बकौल राजेंद्र यादव कहानी शुरू से आदमी और आदमी के बीच के संवाद की विधा है और
जब तक आदमी है तब तक संवाद बना रहेगा, तब तक कहानी बनी रहेगी। हम कहानी
सुनेंगे। कहानी का मतलब आज है अपने अनुभवों को उसमें साझीदार करना किसी को
उसमें शामिल करना।
विभा रानी बीसवीं सदी के अंतिम हिस्से और इक्कीसवीं सदी के आरंभ की कहानी की
दुनिया में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता एक ऐसा नाम है जो तमाम अंधी खोहों के बीच
रोशनी की लकीर खींचता चलता है। विभा रानी की कहानियाँ तत्कालीन समाज के
संघर्ष, द्वंद्व और स्थितियों से जन्मी कहानियाँ हैं जो विद्रूपताओं को
यथातथ्य चित्रित करते हुए भी अंततः आशा की भावभूमि पर खड़ी नजर आती हैं। 'इसी
देश के इसी शहर में' कहानी संग्रह विभा रानी का नवीनतम कहानी संग्रह है। हिंदी
और मैथिली में समान गति रखने वाली विभा रानी की इन कहानियों में कस्बे से लेकर
महानगर तक का संपूर्ण समय चित्रित हुआ है। कहानी की नई जमीन को तलाशते हुए
विभा रानी कुछ ऐसे विषयों का स्पर्श करती हैं जो यूँ तो अति सामान्य दिखते हैं
लेकिन पाठक को सोचने पर विवश कर देते हैं। दरअसल कहानी लिखते समय रचनाकार का
मन उस रई की तरह होता है जो दही को बिलोती है और उस मंथन के बाद कहानी एक नया
स्वरूप ग्रहण कर लेती है।
'इसी देश के इसी शहर में' संग्रह में कुल बारह कहानियाँ शामिल हैं। लेकिन इन
बारहों कहानियों के अलग-अलग छायारूप हैं। एक खास बात इन कहानियों में यह है कि
इन सभी कहानियों का वितान नगरीय जीवन के आसपास बुना गया है।
संग्रह की पहली कहानी 'बेवजह' एक बड़ा प्रश्न छोड़ती है हमारे सामने। यह प्रश्न
सांप्रदायिकता से जुड़ा हुआ है। दंगों की कोई वजह नहीं होती फिर भी दंगे होते
हैं, यह कहानी विभाजन की त्रासदी को लेकर लिखी गई कहानियों की याद दिलाती है।
संप्रदायों की बेवजह दुश्मनी कैसे निरीहों की जान लेती है यह किसी से छुपा
नहीं। एक भाषा शैली में विभा जी कहानी का अंत आशावादी ढंग से करती हैं - ''यह
महज एक कहानी है और कहानी पर यकीन बिल्कुल ही नहीं किया जाना चाहिए। कभी कभी
कहानी महज एक फैंटेसी को लेकर चलती है, जिस पर चमकृत तो हुआ जा सकता है, लेकिन
यकीन बिल्कुल नहीं किया जा सकता। लिहाजा आप भी विश्वास न करें तो अच्छा - न
कहानी पर और न ही दंगों पर। ठीक है न?''
लेखक पाठक से एक आश्वस्ति का भाव चाहता है। विभा रानी की कहानियों की एक
विशेषता यह भी है कि विषय की विविधता के कारण इन्हें अलग-अलग दिनों में पढ़ा
जाना चाहिए। संग्रह की अगली कहानी 'प्रेम कहीं बिकता नहीं हाट, बाट बाजार'
शीर्षक से तो ऐसा लगता है कि यह कहानी प्रेम के इर्द-गिर्द बुनी गई है लेकिन
कहानी में नितांत अनछुआ विषय लिया गया है। दक्षिण भारत की एक सरकारी कंपनी में
हिंदी सिखाने के लिए रागिनी भाटिया की नियुक्ति की गई है। आरंभ में कंपनी के
कर्मचारी इस भाषा का भारी विरोध करते हैं, क्योंकि वे हिंदी नहीं सीखना चाहते
लेकिन रागिनी का श्रम धीरे धीरे रंग लाता है और वहाँ का पूरा माहौल बदल जाता
है। इसी कहानी की पंक्तियाँ हैं - दयानंद रोज नहा कर आने लगा। नुन्जू ध्यान से
दाढ़ी बनाने और साफ सुथरे प्रेस किए हुए कपड़े पहनने लगा। वरदराजन, थॉमस, मुथ्थू
सभी हैरान थे। कामगारों के बातचीत, उठने बैठने चलने फिरने के तौर तरीके बदल गए
थे। तो हिंदी इतनी इफैक्टिव भाषा है। 'यस सर, केवल भाषा नहीं, संस्कृति,
सभ्यता रीति रिवाज इन सभी के ज्ञान का दूसरा नाम है हिंदी।' भाषा के माध्यम से
संस्कारित करने का जो प्रयास रागिनी ने किया वह सचमुच प्रेरणादायी है। पाठक इस
कहानी को पढ़ते समय एक दूसरी मानसिकता में प्रवेश कर जाता है। भावनात्मक संबंध
इस कहानी में इतनी गहराई से अभिव्यक्त किए गए हैं कि ठीक वरदराजन की तरह कहानी
के अंत में पाठक अपनी जेब में रूमाल निकालने को विवश हो जाता है।
यहाँ मैक्सिम गोर्की द्वारा अभिव्यक्त किए गए विचार याद आते हैं। गोर्की कहते
हैं कि साहित्य का लक्ष्य यही है कि वह अपने आप को समझने में मनुष्य की सहायता
करे, उसका आत्मविश्वास बढ़ाए, उसमें सत्य की कामना जगाए, लोगों में जो ओछापन है
उससे जूझे और उनमें जो अच्छाइयाँ हैं उन्हें देखे, दिखाए। लोगों के हृदयों में
लज्जा, आक्रोश और साहस की भावनाएँ संचालित करे तथा इस बात का पूरा प्रयत्न करे
कि लोग उदात्त, आत्मिक शक्ति पाएँ और अपने जीवन को सौंदर्य के पावन आलोक से
उद्दीप्त करें। गोर्की की ये पंक्तियाँ 'इसी देश के इसी शहर में' शीर्षक कहानी
पर बिल्कुल खरी उतरती हैं। मिस्टर सईद का ट्रांसफर बंबई से किसी दूसरे शहर में
हुआ है और वे किराये का मकान खोज रहे हैं। इस खोज के दौरान उन्हें अपने लिए
तमाम दरवाजे बंद नजर आते हैं। जब वे अपने सहकर्मी राणे से कहते हैं - ''जानते
हो मेरे से सभी ने यही कहा हम मुसलमानों को मकान नहीं देते। ए राणे बोलो, तुम
बोलो, मैं मियाँ बनकर अपने आप पैदा हो गया क्या? मेरे मियाँ होने में मेरा कोई
कसूर है क्या? मेरा बाप-दादा यह मुल्क छोड़कर नहीं गया तो इसमें मेरा कोई
मिस्टेक है, नहीं न, तो फिर तुम्हारे शहर वाला लोग एइसा काहे को बोलता है
रे।'' सईद साहब का ये दर्द अब उस मुसलमान का दर्द है जो नौकरी करने अपने शहर
से बाहर निकला है। लोग उसे संदिग्ध निगाहों से परख रहे हैं। लेकिन इन विपरीत
परिस्थितियों में भी आशा की किरण जगमगाती है। मकान खोजते खोजते सईद साहब एक
सैन्याधिकारी के घर पहुँच जाते हैं जो सहज ही उन्हें किराये पर मकान दे देता
है। कैप्टन देशपांडे मिस्टर सईद से कहते हैं। ''आप हिंदू हैं मुसलमान हैं मगर
हैं तो इनसान ही न। मेरी एक ही शर्त होती है अपने किरायेदारों के लिए कि 'ही
शुड भी जिंदादिल'। कहानी का यह आशावादी अंत पाठकों को एक सुखद स्थिति में
पहुँचा देता है, जो गोर्की की दृष्टि में साहित्य का वास्तविक लक्ष्य है।
आशावादिता की यह दृष्टि एक अन्य कहानी 'ये दो साल' में भी दिखाई पड़ती है।
समकालीन कथा संसार की एक खासियत जो इधर विशेष रूप से दृष्टिगत हुई है वह है
मुस्लिम चरित्रों का भरपूर चित्रण। 'ये दो साल' कहानी के नायक हैं बुजुर्गवार
शौकत साहब जो बहुत जल्दी रिटायर होने वाले हैं और जिन्होंने रिटायरमेंट के बाद
की जिंदगी के लिए अनेक सपने बुन रखे हैं। अचानक सरकार रिटायरमेंट की उम्र दो
साल और बढ़ा देती है दफ्तर के दूसरे रिटायर होने वाले लोग दो साल और नौकरी की
जिंदगी पाकर खुश हैं पर शौकत साहब बेहद दुखी। इसी उहापोह में वे अंततः नौकरी
से रिटायर होने का निर्णय लेते हैं। उनका सोचना है कि ''बूढ़े बेमर्जी से दफ्तर
आएँगे जाएँगे और युवा इस उस दफ्तर में भटकेंगे और फ्रस्ट्रेशन और बढ़ाएँगे।''
शौकत साहब के दिल से निकली हुई आवाज पाठक को गहरे तक संस्पर्श करती है - 'या
अल्लाह। इन बच्चों को जीने की राह बता। ये हमारे मुल्क के कल के आफताब, महताब
और सितारे हैं। इनके वजूद को चिराग को आबाद कर, नाउम्मीदों के झोंकों से इनके
हौंसलों की लौ को न बुझा - इनकी वजूदियत से मुल्क आबाद रहे - हँसता खेलता
मुल्क, हँसते खेलते बच्चे। कितना सुहाना होगा वह दिन। खुदाया। हम इंतजार
करेंगे उस दिन का। हमें यकीन है कि वह दिन एक न एक दिन आएगा, जरूर, जरूर आएगा।
आमीन।'
सामाजिक सरोकारों और दायित्वबोध से भरी ये कहानियाँ बार बार यह याद दिलाने की
कोशिश करती हैं कि अभी सबकुछ समाप्त नहीं हुआ है। बचा हुआ है बहुत कुछ। जो बचा
है वह किसी न किसी आशा के रूप में है। इसी आशावाद के अभिव्यक्त करती एक अन्य
कहानी है 'हैलो डॉ. पारेख'। अपने काम में मसरूफ डॉ. पारेख यह जान ही नहीं पाता
कि जिस जानलेवा बीमारी से वह दूसरों को बचा रहा है वही बीमारी जरा सी लापरवाही
से उसकी जान ले लेगी। अंततः डॉ. पारेख की त्रासद मृत्यु होती है पर वह अपनी
निष्ठा की मशाल जाते जाते थमा जाता है सिस्टर निवेदित को। एड्स रोगियों के
प्रति संवेदना जगाती यह कहानी नए और अनछुए विषय पर बेहद सकारात्मक ढंग से लिखी
गई है। डॉ. पारेख की अंतिम पंक्तियाँ है - ''जा रहा हूँ सर लेकिन मरा नहीं
हूँ, जिंदा हूँ, रहूँगा, जब तक दुनिया में आस है, उम्मीद है...'' यह उम्मीद ही
जीवन की इच्छा कायम रखती है। डॉक्टरी पेशे पर कम ही कहानियाँ लिखी गई हैं। यह
कहानी अमिताभ शंकर राय चौधरी की कहानी 'दधीचि' (हंस) की याद दिलाती है।
इस संग्रह की अगली कहानी है 'कठपतुली'। एक साधारण सी पुतली में परी और पैगंबर
जान फूँक देते हैं। जवान होने तक तो सबकुछ ठीक रहता है पर शादी होने के ठीक
बाद कठपुतली पर यंत्रणाओं का जो दौर शुरू होता है उसका कोई अंत नहीं। यह कहानी
वर्तमान परिस्थितियों में नारी स्वातंत्र्य पर गहरा प्रहार करती है। स्त्री
सजी धजी पुतली के ही रूप में आज भी स्वीकार की जा रही है। उसकी अपनी कोई
स्वतंत्र सत्ता नहीं। यह कहानी भी एक नई शैली अपनाते हुए लिखी गई है। विभा
रानी की यह निजता उन्हें समकालीन कथाकारों में विशिष्ट बनाती है। वे जीवन की
अनेक सच्चाइयों का अन्वेषण करती हैं। इस संदर्भ में मई 1982 में अमरकंटक में
आयोजित शिविर में अमरकांत द्वारा व्यक्त किए गए विचार दृष्टव्य हैं।
'जीवन की सच्चाइयों का अन्वेषण सदा कष्ट, परिश्रम और जोखिम का काम है। लेखन भी
ऐसा ही कर्म है। लेखक अपने देश और समाज के साथ होता है, यदि व्यवस्था
अन्यायकारी हो तो उसे व्यवस्था से टकराना पड़ता है, जब समाज में साहित्य, कला
आदि का सम्मान न होता हो तो, उसे उपेक्षित होने का खतरा उठाना पड़ सकता है, जब
अवसरवादी मनोवृत्तियों की कद्र होती हो तो उसे सुख, वैभव आदि की जिंदगी भी
त्यागनी पड़ती है। इन सभी खतरों के बीच उसे साहित्य की मशाल जलाए रखनी होती है।
रचना रचनाकार से माँग करती है जीवन, समाज और जनता के निकट रहने की, उनसे
कदम-कदम पर सीखने की, रचना के साथ घोर परिश्रम करने की, पठन पाठन की।'
इस संग्रह की एक और महत्वपूर्ण कहानी है 'आतिशदाने'। इस कहानी के पात्र जरीना
और डॉक्टर इकबाल दोनों शादीशुदा हैं। परिस्थितिवश दोनों के बीच स्नेह का ऐसा
विरवा होता है कि वे लोक लाज, कुल मर्यादा सबकुछ भूल कर आकंठ प्रेम में डूब
जाते हैं। लेकिन जब एक दिन डॉक्टर इकबाल जरीना के सामने निकाह का प्रस्ताव
रखते हैं तो जरीना साफ मना कर देती है। कम पढ़ी लिखी जरीना की बात सुनकर इकबाल
मियाँ अकबका जाते हैं। इसी कहानी की पंक्तियाँ हैं - 'जरीना की आवाज तनिक तल्ख
हो गई - ''फिर इस बात का भी क्या भरोसा कि तलाक के जिन तीन लफ्जों का इस्तेमाल
करके आप बेगम से छुटकारा पाकर मुझे अपनी बेगम बनाएँगे, उन्हीं तीन लफ्जों का
इस्तेमाल करके आप मुझसे निजात पाकर किसी और के आगोश और जुल्फों के घेरे में न
जा फँसेंगे? बेगम ने सही कहा है आपसे कि यकीन एक सख्त चट्टान है तो साथ ही साथ
रेत का ढूह भी, जिसे ढहते देर नहीं लगती। निकाह-विकाह भूल जाइए मियाँ! बेगम का
कोई कुसूर नहीं है। कुसूर तो आपका भी नहीं है और मेरा भी नहीं है। हम सभी
अपने-अपने जज्बातों के तहत सही हैं। मगर जज्बातों के ऊपर जो फर्ज होता है न,
वह हमेशा जज्बात से भारी होता है। मैंने अपनी मुहब्बत का फर्ज निभाते हुए अपने
मर्द को पुलिस के हवाले कर दिया और अब बीवी का फर्ज निभाने के लिए मैं वकील
करने जा रही हूँ। आपकी बेगम भी जज्बात और फर्ज दोनों ही पलड़ों से भारी हैं।
जरीना की परिपक्व दृष्टि के आगे पढ़े-लिखे इकबाल बहुत छोटे प्रतीत होते हैं।
विभा रानी की कहानियाँ सामाजिक अंतर्विरोधों की गहरी पहचान करती चलती है।
प्रेषणीयता के स्तर पर वे नए अर्थ देती हैं और मनुष्य के मन की अतल गहराइयों
से नए भावबोध खोज लाती हैं। संग्रह की कहानी 'भागो' का मुख्य पात्र
निम्नवर्गीय भिखारी मंगतू है जो भीख माँगते हुए भी तरह-तरह के सपने देखता है।
सपने देखने पर किसी का वश नहीं। लेकिन सपने और यथार्थ में अंतर है। कहानी का
अंत भयानक धमाके के साथ होता है जिसमें सबकुछ पटाखे की तरह उड़ जाता है। आतंक
का भयानक चेहरा पूरे समाज को आक्रांत करता है। क्या गरीब क्या अमीर सबके सब
इससे प्रभावित होते हैं। संग्रह की दो अन्य कहानियाँ हैं 'शापित' और 'माताजी
की महिमा' कमोवेश सत्य घटनाओं पर आधारित ये कहानियाँ देश के राजनीति में मँझे
हुए परिवारों की घटनाओं पर आधारित प्रतीत होती हैं। इनमें एक ओर कुत्सित
राजनीति का भयावह चेहरा है तो दूसरी ओर उसी राजनीति से जकड़ा हुआ समाज।
विभा रानी की पैनी दृष्टि अपने चारों ओर की हवा को सूँघती है और शब्दों के
माध्यम से रूपायित करती है। 'सुनंदा कहाँ गई', और 'लॉ ड्रीमलैंड' जैसी
कहानियाँ भी इस संग्रह में हैं जो महानगरीय विद्रूपताओं को चित्रित करती चलती
हैं। विभा रानी ने कहानियों के लेखन में नए शब्द गढ़ने की सार्थक प्रत्यन किया
है। आँधी का हू-हूपन, लैलागिरी, इमोशन ठूँसना, आँखों में बारिश फैली हुई थी,
जैसे बिंब एक नई इबारत लिखते दीखते हैं। यहाँ वीक्तोर श्क्लोव्स्की की
पंक्तियाँ सार्थक जान पड़ती हैं - भाषा और साहित्य के बीच वैसा ही संबंध है है
जैसा पुराने जमाने में हवा और पालदार पोत के मार्ग के बीच होता था। लेखक शैली
के पालों पर नियंत्रण बनाए रखता है। विभा रानी की कहानियाँ दरअसल आश्वस्ति की
कहानियाँ हैं और लेखिका अपनी साहित्य के नाव के पालों को सचमुच बड़ी कुशलता से
नियंत्रित करती चलती है।