वो शायद क़बूलीयत का लम्हा था। बादलों ने उसकी आवाज़ सुन ली थी। बेकसी और बेबसी
की फटी चादर ओढ़े वो मासूम रूह उस फ़िज़ा के दायरे में शायद अपनी आवाज़ की गूँज
सुनना चाहती थी। उसकी धीमी और मद्धम आवाज़ क़रीबी फ़ासलों तक को नापने के काबिल
तो ना थी फिर भी वो उस के इंतिज़ार में खड़ी थी।
फ़लक-बोस इमारतों के इस मीलों फैले शहर में किसी खुले मैदान का तसव्वुर भी
नहीं किया जा सकता था। शहर को देखकर ऐसा महसूस होता था जैसे सिकुड़ गया हो।
महदूद मैदान इसलिए मुहल्ले के बच्चे चौराहे पर अपने घरों के सामने उन
तंग-गलियों में जहाँ सूरज की रोशनी का गुज़र भी नहीं होता क्रिकेट और हाकी
खेलने पर मजबूर थे। हाँ! शहर में जगह जगह ऐसे ख़ाली प्लाट ज़रूर मौजूद थे जिनके
दौलतमंद मालिक इन प्लाटों पर या तो शॉपिंग माल बनवाने के मंसूबे बना रहे थे या
फिर उसकी क़ीमत बढ़ने का इंतज़ार कर रहे थे ताकि उन प्लाटों को दोगुनी या तीन
गुनी क़ीमत पर फ़रोख़्त करके अच्छा-ख़ासा मुनाफ़ा कमा सकें। ऐसी ही ख़ाली जगहों पर
अक्सर लोग जिनके पास साज़ो सामान ना था, झोपड़ी बना कर रहने लगे थे। वो रोज़ाना
सोने से पहले ये दुआ ज़रूर करते कि अगली सुबह प्लाट पर किसी इमारत की तामीर का
काम शुरू ना हो। ज़ाहिर है ऐसी सूरत में फिर उन्हें दर-ब-दर होना पड़ जाएगा।
नन्हीं ज़ुबेदा जिसकी बेवा माँ उसे ज़ीबो कह कर पुकारती थी इस किस्म के एक प्लाट
में साथ वाली छः मंज़िला इमारत के साये तले एक झुग्गी में रहती थी। ये प्लाट एक
सबकदोश कस्टम ऑफीसर का था। जो शायद प्लाट की क़ीमत में इज़ाफे़ का इंतज़ार कर रहा
था। ज़ीबो की उम्र उस वक़्त तक़रीबन छ-सात बरस की होगी। उसका बाप उसकी पैदाइश के
एक साल बाद ही चल बसा था। बाप की मौत के बाद आमदनी का सिलसिला बंद हुआ तो मकान
मालिक ने किराया ना मिलने की वजह से उन्हें घर से निकाल दिया था। वो बेचारी
मासूम ज़ीबो को सीने से लगाए कुछ अर्से तक दौर के रिश्तेदारों के यहाँ दिन
गुज़ारती रही लेकिन किसी रिश्तेदार ने उन्हें हफ़्ते या दो हफ़्ते से ज़्यादा
अपने घर में रखना गवारा नहीं किया। अपने शौहर की ज़िंदगी में ख़ुशहाल ज़िंदगी
गुज़ारने वाली औरत अब खुले आसमान के नीचे पनाह लेने पर मजबूर थी। उसने सबकदोश
कस्टम ऑफीसर के प्लाट से क़रीब छ मंज़िला इमारत के साये तले एक झुग्गी डाली और
ज़ीबो के साथ ज़िंदगी की तमाम आफ़तें झेलने के लिए तैयार हो गई। वो आस-पास की
कोठियों में जाकर मेहनत मज़दूरी करती और काम के बदले उनके घरों का बचा हुआ
खाना, उनकी उतरन और हर माह चंद रुपये के, इसी तरह ज़िंदगी के माह-ओ-साल गुज़रने
लगे। दूध पीती ज़ीबो अपने बचपन और उसकी माँ बुढ़ापे का सफ़र तै करते रहे। इस
दौरान कई बार मालिक ने माँ बेटी को प्लाट से दूर करने की सोची लेकिन शायद उसे
इस बात का यक़ीन हो गया था कि एक कमज़ोर सी औरत उसके प्लाट पर क्या क़ब्ज़ा करेगी
और प्लाट की चौकीदारी के लिए झोंपड़ी को प्लाट पर इस तरह क़ायम रहने दिया।
वो जुमा का दिन था। आसमान पर सुबह से गहरे बादल छाए हुए थे लेकिन इन बादलों से
बारिश का एक क़तरा भी नहीं गिरा था। इसी तरह चंद महीनों से ऐसे ही गहरे बादल
आसमान पर छाते और बस हल्की बूँदा-बाँदी होती लेकिन यहाँ ज़रूरत तो मूसलाधार
बारिश की थी। क़हत लोगों के लिए बेहस का मौज़ू बन चुका था। आज ज़ीबो की माँ को
बुख़ार था इस लिए वो काम पर ना जाकर अपनी खटिया में ही पड़ी रही। ज़ीबो झुग्गी के
सामने खेल रही थी। जुमे की नमाज़ के कुछ ही देर बाद लोगों का एक हुजूम प्लाट
में दाख़िल हुआ। हुजूम में शिरकत करने वालों की तादाद बहुत बड़ी थी। जिसमें हर
तरह के लोग शामिल थे। नन्हीं ज़ीबो ने लोगों के इस हुजूम को देखकर खेल बंद कर
दिया था और झुग्गी में अपनी लेटी हुई माँ के पास आ गई।
अम्माँ हमारे घर में बहुत से लोग आए हैं उसने मासूमियत से कहा।
बेटी ये लोग नमाज़ पढ़ने आए हैं, माँ ने जवाब दिया।
लेकिन ज़ीबो नमाज़ की रिवायत के बारे में कुछ नहीं जानती थी। उसके सवाल के जवाब
में माँ ने बताया कि ये लोग जब नमाज़ पढ़कर अल्लाह मियाँ से दुआ करेंगे तो बहुत
ज़ोर की बारिश होगी, जिससे ज़मीन सरसब्ज़ होकर अच्छी और ज़्यादा फ़सल देगी।
मुम्किन था कि ज़ीबो कोई और सवाल करती पर माँ ने उसे बाहर जाकर झुग्गी के सामने
खेलने को कहा। वो झुग्गी से बाहर ज़मीन पर बैठ गई जब ये लोग नमाज़ पढ़कर दुआ
करेंगे तो बहुत ज़ोर की बारिश होगी। माँ के कहे हुए अलफ़ाज़ उसके नन्हे ज़हन में
गूँजने लगे और फिर गुज़शता साल का वो दिन याद आ गया जब बहुत ज़ोर की बारिश हुई
थी और प्लाट का तमाम पानी उस की झुग्गी में भर गया था। दोनों माँ बेटी प्लाट
में जमा होने वाले और झुग्गी की सड़ी गली पुरानी छत से टपकते पानी में घंटों
भीगती रही थीं। उसके मासूम ज़हन पर एक ख़ौफ़ सा छा गया...। उसने ख़ौफ़-ज़दा
निगाहों से लोगों को देखा। मौलवी-साहब हाथ बुलंद कर के अल्लाह मियाँ से
ज़ोरदार बारिश की दुआ कर रहे थे और लोग आमीन आमीन कर रहे थे। नन्हीं ज़ीबो को
ना जाने क्या सूझी, उसने भी अपने नन्हे नन्हे हाथ फ़िज़ा में दुआ माँगने के
अंदाज़ में बुलंद कर दिए और दुआ की अल्लाह मियाँ बारिश मत करना, मैं और मेरी
माँ बारिश में भीग जाएँगे। आप जानते हैं कि अम्मी बहुत बीमार हैं। उनको अच्छी
सेहत दे दो। हम यहाँ से किसी महफ़ूज़ जगह चले जाएँगे और फिर सब के साथ बारिश की
दुआ माँगेंगे। अल्लाह मियाँ अभी बारिश मत करना।
क़बूलियत का वो लम्हा जैसे मासूम ज़ीबो की खुली हुई हथेलियों में सिमट आया था।
वो ख़ाली-ख़ाली आँखों से खुला में तकती रही और फिर झुग्गी की तरफ़ चल पड़ी। जब
नमाज़ पढ़ने वाले लोग दुआ कर चुके तो आहिस्ता-आहिस्ता मौसम बदलने लगा। ओ ग़जब!
ऊपर गहरे स्याह बादल थे। उन बादलों में दराड़ पड़ने लगी। कुछ देर में आसमान
बादलों से पूरी तरह साफ़ हो गया और सूरज पूरे आब-ओ-ताब के साथ अपनी तेज़ किरनें
बिखेरने लगा।