hindisamay head


अ+ अ-

कविता

नाभिनाल गड़ा है

मनोज तिवारी


पैदाइश गाँव का
शहर में अनफिट पड़ा हूँ
गाँव-देहात में ही नाभिनाल गड़ा है
हाँ भाई !
जो भी कहो
परंपरावादी या मनुवादी
पर मन से रहा जनवादी
तमगे सदृश अपनाया नहीं
आत्मसात किया जनवाद को
पढ़ना-पढ़ाना काम है
हारा नहीं कभी
न हुआ अधीन परिस्थितियों का
मस्तक ऊँचा रहा विपन्नता में
बह रहा रक्त जब कृषक का रगों में
तो क्यों हों अधीर?
देखा है पिता को
लड़ते हुए उस देव से
जो बना बैठा था विधाता फरेब से
टूट गया पर
डिगा नहीं वह अपनी टेव से
अब तुम्हीं बताओ
जब पिता पर पिता शिखर बन खड़ा है
मन में शौर्य बन अड़ा है
तो मैं बनूँ क्यों दीन अपने कर्म में
डटा रहूँगा यहीं रण में
निष्कर्ष निकले कुछ भी
इसकी चिंता हो मुझे क्यों?


End Text   End Text    End Text