जैसे सिद्धांत का प्रतिपादन किया और उसे अपने समय के संदर्भ में
देखने की चेतना का विकास किया। उनकी परियोजना में स्वतंत्रता उन्नति की पहली
शर्त मानी गई। उन्नति की यह शर्त उन्नीसवीं सदी का सबसे बड़ा हासिल है जो
बीसवीं सदी में आजादी के आंदोलन से जुड़ जाता है। अपने कई क्रांतिकारी विचारों
के लिए विवेकानंद जाने जाते हैं, भारत के विभिन्न शिक्षा संस्थानों में उनके
विचार नारे के रूप में हमे आज भी दर्ज मिलते हैं। जिनका भारतीय समाज और उसके
साहित्येतिहास की चेतना में काफी महत्व है। विवेकानंद ने अपने एक लेख 'जाति
भेद और वेदांत' में लिखा है, "मैं किसी क्षणिक समाज-सुधार का प्रचारक नहीं
हूँ। मैं समाज के दोषों का सुधार करने की चेष्टा नहीं कर रहा हूँ। मैं तुमसे
केवल इतना ही कहता हूँ कि तुम आगे बढ़ो और हमारे पूर्वपुरुष समग्र मानवजाति की
उन्नति के लिए जो सर्वांग सुंदर प्रणाली बता गए हैं, उसी का अवलंबन कर उनके
उद्देश्य को संपूर्ण रूप से कार्य में परिणत करो।" अपने लेख 'मेरी क्रांतिकारी
योजना' में इसी बात को सूत्र रूप में कहते हैं," मैं सुधार में विश्वास नहीं
करता, मैं विश्वास करता हूँ स्वाभाविक उन्नति में।" विवेकानंद की परियोजना में
देश की चेतनशील परंपरा का उत्खनन है। वे राष्ट्रीय पाप पर विचार करते हुए अपने
लेख 'हमारा राष्ट्रीय महापाप' में करते हैं, "मैं समझता हूँ कि हमारा सबसे बड़ा
राष्ट्रीय पाप जन समुदाय की उपेक्षा है, और वह भी हमारे पतन का एक कारण है।
भारत में दो बुरी बातें हैं स्त्रियों का तिरस्कार और गरीबों को जाति-भेद
द्वारा पीसना।" विवेकानंद प्रसिद्ध समाजवादी क्रांतिकरी चिंतक क्रोपाटकिन से
मुलाकात कर चुके थे और समाजवादी चेतना से भरे हुए थे, उनके विचार इसी चेतना की
उपज माने जा सकते हैं। "इस अद्भुत व्यक्ति ने वास्तव में रूस की समाजवादी
क्रांति से भी दो दशक पहले भारत में समाजवाद का नारा उठाया था।" औपनिवेशिक
भारत की बौद्धिक परिघटना में अंग्रेजी शिक्षा से निकले हुए वर्ग को लक्षित
करते हुए विवेकानंद ने एक क्रांतिकारी बयान दिया जिसकी गूँज खूब हुई, इस बयान
को हम आज के बौद्धिक परिघटना में भी लागू कर सकते हैं, 'जब तक लाखों लोग भूखे
तथा अज्ञानी रहेंगे, मैं ऐसे प्रत्येक व्यक्ति को देशद्रोही समझूँगा,
जिन्होंने उनकी मेहनत की कमाई से शिक्षा ग्रहण की, पर उनकी परवाह नहीं करते
हैं।' पूरी उन्नीसवीं सदी की बौद्धिक परियोजना में गतिशील बहस के लिए यह बयान
एक 'एजेंडा सेटिंग' की तरह है, जो भिन्न-भिन्न प्रतीकों से अभिव्यक्त हुआ है।
इकीसवीं सदी में इस बयान को प्रत्येक शिक्षा संस्थानों और उससे जुड़े
मंत्रालयों में एक पाठ की तरह पढ़ाया जाना चाहिए। उन्नीसवीं सदी की बौद्धिक
परियोजना में एक भिन्न 'एजेंडा सेटिंग' को लेकर ईश्वरचंद्र विद्यासागर और
अक्षयकुमार दत्त अपनी परियोजना लेकर भारतीय नवजागरण के पटल पर आते हैं। यह
घोषणा कर देना उचित होगा कि यहाँ 'एजेंडा सेटिंग' को एक सकारात्मक नजरिए से
देखा जा रहा है।
नवजागरण की उपनिवेशवादी बौद्धिक परिघटना में हेनरी विवियन डेरोजियो,
महात्मा ज्योतिबा फुले और भारतेंदु हरिश्चंद्र की परियोजना
हेनरी लुईस विवियन डेरोजियो (1809-1831) को बंगला नवजागरण का सूत्रधार माना
जाता है। अपने समय और समाज में डेरोजियो एक क्रांतिकारी युवा थे और उन्नीसवीं
सदी में युवाओं और उसके लिए शिक्षा के महत्व को अपनी परियोजना में सबसे पहले
शामिल करते थे। उन्नीसवीं सदी की बौद्धिक परिघटना में इनका महत्वपूर्ण
हस्तक्षेप है। और यह हस्तक्षेप है 'तरुण बंगाल' की स्थापना से। 'तरुण बंगाल'
डेरोजियो के शिष्यों और साथियों की एक मंडली थी। बंगाल में 'तरुण बंगाल' की
भूमिका के बारे में हम हू-ब-हू वही नहीं कह सकते हैं जो 'तरुण इंग्लैंड' को
संदर्भित करते हुए 'कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो' में कहा गया है कि, "जनता को अपनी
तरफ करने के लिए अभिजातों ने सर्वहारा की भीख की झोली को अपना झंडा बनाया।
लेकिन जब-जब जनता उनके साथ हुई, उसने उनके कूल्हों पर पुराने सामंत
वंश-चिन्हों के ठप्पे ही लगे देखें और वह हँसी के जोरदार और तिरस्कारपूर्ण
ठहाकों के साथ उन्हें छोड़कर चल दी।" लेकिन इतना जरूर था कि 'तरुण बंगाल' से
जुड़े लोग बंगाल की दकियानूसी परंपराओं पर चोट कर रहे थे। इसके लिए अपनी
परियोजना में 'इन्क्वायरर' अंग्रेजी भाषा में और 'ज्ञानान्वेषण' हिंदी में
डेरोजियो ने पत्र प्रकाशित किया। अपने कुल 23 साल की कम उम्र में उसने बंगाल
में न केवल अच्छी-खासी चर्चा हासिल कर ली थी बल्कि बंगाल के कथित भद्र समाज को
काफी झकझोरा भी। डेरोजियो मई 1826 में हिंदू कॉलेज के अध्यापक नियुक्त हुए।
अपने छात्रों के बीच बेहद लोकप्रिय। "डेरोजियो ने अपने छात्रों में यह विचार
प्रतिष्ठित किया कि ज्ञान के क्षेत्र में उन्हें अपने तर्क के अलावा किसी
दूसरी सत्ता को स्वीकार नहीं करना चाहिए ...उन्होंने व्यर्थ परंपराओं का मजाक
उड़ाया तथा सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों का मात्र अनुष्ठानों में सीमित रखने
के विचार को अस्वीकृत किया। उन्हें उन्होंने स्त्री शिक्षा की माँग करते हुए
मद्यपान और गोमांस-भक्षण संबंधी वर्जनाओं को चुतौती दी।" डेरोजियो के तार्किक
विचारों से तत्कालीन बंगाल में पुरातनपंथी अभिजात्य को बड़ी परेशानी होती थी,
उस पर कई आरोप लगाए गए जिसमें से एक का जिक्र यहाँ किया जाना उचित होगा, यह
हमें उन्नीसवीं सदी के औपनिवेशिक बौद्धिक परिघटना के आपसी अंतर्विरोधों से
रू-ब-रू कराता है। 25 अप्रैल 1831 को एच.एच. विल्सन ने डेरोजियो को एक चिट्ठी
लिखी जिसमें कई आरोप लगाए गए और स्पष्टीकरण माँगा गया, हम यहाँ केवल पहले आरोप
को देखेंगे, "क्या तुम ईश्वर पर विश्वास करते हो।" इस आरोप के बारे में जवाब
देते हुए डेरोजियो ने विल्सन को पत्र लिखा, " मैंने किसी व्यक्ति के सामने कभी
भी ईश्वर के अस्तित्व का निषेध नहीं किया है। लेकिन मुझे यह स्वीकार करने में
तनिक भी भय या लज्जा नहीं है कि इस बारे में अन्य दार्शनिकों के संदेहवादी
रवैये का जिक्र मैंने किया है ...यह ताज्जुब की बात नहीं है कि मुझे संदेहवादी
और नास्तिक समझा जाता है, क्योंकि धर्म के संबंध में स्वतंत्रचेता व्यक्तियों
को ये नाम हमेशा ही दिये जाते रहे हैं।" बाद में कॉलेज से डेरोजियो को निकाल
दिया गया। हैजे की बीमारी से 23 दिसंबर सर्दी की रात 1831 को इनका निधन हो
गया। लेकिन अपनी मृत्यु के बाद भी इन्होने अपना प्रभाव अपनी पीढ़ी पर बनाए रखा
और 'तरुण बंगाल' अपना कार्य करता रहा। इनकी परियोजना को आगे बढ़ाने वालों में
ताराचंद चक्रवर्ती, कृष्णमोहन बनर्जी, रामगोपाल घोष, रसिक कृष्ण मल्लिक,
प्यारेचंद मित्र, राधानाथ सिकदर, रामतनु लाहिड़ी, शिवचंद्र देव आदि महत्वपूर्ण
लोग थे। 1842 ई. में डेरोजियो के समर्थकों ने एक नया पत्र का प्रकाशन किया
जिसका नाम 'बंगाल इस्पेक्टेटर' था, इस पत्र का झुकाव सांस्कृतिक पक्ष की
अपेक्षा राजनीतिक और आर्थिक था। बंगाल नवजागरण की यह परियोजना सबसे
क्रांतिकारी मानी गई।
संत तुकाराम के प्रशंसक ज्योतिबा गोविंदराव फुले (1827-1890) अपने समय के समाज
को अब तक के प्रचलित विश्लेषण के ठीक उलट एक नए विश्लेषण के साथ उन्नीसवीं सदी
के बौद्धिक परिघटना का हिस्सा बनते हैं और संपूर्ण महाराष्ट्र को प्रभावित
करते हैं, और जिसका असर उत्तर भारत में भी दिखलाई देता है। ज्योतिबा फुले अपनी
परियोजना में अपने समय और अपने इर्द-गिर्द पसरे यथार्थ को ऐतिहासिक आलोचना की
निगाह से देख रहे थे। उन्होंने शूद्रों के कल्याण का रास्ता संत परंपराओं में
नहीं देखा बल्कि उसे शिक्षित कर चेतनशील बनाने में देखा। और एक शक्तिशाली
गैर-ब्राह्मण आंदोलन का संचालन किया। 1854 में उन्होंने अछूतों के लिए
विद्यालय की स्थापना की तथा विधवाओं की सहायता के लिए निजी अनाथालय खोले। फुले
की परियोजना का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा 'सत्यशोधक समाज' (1872) है जिसके
माध्यम से वे उन्नीसवीं सदी में एक महानायक की तरह उभरे। दलित तबके को शिक्षित
करने, उन्हें स्वतंत्र कराने और अपने अधिकारों के प्रति जागरूक बनाने में
उन्होंने 'सत्यशोधक समाज' को एक असरकारी मंच की तरह उपयोग किया। इस समाज के
प्रति उनका लगाव इस हद तक था कि उन्होंने अपनी वसीयत में भी इसका उल्लेख किया
है। उनके वसीयतनामा में यह लिखा है, "मेरे मरने के बाद चिरंजीव यशवंत हमेशा
स्कूल में जाकर सही अध्ययन करके मैट्रिक में उत्तीर्ण होकर बाकी की उपाधियाँ
प्राप्त करने के लिए प्रयास करने के बजाय विदेशी लोगों के आवारा बच्चों की तरह
बर्ताव करने लगा तो... समाज के सदस्यों के बहुमत से यशवंत के स्थान पर माली,
कुनबी, धनगर आदि शूद्र समाज का जो भी कोई लड़का सारे लड़कों में होशियार और लायक
हो, उसको मेरी जायदाद का हकदार बना करके उसके हाथों सारा कार्य करवाना चाहिए।"
फुले अपने लेखन और सामाजिक सुधार आंदोलन में पूरे उन्नीसवीं सदी में
महाराष्ट्र के सभी गैर ब्राह्मण जातियों को एक छत और एक किस्म की 'अस्मिता' के
तहत लाने का कार्य किया। स्त्री-पुरुष शिक्षा और समानता पर उनका बहुत जोर था।
'हंटर शिक्षा आयोग के समक्ष बयान' फुले का एक ऐतिहासिक बयान है जिसे शिक्षा के
प्रति उनके गहरे लगाव के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए। उन्होंने अपनी
प्रसिद्ध पुस्तक 'गुलामगिरी' की प्रस्तावना में लिखा है कि, "इस देश में
अंग्रेज सरकार आने की वजह से शुद्रादि-अतिशूद्रों की जिंदगी में एक नई रोशनी
आई। ये लोग ब्राम्हणों की गुलामी से मुक्त हुए, यह कहने में किसी भी प्रकार का
संकोच नहीं है। फिर भी हमको यह कहने में बड़ा दर्द होता है कि अभी भी हमारी इस
दयालु सरकार के शूद्रादि-अतिशूद्रों को शिक्षित बनाने कि दिशा में,
गैर-जिम्मेदारीपूर्ण रवैया अख्तियार करने की वजह से ये लोग अनपढ़ के अनपढ़ ही
रहे।" महाराष्ट्र में नवजागरण के संदर्भ से ज्योतिबा फुले के तमाम सुधार
आंदोलनों में सबसे अलग एक आंदोलन था जिसका उल्लेख किया जाना चाहिए और जिसपर
हिंदी, बंगला नवजागरण सहित किसी भी प्रांत के नवजागरण में कोई बात नहीं हुई है
वह है, 'जचकी आश्रम'। मराठी नवजागरण में 'जचकी आश्रम' की स्थापना फुले के एक
अलहदा पहल के रूप में देखा जाना चाहिए जिसे मराठी नवजागरण में स्त्री के सवाल
पर अलग से बात होनी चाहिए। यह आश्रम अनचाहे गर्भ धारण करने वाली स्त्री या
परित्यक्त गर्भवती स्त्री को आश्रय देती थी। यह समस्या विधवाओं के साथ ज्यादा
हुआ करता थी वह भी ऊँची जाति की विधवा की। इस आश्रम में ऐसी स्त्री न केवल
अपना बच्चा जन सकती थी बल्कि वह जब तक चाहे तब तक यहाँ रह सकती थी। इस एक काम
के लिए ज्योतिबा फुले को संपूर्ण महाराष्ट्र के नवजागरण का सबसे बड़ा और पहला
प्रगतिशील व्यक्ति माना जाना चाहिए।
भारतेंदु हरिश्चंद्र (1850-1885) उन्नीसवीं सदी की बौद्धिक परिघटना में हिंदी
प्रदेश के प्रतिनिधि हैं, हिंदी नवजागरण को इनसे पृथक करके नहीं देखा जा सकता।
हालाँकि यहीं पर यह उल्लेख कर देना ठीक होगा कि भारतेंदु की परियोजना की भिन्न
किस्म से व्याख्या 'रस्साकशी' में वीर भारत तलवार ने की है। वीरभारत तलवार ने
कहा, "हिंदी नवजागरण एक भ्रामक नाम है क्योंकि यह अपनी ऐतिहासिक अंतर्वस्तु को
प्रकट नहीं करता। ...हिंदी नवजागरण का सामाजिक आधार हिंदीभाषी भद्रवर्ग था जो
ब्रह्मो, आर्य समाज या कायस्थ महासभा के पश्चिमी शिक्षा प्राप्त भद्रवर्ग से
अलग था। हिंदीभाषी भद्रवर्ग कहने का मतलब यह नहीं है कि इसके सदस्य अंग्रेजी
नहीं जानते थे।" इस कथन के वावजूद भारतेंदु के बारे में यह कहा जा सकता है कि
उनकी रचनाएँ एक अलग तरह का वातावरण निर्मित कर रही थी। हिंदी समाज में उनके
समय में जहाँ एक ओर जन सामान्य में राष्ट्रीय भावना के जागरण का समय था जो
निश्चित रूप से अठारह सौ सत्तावन की क्रांति के प्रभाव से पैदा हुआ था, और
दूसरी ओर सामाजिक और धार्मिक जागरूकता विभिन्न सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों
के कारण आई थी। इस दोनों परिप्रेक्ष्यों को अगर मिलाकर देखें तो हिंदी प्रदेश
के भूगोल में एक ऐसा पर्यावरण निर्मित हो गया था जिसमें लोगों के पास सबसे
अधिक राष्ट्रीयता और सांस्कृतिक चेतना को अभिव्यक्त करने के लिए एक माध्यम
की आवश्यकता थी और साहित्य में उसके लिए नाटक ही एक प्रभावी माध्यम था।
भारतेंदु ने खूब नाटक लिखे। दरअसल, भारतेंदु की बौद्धिक परियोजना तीन स्तरीय
थी, एक नाटक, दूसरा निबंध, तीसरा उनके द्वारा दिए गए भाषण। इन तीनों स्वरूपों
के लिए भारतेंदु ने पत्रिकाओं को अपना आधार बनाया। भारतेंदु 'हरिश्चंद्र
मैगजीन' और 'कविवचन सुधा' द्वारा अपनी परियोजना को विस्तार दे रहे थे। साहित्य
में नाटक का माध्यम इस दौर में अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुआ। पूरे नवजागरण के दौर
में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अनूदित और मौलिक कुल सत्रह नाटकों की रचना की है।
इन नाटकों का विस्तार 'विद्यासुंदर'( 1868) से लेकर 'प्रेमजोगिनी' (1875) तक
है। भारतेंदु युगीन साहित्य की यह विशेषता थी कि वह अपने समय और समाज के हर
विषय से जुड़ा हुआ था। उन्नीसवी सदी के भारत में खासकर हिंदी प्रदेश में
साहित्य दो छोरों पर अपना कार्य कर रही थी, एक छोर पर सामाजिक सुधार और
सांस्कृतिक विकास के विषयों पर लेखन और दूसरे छोर पर राष्ट्रप्रेम की भावना
और अंग्रेजी सरकार के शोषण के चरित्र को समझाने वाला लेखन। इन दोनों छोरों के
लिए निबंध को नाटक के बाद सबसे उपयुक्त माना जा रहा था। भारतेंदु के निबंध
इतिहास, धर्म, कला, समाज-सुधार, जीवनी, यात्रा वृतांत, भाषा और साहित्य की
चिंताओं पर केंद्रित हुआ करते थे। ध्यान से अगर देखें तों भारतेंदुयुगीन
अधिकांश निबंधकार किसी न किसी पत्र-पत्रिका से सीधे जुड़े हुए थे इस कारण इनके
माध्यम से अपने निबंधों के द्वारा वे आम जन-मानस से सीधे बात कर सकते थे
भारतेंदु 'हरिश्चंद्र मैगजीन' भारतेंदु की 'कविवचन सुधा' 15 अगस्त 1868 को
काशी से प्रकाशित हुई। पहले यह मासिक थी, कुछ दिनों बाद ही यह पाक्षिक हो गई
और इसमें पद्य के साथ-साथ गद्य भी प्रकाशित होने लगा, 1877-1885 के बीच यह
साप्ताहिक हो गई और हिंदी-अंग्रेजी मिली-जुली भाषा में छपने लगी। यह नवजागरण
की प्रमुख पत्रिका थी। 8 जून 1874 को भारतेंदु कविवचन सुधा के संपादकीय में
कहते हैं, "भाइयों, अब तो सन्नद्ध हो जाओ और ताल ठोंककर इनके सामने खड़े हो
जाओ। देखो भारतवर्ष का धन जाने न पावे - यह उपाय करो। ...जब अंग्रेज विलायत से
आते हैं, प्रायः कैसे दरिद्र होते हैं और जब हिंदुस्तान से विलायत को जाते हैं
तब कुबेर बनकर जाते हैं। ...इससे सिद्ध हुआ कि रोग और दुष्काल इन दोनों के
मुख्य कारण अंग्रेज ही हैं।" भारतेंदु का व्यक्तिव अपने समकालीनों पर असरकारी
था। बंगाल में उनके दो मित्र थे ईश्वरचंद्र विद्यासागर और राजेंद्र लाल मित्र।
भारतेंदु ने कई बार कलकत्ता की यात्रा की थी। 1874 में लिखा उनका प्रसिद्ध
निबंध 'हिंदी नई चाल में ढली' हिंदी भाषा और गद्य के विकास में युगांतरकारी
साबित हुआ। 'लेवी प्राणलेवी' 1870 में लिखा उनका एक और प्रसिद्ध निबंध है
जिसमें उन्होंने दर्ज किया है, "...हाय! पश्चिमोत्तर देशवासी (उत्तर
प्रदेश-बिहार आदि के लोग) कब कायरपन छोड़ेंगे और कब इनकी उन्नति होगी और कब
इनको परमेश्वर वह सभ्यता देगा, जो हिंदुस्तान के और खंडवासियों ने पाई है।"
भारतेंदु अपनी पैतृक संपत्ति का बहुलांश समाज के बीच व्यय कर देते थे। नाटक,
पत्रिका, सम्मेलन आदि में वे अपने धन का खूब इस्तेमाल करते थे। हिंदी, संस्कृत
के साथ साथ मराठी, बंगला, गुजराती, मारवाड़ी, पंजाबी, उर्दू आदि भारतीय भाषाएँ
भी उन्होंने स्वयं अपनी प्रतिभा के बल पर सीख ली थीं। नवजागरण की परियोजना में
वे संवादधर्मी चेतना के वाहक थे।
उन्नीसवीं सदी की बौद्धिक परिघटना भारतीय भूगोल के एक त्रिकोण के बीच घटित
होती है जिसके भीतर कई अंतरधाराएँ अलग-अलग समय में अलग स्थानीय विशेषताओं के
साथ प्रवाहित हुई हैं। यह त्रिकोण है, औपनिवेशिक भारत के तीन बड़े औद्योगिक नगर
- कलकत्ता, बंबई और मद्रास (अब क्रमशः कोलकाता, मुंबई, चेन्नई)। इस त्रिकोण
में सैकड़ों नगर और गाँवों, सैकड़ों संस्थानों, सैकड़ों व्यक्तियों के कार्यों का
योगदान है, और सभी के पास भारत को जागृत करने की एक-एक परियोजना है, ऐसी ही एक
परियोजना राममोहन राय के पास है और आगे चलकर एक महात्मा गांधी के पास। यहाँ यह
कह देने में हर्ज नहीं कि एक परियोजना जवाहरलाल नेहरु के पास भी थी जो आजादी
के बाद भारतीय समाज में देखने को मिली। किस परियोजना से कितनी दूर तक सहमत हुआ
जा सकता है, यह यहाँ विश्लेषण का समय नहीं है बल्कि यहाँ हमने यह विश्लेषित
करने की कोशिश की है कि नवजागरण में इन परियोजनाओं का क्या महत्व था और वह
समाज और साहित्य को कैसे प्रभावित कर रहा था।